“जो मैं देखती हूं, तुम देख सकते हो?” यह डर के खिलाफ़ है. यह कहानी इस विचार का पुरज़ोर प्रतिरोध करती है कि डर के साथ ही सीखना संभव है.
ये क्लास-रूम में बैठे उन शिक्षार्थियों की कहानी नहीं कह रही जो किसी नियम को नहीं मानते, बल्कि यह उस क्लास के एक कोने में चुपचाप बैठे उन अंतर्मुखी विद्यार्थियों की कहानी कहती है जो अकेले नहीं हैं.
इसे तैयार करने वाले कलाकार तिलोत्तमा ने हमें बताया कि इसकी प्रेरणा उन्हें एक सह-शिक्षण स्थान से प्राप्त हुई जहां हम सभी अपनी जिज्ञासाओं को, बिना शर्त खोजते हुए सुरक्षित महसूस करते हैं. वे ढाका और भारत के बीच विभिन्न शैक्षणिक कार्यक्रमों में एक प्रशिक्षक के बतौर भाग लेने के अपने अनुभवों के बारे में भी हमें बताते हैं. कहना न होगा कि इस कहानी की प्रेरणा भी उन्हें ऐसे ही किसी एक स्थान से मिली. इस ग्राफिक कहानी के ज़रिए वे अपने उन अनुभवों से वापस जुड़ते हैं जहां संचार का माध्यम निजी होते हुए भी सामूहिक है.
इस कॉमिक्स को तैयार करने की प्रक्रिया के बीच तिलोत्तमा ने हमसे बात करते हुए एक घटना का ज़िक्र किया जब वह स्कूल में पढ़ाने का काम कर रहे थे. उस समय को याद करते हुए उन्होंने बताया कि, “6 साल की माया अपनी क्लास में कोने के एक बेंच पर सहमी और दुबकी हुई बैठी थी. क्लास के बाकी बच्चे उससे पूछ रहे थे कि, ‘तुम क्लास में कुछ बोलती क्यों नहीं? टीचर के सवालों का जवाब क्यों नहीं देतीं? होमवर्क क्यों नहीं पूरा करतीं? हममें से किसी के साथ खेलती क्यों नहीं?’ मैंने भी माया से बात करने की कोशिश की तो मुझे लगा कि माया दूसरों के सामने बात करने में असहज महसूस कर रही है. मैंने ज़्यादा बात न करते हुए, शांत रहकर उसे देखना शुरू किया. कुछ समय बाद मैंने पाया कि माया अपने आसपास की दुनिया और पर्यावरण में मौजूद अन्य चीज़ों से बहुत खास तरीके से बात करती है, खासकर चित्रों के माध्यम से. अपनी कॉपी में वो तमाम तरह की तितलियां बनाती है और उनसे बात करती है. मुझे समझ आया कि वो अकेली नहीं है…वो उस दुनिया में ही खो जाती है जो उसने खुद बनाई है.”
तिलोत्तमा कहते हैं कि डर अदृश्य होता है. वो किसी शरीर का सहारा लेकर उसके आकार में अपने कोधा ढाल लेता है और फिर व्यक्ति को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने से रोकता है. उसपर विचार करना उसे और बढ़ावा देना है.
“मेरी यह कहानी यह भी सवाल करती है कि पहले से बनी-बनाई ज्ञान की इस दुनिया के खांचे को तोड़ते हुए क्या हम सीखने की नई प्रक्रिया को ईजाद कर सकते हैं? एक प्रशिक्षक होने के नाते मैं इस व्यवहारिक समस्या की ओर सभी का ध्यान रेखांकित करना चाहता हूं कि समय के साथ चलते हुए उत्तर-औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली में हमने बढ़ते दिमाग को नियंत्रित करने के लिए डर और अपमान को एक आवश्यक औज़ार बना लिया है.
हम डर और सीखने का इस्तेमाल एक ही वाक्य में कैसे कर करते हैं?
“जो मैं देखती हूं, तुम देख सकते हो?” कहानी बांग्लादेश की पृष्ठभूमि में रची-बसी है. नायक दोएल का नाम भी बांग्लादेश के राष्ट्रीय पक्षी के नास से लिया गया है. बोनबीबी, यहां के जंगलों की लोक प्रचलित देवी है जो न सिर्फ़ लोगों की रक्षा करती हैं बल्कि वे उनकी हमराज़ भी हैं. दोएल के लिए जंगल उसकी अपनी जगह है. कहानी में दोएल की दोस्त मीनू नाम की एक बिल्ली भी है और है डर का प्रतीक – जूजू. इन सारे चरित्रों के माध्यम से तिलोत्तमा – परिवार, समाज और सत्ता के बीच के संबंधों को उजागर करते हैं – कैसे मिलकर ये सारगर्भित, उन्मुक्त और अक्सर ईमानदार आवाज़ों को नियंत्रित करने का काम करते हैं. इस ग्राफिक कहानी के माध्यम से हम चहकती, महकती दोएल और कौतुहल से भरी उसकी दुनिया से मिलते हैं.
“जो मैं देखती हूं, तुम देख सकते हो?” दोएल का यह सवाल उन सभी से है जो उसकी काल्पनिक दुनिया में प्रवेश करते हैं.
इस कॉमिक्स का अनुवाद उत्पल बैनर्जी ने किया है.