अपनी गली तो दिखाओ ज़रा

आपके शहर में कौन रहता है? 'हेरिटेज वॉक' के नाम पर हम किनकी स्मृतियों के इतिहास का हिस्सा बनते हैं और कौन से इलाके अदृश्य रहते हैं?

2016 में महरौली में की गई हेरिटेज वॉक के दौरान ली गई तस्वीर. फोटो साभार: दरवेश टीम/ निरंतर टीम.

आशियान का रंग-ढंग किसी स्काउट जैसा है. वह शाहदरा की वेलकम कॉलोनी की 15-20 दूसरी लड़कियों और औरतों के साथ गंदगी और कूड़े-कचरों से अटी पड़ी गलियों से गुज़रती हुई आगे बढ़ रही है, जिसके दोनों तरफ बने घरों की दीवारें जर्जर हो चुकी हैं, प्लास्टर झड़ चुके हैं और ईंटों ने ताकझांक करना शुरू कर दिया है. इन गलियों को पार करने के बाद आशियान जहां पहुंचती है, वह उसका अपना मुहल्ला है और आज वह अपने ही मुहल्ले को एक नई नज़र से देख रही है. ऐसा वे सभी एक एनजीओ के कहने पर कर रही हैं. दरअसल एनजीओ ने उन्हें अपने मुहल्ले और उसके आस-पास के इलाकों में हेरिटेज वॉक की योजना पर काम करने के लिए कहा है. उसी योजना को अमलीजामा पहनाने के मकसद से आज ये लोग यहां पहुंचे हैं. “जी बेशक, इस हेरिटेज वॉक में झील पार्क के साथ-साथ न्यू ज़ाफराबाद के अतीत और वर्तमान की कहानियां भी शामिल होंगी,” बातचीत के दौरान 27 साल की आशियान आश्वस्त करते हुए कहती हैं.

मेरे ख्याल से हेरिटेज वॉक के सन्दर्भ में जिस वाक्य को सबसे ज़्यादा बार कोट किया गया है, वह है “किसी शहर को समझने और महसूस करने का इससे बेहतर कोई दूसरा तरीका नहीं कि आप उन लोगों के नक्शेकदम पर चलें जो कभी वहां के बाशिंदा रह चुके हों”. दरअसल यह डॉ. जॉबी थॉमस का कथन है, जो टूरिज़्म स्कॉलर (पर्यटनविद्) हैं और क्राइस्ट यूनिवर्सिटी, बेंगलुरु में पढ़ाते हैं. लेकिन उत्तर-पूर्वी दिल्ली की आशियान जिस हेरिटेज वॉक की तैयारियों में जुटी हैं, उसके बाद यह मुहावरा बदल जाएगा, यानी

"किसी शहर को समझने और महसूस करने का इससे बेहतर कोई दूसरा तरीका नहीं कि आप किसी ऐसे शख्स के साथ घूमें-देखें जो वहां का बाशिंदा हो, जो वहां रह रहा हो".

हेरिटेज वॉक हमेशा से ही ऐसे उत्साही पर्यटकों का क्षेत्र रहा है, जो थोड़े वक्त में ही शहर के कुछ हिस्सों को देख-जान लेना चाहते हैं. उनका हेरिटेज वॉक एक दिन का नहीं बल्कि एक घंटे की इतिहास की क्लास की तरह होता है. ऐसे सिटी वॉक अक्सर एक खास वर्ग के लोगों को आकर्षित करते हैं, और स्थानीय लोगों को आश्चर्य और समीक्षा का विषय बना देते हैं. लेकिन वेलकम कॉलोनी की इन औरतों के पास एक योजना है, जो अपने आप में अलग है. वे ‘स्लम वॉक’ के ज़रिए हेरिटेज वॉक के आइडिया को उलट कर उसे पूरी बारीकी और कुशलता से फिर से बुन रहीं हैं एक ऐसे वॉक में जो उनकी झुग्गी- बस्ती से निकलती है और इस शैक्षणिक जिज्ञासा का समाहार भी करती है कि : आपके शहर में कौन रहता है?

इसमें संदेह नहीं कि शहर हमेशा से एक ऐसा स्थान रहा है जहां यादों या स्मृतियों के सृजन और संजोने को महत्त्व दिया जाता है. लेकिन नारीवादी सांस्कृतिक भूगोलवेत्ताएं एक कदम आगे बढ़कर यह सवाल करती हैं कि असल में किनकी स्मृतिययों को याद रखा जाता है और शहरी नामकरण प्रक्रिया और योजनाओं के ज़रिए किसके इतिहास को याद किया जाता है? शाहदरा की लड़कियां और औरतें इस विचार को और आगे बढ़ाती हैं और पूछती हैं कि “पर्यटकों और छात्रों को शहर के कौन से हिस्से दिखाए जा रहे हैं और इन्हें दिखाने वाला कौन है?” जैसा कि हम जानते हैं, शाहदरा की रगों में असंगठित और अनौपचारिक श्रम दौड़ता है. अतः ‘हेरिटेज वॉक’ को रूप देने के काम में ‘व्यवसाय’ को केंद्रीय विषय के रूप में चुना गया.

वेलकम कॉलोनी का रास्ता बेशक कॉलोनी की उन गलियों से होकर जाता है, जो ऐसे कमरों से अटी पड़ी हैं, जिनमें चमड़े के टुकड़ों को सिल कर सैंडल में तब्दील किया जाता है, और डेनिम जहां जींस में बदले जाते हैं. “जींस की सिलाई का काम सिर्फ़ वेलकम में ही होता है. इसके आसपास कहीं और आपको यह नहीं मिलेगा,” आशियान गर्व से बताती हैं. “कपड़े की सिलाई होती है, उसके बाद उसे धुलने के लिए भेजा जाता है, फिर उसकी फिनिशिंग की जाती है, पैकिंग की जाती है और फिर बाज़ारों में भेज दिया जाता है.”

पुनर्वास कॉलोनियों में रहने वाली दूसरी औरतों की ही तरह वह भी पूर्वोत्तर दिल्ली में रहने वाले स्थानीय प्रवासियों में से एक की बेटी है, यहीं उसका जन्म हुआ है और वह कभी स्कूल नहीं गई. वह बताती है, “मैं नई सिली हुई जींस में जो धागे छूट जाते हैं न, उनकी कटाई-छटाई का काम किया करती थी. जब हम 100 जोड़ी जींस की ट्रिमिंग करते हैं तो बदले में हमें 50 रूपए मिलते हैं.”

त्रिलोकपुरी PACE सेंटर. फोटो साभार: प्रार्थना
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पुनर्वास कॉलोनी की ये युवा लड़कियां और औरतें जो अभी अपने इलाके के लिए एक हेरिटेज वॉक डिज़ाइन कर रही हैं, उनका निरंतर के परवाज़ किशोरी शिक्षा केंद्र (परवाज़ ऐडोलेसन्ट्स सेंटर फॉर एजुकेशन) कार्यक्रम, जिसे संक्षेप में पेस कहा जाता है, से गहरा जुड़ाव रहा है. पेस पिछले छह साल से पुनर्वास कॉलोनियों में रहने वाली किशोरियों और युवतियों की शैक्षिक ज़रूरतों को पूरा करने का काम कर रहा है. पेस (PACE) उनके साथ काम करता है जो या तो स्कूल से ड्रॉप आउट हैं या जो कभी स्कूल गई ही नहीं. पेस का कोर्स 18 महीने का है. आशियान ने भी यह डेढ़ वर्षीय पाठ्यक्रम किया है. इस तरह वह पेस की पूर्व छात्रा और एक पूर्व मोबिलाइज़र या संगठनकर्ता रही हैं. जिन समुदायों में केंद्र संचालित होते हैं, उन्हीं समुदायों के सहयोग से यह पाठ्यक्रम इन कॉलोनियों की लड़कियों और महिलाओं पर ध्यान केंद्रित करके शहरी पुनर्वास कॉलोनियों के बारे में प्रचलित आख्यानों को बदलने पर ज़ोर देता है.

पेस पाठ्यक्रम में दरवेश की वॉक सीरीज़ भी शामिल थी. दरवेश दरअसल दिल्ली स्थित एक स्टार्टअप है जो लड़कियों को चांदनी चौक, महरौली, यमुना और लोधी गार्डन और आसपास के इलाकों में थीमैटिक वॉक पर ले जाया करता था. (दरवेश ने कोविड महामारी के दौरान ऑनलाइन वॉक का आयोजन भी किया था.) आशियान और उसकी मंडली की दूसरी लड़कियों के दिमाग में हेरिटेज वॉक का यह आइडिया यहीं से आया. 

दिल्ली में प्रवासी समुदाय

जिस तरह इतिहास की दरारों में महिलाओं की कहानियां गुम हो जाती हैं और किताबों में नज़र नहीं आतीं, उसी तरह दिल्ली के कुछ इलाके भी इसकी पोस्टकार्ड में कहीं नज़र नहीं आते, हमेशा गायब ही रहते हैं.

निरंतर में यंग पीपुल्स एजुकेशन की सीनियर फैसिलिटेटर प्रार्थना ठाकुर कहती हैं, “उन इलाकों में बड़ी संख्या में प्रवासी समुदाय के लोग रहते हैं. यही वह लोग हैं जो इस शहर को बनाते और चलाते हैं. लेकिन दिल्ली की बात करते समय शायद ही कभी कहीं उनका उल्लेख किया जाता है या उनकी चर्चा की जाती है. ऐसा क्यों होता है?”

तो, वेलकम कॉलोनी क्या है? पेस और एक्शन इंडिया में बतौर शिक्षक काम करने वाली 27 वर्षीय किस्मत मंसूरी बताती हैं कि “यहां 1.5 लाख लोग रहते हैं, जिनमें से ज़्यादातर प्रवासी हैं और यहां लगभग 47,000 घर हैं.” वेलकम कॉलोनी की गलियां बहुत ही संकरी हैं जो हमेशा आने-जाने वाले लोगों, दर्जनों आवारा कुत्तों और अजब-गजब खेल में व्यस्त बच्चों से भरी रहती हैं. अजब-गजब इसलिए कि बच्चे जो खेल खेल रहे हैं, वह कोई ऐसा खेल नहीं कि उसका नाम बताया जा सके, बल्कि यह खेल खुद उन्हीं का ईजाद किया हुआ होता है.

कपड़ों के बड़े-बड़े बैग इन घरों की दीवारों से टिके पड़े हैं और अंदर औरतें अपने-अपने काम में मशगूल हैं. वह जींस में बटन टांक रही हैं, रंगीन बिंदियां बना रही हैं, जूते बना रही हैं. इस कॉलोनी में रहने वाली औरतों की दुनिया यहीं तक महदूद है. वह शायद ही कभी इन घरों की बोसीदा दहलीज़ के बाहर कदम रख पाती हैं. कुछ को इन गलियों के बाहर की जो दिल्ली है, उसकी बस एक झलक भर याद है, वह भी इसलिए कि कभी किसी मौके पर अपने रिश्तेदारों के साथ उनका निकलना हुआ था. पेस की विद्यार्थी शाइस्ता जो 22 साल की हैं, बातचीत के दौरान कहती हैं कि “पेस के हिस्टॉरिकल वॉक पर जाने से पहले तक मेरे लिए दिल्ली महज़ एक नाम था, जिसको सुनकर दिल-दिमाग में कोई तस्वीर नहीं बनती थी.”

बतौर एजुकेटर, इन लड़कियों के साथ तीन साल बिताने वाली प्रार्थना याद करते हुए बताती हैं कि “कई लड़कियां जो बचपन में ही दिल्ली आ गई थीं, वे अक्सर कहतीं कि उनके लिए तो ‘दिल्ली’ का मतलब बचपन का छिन जाना ही था. ऐसा इसलिए कि जब वे गांव से यहां आईं तो उनका खेलना-कूदना बंद ही हो गया क्योंकि यहां गांव जैसी खुली जगह थी ही नहीं. कुछ दूसरी लड़कियों के लिए ‘दिल्ली’ का मतलब अस्पताल था क्योंकि उनके घर आने वाले ज़्यादातर रिश्तेदार बेहतर इलाज के लिए दिल्ली आया करते थे. हालांकि, छोटी उम्र से ही यहां पली-बढ़ी लड़कियों में पहचान की भावना बहुत मज़बूत है. वे खुद को शहरी परिवेश से जोड़ती हैं और इसीलिए, घर पर लगाई जाने वाली पाबंदियां उन्हें बहुत परेशान करती हैं जिसकी वजह से मां-बाप और उनके बीच एक किस्म का स्थाई टकराव पैदा होता है.”

नारीवादी शिक्षण

बहुत से लोगों के लिए हेरिटेज वॉक, दैनिक जीवन की जकड़नों से बचने का एक तरीका हो सकता है या फिर किसी कथावाचक सरीखे इंसान से इतिहास पर कोरा भाषण सुनने से बचने का तरीका होता है. लेकिन “इसके विपरीत, नारीवादी हेरिटेज वॉक का उद्देश्य भुला दिए ज्ञान का पता लगाना, अतीत की विरासतों से परिचित होना और मिलकर उन सामाजिक और बौद्धिक स्थानों का फिर से नक्शा तैयार करना है जिनमें हम पुरुष-प्रधान हेरिटेज लैंडस्केप में महिलाओं के रूप में रहते या घूमते-फिरते हैं…” ऑस्ट्रेलियाई नारीवादी विद्वान एलिसन बार्टलेट की दलील है कि “ यहां खो जाने, या अदृश्य होने की कल्पना को तलाश और पहचान की नारीवादी कल्पना से प्रतिस्थापित किया जा सकता है.” नारीवादी शिक्षण के एक हिस्से के रूप में, आशियान और उसके समुदाय का इस तरह के हेरिटेज वॉक को डिज़ाइन करना और उसे पूरी तरह अपनी तरह से अमल में लाना दरअसल पूरी प्रक्रिया को ही बदल देता है. इस हेरिटेज वॉक पर आने वाला व्यक्ति अब चीज़ों को सहानुभूति के साथ नहीं देखता, बल्कि वह समानुभूति के स्तर पर चीज़ों का साक्षी बनता है. यहां “सहानुभूति से देखने” की प्रक्रिया का “समानुभूति के स्तर महसूस करने” में रूपांतरण बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटना है. इस प्रक्रिया में ज्ञान का न केवल संचार होता है बल्कि सहयोगात्मक रूप से सृजन भी होता है.

दरवेश से जुड़ी अभिनेत्री और थिएटर वर्कशॉप की फैसिलिटेटर नितिका अरोड़ा का कहना है कि पुनर्वास कॉलोनियों और बस्तियों की लड़कियों के लिए शहर उनकी दहलीज़ से ही शुरू हो जाता है. वह अपनी स्मृतियों को टटोलती हुई सी कहती हैं, “उनमें से बहुतों ने बताया कि अपने लिए जगह की तलाश का उनके पास एक ही तरीका है और वह है अपने घर के दरवाज़े के बाहर खड़ी होना, लेकिन वह भी बहुत मुश्किल है. उन्हें हमेशा अंदर जाने या रहने के लिए कहा जाता है.”अपने वॉक के माध्यम से, नितिका बताती हैं, “हम लड़कियों को बता रहे हैं कि शहर आपका है, आपको सड़कों पर चलने, घूमने-फिरने की पूरी आज़ादी है.” सच कहूं तो नारीवादी कहानियों, काल्पनिक स्थितियों, (“कल्पना कीजिए कि बाज़ार में जितनी भी दुकानें हैं, यदि सभी दुकानों में दुकानदार महिलाएं हों तो आप कैसा महसूस करेंगी?”) और चिंतनशील अभ्यासों के माध्यम से एक अनूठे ‘वॉक’ की रूपरेखा उभरी जो पेस पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गई.

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यमुना बायोडाईवर्सिटी पार्क से एक तस्वीर. फोटो साभार: प्रार्थना

‘पानी के थीम’ पर वॉक की योजना बनी. वॉक पर जाने से एक रात पहले उनमें घबराहट थी क्योंकि जैसे इन बस्तियों में पानी और बिजली आसानी से नहीं आती, वैसे ही शाइस्ता जैसी महिलाओं के लिए वेलकम से बाहर कदम रखने की इजाज़त नहीं होती. वह बताती है, “पहले बाहर जाना मुश्किल था. मैं अपने परिवार के साथ अपने रिश्तेदारों के घरों को छोड़कर कभी कहीं और नहीं गई. मेरा परिवार मुझे ऐसे वॉक पर भेजने को तैयार नहीं था. लेकिन दीदी ने उन्हें मना लिया.”

बमुश्किल परिवार से इजाज़त मिलने के बाद, शाइस्ता घर से निकलती है और उन तीस महिलाओं के समूह में शामिल हो जाती है जिन्हें वेलकम से 25 किलोमीटर दूर मेहरौली जाना है. वेलकम से मेहरौली के सफ़र में वह पहली बार मेट्रो की सवारी करती है. कई जगहों पर ठहराव, मेट्रो बदलने और खिलखिलाती तस्वीरों के दौर के बाद यह समूह आखिरकार कुतुब मीनार स्टेशन के लिए रवाना होता है और फिर वहां से ऑटो में सवार होकर विशाल महरौली पुरातत्व पार्क (एमएपी) के गेट नंबर 2 के सामने आ पहुंचता है. गर्मी का मौसम लगभग आ चुका था और आसमान का रंग बिल्कुल नीला था और उसी नीले आसमान के नीचे यह समूह घूरती निगाहों से बिल्कुल बेपरवाह गपशप और हंसी-ठहाकों में मशगूल था.

यहां पर बहुत सी बावलियां है, जिन्हें लड़कियां देख रही हैं. बहुत सी कहानियां हैं, जिन्हें लड़कियां सुन रही हैं. अब एक छायादार जगह पर सभी लड़कियां खड़ी हैं और दरवेश की सदस्य युविका सिंह के हाथ में एक सिक्के का कटआउट लहरा रहा है. युविका के हाथ में जो सिक्के का कटआउट है, वह कोई मामूली सिक्का नहीं है, बल्कि उसपर रज़िया सुल्तान का चेहरा है. “यह दिल्ली की पहली साम्राज्ञी या सुल्ताना थी, जिसके नाम पर सिक्का जारी हुआ था. रज़िया सुल्तान ने सिर्फ चार साल ही दिल्ली पर शासन किया, लेकिन अपने छोटे से कार्यकाल में ही टैक्स कम करने के लिए उन्होंने कई प्रशासनिक बदलाव किए…” अभी रोशनारा बेगम, मुमताज़ महल, बेगम समरू की कहानियों की बारी भी आनी है.

"इससे भी बहुत फ़र्क पड़ता है जब मर्द की बनिस्बत एक औरत आपको अपने साथ घुमाने ले जाती है और आपको शहर दिखाती है.

दरवेश को चार महिलाओं द्वारा संचालित किया जाता है, और इन्हीं चारों पर शिक्षाशास्त्र से लेकर पाठ्यक्रम तैयार करने और उसको अमलीजामा पहनाने तक की ज़िम्मेदारी है,” युविका बताती हैं.

जैसा कि इरा मुकोटी ने अपनी किताब हीरोइन्स: पावरफुल इंडियन वूमेन ऑफ मिथ एंड हिस्ट्री में लिखा है, “सबसे सफल आख्यान (इतिहास) वे होते हैं जिनमें महिलाएं गीतों और कविताओं के माध्यम से अन्य महिलाओं की कहानियां सुनाती हैं. लिखित माध्यम में पुरुषों द्वारा जानबूझकर या अनजाने में जो सेंसरशिप लगाई जाती है, उसको मौखिक माध्यम से ही दरकिनार किया जा सकता है.”

मेटकाफ के ग्रीष्मकालीन घर (समरहाउस) के भव्य खंडहरों को पीछे छोड़ते हुए यह समूह 15वीं सदी के राजों की बावली तक पहुंचने के लिए पैदल ही चल पड़ता है. युविका बताती हैं कि ”वर्ग और जाति के विमर्श में पानी एक अहम और बुनियादी मुद्दा बन जाता है.” यहां से लगभग 500 मीटर दूर, वे एक अन्य बावली पर रुकते हैं, जो अपने गंधक (सल्फर) और उपचारात्मक गुणों के लिए प्रसिद्ध है. दिल्ली पर शासन करने वाले पहले स्वतंत्र सुल्तान शम्सुद्दीन इल्तुतमिश द्वारा 1230 ईस्वी में निर्मित यह सरल संरचना (गंधक की बावली) उस युग में बारिश के पानी को इकट्ठा करने की तकनीक का जीता-जागता प्रमाण है और इससे यह भी पता चलता है कि उस दौर की दिल्ली में पानी की कितनी किल्लत रहा करती थी.

बावलियां बहुधा बहनापे की जगहें होती हैं. रानी की बावली और चांदी की बावली जैसी बहुत सी बावलियां हैं जिनका निर्माण महिलाओं ने ही करवाया था.

इसके अलावा, ऐतिहासिक रूप से, बावलियों और दूसरे जल-स्रोतों से पानी लाने का काम घर की महिलाओं से ही लिया जाता रहा है. आज भी इस काम के कारण बहुत सी लड़कियों को स्कूल छोड़ना पड़ता है. आशियान बताती हैं कि “दो साल पहले तक, हमारे वेलकम कॉलोनी में भी कोई नल नहीं था. हमें पानी लाने के लिए बहुत दूर जाना पड़ता था.”

बावलियों को देखने-जानने के साथ ही यह वॉटर वॉक समाप्त हो जाता है और तीस महिलाओं का यह समूह बस स्टॉप की ओर चल पड़ता है. लेकिन, कहानियां यहीं खत्म नहीं होतीं. वॉक सत्र के बाद की चर्चा के लिए युविका जिस लोककथा का चुनाव करती है, वह टिड्डालिक नाम के एक ऐसे मेंढक की है जो एक काल्पनिक तालाब का सारा पानी पी जाता है और बाकी जानवरों के लिए एक बूंद पानी भी नहीं छोड़ता. “दरअसल हम इस बात पर चर्चा करने के लिए कहानी सुनाना शुरू करते हैं कि पानी का संकट होने पर क्या होता है. क्योंकि जिन इलाकों से ये लड़कियां आती हैं, उन इलाकों में अक्सर पानी की किल्लत रहा करती है, जबकि उनके समृद्ध पड़ोसी इलाकों में पानी भरपूर मात्रा में उपलब्ध रहता है. हम उनसे कहते हैं कि वह जाति, वर्ग, और आर्थिक नज़रिए से इस स्थिति पर चर्चा करें, विचार करें. हमारे आस-पास बहुत सारे टिड्डालिक हैं…,” युविका मुस्कुराती हुई कहती हैं.

कहानी आगे बढ़ती है, सभी जानवर अपनी कोशिशों के बल पर उस विशाल मेंढक को हंसाने में सफल होते हैं और इस तरह ठहाके मारकर हंसने के चक्कर में वह सारा पानी उगल देता है और सूखा तालाब दोबारा पानी से भर जाता है. दिल्ली में जो बहुत से टिड्डालिक हैं, जिन्होंने दूसरों के हिस्से का पानी गटक रखा है, उनसे पानी वापस लेने का काम बहुत सारी औरते हंसते-हंसते कर सकती हैं. इसका असर यह हुआ कि पेस से जुड़ी कई लड़कियों ने अपने स्थानीय पार्षदों को पत्र लिखे और उन्हें बताया कि किस तरह वे पानी की किल्लत से परेशान हैं और उन्हें इसका हल चाहिए.

नारीवादी शिक्षा

आशियान और उसके समुदाय की नागरिक भागीदारी और नागरिकता को हमेशा लांछित और वंचित किया गया है. भारत के कई महानगरों की तरह दिल्ली में भी सबसे कमज़ोर तबके के नागरिकों में से कुछ को बेदखल करने का अभियान चलाया गया है. द थर्ड आई के साथ अपने एक साक्षात्कार में गौतम भान ने कहा था कि “यदि आप शहर में हैं और गरीब हैं, तो आप कहां हैं या कहां के हैं, इसकी कोई सांस्कृतिक या आर्थिक कल्पना सम्भव नहीं है… शहर में आपकी मौजूदगी अपने-आप में एक प्रश्नचिह्न है.”

ऐसे हालात में बस्ती या तो दया का केंद्र या फिर अपराध का अड्डा बन जाती है, जिसका अंतिम परिणाम एक-के-बाद-एक होने वाली बेदखली है.

इस तरह से देखें तो एक बाहरी व्यक्ति आपके इलाके को कैसे देखे और कैसे उसकी व्याख्या करे, इस संदर्भ में जब आप अपनी एजेंसी का इस्तेमाल करते हैं तो इससे न केवल आपके मन में गर्व का भाव पैदा होता है, बल्कि एक अन्य अर्थ में यह परिवर्तनकारी भी है क्योंकि किसी बाहरी व्यक्ति को आप केवल उसी स्थान पर आमंत्रित कर सकते हैं जो आपका ही हो.

स्वामित्व या अपनेपन की यह भावना अनमोल है. हालांकि दस्तावेज़ों और नागरिकों के लिए बुनियादी ढांचे की कमी, इस भावना को कमज़ोर कर सकती है. लेकिन आपका यह अधिकार या दावा अपनी बस्ती के व्यक्तिगत और अंतरंग ज्ञान में निहित है, जो कि अपनी तरह का एक अलग और अनूठा इतिहास है.

एक वॉक के दौरान पल्ला गांव के किसानों से बात करती लड़कियां. फोटो साभार: प्रार्थना

जैसे-जैसे शरणार्थियों का अपनी जन्मभूमि से काफ़ी दूर-दराज के इलाकों में पलायन और बसना बढ़ा है, उसी अनुपात में उनके घर बनाने/बसाने के तरीकों/पद्धतियों का अध्ययन करने वाले विद्वानों की तादाद भी बढ़ी है. नीदरलैंड की राजधानी एम्स्टर्डम में सीरियाई शरणार्थियों के लिए ऐसी ही परिपाटियों में से एक है मेहमानों की मेज़बानी करना. उन्होंने पाया कि जब आप अपने मकान में किसी की मेज़बानी करते हैं, तो वह मकान घर बन जाता है.

निरंतर के पेस पाठ्यक्रम का मूल उद्देश्य ही यही है कि वह अपने शिक्षार्थियों को इस सच्चाई से अवगत कराए, उन्हें याद दिलाए कि वह इसी शहर के हैं और उन्हीं प्रवासियों पर यह महानगर निर्भर है. जैसा कि निरंतर की वरिष्ठ कार्यक्रम और शिक्षण विशेषज्ञ पूर्णिमा बताती हैं, शिक्षार्थियों को बोलने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और जो भी नई चीज़ें निकल कर सामने आती हैं, उनपर विचार किया जाता है. “बातचीत बंद नहीं होनी चाहिए. जैसा कि पाउलो फ़्रेयर ने कहा है: दुनिया को पढ़ने से पहले न केवल शब्द को पढ़ना होता है, बल्कि इससे भी पहले इसे लिखने या फिर से लिखने की जो एक निश्चित शैली या तरीका है, उसको सीखना होता है. मुझे लगता है कि यह किसी भी शिक्षण-पढ़ाने-सिखाने की प्रक्रिया के लिए बहुत ही ज़रूरी है.” नारीवादी शिक्षाशास्त्र के पाठ्यक्रम में एक नए तरह के ज्ञान के सृजन की आवश्यकता है जिसमें खुलेपन को तरजीह और जिज्ञासा को प्रोत्साहन मिल सके.

लोधी गार्डन में वॉक के दौरान. फोटो साभार: प्रार्थना

जैसा कि प्रार्थना कहती हैं, “ये लड़कियां जिन जगहों पर भी जाती हैं, समूह में जाती हैं, चीज़ों को देखती हैं, और अपनी मर्ज़ी से जांच-परख भी करती हैं, खूब मौज-मस्ती करती हैं, और इन्हीं वजहों से अक्सर लोगों को वह अजीब सी नज़र आती हैं. कभी-कभी तो वे ठिठक कर पूछने भी लगते हैं कि ‘तुम सब कहां से आई हो? यह कैसे हो सकता है?… सार्वजनिक जगहों पर फुरसत के लम्हों को जीती ये लड़कियां दरअसल विद्रोह करती लड़कियां हैं और तफ़रीह के ये लम्हे दरअसल विद्रोह यानी बगावत के लम्हे हैं.”

इस लेख का अनुवाद अकबर रिज़वी ने किया है.

अर्चिता रघु फ्रीलांस लेखक हैं जो बेंगलुरु में रहती हैं.

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