अभिषेक अनिक्का, द थर्ड आई सिटी संस्करण के ‘ट्रैवल लॉग’ प्रोग्राम का हिस्सा हैं. इस प्रोग्राम ने भारत के 13 अलग-अलग शहरों से जुड़े लेखकों एवं कलाकारों को निर्देशन देने का काम किया. जिन्होंने इसके अंतर्गत नारीवादी नज़रिए से शहर के विचार की कल्पना की है.
लेख यहां सुनें :
कितकित का खेल. सब आंखें तुम पर टिकी हैं. और तुम खड़े हो एक ख़ाने के बीच, एक टांग पर. झुककर उठाते हुए गोटी. कंगारू की छलांग. टक, टक, टक. अपने आप को गिरने मत देना, झुको, उठाओ गोटी, और फिर से लौट जाओ, जहां से शुरुआत की थी. टक, टक, टक. फिर से करो. इस बार दूसरा ख़ाना. तब तक नहीं रुकना जब तक सब ख़ाने जीत ना लो.
हम सब महल्ले के बच्चे थे. उस समय इतना फर्क नहीं था लड़का-लड़की का, हमारे बीच तो नहीं. जब बड़े होने लगे तो फर्क बढ़ता गया. हम सब रहते थे लक्ष्मी सागर में. सबके समाजिक परिवेश एक से थे. हमारे मां-बाप एक दूसरे को जानते थे. वे स्थानीय कॉलेजों में पढ़ाते थे. वेतन समय पर नहीं मिलता था. पैसे कम थे. बिजली यदा कदा आती थी. ये थी हमारी छोटी सी दुनिया दरभंगा में, उत्तर बिहार का एक शहर, जहां हमारी कल्पनाओं के पनपने की प्रक्रिया शुरू हुई.
बीस साल बाद मैं वापस इस शहर में हूं. मेरी टांगें अब उस तरह काम नहीं करतीं जैसे बचपन में करती थीं. मैं अपना जीवन अब विकलांगता एवं बार-बार होने वाली बीमारी के साथ बिताता हूं.
मेरे सारे बचपन के दोस्त इस शहर को छोड़ कर चले गए हैं. कुछ दिल्ली में रहते हैं. कुछ अमरीका में. एक अब इस दुनिया मे नहीं रहा. बिजली रहती है अब हमेशा. तो बड़े टीवी भी लग गए हैं घरों में. कोई निकलता नहीं एक दूसरे से मिलने के लिए अब. आर्थिक रूप से सब सुगम हो गया है. साथ मे तेज़ इंटरनेट और खाना मंगाने वाले ऐप्स की सुविधा भी आ गई है.
सड़कें अब ज़्यादा चिकनी हैं. रेलवे क्रॉसिंग के ऊपर अब पुल हैं. पर सब कुछ सिकुड़ता जा रहा है. गलियां सिमटने लगी हैं. या शायद मैं बड़ा हो गया हूं. बूढ़ा हो गया हूं. इन सड़कों पर साईकिल चलाना आज भी याद है मुझे, आज़ाद. आज़ाद, इस शब्द के मायने फिर बदलते ही गए शब्दावली में. सरस्वती पूजा के दिन, हम सब एक साथ निकलते थे, अपनी साईकिलों पर, एक पंडाल से दूसरे पंडाल छलांग लगाते, बुनिया और सेव के पैकेट से अपनी जेबें भरते, महल्ले के उन कोनों में जाते जहां कभी नहीं गए थे. हम पर नज़र रखने वाला कोई नहीं था.
इस साल कोरोना महामारी ने लगभग खा ही लिया था मुझे. फिर क्या था, बोरिया बिस्तर बांधे वापस आ गया दरभंगा अपने मां-बाप के पास. अब यहीं रहना है जब तक आगे की राह का पता नहीं चले. वैसे यहां रहना अब उतना भी अजीब नहीं है. पिछले दो सालों में मैंने काफी समय बिताया है दरभंगा में, या यूं कहूं इस बिस्तर पर, बीमारी के चलते. दरभंगा आता हूं क्योंकि यहां मां है देखभाल करने के लिए, नज़र रखने के लिए. ज़रुरत पड़ती है. पर जब माता-पिता अपने काम के लिए बाहर जाते तो मै अकेला पड़ जाता, बोर हो जाता. फिर मैं सोचता हूं कठलबाड़ी गुमटी के बारे में. कितनी बार फंसा हूं वहां. जब बंद होता था तो घंटो खुलता ही नहीं था. सारा दिन बर्बाद हो जाता था. यह बोरियत उससे तो अच्छी है. कुछ वैसा ही तो है आजकल मेरा जीवन, अटका हुआ किसी गुमटी पर.
दोनार वाले रेलवे गुमटी से संघर्ष करना फिर भी आसान था. हम स्कूल जाने के क्रम में होते थे. गुमटी बंद होने पर हमें उतरना पड़ता था ताकि रिक्शावाले भैया रिक्शा को झुका के निकाल लें, गुमटी के गेट के नीचे से. किसी को डर नहीं लगता था. ट्रेन की परछाई भी नहीं दिखती थी. स्कूल जाने के रास्ते में हम मछली की ताक में रहते थे. किसी ने कह दिया था मछली देखना शुभ है. बच्चे थे, इसे शाश्वत सत्य मान लिया. और खस्सी की दुकानें आतीं तो आंखें बंद कर लेते. मांस देखना अशुभ था. और दिखने में भद्दा भी जब उसे छील कर उल्टा टांग दिया गया हो सड़क किनारे. सुबह की हवा में ताड़ी और पैखाने की गंद होती थी. हम तो बस मछली पर नज़रें गड़ाए रहते थे, और हमारा दिन अच्छा बन जाता.
दरभंगा मिथिला का दिल है. मुझे यह नहीं पता कि यह कितना बड़ा ऐतिहासिक सच है. मैंने तो बस यह चुरा लिया इंस्टाग्राम से, जहां लोग यह टैग इस्तेमाल करते हैं. यहां मैथिली बोली जाती है. यहां के लोगों को मैथिल कहते हैं. मैथिल लोगों को मछली बहुत पसंद है. दरभंगा के पोखर अपनी मछलियों के लिए मशहूर हैं. मुझे पोखर के पानी की मछलियां पसंद नहीं हैं. कांटे ही कांटे. कितने कांटे चुनकर रखूंगा अपने दामन में.
जब हम बच्चे थे तभी ठीक था. हम सब ऊर्जा से भरे थे. कहानियों से भरे. ज़रा सी बात पर उत्साहित हो जाते थे. शाही स्याही वाले चाइनीज पेन. नेपाल से खरीदे गए वीडियो गेम. रविवार की सुबह जंगल बुक देखना. प्लास्टिक की गेंद से क्रिकेट मैच खेलना. फिर सब को बड़ा होना पड़ा. पढ़ाई के बारे में गंभीर. अच्छे स्कूल, अच्छे कॉलेज के तलाश में निकलना पड़ा.
फिर और बड़ा होने के लिए कुछ लोगों को शादी करनी पड़ी, बच्चा पैदा करना पड़ा.
दरभंगा मे जीवन बिताने में अब एक बोरियत है. कुछ ज़्यादा करने के लिए नहीं है. कुछ देखने के लिए नहीं है. यहां एक समय दरभंगा महाराज का विशालकाय महल होता था. बेहद सुंदर. लोग आते होंगे यहां देखने के लिए. अब महल हिस्सा बन गया है स्थानीय विश्वविद्यालय का, या शहर के बढ़ते रीयल एस्टेट का. हमें कुछ बताया नहीं गया स्कूल में दरभंगा महराज के बारे में. तो ज़्यादा कुछ पता नहीं है. बस जो कुछ ऑनलाइन पढ़ा हूं वही बता सकता हूं. पर वो तो आप खुद भी पढ़ सकते हो.
मिथिला पेंटिंग के लिए दरभंगा मशहूर है, पर केवल दरभंगा के बाहर. यहां शहर में लोगों के बीच मिथिला पेंटिंग वाली साड़ी खरीदने के लिए कोई मारा-मारी नहीं है. कला का स्वाद भी उन्हीं को मिलता है जिनके पास कला की पूंजी पहले से है. और ऐसे अधिकतर लोग तो अब दरभंगा के बाहर रहते हैं. मुझे भी कुछ खास पता नहीं था. दलित मिथिला पेंटिंग के बारे में तभी पता चला जब यहां से निकल गया. यहां रहने वाले ज़्यादातर लोग आस-पास की दुकानों से कपड़े खरीदते हैं. या फिर टॉवर से. टॉवर चौक दरभंगा शहर के केंद्र के समान है. पर अगर आप लहेरियासराय रहते हैं, तब आपके जीवन का केंद्र लहरियासराय ही हो जाता है.
बचपन में टॉवर चौक की अच्छी यादें हैं. मिठाई घर का समोसा चटनी, राजस्थान रेस्टुरेंट का डोसा, और बोनांज़ा आइस क्रीम. एक स्वाद जो पिछड़ गया समय के साथ. अब सब बदल गया है. सड़क पर ट्रेफिक बहुत है. खाना तो ऐप पर भी मंगाया जा सकता है अब. यहां डिलिवरी करने वाले महोदय अक्सर साईकिल से आते हैं. पसीने से तर-बतर. तुम्हें बुरा भी लगता है. इसीलिए मैं ज़्यादा ऑर्डर नहीं करता.
जब भी मुझे अपने आप को ट्रीट करने का मन करता है तो पापा से कहकर पास की दुकान से छोटे समोसे मंगा लेता हूं. बचपन से ही इस दुकान के छोटे समोसे से मुझे अलग लगाव है. कुछ चीजों का स्वाद समय के साथ नहीं बदलता.
अब भी वो दुकान समोसे के साथ मीठी चटनी नहीं देती, जैसा बाकी जगह चलन है. साथ में या तो प्याज़ होता है या मूली, प्याज़ के दाम पर सब निर्भर करता है. मूली से कुछ लोगों की गैस निकलती है. इसलिए मैं दूर ही रहता हूं.
बचपन में जब कितकित खेलते थे तो यह नियम बन गया था कि जो भी चैंपियन बनता था उसे उसी दुकान में सबको समोसा खिलाना पड़ता था. पैसे की कमी थी तब क्योंकि हमारे अभिभावकों को वेतन समय पर नहीं मिलता था और जल्द ही हम सबने उस नियम का स्वाहा कर दिया. हम सब साथ पिकनिक पर ज़रूर गए थे. मुझे याद है हम नर्गोना गए थे, एक आम का बगान जिसपर पहले राजा और अब यूनिवर्सिटी का स्वामित्व था. बगल में मनोकामना मंदिर है जहां संगमरमर के दिवालों पर विद्यार्थी अपनी उल्टी-सीधी लिखाई में अपनी मनोकामना लिखते हैं. आई लव सुषमा. फ़र्स्ट डिविजन से पास करा दीजिए. हमारी मनोकामना बस टिकोलों की होती थी. साथ में काला नमक बांध कर ले जाते थे. कुछ लड़के पेड़ पर चढ़ जाते थे. हम तो ज़मीन पर गिरे टीकोलों को ही समेट कर खुश हो जाते थे. उस स्वाद में हमारी जीभ जैसे घुल सी जाती, तृप्ति मिल जाती.
पहले नर्गोना के आस-पास बहुत बंदर भी थे. अब नर्गोना के अधिकतर बागों में बिल्डिंग बन चुकी हैं. बंदरों के जाने के लिए कोई जगह बची नहीं. तभी सुबह से शाम हमारे घरों पर धावा बोलते रहते हैं. कहां जाएंगे वे जब पेड़ ही नहीं बचेंगे? मैं अपने पिताजी को डंडा घुमाते, चिल्लाते हुए सुन सकता हूं. इससे बंदर कितना भागते हैं यह नहीं पता. इसका आंकलन नहीं हुआ है.
मैंने भी ऊपर छत पर जाना बंद कर दिया है शाम में टहलने के लिए, बंदरों के आतंक से.
ऐसा नहीं कि मैं बहुत टहलता था. बस खड़ा होके डूबते सूरज को निहारता था. आकाश की फोटो खीचता था अपने फोन से. लगता था आकाश के कुछ रंग समेट लूं अपनी ज़िंदगी में. बड़ा सकून मिलता था मेरे विचलित हृदय को. मेरी टांगों की तरह मेरा हृदय सो नहीं गया है. एक आख़िरी फड़फड़ाहट बाकी है उसमे. बंदरों से ज़्यादा दिक्कत वो सारे लोग देते थे जो खड़े होते थे अपनी छतों पर मेरे शरीर को घूरने के लिए.
मैं अपने आप को किसी भी क्षति से बचाने के लिए घर से निकलता ही नहीं हूं दरभंगा में. इस शहर में लोगों को आदत सी है आपको घूरने की. और जिस तरह वो मेरे मोटे और विकलांग शरीर को घूरते हैं, मैं अंदर से खाली हो जाता हूं. ऐसा नहीं कि दिल्ली या पटना में ऐसा नहीं होता. बस यहां दुनिया छोटी हो जाती है. फलाना बाबू का लड़का है. सब जानते हैं. तुम्हें दया का उपहार नहीं चाहिए उन लोगों से. और ये भी पसंद नहीं कि कोई तुम्हारे माता-पिता को यह उपहार दे. बिल्कुल नहीं.
यह शहर एक पेंडुलम की तरह झूलता रहता है. कभी बड़ा शहर बन जाता है, कभी गांव, और कभी छोटा शहर. कानाफूसी में मगन, एक दूसरे से तुलना करता हुआ, अंदर से स्वार्थी. पुराने विचार आधुनिकता से हाथ में हाथ मिला कर चलते हैं.
पुराने रिवाज निभाए जाते हैं, पर साथ में डीजे भी बजते रहता है. दीदी तेरा देवर दीवाना की धुन पर बने श्यामा माई के भजन कभी पुराने नहीं होते. हर साल नई धुन ज़रूर जुड़ती जाती हैं. भोजपुरी गाने अब दरभंगा मे ही नहीं बल्कि पूरे बिहार में बहुत लोकप्रिय हैं, चाहे वहां कोई भी भाषा बोली जाती हो. भोजपुरी गानों का बोलबाला है. आजकल, बॉलीवुड के अलावा, आप पंजाबी और हरयाणवी गानों को भी रात की हवा में तैरता पा सकते हैं जब कोई बारात दरभंगा की गलियों से अपना रास्ता ढूढ़ती है. यह गाने वो उपहार हैं जो प्रवासी बिहारी, जो बाहर पढ़ते हैं या काम करते हैं, अपने साथ लेकर आते हैं.
जो चीज़ नहीं बदली है वह है लाउडस्पीकरों का उपयोग. बिजली वाले लाउडस्पीकर. इंसानी लाउडस्पीकर. बोली की मिठास के बावजूद, हर कोई सड़क पर एक दूसरे से चिल्ला कर बात करता है. और बिजली वाले लाउडस्पीकर सब पर चिल्लाते रहते हैं, सुबह-शाम. भाषा के परे. धर्म के परे. समय के परे.
पुराने भारत के कुछ भागों को संजोने की थोड़ी कोशिश की है दरभंगा ने. जब मेरी मां की एक कलीग (सहयोगी) हज यात्रा पर गईं, तो वहां से मेरे लिए पवित्र जल लेकर आईं. मैं काफी बीमार था उस वक्त. मेरी मां भी उनके परिवार में उतनी ही दिलचस्पी रखती है. यह नहीं कि एक दूसरे से शिकायत नहीं होती है. पर एक शिष्टाचार भी है. एक शिष्टाचार जो हमेशा से रहा था लोगों के बीच. आजकल सब बदल रहा है. हवा में कड़वाहट सी है.
मैं जब बच्चा था तो जेसूइट सिस्टरों द्वारा चलाए जाने वाले एक स्कूल में पढ़ता था. वो दरभंगा का सबसे उत्तम स्कूल है, मेरे हिसाब से. मेरे शिक्षक बहुत अच्छे थे. देखभाल करने वाले, पोषण करने वाले, प्यार करने वाले. उनमें से कुछ लोग केरल से आकर यहां बसे थे, और यहीं के बाशिंदे बन गए थे, मैथिली बोलने वाले.
कुछ मायनों में कर्मभूमि की खोज ही दरभंगा के लोगों को ढालती है. शिक्षा समाजिक गतिशीलता की चाभी है. पर अंत में लक्ष्य पैसा कमाना है.
हालांकि सारे लोग बाहर जाके पढ़ाई नहीं कर सकते, अधिकतर लोगों को अपना जीवन स्तर कमाने, काम की खोज में बाहर जाना ही पड़ता है.
दरभंगा मे बारे में कुछ बातें हैं जो हैरान भी करती हैं, और चेहरे पर मुस्कान भी छोड़ जाती हैं. इस शहर में मैथिल ब्राह्मणों काफी संख्या में हैं, एक समुदाय जिससे मैं भी आता हूं. इस समुदाय के लोगों में भोज खाने-खिलाने की अजीब होड़ है. जन्म से लेकर शादी, शादी से लेकर मृत्यु, मृत्यु से मोक्ष, भोज करने के अवसरों की कभी कमी नहीं होती. और खाना खिलाना एक तमाशा है, रंगभूमि वाला तमाशा. कुछ लोग पहले वंदना करके खिलाएंगे, फिर ज़ोर देकर और फिर ज़बरदस्ती.
मछली, दही, मिठाई. रसगुल्ला खाने और खिलाने का मुकाबला. एक और. तनिके. कुछ अदृश्य तरीकों से, खाना यहां की संस्कृति, समाजिक परिवेश और धर्म को आकार देता है. पोखर से भरे एक शहर में, जहां मछली कि खुशबू अपनी छाप शहर की हवा पर छोड़ जाती है, वहीं लहरियासराए के किसी कोने में बिरयानी की सुगंध जीभ पर छा जाती है. ऐसे कई कोनों से मिला नहीं हूं मैं अब तक. इस शहर का अन्वेषण चलता रहेगा, बाहर भी, और अंदर भी.
मैं ऐसे भी आजकल बाहर नहीं निकलता. कोई भोज खाने नहीं जाता. मेरी विकलांगता मुझे ऐसे मौकों पर स्टार बना देती है घूरती आखों के लिए. मैं तो स्टेज के पीछे रहने वाला व्यक्ति हूं. घर पर बैठना पसंद करता हूं. खाने में पहरेज़ करता. मखान खाता, जो दरभंगा में बड़े पैमाने पर उगाए जाते हैं और दुनिया भर में इनका उत्पादन किया जाता है. ऐसा सुना है.
मैंने दुनिया तो देखी नहीं है बहुत. और दरभंगा से दुनिया या देश देखना मुश्किल भी हो जाता है. आपको बस कितकित के ख़ाने दिखते हैं. आपका प्रयास बस यह होता है कि किस तरह अपनी गोटी उठाई जाए बिना गिरे.