बात छिड़ेगी तो दास्तान बन जाएगी

लखनऊ, उत्तर प्रदेश से खुशी बानो की गाय पर एक छोटी सी खोज

फोटो साभार: शिवम रस्तोगी

ज़िंदगी में सबसे पहले हम अपनी सोच को एक संगठित तरीके से पेश करना कहां सीखते हैं? किस तरह की कल्पना और तथ्य के मिश्रण से इस सोच का जन्म होता है? वे कौन से कारक हैं जो एक सोच की उत्पत्ति से अभिव्यक्ति तक के फासले को प्रभावित करते हैं? हमारे देखने और समझने की प्रक्रियाओं को कौन तय करता है?

हम खुद, या हमारी सामाजिक, भौतिक, राजनीतिक तालीम जो घर-परिवार, पड़ोस, और आयोजित तौर पर अक्सर किसी स्कूल के क्लास रूम से शुरू होती है.

द थर्ड आई का ‘लर्निंग लैब’ आज से बीस महीने पहले 24 साथियों के साथ शुरू हुआ था. अलग-अलग उम्र व संदर्भ और भौगोलिक विविधताओं के बावजूद, एक नए तरीके की सीखने-सिखाने की प्रक्रिया ने हमें जोड़ कर रखा. उदाहरण के लिए शुरुआत में हमारे पास कुछ नए-पुराने मॉडल्स और प्रक्रियाएं थीं, जिनसे हमने अपनी समझ बनाने का प्रयास किया. पर उन सब से कहीं ज़्यादा एक जिज्ञासा थी और जोश भी, इन जानी-मानी परिभाषाओं के परे अगर हम खोजें, तो क्या हाथ लगेगा?

हमने अपनी 24 की जमात का नाम चुना – डिजिटल एजुकेटर्स. हमारे डिजिटल एजुकेटर्स बाप, पीसांगन, उदयपुर (राजस्थान), महरौनी, बांधा, लखनऊ (उत्तर प्रदेश) और पाकुर (झारखण्ड) के रहने वाले हैं. इनमें से कुछ स्कूल और कॉलेज से निकले युवा हैं तो कुछ के पास कई सालों के काम का अनुभव भी है. ये स्थानीय समूहों और संगठन के साथ भी संपर्क रखते हैं.

हम आपस में खूब सारी बातें करते. ये बातचीत हमारे लिए सीखने-सिखाने का ज़रिया बनती गई और कुछ डरते, हिचकिचाते हमने इसे नाम दिया – आर्ट्स बेस्ड पेडागॉजी यानी कला पर आधारित एक रचनात्मक शिक्षाशास्त्र. ऐसा इसलिए क्योंकि हमारी प्रक्रिया में संवाद, छवियां, लेखन और ध्वनि महत्त्वपूर्ण माध्यम हैं. हम इनके ज़रिए अपने अनुभव और समझ को खोलने की लालसा रखते हैं.

ये सिलसिला जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, हमारे भीतर यह एहसास गहरा होता गया कि सबसे बड़ी चुनौती खुद के लिए, हम खुद ही हैं!

जिस तरह से हमारी सामाजिक और स्कूली शिक्षा होती है, वह सोच और नज़र को खोलने की बजाए, हमें और भी बांध देती है. सब कुछ ‘तयशुदा खांचे’ या ‘फॉरमेट’ के रूप में, एक रटी-रटाई प्रक्रिया के ज़रिए हमें सिखाया जाता है. चाहे वह हमारी पहचान ही क्यों न हो (जैसे – लड़की/ लड़का होने के क्या मायने हैं? पैदा होने से लेकर रहन-सहन, हमारी आकांक्षाएं, हमारी जाति इत्यादि से जुड़े सवाल या हमारे खुद को अभिव्यक्त करने के तरीके.)

समाज और उसके द्वारा आयोजित शिक्षा प्रणाली के कुछ नियम और कायदे हैं. अक्सर इनसे बाहर निकल कर खुद की सोच बनाना – ये बेफालतू सा लगता है. चाहे क्लास में फर्स्ट आने का सपना हो, या वर्ल्ड क्लास नौकरी की अभिलाषा; परिवार में ‘अच्छे’, ‘सफल’ व्यक्ति की छवि बनाए रखने की जद्दोजहद, या पैसे और रुतबे की प्यास – इन सब तक पहुंचने के लिए अपने आप से जूझने से क्या मिलेगा!? बेहतर है कि देखे-दिखाए रास्तों की राह पकड़ें, और आगे बढ़ें. असल में सच तो ये है कि हम सबने खुद को इसी तरह से परिभाषित करना सीखा है.

तो अपने आप को कहां से उधेड़ना शुरू करें? और क्यों, किसलिए?

पेडागॉजी की प्रक्रिया

डिजिटल एजुकेटर्स के साथ 2020 दिसंबर में जब हमारे ऑनलाइन संवाद शुरू हुए, तो सबसे पहले लेखन पर बात आई. जो हम सोचते हैं, अनुभव करते हैं, जिससे हमें गुस्सा आता है या प्यार के एहसास – इन्हें शब्दों में कैसे बयान किया जा सकता है?

लिखने के मामले में डिजिटल एजुकेटर्स में ज़्यादातर के अनुभवों में अबतक फील्ड की 'केस स्टडीज़', रिपोर्ट्स, सरकारी फॉर्म भरना, या स्कूल-कॉलेजों में असाइंमेंट या परीक्षा की कॉपी पर लिखना शामिल था.

यानी शब्दों को इन ढांचों से बाहर लाना और अपनी सोच के भिन्न-भिन्न स्तरों से वाकिफ कराना सभी के लिए एक पहाड़ चढ़ने जैसा था.

और जब पहाड़ ही चढ़ना हो, तो ज़रूरी है कि हम जिस ज़मीन पर खड़े हैं, उसे गौर से टटोलें.

खुशी बानो 20 साल की लड़की है और पांचवीं तक पढ़ी है. खुशी, इस बात से बहुत झेंप महसूस करती है कि घर की परिस्थितियों की वजह से वह स्कूली शिक्षा पूरी नहीं कर पाई. एक ऑनलाइन संवाद में खुशी ने कहा, “लिखने में तो कोई बड़ी बात नहीं है, दी. हम स्कूल में लिखते थे”. “किसपर लिखते थे खुशी?” हमने पूछा. “हमारे स्कूल में अगर निबंध लिखने को कहा जाता था तो हम सिर्फ़ गाय के ऊपर ही निबंध लिखते थे. हमें और किसी पर निबंध लिखना नहीं आता था. सबसे आसान निबंध हमें गाय का ही लगता था. तो हम इसी पर लिखते थे.” खुशी एक सुर में बोलती गई:

गाय एक पालतू जानवर है.

गाय की दो आंखें, दो कान और दो सींग होते है.

गाय के चार पैर होते हैं.

गाय की एक पूंछ होती है.

गाय घास खाती है.

गाय के गोबर से खाद बनती है.

इसे सुनकर सब काफी हंसे. पर, एक ऐसे जीव के बारे में जिसे रोज़मर्रा की ज़िंदगी में हम बहुत नज़दीक से देखते हैं, उसके बारे में हम ऐसे क्यों लिख रहे हैं? खुशी के शब्दों में तथ्य तो साफ झलक रहा था. पर क्या जो हमें दिखता है वह किसी चीज़ पर समझ बनाने के लिए काफी है? अगर हमें उसके बारे में कुछ नए तथ्य मालूम हो जाएं तो उसका हमारे ‘मायने’ पर क्या असर पड़ता है? किसी को आंखों से देखना, उसके ऊपर एक समझ बनाना – यह कैसे होता है? क्यों हम एक ही तरीके से देखते और सोचते हैं? हमने खुशी से कहा, “खुशी, गाय के बारे में जो तथ्य तुम्हारे लेखन में हैं, क्या हम इन्हें छविओं में उतार सकते हैं?”

“हां”

“जब हमने अभी गाय पर फोटो निबंध किया तो इसे करने में बहुत मज़ा आया और स्कूल की यादें ताज़ा होने लगीं.” खुशी ने कहा.

हमने पूछा, “क्या गाय को देखने और दिखाने का बस यही एक रास्ता है, खुशी? क्या इन तस्वीरों में जो है, बस वही गाय का सच है? तुम्हारे तथ्यों के आधार पर अगर मैं गाय की तस्वीर लूं, तो क्या बिल्कुल तुम्हारे जैसी ही तस्वीरें ले पाउंगी? या तुम्हारा और मेरा देखने का तरीका अलग-अलग हो सकता है?”

खुशी के साथ बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसने उसकी कुछ पुरानी यादों को ताज़ा कर दिया. कल्पनाओं ने उन यादों को अपनी बांहों में भर लिया. खुशी ने एक ‘कहानी’ बुनी और उसे शब्दों से कुछ इस तरह बयान किया:

गाय पर कहानी

मेरे घर के परदे में एक गोल-मोल छोटा सा सुराख दिखा. मेरी टुक-टुकी आंखें उसपर से हट ही नहीं रही थीं. लग रहा था जैसे कोई दूरबीन है जिससे मैं बाहर का नज़ारा देख रही थी. उस नज़ारे में मुझे सूखी और टूटी हुई रोटियां दिखीं. इसके अलावा वहां थोड़ा सा खाना भी पड़ा दिखा. धीरे से एक मुंह आया और नीचे पड़ी रोटी को अपने मुंह में लेकर चबाने लगा. फिर अचानक से हिलती डुलती सी कोई अनजानी चीज़ दिखी. ध्यान दिया तो एक लंबी सी सफेद रंग की रस्सी की तरह लगी. लेकिन उसके नीचे वाले कोने पर बाल भी थे. फिर दो पैर सामने आए. मैं अपनी जगह से उठी और बाहर की तरफ़ गई. मैंने जल्दी से पर्दा हटाया तो मुझे दो काली-काली आंखें, दो बड़े कान और दो खड़े सींग दिखे. अब, मैं वहीं खड़े होकर मुस्कुराने लगी. बचपन की यादें आंखों के सामने झलकने लगीं. जब मैं स्कूल में थी तब हम सब बच्चों से अगर किसी भी चीज़ पर निबंध लिखने को कहा जाता था तो मैं सिर्फ़ एक ही चीज़ पर निबंध लिखती थी – गौ माता पर. मुझे और किसी पर निबंध लिखना ही नहीं आता था और ये सबसे आसान भी था. फटाक से हो जाता था. मैं ये सोच ही रही थी कि इतनी देर में एक अंकल आए, और उस गाय को वहां से भगा दिया.

हमने पूछा, “खुशी, क्या इन शब्दों को हम तस्वीरों के ज़रिए भी बयान कर सकते हैं?”

“बिल्कुल”, खुशी ने चहकते हुए कहा.

पैडागॉजी का दूसरा चरण

इस बार तस्वीरों के ज़रिए जिस तरह खुशी ने गाय को दर्शाया, उसमें कुछ आधा-अधूरा सा लगा. कहानी में एक लय, एहसास है. एक अलग तरह की ऊर्जा जो तस्वीरों में बिल्कुल सपाट हो गई थी. जिस तरह शब्दों को सोचने में, एक क्रम से उसे लगाने और संवारने से कहानी में एक फुर्ती पैदा हो रही थी, उसके मुकाबले तस्वीरें बिल्कुल नीरस सी थी, एकदम बेजान.

चलो, एक प्रयास केवल छविओं के ज़रिए कहानी कहने का करते हैं. ताकि हम कैसे “देखना चाहते हैं” या देखने की आरज़ू रखते हैं, उसे अपने करीब ला सकें.

फोटो निबंध कैमरे को लेकर तैयारी

दरवाज़े पर डले परदे का – वाइड और लॉन्गशॉट (आई लेवल) / परदे के सुराख का – मिड और क्लोज़पशॉट (आई लेवल) / मेरी आंखों का – मिड और क्लोज़पशॉट (आई लेवल) / सुराख से बाहर का – क्लोज़पशॉट (आई लेवल) / खाने और रोटी का – लॉन्ग और क्लोज़पशॉट (हाई और आई लेवल) / गाय के मुंह का – क्लोज़पशॉट (आई लेवल) / गाय का कुछ खाते हुए – क्लोज़पशॉट (आई लेवल) / हाफ पूंछ का – मिडशॉट (आई लेवल) / पूंछ के नीचे के बालों का – क्लोज़शॉट (हाई और लो एंगल) / आगे के दोनों पैरों का – क्लोज़प और मिडशॉट (आई लेवल) / पीछे के दोनों पैरों का – मिड और मिडवाइडशॉट (आई लेवल) / मेरा सोचते हुए  – मिडशॉट / मेरे पैरों का चलते हुए – क्लोज़प / पर्दा हटाते हुए पीछे से – लॉन्गशॉट (आई लेवल) / गाय के चेहरे का – क्लोज़पशॉट (आई लेवल) / मेरे मुस्कुराते हुए चेहरे का – क्लोज़प और लॉन्गशॉट (आई लेवल) / स्कूल का – वाइडशॉट (आई लेवल) / निबंध लिखते हुए – क्लोज़पशॉट / गाय का भागते हुए – वाइडशॉट (आई लेवल) / गाय का जाते हुए पीछे से – पैरों का क्लोज़प और फुलशॉट (आई लेवल).

फिर जब इसको ध्यान में रखकर शूट करने की कोशिश की, तो कुछ यूं हुआ.

खुशी ने बताया, “तस्वीरें लेते हुए हमें बहुत सी दिक्कतें हुईं. अचानक गाय कभी रास्ते पर सामने आ जाती, जिसकी वजह से हम तस्वीरों को सिलसिले वार तरीके से नहीं खींच पाए. पर मज़ा आया.”

अबकी बार खुशी बहुत खुश थी. पहली बार स्कूल के निबंध से निकलकर गाय को अपने कैमरे में कैद किया था. इसमें कुछ नया हासिल होने का आभास था. उत्साहित होकर खुशी ने कहा, “दी, आजकल हमारे मोहल्ले में गाय बहुत कम दिखती हैं.”

“क्यों?”

“मालूम नहीं”.

हमने कहा, “पता करना चाहिए. और लोग गाय को कैसे देखते हैं, खुशी? अगर हम गायों के कम होने का कारण जानने की कोशिश करें तो क्या निकलकर आता है?”

पहले व्यक्ति ने कहा, “गाय लॉकडाउन के वक्त तो हर गली में नज़र आती थी. लॉकडाउन के समय तो हम कहीं जा भी नहीं सकते थे. अपनी गली में ही सब दोस्त मिलकर बैठते थे. लेकिन वहां पर भी गाय बैठी रहती थी, तो उनको भगाना पड़ता था.”

दूसरे व्यक्ति ने कहा, “नगर निगम के लोग गाय को पकड़कर ले गए हैं ताकि वे गायों को बाहर बेच सकें या फिर जिसकी गाय होगी वह पैसे देकर खुद ही आकर उसे ले जाएगा.”

तीसरे व्यक्ति ने कहा, “गाय उठ गई है बहुत ही अच्छा हुआ है. गाय को लेकर इतने केस निकलकर आ रहे हैं जिससे अब हमें तो डर लगने लगा है.”

चौथे व्यक्ति ने कहा, “गाय से तो मैं दूर ही रहती हूं. मेरी एक मौसी हैं जिनकी ननद की एक छोटी सी बेटी है. एक दिन वह अपने घर के बाहर खेल रही थी. वहीं पर एक गाय आई और उनकी बेटी को अपने सींग से उठाकर फेंक दिया. उसे बहुत ही चोट लगी. कई दिन तक ठीक ही नहीं हुई थी.”

अब मैंने कहा, “खुशी, तुम्हारे स्कूल के निबंध से निकलकर गाय काफी आगे आ गई है.”

ये पूरा संवाद और प्रक्रिया जुलाई से सितम्बर, 2021 तक खुशी के साथ चलती रही थी. महज़ गाय को देखने, समझने, जानने में इतना वक्त बिताने का क्या मकसद है? इससे क्या हासिल हुआ?

जब हमारे अनुभवों की कोई सीमाएं नहीं हैं, तो उन्हें व्यक्त करते समय हम क्यों कुछ रटे-रटाए खांचों में घुस जाते हैं. क्या इसी को ‘ज्ञान’ कहते हैं. जो हमें, हमारे अनुभवों को खांचे में डालने को मजबूर करता है? इन खांचों को कौन तय करता है? उसका हमारे देखने, सोचने और महसूस करने की प्रक्रिया पर क्या असर पड़ता है?

अगर हम अपने छोटे-छोटे अनुभवों को देखें तो एक जाल सा नज़र आता है जिसके केंद्र में हम खड़े हैं. खुशी के साथ समझ बनाने की प्रक्रिया एक प्रयास थी कि मामूली से रोज़मर्रा के अनुभवों के अंदर कैसे पूरी दुनिया का जाल समाया हुआ है.

खुशी ने कहा, “गाय के विषय में इंटरनेट पर सर्च किया तो मुझे पता चला कि किस तरह एक जानवर को महिलाओं और लड़कियों से जोड़ा जाता है, गौ माता के नाम पर. गाय की सुरक्षा के नाम पर कई जगह लोगों की हत्याएं हो रही हैं. पर गाय की कद्र क्यों नहीं है? वह क्यों ऐसे गलियों में घूमती रहती है?

हमने जब गाय के विषय पर काम करने की शुरुआत की तो सिर्फ यही सोच कर की थी कि वह तो एक जानवर है और उसपर हमें निबंध जैसा कुछ तैयार करना है जैसा हम स्कूल में किया करते थे. पहले-पहल तो ये बहुत आसान विषय लगा लेकिन अब ऐसा नहीं लगता.

धीरे-धीरे मेरे दिमाग में जो भी वास्तविकता और काल्पनिक छवियां और कहानियां बन रही थीं, उनकी बारीकियों को पकड़ने की कोशिश की. फिर जब लखनऊ के डालीगंज इलाके में तस्वीरें लेने गई तो अचानक एहसास हुआ कि गाय गायब होने लगी हैं. ऐसा क्यों? मुझे लगा क्या मैं अपने दिमाग में चल रहे सवालों का जवाब लोगों से पूछ सकती हूं? मैंने पूछा और जवाब भी मिला. गाय का औरतों से, राजनीति से क्या रिश्ता है, थोड़ा-थोड़ा समझ आने लगा. पहले नहीं सोचा था कि महज़ एक गाय मेरे लिए इतना बड़ा संसार खोल सकती है.” 

रुचिका नेगी द थर्ड आई की एसोसिएट एडिटर हैं.

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