
त्रिदेवी
मीना, एनी और नयनतारा – सेंट एग्निस कॉलेज में पढ़ने वाली तीन लड़कियां, तीन दोस्त – जो दुनिया को अपने कंधे पर उठाए नाचती फिरती हैं. वे दुनिया पर राज करती हैं, कम से कम अपने कॉलेज पर तो ज़रूर करती हैं! वे कॉलेज फेस्टिवल्स की जान हैं.
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मीना, एनी और नयनतारा – सेंट एग्निस कॉलेज में पढ़ने वाली तीन लड़कियां, तीन दोस्त – जो दुनिया को अपने कंधे पर उठाए नाचती फिरती हैं. वे दुनिया पर राज करती हैं, कम से कम अपने कॉलेज पर तो ज़रूर करती हैं! वे कॉलेज फेस्टिवल्स की जान हैं.
2005, में निरंतर संस्था ने केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) के आग्रह पर बच्चों की पाठ्य- पुस्तिकाओं को ‘जेंडर संवेदनशील’ बनाने का काम किया था. निरंतर संस्था द्वारा तैयार की गई किताबें 15 साल से भारतीय स्कूलों में पढ़ाई जा रही हैं. इस साल 2022 में इनमें से जाति पर कुछ पाठ्यक्रमों को हटा दिया गया है.
2022 में डॉ. भीमराव आम्बेडकर की 131वीं जयंती पर द थर्ड आई ने कुछ शिक्षकों से बात की और उनसे जाना कि शिक्षण कार्य से जुड़े होने पर सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में आम्बेडकर उन्हें कैसे प्रभावित करते हैं.
महिलाओं और किशोरियों के साथ उनकी साक्षरता पर काम करते हुए मुझे कुछ 20 साल से भी ज़्यादा समय हो गया है. चिट्ठी लेखन मुझे आज भी साक्षरता और शिक्षा कार्यक्रम की सीखने-सिखाने की पद्धति के रूप में एक महत्त्वपूर्ण साधन या टूल लगता है.
इस अंक में गौतम, हमसे अध्यापन कार्य की प्रक्रिया में क्रोध और उसकी बंदिशों पर चर्चा कर रहे हैं. गौतम का मानना है कि आनंद और उल्लास सीखने की प्रक्रिया में गहराई लाते हैं. गौतम भान, इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट (IIHS) में अध्यापन कार्य से जुड़े हैं.
सन् 2018 में, आईआईटी मुम्बई में माधवी ने एपीपीएससी की सदस्यता ली थी. वे सर्किल की गिनीचुनी महिला सदस्यों में से एक थीं. अभी वे पीएचडी कर रही हैं. वे समूह में शामिल हुईं क्योंकि अपने बीए के दिनों की तरह यहां भी कैंपस ऐक्टिविज़्म का हिस्सा बने रहना चाहती थीं…
यह भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) में सक्रिय छात्र समूहों पर तैयार की गई रिपोर्ट का एक अंश है. वह समूह जो कि प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थानों, विशेष रूप से इंजीनियरिंग संस्थानों में जाति आधारित भेदभाव के बारे में छात्रों को शिक्षित करने और उनमें जागरूकता पैदा करने का काम करते हैं.
हमारे पहले दो सत्र खेलकूद के साथ एक दूसरे को जानने की कोशिश थे. पहले सत्र में, बहुत सारे खेल खेलने के बाद जब हम बातचीत के लिए बैठे, तो टोली की एक 18 या उससे कम उम्र की लड़की ने झट से कहा कि इस सत्र ने उसे उसके बचपन की याद दिला दी.
उत्तर-प्रदेश के बांदा ज़िले से आई दो लड़कियां उमरा और कुलसुम, झोला उठाकर दिल्ली महानगर में ठसक से अपना रास्ता बनाती हुई चलती हैं. कैमरा उनके पीछे-पीछे चलता है. 28 मिनट की इस डॉक्यूमेंट्री फिल्म में वे सारी दकियानूसी बातें जो लड़कियों को अक्सर सुनने को मिलती हैं, कांच की तरह टूटकर गिरते हुए दिखाई देती हैं.