अवचेतन और यौनिकता शृंखला l भाग 3: तर्कसंगति की सीमाएं

दो और दो का जोड़ चार हमेशा कहां होता है?

चित्रांकन: मिया जोस (@linesbyjose)

यह हमारे ‘मज़ा और खतरा’ संस्करण के भीतर ‘अवचेतन और यौनिकता’ लेख शृंखला में प्रकाशित तीसरा लेख है. यह संबंधित विषय पर लेखक के शोध, उनके विचार और विश्लेषण पर आधारित है. पहले लेख में हमने जहां ‘ऐसा कैसे’ के बारे में जाना वहीं दूसरे लेख के ज़रिए ‘हमारी चाहतों और कमी’ के बीच के रिश्ते को समझने का प्रयास किया. यह लेख शृंखला मूल अवधारणाओं को सामने लाने का प्रयास करती है और सीखने-सिखाने के तरीकों को भी उभारने का काम करती है.

जब हम या हमारे दोस्त प्यार में लिए गलत फैसलों के लिए खुद को कोसते हैं, तो ऐसी हालत को हम अक्सर मनोविश्लेषक ब्रूस फिंक के ‘पुल पैराडाइम’ कहे जाने वाले नज़रिए से देखते हैं. प्रेम के किस्से इस तरह गढ़े गए हैं कि हम मान लेते हैं कि दूसरे शख्स में कुछ तो है जो हमें उनकी ओर “खींचता” है. इस ‘पुल पैराडाइम’ में, हम मानते हैं कि इसमें कशिश की खास भूमिका होती है, जो यह तय करती है कि हम किसके प्यार में पड़ेंगे या किसके प्रति आकर्षित होंगे.

हम प्यार को लेकर बेहद रोमांटिक ढंग से सोचने के आदी हैं, जिसके मुताबिक जिसे हम चाह रहे हैं उसमें वो खास गुण है जो उन्हें हमारे लिए एकदम सही जोड़ी बनाते हैं, वे गुण जो हमें बेकाबू ढंग से उनकी ओर खींचते हैं. यहां फिंक हमें इस नज़रिए को पूरी तरह पलटकर देखने का सुझाव देते हैं. वे हमें “पुल पैराडाइम” के बजाय ‘पुश पैराडाइम’ के बारे में सोचने की ओर धकेलते देते हैं. उनका कहना है कि हमारा अवचेतन हमें दूसरों की ओर धकेलता है, उस व्यक्ति के अपने खास वांछनीय गुणों के चलते नहीं, बल्कि इसलिए कि हमारा मन उस शख्स में कुछ ऐसा पाता है जो हमारी खुद की ज़रूरत को पूरा कर रहा है.

हमने पहले जिन सर्वे का जिक्र किया है, उनके जवाबदाता “पुल पैराडाइम” पर फिंक के सवालों को ही तवज्जो देते हैं. उनमें से कई इस बात से हैरान थे कि वे किसके प्यार में पड़ गए! क्योंकि उनका आकर्षण उस व्यक्ति के भीतर उसके किसी आकर्षित करने वाले गुण या कशिश के बारे में नहीं था. एक जवाबदाता ने सोचा कि कितना ही बेहतर होता कि वह अपने लिए एक ऐसी छवि चुन पाती जो प्यार के मामलों में उसके लिए “स्वस्थ” ढंग से फैसले ले सकती. शायद इस जवाब के पीछे ही ‘पुश पैराडाइम’ के सुराग छिपे हैं.

गीता, जो विषमलैंगिक महिला की पहचान रखती हैं, उन्होंने लिखा:

“मैं एक आदमी के प्यार में पड़ गई और पीछे मुड़कर देखती हूं तो अब मुझे हैरानी होती है जो तब नहीं थी. वो कितना घटिया इंसान था और मेरे साथ उतना ही घटिया बर्ताव करता था. मगर मैं पूरी तरह प्यार में थी और उससे बाहर निकलने के बारे में सोच भी नहीं सकती थी. दोस्तों ने मुझे बताया कि वह मेरे साथ खेल रहा है, पर मैं किसी की भी कोई बात सुनने को राज़ी नहीं थी. यह सब ऑनलाइन चैटिंग से शुरू हुआ और कुछ ही घंटों में यह काम भावनाओं से भरे ऑनलाइन सेक्स तक पहुंच गया. पर, अब जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूं, तो लगता है कि मैं ऐसे आदमी से कैसे प्यार कर सकती थी?! (मेरे दोस्तों ने) कहा कि वे समझ नहीं पा रहे थे कि मैंने उसमें क्या देखा, वो मेरा इस्तेमाल कर रहा था, उसकी ज़ुबान की कोई कीमत नहीं थी और वो मुझे बेवकूफ बना रहा था. उनका कहना था कि मुझे इसका मज़ा लेना चाहिए था, न कि उसके पीछे पागल हो जाना था लेकिन इन सारी नसीहतों का कोई असर नहीं हुआ.

#ऐसा कैसे है कि मैं एक ऐसे शख्स के प्यार में पड़ गई जो मेरे लिए एकदम गलत था?”

किस हद तक हम ये ‘चुनाव’ करते हैं कि हम किसके प्यार में पड़ेंगे?

‘स्वतंत्र रूप से चुनाव’ इस अवधारणा की आलोचना पहले से ही हो चुकी है जिसमें हम वर्ग, जाति, जेंडर, क्षमता और सामाजिक-आर्थिक कारकों के असर को देखते हैं. तयशुदा कायदों को बनाए रखने के साथ जो विशेष अधिकार के वादे और सज़ा का डर आते हैं, वे इस नव-उदारवादी स्वतंत्र चुनाव की सोच की धज्जिया उड़ाते हैं.

जब हम ऐसे चुनाव करते हैं जो कायदों के खिलाफ जाते हैं तो कई तरह से हमें दंडित किया जाता है. कायदे निरंतर इस कोशिश में जुटे रहते हैं कि किस तरह हमारा साथी समान जाति, वर्ग, धर्म, विपरीत जेंडर वगैरह का हो. अगर ऐसा नहीं होता है तो फिर अलग-अलग तरीकों से हमें सज़ा दी जाती है जैसे, सामाजिक इज़्ज़त का नुकसान, जायदाद से बेदखली, और शारीरिक हिंसा.

वहीं दूसरी तरफ तयशुदा मानकों को मानने पर जो इनाम हमें मिलते हैं उसमें परिवार और समुदाय में शामिल होना, संयुक्त रूप से परिवार की जायदाद में हिस्सा और कानूनी सुरक्षा शामिल हो सकते हैं. इन दोनों संभावित नतीजों – इनाम या सज़ा – के बारे में जानकारी, हमारे चुनावों पर असर करती है.

और इस मिश्रण में अगर हम, हमारे अवचेतन एवं इसके अनदेखे धक्के और खिंचाव (पुश और पुल) को भी जोड़ दें और इन सब को एक साथ रख दें तो इन विचारों जैसे - स्वतंत्र इच्छा, स्वायत्तता और संज्ञानात्मक तर्क के आधार पर विकल्पों की सीमाएं दिखाई देने लगती हैं.

गीता की बातों में हम इसकी झलक साफ देख सकते हैं. जब वह अपने प्रेमी को लेकर अपने दोस्तों की राय के बारे में बताती है कि उसका प्रेमी “न तो देखने में सुंदर था और न ही दिमागवाला था”. पर गीता का कहना था कि “वे समझ ही नहीं पाए कि मैंने उसमें क्या देखा.” हालांकि, ये जो – संज्ञानात्मक तर्क के आधार पर चीज़ों को समझने की क्रिया है – वह ठीक वही चीज़ है जो वे नहीं कर सकते थे. ऐसा इसलिए क्योंकि आकर्षण इस बात से नहीं था कि गीता ने उसमें क्या “देखा”, बल्कि यह था कि गीता के भीतर क्या था जिसने गीता को उसकी ओर धकेला.

जैक्स लैकन के अनुसार, वह ‘कुछ’ जो हमें दूसरों की ओर धकेलता है, यह वो ‘वो खोई वस्तु’ (लॉस्ट ऑब्जेक्ट) है, जिसके बारे में हमने इस श्रृंखला के दूसरे भाग में बात की थी, जहां हमने चाहतों में कमी की भूमिका पर चर्चा की थी.

#’मैं इस रिश्ते से बाहर क्यों नहीं निकल पा रही हूं, जबकि यह मुझे नुकसान पहुंचा रहा है?’

इस सर्वे में शामिल लोग न केवल इस बात से हैरत में थे कि कैसे वे किसी गलत व्यक्ति के प्यार में पड़ सकते हैं, बल्कि वे इस बात से भी खासे आश्चर्यचकित थे कि वे उस रिश्ते से बाहर निकलने में नाकाबिल थे जिसे वे (अपने तर्कसंगत, संज्ञानात्मक दिमाग में) गलत मानते थे. दोस्तों की सलाह के बावजूद, कई लोगों ने कहा कि वे उन रिश्तों में बने रहने की मजबूरी महसूस करते थे जो उनके लिए हानिकारक थे.

ब्रुस फिंक, मनोविश्लेषक अपने काम के आधार पर इसे – गलत व्यक्ति के साथ रिश्ते से बाहर निकलने में नाकाबिल – को एक खूंटी के रूप में देखते हैं. इसे समझाते हुए वह कहते हैं, कोई व्यक्ति “शुरुआत में दावा कर सकता है कि वह अपने लक्षणों से छुटकारा पाना चाहता है,” पर वो उन्हें छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता. यह लक्षणों की एक ज़रूरी विशेषता है; वे किसी न किसी तरह की संतुष्टि देते हैं, भले ही यह बाहरी देखने वालों के लिए या उस व्यक्ति के लिए स्पष्ट न हो जो इन लक्षणों से जूझ रहा हो.

"किसी स्तर पर, व्यक्ति अपने लक्षणों का मज़ा लेने लगता है."

प्रेम के इर्द-गिर्द की हैरानी हमें तर्कसंगति की सीमाओं को देखने के लिए मजबूर करती है. गलत साथी को चुनने या हानिकारक रिश्तों को छोड़ने में कठिनाई के लिए यहां दिए गए स्पष्टीकरण ऐसे हैं जिनके लिए वर्तमान तर्कसंगति के ढांचे में बहुत कम गुंजाइश है. एक ऐसी दुनिया में जहां तर्कसंगत विकल्प वह होता है जो ज़्यादा से ज़्यादा हमारे स्वार्थ को पूरा करता है, उस साथी को चुनना जो हमें खासकर पीड़ा देगा, शायद ही तर्कसंगत लगता है, पर फिर भी ऐसा होता है.

***

प्रेम के दायरे से अब चलें सेक्स की ओर और खासकर यौन चाहतों की ओर. यहां सर्वेक्षण के कुछ जवाब पेश हैं जो यौन चाहतों और उनके इर्दगिर्द की भावनाओं के बारे में हैं.

जवाबदाता ‘ए’ ने अपनी खुद की पहचान एक महिला के रूप में ज़ाहिर की और कहा कि वह अभी भी अपनी यौनिकता को समझने की कोशिश कर रही है. उन्होंने खुद को “नोएडा के उप-नगरीय क्षेत्र की 20 साल की लड़की” बताया. आगे कहा,

“[…] मैं अपने गांव की उन कुछ लड़कियों में से हूं जिन्हें अकेले कॉलेज जाने की इजाज़त रही. मेरे समुदाय में अभी भी लड़कों को वरीयता दी जाती है, लड़कियों को ‘इज़्ज़त’ [समुदाय की मर्यादा की रक्षक] माना जाता है और उन पर कई बंदिशे हैं. मुझे लगता है कि मैं अपने समुदाय के इन रीति-रिवाजों के खिलाफ लड़ रही हूं.”

अपनी यौन चाहतों के बारे में बताते हुए, वह कहती हैं,

“मेरी सबसे बड़ी यौन चाहत एक लड़की के साथ सेक्स करने की है. मैं भी एक लड़की हूं… मुझे इसके बारे में सोचना अच्छा लगता है, [एक लड़की के शरीर को टटोलने का ख्याल] … जिस तरह मुझे अपने शरीर को छूना पसंद है… मैंने यह किसी को नहीं बताया क्योंकि मुझे ‘लेस्बियन’ या ‘बाइसेक्सुअल’ का लेबल लगने का डर है… मुझे लेस्बियन पोर्न देखना बहुत पसंद है. इसलिए, जब भी मैं किसी लड़की के साथ सेक्स की चाहत करती हूं, यह वास्तव में मुझे मेरी यौनिकता पर सवाल उठाने के लिए मजबूर करता है, क्योंकि मुझे समझ नहीं आता कि क्या यह चाहत मुझे लेस्बियन या बाइसेक्सुअल बनाती है. हालांकि मैं आमतौर पर महिलाओं के प्रति आकर्षित नहीं हूं, पिछले एक साल से मेरी यह चाहत है.”

जवाबदाता ‘बी’ भी महिला की पहचान रखती हैं, जो महानगर में रहती हैं और विवाहित हैं. अपनी यौन चाहतों के बारे में वह कहती हैं,

“किसी दूसरी महिला के साथ सेक्स, यह विचार ही बहुत रोमांचक है. बस उत्सुकता और उत्तेजना है क्योंकि मैं पुरुषों की इच्छाओं और ज़रूरतों की तुलना में महिलाओं की इच्छाओं और ज़रूरतों से ज़्यादा जुड़ाव महसूस करती हूं. [मुझे] फ़िल्म या टीवी शो में महिलाओं को अंतरंग होते देखना उत्तेजित करता है. [मैंने इसे] आज़माया नहीं क्योंकि मौका नहीं मिला… [मुझे] डर है कि मुझे कैसा लगेगा… [मुझे लेस्बियन पोर्न] सामान्य पोर्न की तुलना में ज़्यादा रोमांचक लगता है.”

जवाबदाता ‘सी’ की पैदाइश एक महिला की पहचान के साथ हुई, लेकिन उन्हें खुद को “महिला के रूप में देखना” मुश्किल लगता है. वे (स्त्री-पुरूष के खांचों से अलग अपनी खुद की पहचान रखने वाले) अपने आपको “बाई और पैनसेक्सुअल” की पहचान के साथ जोड़ते हैं. अपनी यौन चाहतों का ज़िक्र करते हुए वे कहते हैं,

“हमारी सबसे गंदी चाहत कई पुरुषों के साथ होने की है… यह सब सहमति से है… कभी-कभी, हम इस चाहत का इस्तेमाल अपनी महिला पार्टनर के साथ और ज़्यादा उत्तेजित होने के लिए करते हैं… लेकिन उसे यह नहीं पता, और हम भी हमेशा ऐसा नहीं करते… यह हम दोनों के समलैंगिक और एकलैंगिक यौन संबंध के लिए थोड़ा विश्वासघात जैसा लगता है… और हमें लगता है कि यह “दुश्मन” के साथ सोने जैसा है, क्योंकि हम एक क्वीयर-पहचान वाली महिला हैं.”

जवाबदाता ‘डी’ एक महिला हैं. वे लेस्बियन हैं. शहर में रहती हैं, अंग्रेज़ी बोलती हैं और विदेश में पढ़ी-लिखी हैं. वे अपनी यौन चाहतों के बारे में लिखती हैं”,

… बंधन की स्थिति (यौन सुख में रस्सी से बांधे जाने पर होने वाली उत्तेजना को बीडीएसएम में बंधन की स्थिति कहते हैं). हालांकि मैं आमतौर पर खुद को लेस्बियन के रूप में सोचती हूं, लेकिन मुझे विषमलैंगिक बंधन उत्तेजित करता है. मैं अक्सर इसे अपने दिमाग में बुनती हूं ताकि चरमोत्कर्ष तक पहुंच सकूं. मुझे सबसे ज़्यादा परेशानी इस बात से है कि यह एक ऐसी स्थिति है जो मुझे बहुत उत्तेजित करती है, लेकिन असल में, मैं पुरुषों के साथ यौन संबंध नहीं बनाना चाहूंगी… मैंने इस चाहत को असल ज़िंदगी में कभी नहीं आज़माया. [मुझे] इसे आज़माने की इच्छा नहीं हुई.”

यौनिक चाहतों और फंतासियों को लेकर भावनाओं की एक पूरी लंबी फेहरिस्त हो सकती है. फिर चाहे वो किसी और की चाहतों के बारे में हो, या अपनी खुद की. हर चाहत हर व्यक्ति में कुछ अलग पैदा कर सकती है, लेकिन हम इस बात पर व्यापक रूप से सहमत हो सकते हैं कि इन चाहतों में एक तरह की ‘ऊर्जा’ होती है. और अक्सर ये कुछ मज़बूत भावनाएं जगाती हैं.

यौन चाहतों या फंतासियों को ये ऊर्जा क्या देती है? ब्रूस फिंक के दो साधारण शब्दों में - "मनाही, कामुकता जगाती है."

निश्चित रूप से, आपने देखा होगा कि ऊपर ज़िक्र की गई हर चाहत उन यौनिकता के मानकों को तोड़ती है जो जवाबदाताओं के समाज के लिए ज़रूरी हैं. पहली दो चाहतें पितृसत्तात्मक समाजों के मानकों को लांघती हैं, जहां औरतों को बमुश्किल अपनी इच्छाएं रखने की इजाज़त होती है, यौन इच्छाएं तो बहुत दूर की बात है. एक ऐसे समाज में जहां मर्दो के साथ सेक्स करना ही कायदा है, वहां महिलाओं के लिए किसी महिला के साथ सेक्स का विचार एक कामुक आवेश पैदा करता है. अगली दो चाहतों में, क्वीयर जवाबदाता बताते हैं कि कैसे मर्दों को देखकर उनके भीतर काम भावना तो जागती है, लेकिन वे औरतों के साथ रहने की इच्छा रखते हैं और उनके साथ रिश्तों में हैं या रहे हैं.

जैसा कि मैंने कहा, यह मुमकिन है कि ऊपर हमने जो कुछ पढ़ा उससे हममें से हर किसी में कई भावनाएं जगी हों. लेकिन एक भावना जिसपर मैं ध्यान देना चाहती हूं, वह है – इसमें ‘कुछ ठीक नहीं है’ की भावना, न केवल ऊपर सूचीबद्ध चाहतों में, बल्कि उन चाहतों में भी जो हमारी खुद की हों या दूसरों से सुनी हों. यह नहीं कि यौन चाहतें इसके बावजूद मौजूद है, कि वे ठीक नहीं हैं, बल्कि यह ऊर्जा ठीक उन्हीं वर्जनाओं को छूने से उभरती है जो उन्हें ‘ठीक नहीं’ बनाती हैं. यही वर्जनाएं हमें कामुक आवेश देती हैं. यही हमें उत्तेजित करती हैं. हमारी चाहतें ‘ठीक नहीं’ के साथ बंधी हुई हैं.

अगर हम यह पहचान लें कि हमारी चाहतें ‘ठीक नहीं’ के साथ बंधी हुई हैं, और ये केवल मेरी निजी चाहत नहीं है, ये यौन चाहतों की प्रकृति ही है. तब हम एक गहरे ठीक होने की भावना को महसूस कर सकते हैं.

यह असल में एक ठोस सबूत है कि अवचेतन केवल कोई निजी अनुभव नहीं है, बल्कि एक सामूहिक अनुभव भी है.

यौन वर्जनाओं की हमारी चर्चा में, यह याद दिलाना ज़रूरी है कि वर्जनाएं या मनाही संदर्भ आधारित होती हैं. वैश्विक उत्तर या पश्चिमी देशों में मेट्रो में चुंबन शायद एक सामान्य घटना होगी, कम से कम उन लोगों के लिए जो विपरीत जेंडर, एक ही नस्ल, सक्षम-शारीरिक और एक ही पीढ़ी के हैं, लेकिन भारत में एक विषमलैंगिक जोड़े का मेट्रो में गले लगना भी उनके लिए पिटाई का सबब बन सकता है. यह एक खतरनाक फंतासी है. वर्जनाओं का समय और स्थान विशेष होना यह सबूत है कि उनमें एक सामूहिक आयाम है. और उनके उल्लंघन में भी एक ऊर्जा है जो सामूहिक है.

जो नहीं करना है, जिनकी मनाही है वही हमें क्यों उत्तेजित करती हैं? मनोविश्लेषण इसका एक स्पष्टीकरण देता है. इसे समझने के लिए, शैशवावस्था में लौटते हैं. जन्म के तुरंत बाद, जैसे ही शिशु अपने नए शरीर की रूपरेखा को खोजता है, कुछ समय के लिए शिशु को अपने और दूसरों के शरीर का जैसा चाहे वैसा आनंद लेने की स्वतंत्रता होती है. उदाहरण के लिए, वह जब चाहे मल-मूत्र त्याग सकता है, जैसे चाहे खुद को छू सकता है, और मां के स्तन तक उसकी पहुंच होती है. फ्रायड के अनुसार, शिशु ‘बहुरूपी विकृत’ (पॉलिमॉर्फसली परवर्स) होते हैं, और इसलिए वे शरीर के सभी हिस्सों से यौन सुख का अनुभव करने में सक्षम होते हैं, न कि केवल कामोत्तेजक अंगों से.

शैशवावस्था से बचपन में प्रवेश के साथ ‘नहीं’ की शुरुआत होती है, मनाही की. अपने मल, मूत्र, जननांगों या अपनी मां के स्तनों को छूने की मनाही. बड़े होने का मतलब था कि कई बंदिशों का सामना करना, कि हम किन वस्तुओं को और अपने या दूसरों के शरीर के किन हिस्सों को छू सकते हैं और मज़ा ले सकते हैं. मनोविश्लेषक ब्रूस फिंक बताते हैं, “बच्चे की ‘शिक्षा’ के दौरान, उसके माता-पिता उसपर कई कुर्बानियां थोपते हैं: खाने और निकालने की तत्काल संतुष्टि को रोक दिया जाता है या सज़ा दी जाती है, और आत्म-कामुक व्यवहार को धीरे-धीरे हतोत्साहित किया जाता है. उदाहरण के लिए, अंगूठा चूसना, जो पहले बर्दाश्त किया जाता है, आखिरकार हतोत्साहित या दंडित किया जाता है; सार्वजनिक जगहों पर अपने जननांगों को छूने की शायद शिशु को इजाज़त हो, स्कूल के बच्चे के लिए निषिद्ध है; और इसी तरह की और तरह की बातें, आदि. “

जब शिशु के अपने शरीर के सभी हिस्सों और सभी उपलब्ध वस्तुओं से आनंद का अनुभव सीमित कर दिया जाता है, तो एक ‘मूलभूत नुकसान’ जिसे फ्रायड ‘संतुष्टि’ कहते हैं हम पर थोपा जाता है. (फ्रायड के अनुसार, “मूलभूत नुकसान” वह अपरिहार्य बाधा है जो हमारी प्रवृत्ति को पूर्ण संतुष्टि से रोकती है, और यह नुकसान ही हमारे विकास को प्रेरित करता है. इस “नुकसान” को ही वे अप्रत्यक्ष रूप से संतुष्टि का कारण मानते हैं, क्योंकि यह हमारी प्रवृत्तियों को पूर्ण संतुष्टि से रोककर उन्हें उच्चतर रूपों और विकास की ओर ले जाता है.) फिंक कहते हैं कि इस तरह के संतुष्टि के नुकसान से निपटना मुश्किल है, हम कुछ हद तक इसे फिर से पाने की कोशिश करते हैं, बाधाओं को पार करके और मनाहियों को लांघ कर अपने सुख को बढ़ाने की कोशिश करते हैं.

असल में, मनाही और कामुकता का खेल ऐसा है कि, फिंक के शब्दों में, “मनाही जितनी मज़बूत होती है, उस काम को करना उतना ही ज़्यादा यौन सुख या आवेग महसूस कराता है.” जैसा मार्की डी साद का कहना है – अपनी इच्छाओं को बढ़ाने और गुणा करने का सबसे अच्छा तरीका उन्हें सीमित करने की कोशिश करना है.”

मनाही की यौन इच्छा में कारणात्मक भूमिका के बारे में फ्रांसीसी दार्शनिक और लेखक जॉर्ज बटैल ने अपनी किताब एरोटिज़्म: डेथ एंड सेंसुअलिटी में लिखा है. बटैल लिखते हैं कि मानव समाजों में सुख के निर्माण में वर्जनाओं की भूमिका ऐसी है जो हमें जानवरों से अलग करती है. वहीं बटैल की किताब के परिचय में कॉलिन लिखते हैं, “बटैल के लिए, यौन संतुष्टि वर्जनाओं के तोड़ने में निहित है, ये सोच कि यौन संतुष्टि वर्जनाओं के नष्ट होने में निहित है – ये एक अंतर्विरोध है. क्योंकि कामुकता का सुख वर्जना तोड़ने का सुख है – कोई वर्जना नहीं, कोई इच्छा नहीं.” यह इस धारणा को चुनौती देता है कि यौन इच्छा की मुक्ति में वर्जनाओं का विनाश शामिल है. बिना वर्जनाओं के यौन इच्छा ही नहीं होगी! दूसरे शब्दों में, वर्जनाएं सुख को खत्म नहीं करतीं. असल में, उनके उल्लंघन के ज़रिए, वर्जनाएं ही सुख को मुनासिब बनाती हैं. यानी मनाही के बावजूद नहीं, बल्कि उनसे ही हमारी इच्छाएं पैदा होती हैं.

मनोविश्लेषण की उलट-पुलट प्रकृति के अनुरूप, “कोई वर्जना नहीं, कोई इच्छा नहीं” का संक्षिप्त विचार हमारे और हमारे आसपास की ज़िंदगी की हकीकत को ज़ाहिर करता है. बतौर एक यौनिकता शिक्षक, मेरे लिए यह अपने अनुभवों को समझने में मदद करता है. ग्रामीण महिलाओं और छोटे शहरों के कार्यकर्ताओं के साथ कार्यशालाओं में, एक बार जब झिझक कम हो जाती है, तो यौन इच्छाओं की बातचीत बहुत ज़्यादा खुली हो सकती है, मसालेदार हो सकती है. इसके उलट, महानगरों के युवा इंस्टाग्रामर्स (उम्रवाद का जोखिम उठाते हुए), विशेष रूप से उम्र के बीसवें पड़ाव पर, सेक्स के प्रति उदासीनता या यौन तीव्रता के प्रति दुविधा दिखाते हैं. जहां बहुत कम मनाही है, वहां चाहतें भी कम हैं, इसे समझा जा सकता है. और यही वजह है कि विश्व के स्तर पर इस उम्र के लोगों के बीच इस तरह की प्रवृत्ति देखने को मिलती है. ये सब कहने के बावजूद, फिर भी “यह जटिल है.”

तर्कसंगति की सीमाओं की इस खोज में, हमने मनोविश्लेषण की दो अवधारणाओं – “पुश न की पुल” और “मनाही कामुकता पैदा करती है” – का इस्तेमाल उन सवालों से जूझने के लिए किया है, जो हमें प्रेम में हैरान करते हैं. चाहे वह प्रेम में ‘पड़ना’ हो या प्रेम से बाहर ‘निकलना’ – हम प्रेम के रिश्तों में कैसे आते हैं या छोड़ते हैं? और दूसरे जीवंत विरोधाभास. मेरी चाहतें मेरे मूल्यों के उलट क्यों हैं? सेक्स की इजाज़त के बावजूद इच्छा क्यों कम है? और उन सवालों तक जो हमें उदारवादी या प्रगतिशील व्यक्ति के रूप में पहचान करने वालों को हैरान करते हैं – हम अपनी राजनीति के बावजूद एक-दूसरे के प्रति इतने आक्रामक कैसे हो सकते हैं?

ऐसी हैरानी को कम करना जरूरी है: न कि हानिकारक प्रेम स्थितियों को जारी रखना, गैर-सहमति से चाहतों को आज़माना, या उदारवादी या प्रगतिशील राजनीति के भीतर अन्याय को सहन करना. हैरानी को कम करना ज़रूरी है क्योंकि “गलत” इच्छाओं, विकल्पों या व्यवहार के लिए खुद को या एक-दूसरे को फटकारना एक हद से ज़्यादा मदद नहीं करता.

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इस लेख का अनुवाद पारिजात ने किया है.

  • जया शर्मा, एक नारीवादी, क्वीयर, किंकी कार्यकर्ता और लेखक हैं. जया ने, जेंडर और शिक्षा से जुड़े मुद्दे पर निरंतर संस्था के साथ लगभग दो दशक से भी अधिक समय तक काम किया है. इस दौरान वे ग्रामीण महिलाओं के साथ काम करने वाले संगठनों के लिए यौनिकता विषय पर ट्रेनिंग के काम से गहराई से जुड़ी रहीं. एक क्वीयर कार्यकर्ता के रूप में उन्होंने दिल्ली में कई तरह के क्वीयर मंचों की शुरुआत की. वे वॉइसेज़ अगेंस्ट 377 नामक समूह की सह-संस्थापक हैं. जया, किंकी कलेक्टिव (Kinky Collective) की संस्थापक सदस्यों में से एक हैं – यह एक ऐसा समूह है जो बीडीएसएम (BDSM) से जुड़ी जानकारी फैलाने और उस समुदाय को मज़बूत करने का काम करता है. वर्तमान में, जया सेक्सुअलिटी को अवचेतन (psyche) के नज़रिए से समझने और उस पर लेखनी करने की कोशिश कर रही हैं.

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