विशेष सहयोग: दिप्ता भोग
पढ़ाई के दौरान हमें पांच बार फोटोसिंथेसिस के बारे में पढ़ना पड़ा. छठी क्लास से ग्यारहवीं तक हर साल लगातार मैं उसकी परिभाषा भूल जाता था इसलिए मुझे फिर से रटना पड़ता था, बावजूद इसके कि फोटोसिंथेसिस का मतलब मैं अच्छे से समझता था. इसी तरह हर साल मुझे बार-बार सीखना पड़ता था कि मेरी क्लास के लड़के दूर से ही मेरी हकीकत सूंघ लेते थे.
शुरुआत में मुझे कुछ समझ में नहीं आता था. मैंने बहुत कठिनाइयों के बाद जाना, जब कबड्डी खेलते हुए मुझे कहा गया कि मैं लड़कियों की टीम और अनुज के साथ खेलूं. फिर यही बात मुझे वॉटर पोलो और फुटबॉल में भी कही गई. शुक्र है कि मैं फुटबॉल खेलने में बहुत अच्छा नहीं था इसलिए मैं ‘वॉटर-ब्वॉय’ बन गया और खिलाड़ियों को पानी पिलाने के साथ-साथ मैदान के किनारे पर खड़े होकर लोगों का मनोरंजन भी करने लगा.
एक दिन मेरी बायोलॉजी की टीचर ने मुझे बहनजी नंबर वन और अनुज को बहनजी नंबर टू के नाम से पुकारा.
इसके पीछे उनकी मंशा यही रही होगी कि हम दोनों में थोड़ा मर्दाना भाव जागृत हो. हालांकि अगली दो कक्षाओं तक ये नाम हमारे साथ चिपके रहे, और कई सालों बाद भी इसने हमारा पीछा नहीं छोड़ा.
अनुज और मुझे ‘अम्बर धरा’ सीरीयल के टाइटल सॉन्ग को अपना गीत-संगीत बना लेना चाहिए था. इसमें जन्म से जुड़े जुड़वा बच्चे की तरह हम दोनों भी इस क्रूर दुनिया में सम्मान की तलाश में थे. हमें वो गाना बहुत पसंद था- जुड़े हैं दो सपने, जुड़े हैं दो किस्से. अब पीछे मुड़ कर देखने पर समझ आता है कि हम दोनों एक दूसरे से नहीं बल्कि, हम दोनों इस दुनिया से ऐसे जुड़े थे कि हमारा अलग होना मुश्किल था. हम दोनों दिखते अलग थे, टेढ़े-मेढ़े, उलझे या फिर बदनाम पर हमें भी सभी की तरह उन्हीं चीज़ों की तलाश थी – प्यार, सम्मान और स्वीकृति. और फोटोसिंथेसिस जैसी बातों के सीखने ने हमें ज़िंदगी की बहुमूल्य बातें सीखने में कोई मदद नहीं की!
एक समय बाद मुझे फोटोसिंथेसिस सीखने से छुटकारा मिल गया. इसी क्रम में मेरे ज़ेहन ने यह बात स्वीकार कर ली कि मैं जनाना हूं.
शायद ये सब कुछ ऐसे न होता, अगर हमारी बायोलॉजी की टीचर ने हमसे कुछ और होने के बजाय अपने भीतर झांक कर देखने को कहा होता. हम दोनों को हर साल स्कूल के नए सत्र में खुद को नए सिरे से मर्द बनने की कोशिश में जुटना नहीं पड़ता जैसा कि हमसे उम्मीद की जाती थी.
तब शायद हमारी क्लास के लड़के भी इस बात को समझ पाते कि लड़की या औरताना होना अपमानजनक नहीं है.
अमेरिका में तंग हालात में ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी करते हुए, मैंने पैसे के लिए एक बार गर्मियों में कुछ छात्रों को रचनात्मक लेखन पढ़ाने का काम ले लिया. मेरी क्लास में मोटे चश्मे और पतले-दुबले मिडिल स्कूल के बच्चे भरे पड़े थे. मैंने उनसे दूसरे दिन पूछा, “मुझे कोई कहानी बताओ जो तुम सब जानते हो”. सबने एक-दूसरे को देखा और कुछ नाम चिल्ला दिए – आयरन मैन, गार्डियंस ऑफ द गैलेक्सी और कैप्टन अमेरिका. इनमें एक भी मेरी देखी हुई नहीं थी.
“क्या आपमें से कोई फिलहाल के लिए डिज़नी की राजकुमारी वाली कहानी चुन सकता है?” मैंने उन्हें इस तरफ थोड़ा मोड़ने की कोशिश की. कुछ बच्चे मेरी पसंद पर खिलखिला दिए.
आगे बैठे एक लड़के ने कहा, “ब्यूटी एंड द बीस्ट“
मैंने सबसे जानने की कोशिश की, “सब लोग ब्यूटी एंड द बीस्ट के बारे में जानते हैं?” सबने इंकार में सिर हिला दिया.
“ठीक है, फिर हम लोग आज सिंड्रेला की कहानी पढ़ेंगे”, मैंने घोषणा की और सबसे पूछा, “सिंड्रेला क्या चाहती थी?”
क्लास में फुसफुसाहट मच गई.
मैंने टोका, “ज़ुबान खोलिए, मुंह से बोलिए. ऐसा क्या था जो सिंड्रेला के पास नहीं था?”
“कपड़े”, किसी ने कहा.
“हम्म्… पार्टी में जाने के लिए शायद – लेकिन ऐसे तो नहीं”, मैंने कहा.
“जूते”, दूसरे ने जोड़ा.
“ये भी पार्टी के लिए था”, उनकी बातों को थोड़ा ठीक करते हुए मैंने कहा.
“परी जैसी मां”. किसी ने कहा.
“एक लड़का”, कोई बोला. और मैं मुस्कुराया क्योंकि अब वे जवाब के नज़दीक पहुंच रहे थे.
“प्रिंस चार्मिंग!” तीन बच्चों ने उछल कर जवाब दिया.
“हां” मैंने उत्सुकता में आगे पूछा, “और प्रिंस चार्मिंग प्रतीक है?” मैंने पूछा.
“पैसा”
“जूते”
“प्यार”? किसी ने कहा.
“हां, सिंड्रेला को प्यार की तलाश थी.” और इन बच्चों के प्रति मातृत्व भाव से भरकर मैं फ़ख्र से ताली बचाने लगा.
पूरी क्लास के मुंह से ‘छीईंईईईईईईई…’ की ऐसी सामूहिक आवाज़ निकली जैसे सब के सब किसी रोलर कोस्टर की सवारी में बैठे नीचे गिर रहे हों.
इतनी घिन से भरी प्रतिक्रिया!
आखिर हमने कब और कैसे जाना कि प्यार घृणा लायक है?
मैं अंदाज़ा ही लगा सकता हूं कि क्लासरूम में प्यार की बात को सुनकर वे हतप्रभ रह गए. क्लासरूम ऐसी जगह है जहां बच्चों को सिखाया जाता है कि अशांति कैसी दिखती है, सज़ा की आवाज़ कैसी होती है और डंडे का स्वाद कैसा होता है. क्या इसके अलावा भी कुछ और होता है?
मुझे अचरज इस बात का था कि मैं अपने बचपन का दोबारा साक्षात्कार कर रहा था. अमेरिका तो एक आज़ाद देश माना जाता है? जहां के बच्चे समझदार, परिपक्व, अपने स्वतंत्र विवेक से काम करने वाले होंगे और जहां का कानून डंडे को बच्चे से दूर रखता है. मुझे हैरानी भी थी और खुशी भी कि मेरी ये मान्यता गलत थी. क्लासरूम ही वो जगह थी जहां प्यार का कोई ब्यौरा या बयान था.
अक्टूबर की एक बढ़ती ठंड वाली शाम को अमेरिका में मैं अपने पहले डिनर के लिए एक हिंदुस्तानी परिवार के यहां गया. उन्होंने मुझे कोंगली बिहू के मौके पर अपने घर पर आमंत्रित किया था. मैंने विषमलैंगिक कायदों के अनुसार अपने आप को प्रस्तुत किया. ढीली-ढाली शर्ट और अपने बालों को करीने से पोनीटेल में बांधा. हमारे मेज़बान के घर पर दो बच्चे थे. एक किशोर और दूसरा अभी छोटा था. अपनी उम्र से ज़्यादा होशियार दोनों बच्चों के मां-बाप ने उन्हें हर चीज में अव्वल रखने के लिए खुद को बहुत झोंका था. अपने बच्चों के लिए उनकी चाहतें थीं कि स्कूल में वो अव्वल हों ही, ग्रैमी भी जीते, ओलंपिक में मेडल लाए और डॉक्टर भी बन जाए. मां-बाप की चमकती खिली हुई हंसी – किसी नए टूथपेस्ट के कारण नहीं, बल्कि गर्व के मारे थी. बड़ा वाला लड़का जो गायक बनना चाहता था, उसने मुझसे पूछा कि क्या मैं उसके लिखे गाने के बोल देख सकता हूं?
उसने पूछा, “क्या आप बता सकते हैं कि इसमें कौन सी बातें काम कर रही हैं और कौन सी नहीं?”
गीत में एक लड़का स्कूल में आधी छुट्टी में एक लड़की को प्यार से ताक रहा है. किशोरवय के प्यार के जैसे रंग सस्ते पेपरबैक कवर पर दिखते हैं, कुछ-कुछ वैसे ही.
“क्या तुम्हारी मां को पता है?” मैंने दबी आवाज़ में उससे पूछा, जैसे कि मैं कोई एशियन आंटी हूं.
“यह लड़की काल्पनिक है”, आंखें चुराते हुए कनखियों से देखते हुए उसने जवाब दिया. उसके इस अंदाज़ पर मैं मुस्कराया.
मर्दों को आंखें चुराना कम उम्र में ही आ जाता है.
“अच्छा, अगर ऐसा है तब तो मुझे नहीं लगता कि यह गीत अहसास की ऊंचाई को छू पा रहा है. लड़का बस अपनी प्यारी चीज़ को देख रहा है. दोनों कुछ कर नहीं रहे.”
“मेरा मतलब है मैं कुछ करना नहीं चाहता. बस उसे देखते रहना चाहता हूं.”
सच तो बताना था कि उसके गीत में कोरस की कमी थी, पर जिस बेलौसपन से उसकी ज़बान ‘मैं’ कह रही थी उसमें बेशक एक नज़ाकत थी. आंख चुराने के बावजूद उसने पूरी तरह छुपाना नहीं सीखा था. उसके भाव-जगत के इर्द-गिर्द अभी कोई चारदीवारी नहीं तनी है, यह जानकर मुझे खुशी हुई. शायद वह इस बात से गाफिल है कि उसने जब कहा कि वह उसे देखते रहना चाहता है, तो उसने अनजाने में अपना एक सच उगल दिया था.
वह एक ऐसी चीज़ के मुहाने पर खड़ा था जिसके बारे में मेरी ज़िंदगी में आए हर खुद्दार व्यक्ति ने मुझे चेताया था कि स्कूल में रहते हुए ऐसा कभी मत करना – किसी के प्यार में पड़ना. उससे यह कहना कि कोरस को दुरुस्त कर ले, दरअसल दूसरे शब्दों में यह कहने के बराबर था कि किसी के प्यार में पड़ने के लिए एक शिद्दत की दरकार होती है. भले इसकी कीमत सामने वाले का इंकार ही क्यों न हो, जो ज़ाहिर है ज़िंदगी तबाह कर देता है.
सवाल यह है कि क्या मैं यह बात उसके मां-बाप के सामने कह पाता जो फिलहाल पच्चीस मेहमानों की मेज़बानी से वैसे ही हलकान थे? मैं शिष्टाचार के नाते बस इतना कह के आगे बढ़ गया, “तुम्हें कोरस पर काम करने की ज़रूरत है. बस इतना सोचो कि लड़के का दिल टूटने का सबब क्या हो सकता है.”
इतने में छोटा लड़का अपने प्लेस्टेशन पर अपनी नज़रें गढ़ाए पूछता है, “आपकी कोई गर्लफ्रेंड है क्या?”
“नहीं.” होंठो को हल्का सा मोड़कर मुस्कुराते हुए मैंने जवाब दिया.
“कोई बॉयफ्रेंड?”
“अब तक तो नहीं”, अब मैं उसके सवाल पर सच में मुस्कुराया.
“नवीन, मेरे बॉयफ्रेंड के बारे में तुमने क्यों पूछा?”
“पता नहीं. शायद इसलिए कि आप उम्र में बड़े हैं.”
यह बात मुझे नागवार गुज़री.
“तुम्हें क्या लगता है मेरी कितनी उम्र होगी?”
नवीन ने तुक्का मारा, “इक्कीस”.
राहत मिली, मैंने कहा, “ना”.
मैं सोच रहा था कि जिस तरह वह मेरी ज़िंदगी में ताकझांक कर रहा है, मैं भी करने लगूं तो कैसा रहेगा.
“नवीन, तुम्हारी कोई गर्लफ्रेंड है?”
“नहीं”.
“क्यों?”
“उससे दिमाग खराब होता है.”
“हमेशा ऐसा नहीं होता.”
“ना-ना, समय की बर्बादी है ये सब.”
“क्यों?”
“मुझे टेनिस खेलना होता है और पढ़ाई करनी होती है.”
“पर जब गर्लफ्रेंड तुमने बनाई ही नहीं तो कैसे पता कि इससे समय बरबाद होता है?”
“अभी मैं छोटा हूं.”
इस बातचीत पर कौन न सर पटक के मर जाए. फ्रांसीसी लोग ऐसी बातचीत को घायल पर गोली चलाना मानते हैं. एक तरह से इच्छाओं की मौत.
युवा देह प्रेम के लिए सबसे ज़्यादा तैयार होती है. वह चाहतों का एक भरा-पूरा गोदाम होती है. नवीन को लगता है कि जवानी में प्यार और चाहत वक्त की बर्बादी है जबकि उसका भाई पवन एक सतर्क दूरी से प्यार को खिलता हुआ देख रहा है और उसकी दिलचस्पी इसका स्तुतिगान करने में है.
जवान मस्तिष्क इसी किस्म के द्वंद में फंसे रहते हैं.
अगर समय के विपरीत कुछ नहीं ठहर सकता तो वैसे ही ऐसा कुछ नहीं है जिसे नौजवान जोश हिला नहीं सकता. उस मुलाकात के कुछ महीने बाद, मुझे वापस से उनके घर पर पार्टी का न्यौता मिला. वहां मुझे पता चला कि स्वाभाविक रूप से नवीन की रूचियां अब एक दायरे से आगे बढ़ चुकी हैं और उसने मुझे मना किया कि उसकी मां को मैं यह बात न बताऊं.
गुवाहाटी के मेरे स्कूल में दो छात्रों को एक बार लाइन में खड़ा करके सज़ा दी गई. दो सीनियर छात्र तारिक और सुषमा को स्कूल के कॉरीडोर में एक-दूसरे का हाथ थामे पकड़ लिया गया था.
हम लोग उन्हें एकटक देखते हुए अपने माथे से पसीना पोंछ रहे थे और हमारा हाथ इतनी तेज़ी से हिल रहा था जैसे मक्खियों को उड़ाने के लिए भैंसों की पूंछ हिलती है. कक्षा सात के हमारे गणित के शिक्षक वहां आए और उन्होंने किताब से झाड़ते हुए हमें भीतर भगा दिया.
भीड़ में हम सभी ने प्रेम के जहाज़ पर बैठे सज़ा के लिए तैयार उस युवा जोड़े को देखा.
हम लोग क्लास में यही बात करते हुए घुसे कि अब क्या होगा. हमारे गणित के शिक्षक ने किताब खोली और इस घटना को जायज़ ठहराते हुए बोले, “हर चीज़ का सही समय होता है और जगह होती है. प्यार-व्यार करने की यह कोई उम्र नहीं है.”
सेंट स्टीफंस में जाने का कट ऑफ परसेंटेज तो मुझे पता ही था.
उस दिन मैं सबसे पहले यही जानना चाहता था कि प्यार करने की उम्र क्या होती है.
स्कूल के कुछ नियम होते थे – जैसे, घुटनों से नीचे स्कर्ट नहीं पहनना है, बाल एक बित्ते से एक इंच भी लंबे नहीं होने चाहिए और सफेद युनिफॉर्म पर एक भी दाग नहीं होना चाहिए. हममें से कुछ गुवाहाटी के सबसे प्रतिष्ठित कैथलिक डॉन बॉस्को बॉयज़ स्कूल या सेंट मैरीज़ गर्ल्स स्कूल में दाखिला लेने में नाकामयाब रहे, पर हमारे माता-पिता को खुश रखने के लिए हमारे टीचर्स ने वहां के नियम-कायदों को ज़रूर अपना लिया था.
इसलिए ऐसा लगता था कि ये कैथलिक स्कूल हमारे पीछे पड़े हैं और साथ ही वो लड़की भी जो अजूबे की तरह बोलती थी.
अफ़वाह थी कि बॉयज़ स्कूल और गर्ल्स स्कूल के स्टुडेंट्स स्कूल की चौहद्दियों को तोड़कर एक-दूसरे से दोस्ती करने की कोशिश में रहते हैं. इन स्कूलों की चारदीवारी इनकी चाहतों को कैद नहीं कर सकी थी. जैसे ही लड़की के मां-बाप को इसका पता लगता, उसे सेंट मैरीज़ से निकाल दिया जाता और हमारे को-एड स्कूल में डाल दिया जाता था.
उस लड़की की विदेशी ज़ुबान पर हमें हैरानी होती थी. पता चला कि उसकी ज़ुबान में दो-तिहाई ब्रिटिश अंग्रेज़ी है, एक-तिहाई अमरीकी अंग्रेज़ी और बाकी असमिया. लड़कियां हंसती तो हैं, और जब वह हंसती, उसकी सारी ज़ुबानी फ़र्श पर लुढ़क जाती थीं. ऐसे हमें इस मिश्रण का पता चला.
***
तारिक और सुषमा को निधि मिस ने मैदान के गलियारे में एक-दूसरे का हाथ थामे पकड़ा था. तारिक के होंठों और ठुड्डी पर कुछ बाल उग आए थे. वह बोलता तो बाल चींटियों के जैसे हिलते थे. सुषमा ने अपनी आंखों को तीखी नज़र में ढालने के लिए काजल लगाना सीख लिया था. इतने बड़े मैदान में निधि मिस ने दोनों को कंधे से कंधा सटाते हुए देख लिया था. वह दोनों को पकड़कर हेडमास्टर के दफ़्तर में ले आईं.
हमने सोचा था कि निधी मिस को इसके लिए कोई न कोई मेडल ज़रूर मिला होगा. आखिरकार उन्होंने एक प्रेमरत जोड़े को पकड़ लिया था. ऐसे और जोड़ों का पता लगाने के लिए इतना ही काफ़ी था. बच्चों के मां-बाप का मासिक पीटीएम के अलावा बीच में स्कूल आना अशुभ माना जाता था. शिक्षक इस बात को जानते थे, और उस जोड़े को धमकी दी थी कि वे दूसरों के नाम बताएं जो एक-दूसरे का हाथ थामते हैं. ऐसा नहीं करने पर समझें कि उनकी मैय्यत तैयार है. किसी भी सामान्य कहानी की तरह उन दोनों ने भी खुद को ज़ोर-ज़ब्र से बचाने के लिए दूसरों की बलि चढ़ा दी. इसके बावजूद कहर उनपर भी गिरा.
अगले हफ़्ते सभी के माता-पिता स्कूल आए. उन्हें हर जोड़ी के अगल-बगल बिठाया गया ताकि वे अपने बच्चों के प्रेमी के प्रति नफ़रत बयान कर सकें. हम लोग बात कर रहे थे कि अब लड़की के मां-बाप उसे घर में बंद करने की सोच रहे होंगे और लड़के के मां-बाप उसे आर्मी स्कूल में भेजने का मन बना चुके होंगे.
प्यार करने के खिलाफ दुनिया भर के नियम लागू थे. पकड़े जाने का डर कितना हावी था.
इसके बावजूद मस्ती करने के नाम पर वे प्यार में ही पड़ना चाहते थे.
ऐसी घटनाओं के बाद लड़के-लड़कियां फिर से स्कूल लौट आते, फिर से प्यार करते और बेमतलब की दिक्कत के लिए खुद को लानत भेजते थे.
काश! हमें प्यार करना सिखाया जाता. तब शायद हम बड़े होकर इतने नफ़रती नहीं बनते.
दिल्ली पब्लिक स्कूल की शाखाओं के बीच फैले जातिवाद का किला भेद कर मैं दिल्ली आ चुका था. डीपीएस, आरके पुरम में तीन महीने बिताने के बाद मैं जब डीपीएस, गुवाहाटी सबसे मिलने गया, तो सबने या तो मेरी पीठ ठोंकी या मुझे चेतावनी दी.
“वहां सिगरेट और शराब मत पीना.”
“दिल्ली के लड़कों से मत झगड़ना.”
“अपनी मातृभाषा को मत भूलना.”
इन सभी चेतावनियों को सच्ची चिंता और प्रोत्साहन की चमकीली पन्नी में लपेट कर मुझे सौंपा गया था. अधिकतर शिक्षकों ने पूछा कि मुझे आगे क्या करना है.
और जैसे चंदन की महक से मंदिर का आभास होता है, वैसे ही उस यात्रा ने मुझे समझा दिया कि मैं दिल्ली क्यों जाना चाहता था.
“देखो, तुम्हें आईआईटी की तैयारी करनी चाहिए. इसका मतलब ये नहीं कि तैयारी करने से हो ही जाएगा”, मेरी पुरानी फिज़िक्स टीचर ने सलाह दी. “लेकिन तैयारी करोगे तो कम से कम एक ठीक-ठाक एनआईटी तो निकाल ही लोगे. तो, खुद को भटकाओ मत. “इतना कहकर वे मुस्कुराईं. उनके मुंह के पान की लाली होठों पर बिखर गई. एक शिक्षक होने के नाते वे मुझे इस तरह की बातें बोल सकती हैं शायद यही उनकी कामयाबी थी. मैंने उनकी बात को उत्साह के साथ लिया.
अगला तोहफा अपनी पुरानी इकोनॉमिक्स की टीचर से मिला, “जो भी करो, बस गर्लफ्रेंड मत बनाना वरना ज़िंदगी बरबाद हो जाएगी.” उन्होंने कहा.
मेरा बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ था. या तो मैं बिना गर्लफ्रेंड के आईआईटी निकालूं या फिर आईआईटी के बाद भी बिना गर्लफ्रेंड के ही रह जाऊं.
उनकी कोई भी चिंता सच नहीं हुई. न मैं आईआईटी गया न ही मेरी कोई गर्लफ्रेंड बनी.
एक शाम मैं अपने पिता से कह रहा था कि स्कूल ने कैसे प्रेम के अनुभव को ही नष्ट कर दिया है. उनका कहना था कि टीचर ऐसा न करें तो बच्चे अराजक हो जाएं. सही बात है – आप कैमिस्ट्री लैब में हमें तेज़ाब के साथ भले खुला छोड़ सकते हैं लेकिन प्यार या ऐसी किसी चीज़ पर बात करने से सब बिखर जाएगा!
ज़्यादातर स्कूली बच्चों की तरह मुझे भी प्यार के बारे में कुछ नहीं पढ़ाया गया था लेकिन सेक्स के बारे में मैं जानता था. हम जोश में आपस में पोर्नोग्राफी पर अठखेलियां करते हुए बातें किया करते थे. हमें जो चीज़ नहीं जाननी चाहिए थी, हम जानते थे और चिंतित मां-बाप हमारी पिटाई करते थे.
मैं अब भी समझने की कोशिश में हूं कि प्यार आखिर क्या होता है. अगर, मैं थोड़ा पीछे जाकर देखूं तो एक ही बात याद आती है कि उस वक्त प्यार के बारे में सोचना भी कितना भयावह हुआ करता था. इसके बावजूद वह हर जगह मौजूद था. हम लोग एमटीवी पर और फ़िल्मों में जो देखते थे, प्यार में पड़ने की थोड़ी प्रेरणा वहां से भी मिलती थी. हर गाने के कॉम्पडीशन में कोई न कोई सैयां वाला गीत गाता ही था.
प्यार हालांकि इस सबसे कुछ ज़्यादा ही बड़ा महसूस होता था. ऐसा लगता था गोया ज़िंदगी का समूचा ताना-बाना ही प्यार के धागों से बुना हुआ है, कि हम कब, कहां और कैसे प्यार करते हैं. इसका खिंचाव इतना तगड़ा था कि वह हमें अपने भीतर खींचे लिए जाता था – हमारी हरकतों में, हमारे खयालों में और हमारी हंसी में. उलटी बात यह थी कि हमारे क्लासरूमों में हमें इसकी इजाज़त नहीं थी. यह स्वीकार करना तो दूर की बात है कि ज़िंदगी ऐसी ही है, कि इस शानदार ज़िंदगी में हमें प्यार करने के लिए कुछ न कुछ ज़रूर मिलेगा और कभी प्यार हमें अपने आप से भी होगा.
प्यार का खयाल डरावना था और खुद डरा हुआ भी था. चूंकि प्यार की बातों पर लगातार पहरेदारी हुआ करती थी, तो लगता था कि सारे मामले के केंद्र में कुल मिलाकर सेक्स ही होता है. हम बहस कर सकते हैं कि ऐसा नहीं है और चाहतों को दबाए जाने के चलते ही प्यार का सवाल सेक्स के दायरे में सिमट जाता है. इसीलिए जब हमारे शिक्षक प्रेमरत जोड़ों के शिकार पर निकलते थे तब वे रोमियो-जूलिएट की ज़िन्दगी में खलनायक बनने की नाटकीय चाहत का सुख नहीं भोग रहे होते थे. वे दरअसल हमारी देह को एक-दूसरे से मिलने से रोकने की कोशिश कर रहे होते थे.
हम बड़े हुए तो एक वाजिब सवाल हमसे पूछा गया कि प्रेम में रहते हुए, क्या हम शादी करना चाहते हैं? यह सवाल इसलिए खड़ा हुआ क्योंकि हमें जो शिक्षा दी गई थी उसके मुताबिक प्रेम का एक निश्चित उद्देश्य होता है. यह उद्देश्य प्रजनन है, जो हमें इस दुनिया का स्वाभाविक हिस्सा बनाता है.
मेरे खयाल से हर बड़े-बुज़ुर्ग ये अच्छी तरह से समझते थे कि प्यार क्या-क्या कर सकता है – वह सारी व्यवस्थाओं, समीकरणों और ओहदों को उलट-पुलट कर रख सकता है.
दिल्ली की एक दोपहर जब लू चल रही थी, तब एक दोस्त ने मुझसे अपना टिफिन साझा किया.
उसने बताया, “खा ले, मम्मी ने और भी बनाया होगा.”
वह एक ऐसी लड़की थी जो अपनी बात कहने में हिचकती नहीं थी. उसे देखकर तो नहीं लगता था कि उसका कोई बॉयफ्रेंड भी होगा, लेकिन एक था. क्लास का सबसे लंबा लड़का, जिसे पूरा भरोसा था कि उसका इंजीनियरिंग में हो जाएगा क्योंकि वह सबसे अच्छी कोचिंग क्लास में जाता है.
मैं एक अपार्टमेंट में अकेला रहता था. मैंने अपने डैड को कह दिया था कि
हॉस्टल में मुझे नहीं रहना, वहां उलाहनों से ही मैं मर जाउंगा, मेरी जान को खतरा है. एक तो मैं ज़नाना था, दूसरे उत्तर-पूर्व (नॉर्थ-इस्ट) से.
वैसे यह कहना भी सही नहीं होगा कि मैं एकदम अकेला था. मुझे चूल्हे से डर लगता था और खाना बनाना नहीं आता था. इसी से मेरे ऊपर तरस खाकर उसने अपना खाना मुझे खाने को दिया था.
उसके बॉयफ्रेंड ने जब यह देखा, तो वह भड़क गया. पहले उसका बरताव मेरे प्रति ठीक रहता आया था. और लड़कों की तरह वह भी मेरा मज़ाक उड़ाता था, लेकिन हमेशा नहीं. उससे मुझे ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ता था, बल्कि उलटे यह मनोरंजक लगता था. लेकिन, इस बार उसने मुझे अपमानित करना शुरू कर दिया, फ़िल्मों में नशे में धुत शराबी की तरह लड़खड़ाते हुए.
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं. मुझे भूख लगी थी क्योंकि सुबह मैंने नाश्ता नहीं किया था और दोपहर में भी ठीक से नहीं खाया था, लेकिन मैं अपने से चार इंच लंबे उस मज़बूत लड़के से भी नहीं उलझना चाहता था. इसलिए मैंने आधी खाई भिंडी लौटा दी.
“तुम इसे क्यों परेशान कर रहे हो?” वह उसपर चिल्लाई.
इसके बाद तो दोनों के बीच गालियों की बौछार शुरू हो गई. बीच-बीच में थूक के छींटे भी उड़ आते. झगड़ा खत्म होने के बाद मैंने उससे कहा, “उसे बस जलन हो रही थी.” मैंने उसके सिर पर हाथ फेरा. विपरीत लिंगों के बीच आकर्षण की मेरी समझ नैशनल ज्योग्राफिक से ही बनी थी कि हम सब दरअसल ऐसे जानवर सरीखे हैं जो पेशाब कर के अपनी-अपनी इलाकाबंदी कर लेते हैं. जो हमारा है उसे हम अपने तक सीमित रखना चाहते हैं. समलैंगिक होने के नाते मेरी इस समझदारी में इज़ाफ़ा हुआ था. न सिर्फ हम अपनी इलाकाबंदी करते हैं बल्कि पशुओं से उलट दूसरों पर और अपने ऊपर भी पेशाब करते हैं.
“वो बदतमीज़ है. उसे दूसरों से बात करना नहीं आता”, उसने कहा.
मैं अचंभित था कि वह उसे कितना अच्छे से जानती है. उनके बीच का रिश्ता जो बाहर से देखने में मेरे लिए प्यार था, उसे वह खुद कितना आर-पार देख पा रही थी. वह जानती थी कि मुझे सम्मान न देकर वह यह कहना चाह रहा है कि कल को उसके साथ भी ऐसा ही कर सकता है.
काश मैं यह कह पाता कि वह मुझे प्यार करती है. वो नहीं करती है, जिस रूप में प्यार को मैं समझता हूं. मगर वो मुझसे प्यार करती थी, चूंकि वो खुद को प्यार करती थी. मेरे प्रति उसकी करुणा के पीछे यह फ़िक्र थी कि एक दिन उसे भी ऐसा ही सहारा चाहिए होगा और उम्मीद थी कि कोई न कोई उसके लिए भी ज़रूरत पड़ने पर लड़ेगा.
***
प्यार क्या होता है, यह दिखाने की क्षमता क्लासरूम में नहीं थी. हमने उसे घर पर सीखा, क्रिकेट और खेल के मैदानों के इर्द-गिर्द सीखा, ट्यूशन क्लास में सीखा, बसों में सीखा. प्रेम हमारे चारों ओर बिखरा पड़ा था. अकेले क्लासरूम ऐसी जगह थी जिसने लगातार प्रेम के बारे में सोचने की मेहनत को नकारा या उसके किसी भी रूप में होने को लगातार संकुचित किया.
अपनी किताब टीचिंग टू ट्रांसग्रेस में बेल हुक्स इस धारणा पर सवाल खड़ा करती हैं कि क्लासरूम का लेना-देना केवल दिमाग से है. हमारा शरीर भी तो वहीं होता है. यह बात सुनने में बहुत स्वाभाविक लग सकती है क्योंकि हम जब क्लास में बैठते हैं तो ज़ाहिर है कि हमारा शरीर कुछ जगह घेरता ही होगा. हुक्स ऐसा कह के दरअसल एक और इशारा कर रही हैं कि हम जब क्लासरूम में घुसते हैं तो हमसे अपेक्षा की जाती है कि हम अपनी देह को बाहर ही छोड़कर आएं. हमारा शरीर कैसे बढ़ रहा है और कैसे एक-दूसरे से अलग है, इस पर चर्चा करने के बजाय हमसे कहा जाता है कि इसपर ज़्यादा ध्यान नहीं देना है और जगह घेरने की उसकी क्षमता को ही संकुचित कर देना है.
यहां यूनीफ़ॉर्म शरीर की उपस्थिति को मिटा देने के अभियान का प्रतीक है.
इसके अलावा, एक और तरीका है जिसके ज़रिए इसे हासिल किया जाता है, वो है चाहतों और इच्छाओं पर पहरेदारी. शरीर हमारी चाहतों को मूर्त बनाता है. हम क्या चाहते हैं और कब, शरीर उसको एक आकार देता है. दबाया हुआ या सिमटा हुआ शरीर इस बात का लक्षण है कि कोई भी समाज शरीर को कितना कमतर मानता है. उसके जो भी गुण हैं उन्हें कैसे आंकता है. इसी के चलते लैंगिकता और यौनिकता के इर्द-गिर्द कुछ विकृत विचार पैदा हो जाते हैं जो अकसर सामाजिक कायदों का रूप ले लेते हैं. विडम्बना है कि इस रवैये को बदलने के लिए हमें उस जगह को मान्यता देनी होगी जिसे हमारा शरीर घेरता है. हमें पहले अपने शरीर और उसकी चाहतों की पुष्टि करनी होगी. हुक्स कहती हैं कि क्लासरूम ही वह जगह है जहां यह प्रक्रिया शुरू होती है. उनके लिए ‘क्लासरूम के भीतर दिया गया ज्ञान और आलोचनात्मक विचार ऐसा हो जो क्लासरूम के बाहर हमारी आदतों और जीने के तरीकों को पोषित कर सके’. चूंकि बाहर की दुनिया बहुत तेज़ी से क्लासरूम में चली आती है, इसलिए इच्छाओं पर आलोचनात्मक ढंग से विमर्श न करना अदूरदर्शी होता है.
अपनी क्लास के आखिरी दिन से एक दिन पहले मैं मिडिल स्कूल के छात्रों को किसी किरदार की बात को पकड़ने के तरीके बता रहा था. मैंने उन्हें अपने चुने किरदार को एक खास रुचि, कोई वस्तु या कोई सनक के साथ जोड़ने को कहा. उन्हें यह बात काफी अस्पष्ट जान पड़ी. तब मैंने कहा कि वे उन बातों को बताएं जो उन्हें अपने संभावित क्रश में बिलकुल नापसंद हों.
बहुत तेज़ी में पूरा कमरा उठे हुए रूमानी लाल झंडों की ऊर्जा से भर गया.
एक छात्र ने मुझे तीन बातें बताईं. मैं यह जानकर हैरत में पड़ गया कि वे तीनों बातें उसी छात्र के अपने व्यक्तित्व का आयाम थीं. यह जवाब क्लास को समझाने का एक शानदार मौका था कि हमारे और उनके बीच की रेखा बहुत पतली होती है. इसी पल मुझे अहसास हुआ कि हम जिस चीज़ को चाहते हैं, उसे अपने सामने वाले व्यक्ति पर डाल देते हैं या दर्शाते हैं जबकि हकीकत यह है कि सबसे ज़्यादा हम खुद को स्वीकार करना चाहते हैं, हम जो हैं उसका उत्सव मनाना चाहते हैं. अपने आप से ही आनंदित होना चाहते हैं. इसीलिए क्लासरूम एक ऐसी जगह होनी चाहिए जहां हमें विश्वास हो सके कि हम खुद को प्यार कर सकते हैं. और यही वो चीज़ थी जिसपर मैंने अपनी क्लास को ध्यान देने को कहा.
इस लेख का अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है.