सिनेमा में, कामकाजी महिलाएं अक्सर शर्म और गर्व की दोधारी तलवार को संभालती नज़र आती हैं. उन्हें क्या काम करना चाहिए या क्या नहीं करना चाहिए?
हमने दो फिल्में ली हैं जो औरत और काम पर हैं – हम उन्हें यहां एक साथ ला रहे हैं ताकि उन सब चीज़ों की छानबीन की जा सके जो हमारे काम के अनुभव से जुड़ी हुई हैं. जिनसे हमें यह पता चल सके कि जब हम बाहर काम पर जाते हैं, तब कौन सी बातें हैं जो हमें उस समय परेशान या आनंदित करती हैं?
सहयोग: श्रृजा.यू और नमृता मिश्रा
इंडिया कैबरे (1985)
मीरा नायर
60 मिनट
मीरा नायर की डॉक्युमेंट्री फिल्म ‘इंडिया कैबरे’ बार डांसरों पर है मगर सिर्फ उन्हीं पर नहीं है. हालांकी ये काफी कुछ इस बात पर केंद्रित है कि क्या होता है जब, 1980 के दशक में, आप अपनी मर्ज़ी से या हालातों की वजह से अपने आप को एक बार में डांस करता पाते हैं?
यह फिल्म ऐसे समय पर आई जब यौन कर्म की तरह ही, एक व्यवसाय के रूप में बार डांसरों की शहरों में मांग तो थी मगर इस काम को नीची निगाह से देखा जाता था. ‘इंडिया कैबरे’ ने मुश्किल से प्राप्त की आज़ादी की खुशी और उस शर्म को अलग-अलग करके दिखाने का असाधारण काम किया जो अक्सर इस आज़ादी के साथ आती है.
नायर एक नाज़ुक समय पर इस फिल्म में पूछती हैं “क्या आपको शर्म का अहसास होता है?” “जब मैं रात में बाहर जाती हूं, कभी-कभी मेरा कोई ग्राहक मुझे देख लेता है और बोलता है, ‘देखो, नंगी डांसिंग गर्ल जा रही है, वो रंडी’. मैं बोलती हूं, ‘तेरी मां की *****, स्टेज पर तो तूने मेरा मज़ा लिया, अब ये बोल रहा है?’ उस वक़्त मुझे शर्म आती है,” एक डांसर बताती है.
लेकिन वहीँ दूसरी डांसर का कहना बिलकुल उलट है. वह कहती है, “अगर कोई मुझे ऐसा बोलेगा तो मैं कहुंगी, ‘ये मेरा पता है. आज रात मुझसे मिलने आ.’ अगर हम शर्म की बात करेंगी, तो काम कैसे करेंगी? और अगर काम नहीं करेंगी, तो पैसा कैसे कमाएंगी? इसलिए ऐसी जगहों पर शर्म जैसा कुछ नहीं होता,” “अगर देखने वाले को शर्म नहीं आ रही तो जिसे देखा जा रहा है उसे भी शर्म क्यों आए?”
नायर फिल्म में बार डांसरों की कहानी के साथ-साथ उस औरत की कहानी भी चलाती हैं जिसका पति नियमित रूप से बार आता है और जो उनका ग्राहक भी है. इस तरह सार्वजनिक औरत व घरेलू औरत या बुरी औरत व अच्छी औरत एक साथ आ जाती हैं और हमें इस सवाल की व्याख्या करने में मदद करती हैं कि आज़ाद है कौन?
‘जूस’ (2017)
नीरज घेवाण
15 मिनट
‘जूस’ एक लघु फिल्म है जिसे नीरज घेवाण ने निर्देशित किया है. नीरज को उनकी पुरस्कार विजेता फिल्म ‘मसान’ के लिए जाना जाता है. ‘जूस’ फिल्म में हम घर को एक ऐसी जगह के रूप मे देख पाते हैं जहां श्रम ज़्यादातर छिपा रहता है. इसमें रसोई और बैठक (लिविंग रूम) एक दूसरे के विपरीत, असमान ताकतों के रूप में हमारे सामने आते हैं.
इस फिल्म में मुंबई के एक मध्यम वर्गीय घर में डिनर पार्टी दिखाई गई है. सभी मर्द कूलर की ठंडी हवा में बैठक में बैठे हैं और राजनीति पर चर्चा कर रहे हैं (वे अमेरिका मे होने वाले हिलेरी क्लिंटन और डोनाल्ड ट्रम्प के बीच चुनाव की बात कर रहे हैं और चर्चा कर रहे हैं कि कैसे क्लिंटन का हारना निश्चित ही है). रसोई से औरतों के काबिल हाथों में तरह-तरह के पकवान प्रकट होते रहते हैं.
सभी पत्नियां रसोई में जमा हैं जिसमें बहुत गर्मी है. वे खाना पका रही हैं, सफाई कर रही हैं और एक-दूसरे से बातें कर रही हैं – गर्भवती होने के बारे में. और ये भी कि कैसे बच्चा होने के बाद उनकी ज़िंदगी पूरी तरह से बदल जाएगी. दोनों ही जगहों के दृश्य एक-दूसरे से कितने अलग हैं ये चीज़ हमारे सामने आती है, छोटे-छोटे निर्मम विवरणों में : प्रेशर कूकर की आवाज़, ग्लास में बर्फ गिरने की आवाज़, पसीना टपकने की आवाज़, चुपचाप काम करती शेफाली शाह के क्लोज़ अप.
वो दृश्य जिसमें बेडरूम में बैठे बच्चों में से सिर्फ लड़की ही खाने की थाली लेकर जाती है और बाकी लड़कों के सामने लगाती है इस ओर इशारा करता है कि यही सिलसिला आगे के वंश में भी चलेगा।
फिल्म का अंतिम दृश्य अदृश्यता का अंत दिखाता है. जब मंजु कुर्सी खींच कर, जूस का गिलास हाथ में लेकर कूलर के पास, मर्दों के सामने बैठती है तो हमें वो मर्द घबराए तो दिखते ही हैं, साथ ही हम कूलर की ठंडक के लिए भगवान का शुक्र भी अदा करते हैं.
‘जूस’ और ‘इंडिया कैबरे’ दोनों में ही स्त्रीत्व से ज़्यादा काम केंद्र में है. दोनों ही फिल्में उन जगहों पर सवाल उठाती हैं जो परंपरागत रूप से औरतों की मानी जाती हैं. दोनों ही शक्ति के अंतर और उसके औरतों के काम पर असर पर सवाल उठाती हैं. साथ ही उन पुरुषों पर भी सवाल उठाती हैं जिनकी इन जगहों तक पहुंच है. ‘बार डांसिंग’ में ऐसा क्या है जो इसे औरतों द्वारा घर पर किए जाने वाले काम से अलग करता है?
‘जूस’ में आदमियों को घर पर औरतों द्वारा किए जा रहे काम से फायेदा होता है मगर सामाजिक परिस्थिति में औरतों के होने या उनके सत्ता हासिल करने के प्रयासों के प्रति वे चौकस हैं. ये फिल्में संसाधनों के स्वामित्व को लेकर भी सवाल करने में हमारी मदद करती हैं जो, जैसा कि हम ‘इंडिया कैबरे’ में देखते हैं, शक्ति को रोचक तरीके से उलट देते हैं.
कार्यशाला
एक यौन कर्मी, एक बार डांसर, एक ग्रहणी. ये सभी काम कर रही हैं, कामगार हैं. द यूनीवर्सल डेकलरएशन ऑफ ह्यूमन राइट्स कहता है, “काम करना, अपनी मर्ज़ी से काम चुनना, काम की न्यायपूर्ण और अनुकूल परिस्थितियां और बेरोज़गारी से संरक्षण सबका अधिकार है.” नीचे दी गई TTE की कार्यशाला वह कलंक और भेदभाव सामने लाती है जो कुछ खास व्यवसायों से जुड़ा है और जिसकी वजह से विशेष तरह की हिंसा और सामाजिक बहिष्कार होता है.
चर्चा के लिए सवाल:
- आप काम को कैसे परिभाषित करेंगे?
- कौन से व्यवसाय स्वीकार्य हैं, जिन्हें ‘काम’ माना जाता है?
- क्या घर कार्यस्थल है? क्यों या क्यों नहीं?
- शर्म के विचार को कुछ व्यवसायों से अलग क्यों नहीं कर पाते?
गतिविधि:
सब लोग एक पंक्ति में, एक ही तरफ मुह करके खड़े हों. आगे दिए सवालों को ज़ोर से पूछा जाए. सभी सवालों के जवाब ‘हां’ या ‘न’ में हैं. सभी प्रतिभागियों को एक फ़र्ज़ी पहचान दी जाएगी, जो पूछे गए सवाल के जवाब की ओर संकेत करेगी. उदाहरण के लिए विभिन्न व्यवसाय अलग-अलग पर्चियों पर लिखे जाएंगे. मान लीजिए, एक व्यवसाय घरेलू कामगार का है, जिस भी प्रतिभागी को यह पर्ची दी जाएगी उसे घरेलू कामगार के नज़रिये से सवाल का जवाब देना है. अगर जवाब ‘हां’ है तो उन्हें एक कदम आगे बढ़ना है और अगर जवाब ‘न’ है तो एक कदम पीछे जाना है. ये फ़र्ज़ी पहचानें गतिविधि खत्म होने तक समूह के अन्य सदस्यों को नहीं बतानी है.
इस गतिविधि के पीछे विचार यह है कि लोग उन रुकावटों के बारे में सोच पाएं जिनका हम सब अपने काम के दौरान सामना करते हैं. इस गतिविधि से उन लोगों के प्रति सहानूभूति की भावना पैदा होगी जो ऐसा काम करते हैं जिसे कलंकित या वर्जित माना जाता है. इससे कोई खास काम करने के फायदे, नुकसान भी सामने आएंगे.
सवाल:
- क्या आप अपने व्यवसाय या काम की जगह के बारे में दूसरों से खुल कर बात करेंगे?
- क्या आपको काम के अच्छे पैसे मिलते हैं?
- क्या आपके आसपास के लोग आपके काम को श्रम या व्यवसाय का दर्जा देते हैं?
- क्या आपके काम के घंटे बंधे हुए हैं?
- क्या आपके काम में छुट्टी का प्रावधान है? या क्या आप ज़रूरत पड़ने पर छुट्टी ले सकते हैं?
- पैसे के अलावा क्या आपको दूसरे इन्सेंटिव मिलते हैं?
- क्या आपके कार्यस्थल पर स्वस्थ माहौल है?
- क्या आपके व्यवसाय में बेहतर पद या फिर उन्नति पाने के मौके या संभावनाएं हैं?
- क्या आपके समूह के सदस्यों में एकजुटता है?
- क्या आप संघ (यूनियन) का निर्माण करके अधिकारों की मांग और इस्तेमाल कर सकते हैं?
- आप जो कमाते हैं क्या वह आपको आत्मनिर्भर बनाता है?
गतिविधि के अंत में सब पहचाने समूह के सामने रखी जाएंगी. इसके बाद इसपर विचार करना ज़रूरी है कि कमरे में आगे की तरफ और पीछे की तरफ कौन खड़ा है और क्यों? कुछ व्यवसायों में ऐसा क्या है कि वे हमें प्रतिकूल स्थिति में ला खड़ा करते हैं? वे कौन से व्यवसाय या काम हैं जिनमें औरतों की उपस्थिति ज़्यादा है? क्या आपके औरत होने से आप जिस तरह का काम करते हैं इसपर असर पड़ता है? क्या कमरे में मौजूद सदस्यों के बीच एकजुटता हो सकती है? क्या हम सब, एक तरह से, समान लड़ाई लड़ रहे हैं?
गतिविधि:
अपने आसपास या अपने परिवार में एक औरत की पहचान करें जिसे ‘कामगार महिला’ के रूप में देखा जाता था. एक सूचि बनाएं उन चुनौतियों की जिनका आपको लगता है उस औरत ने सामना किया होगा और कैसे इनसे मोल भाव करके वह आगे बड़ी होगी?
- उसने प्रतिरोध का रोज़ाना क्या तरीका निकाला होगा? और वे कौन-सी संरचनाएं होंगी जिन्होंने इसे दबाया होगा?
- उसने किस चीज़ के लिए ‘सम्मान’ पाया? कहां उसने ये ‘सम्मान’ खो दिया?
- अगर पैसे से उसके काम की कीमत नहीं चुकाई गई, तो काम के बदले उसने क्या पाया?
- आपके अनुसार किसके पास ज़्यादा एजेंसी है और वह अपनी मनमर्ज़ी कर सकती है? ‘जूस’ में मंजू या ‘इंडिया कैबरे’ में रेखा?
दो अंत:
‘जूस’ के अंतिम दृश्य में, मंजु आदमियों के सामने बैठती है और उस शक्ति को चुनौती देती है जो घर के वातावरण में स्थापित है. ‘इंडिया कैबरे’ के अंतिम दृश्य में रेखा बीच पर खड़ी है (बार डांसर की नौकरी छोड़ने के बाद) और समुद्र की लहरें उसकी साड़ी से टकराकर वापस जा रही हैं. इन दोनों अंत के बारे में आप क्या सोचते हैं?
इस लेख का अनुवाद सादिया सईद ने किया है.