यौनिकता

माता पिता का नियंत्रण_फास्ट फूड

क्या बगावत का मज़ा तभी है, जब कोई नियम तोड़ने के लिए हो?

अरूपे कैंटीन में एसिडिटी बढ़ाने वाले ज़िंगर बर्गर और तरह-तरह के रंग-बिरंगे पैकेज्ड फूड मिलते हैं, जो दौड़ते-भागते कॉलेज स्टुडेंट्स की भूख को मिटाने का काम करते हैं. मैं अपने स्वास्थ्य को लेकर थोड़ा-बहुत सजग रहने की कोशिश करती हूं, खासकर तब जब कोई मुझे देख रहा हो.

अवचेतन और यौनिकता शृंखला l भाग 2: कमी

मेरे लिए दिलो-दिमाग या अवचेतन (गाफिल), ये उन सारी हकीकतों का एक दायरा है, जिसे सीधे-सीधे न महसूस किया जा सकता है, न सोचा जा सकता है. इसे सीधे सुना, देखा या छुआ भी नहीं जा सकता. फिर भी यह एक ज़ोर है जो बहुत ही ताकतवर है, और जो निरंतर हर उस चीज़ पर असर करता है, जिसे हम महसूस करते हैं, सोचते हैं और समझते हैं.

यौनिकता में मज़ा और खतरा_मनोविश्लेषण

सर जो तेरा चकराए…यौनिकता और अवचेतन शृंखला l भाग 1: परिचय

हमारी ज़िंदगी में मज़ा और खतरा एक तरह से गड्ड-मड्ड है. ये हमारे भीतर भी है और आसपास भी. लज़ीज या नागवार- ये ज़िंदगी के पहलू हैं. ये हमें चौंकाते हैं. इस हैरानी को पहचानना, इसे समझना ज़रूरी है. आखिर मज़ा और खतरा इतने गहरे क्यों जुड़े हुए हैं? एक दूसरे में गुथे क्यों है? इसे समझने के लिए मैं अपनी ज़िंदगी के उदाहरणों को आपके साथ साझा करना चाहूंगी. मज़ा और खतरा के अलग-अलग होने या एक दूसरे के विपरित होने की समझ को चुनौती देते हैं.

हमारी देह हिंसा को कैसे देखती और महसूस करती है?

साल 2021 का ग्यारहवां महीना यानी नवंबर. इंदौर, मध्य प्रदेश का शहर. इंदौर में किसी मकान के एक कमरे में साथ बैठीं ग्यारह महिलाएं. कमरे में जिज्ञासा और घबराहट का एक मिश्रण था जो कमरे में बैठी महिलाओं के चेहरों पर भी झलक रहा था.

“खुद को एक कलाकार के रूप में देखती हूं और कला का मतलब भी तो खुद को शिक्षित करना ही है”

एजेंटस ऑफ़ इश्क के संदर्भ में मैं कहूंगी कि इसका ढांचा कलात्मक है जो कि ज्ञान या जानकारीपरक होने से कहीं ज़्यादा अहम है. लोगों को यह बताना कि आप जो हैं, आप वैसे ही रह सकते हैं, चीज़ें समझ नहीं आ रहीं, कन्फ्यूज़न है तो कोई बात नहीं ऐसा होता है और चलो हम इस पर बात करते हैं.

वह कौन सी भाषा है जिसमें हम सेक्स या सेक्स एजुकेशन के बारे में बात करते हैं?

पारोमिता वोहरा, एक पुरस्कृत फ़िल्म निर्माता और लेखक हैं. जेंडर, नारीवाद, शहरी जीवन, प्रेम, यौनिक इच्छाएं एवं पॉपुलर कल्चर जैसे विषयों पर पारोमिता ने कई डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों का निर्माण किया है जो न सिर्फ़ अपनी फॉर्म बल्कि अपने कंटेंट के लिए बहुत सराही एवं पसंद की जाती हैं. यहां, द थर्ड आई के साथ बातचीत में पारोमिता उस यात्रा के बारे में विस्तार से बता रही हैं जिसमें आगे चलकर एजेंट्स ऑफ़ इश्क की स्थापना हुई. पढ़िए बातचीत का पहला भाग.

“मुझे सभी औरतों से नफरत है”

डाक्यूमेंट्री फ़िल्म निर्माता एवं शोधार्थी हरजंत गिल, जिन्होनें भारतीय मर्दवाद (या मर्दानगी) पर कई डाक्यूमेंट्री फ़िल्में बनाई हैं, कहते हैं कि, “मर्दवाद के बारे में बात करते वक्त एक बड़ी चुनौती यह आती है कि आप इस बातचीत में मर्दों को शामिल करते हैं और वे यह नहीं समझ पाते कि उन्हें इस बातचीत में किधर जाना है या इस सवाल को कैसे समझना है…

क्या हो अगर आपका काम लड़कों और मर्दों को ‘बेहतर लड़के और मर्द’ बनना सिखाने का हो?

सामाजिक विकास के क्षेत्र में जेंडर पर होने वाले काम में पारम्परिक रूप से महिलाओं और लड़कियों को ही शामिल किया जाता रहा है. नब्बे के दशक के मध्य तक आने के बाद ही कुछ चुनिंदा गैर-सरकारी संगठनों ने जेंडर के मुद्दे पर लड़कों और पुरुषों के साथ काम करना शुरू किया.

ये दिल दीवाना भी और गुस्सा भी

मेरा चश्मा, मेरे रूल्स Ep 3: ये दिल दीवाना भी और गुस्सा भी

ज़ूम कॉल पर बातों-बातों में जब मुस्कान ने कहा, “हमारे यहां तो ये सब चलता ही नहीं है” तो हमें थोड़ा समय लगा यह समझने में कि मुस्कान यहां प्यार करने और साथ ही गुस्सा करने की बात कर रही है. शुभांगणी जो राजस्थान के केकरी ज़िले से जुड़ रही थी उसने मुस्कान की बातों को आगे बढ़ाते हुए कहा कि मुझे तो लगता है कि बड़ों के लिए हम फुटबॉल हैं!

मैं कब बढ़ी हुई

मेरा चश्मा, मेरे रूल्स Ep 2: मैं कब बढ़ी हुई?

साहिबा के लिए गूगल बाबा, ज्ञान का भंडार हैं जहां वो सुबह से लेकर शाम तक लगातार घूमती रहती है और मानसिक स्वास्थ्य से लेकर तरह-तरह की जानकारियों का हल ढूंढती रहती है. ज़ूम कॉल पर 18 साल की साहिबा खुद के बारे में और खुद का ध्यान रखने के बारे में इतनी बड़ी-बड़ी बातें करती है कि सभी उत्सुकता से उसकी बातों में डूबते रहते हैं. साहिबा की बातों में एक सवाल था जो लुके-छिपे ढंग से दिखाई दे रहा था – मैं कब बड़ी हुई?