हिंसा की शब्दावली

‘हिंसा की शब्दावली’ का निर्माण ज़मीनी स्तर पर काम करने वाली एवं अनुभवी केसवर्करों द्वारा किया गया है जो जेंडर आधारित हिंसा से जुड़े मुद्दों पर दशकों से काम करती रही हैं.

“मुझे अंग्रेज़ी का कॉम्प्रमाइज़ शब्द पसंद नहीं है. यह कठोर सा लगता है, लेकिन समझौता – इसमें कुछ बहाव है, कुछ बदलाव है.”

हंसा थपलियाल, एक फिल्ममेकर हैं, और गुड़ियाएं भी बनाती हैं. द थर्ड आई लर्निंग लैब के साथ मिलकर उन्होंने एक एनीमेशन फिल्म बनाई जो हिंसा की शब्दावली के तैयार होने के दौरान की गई वर्कशॉप की रिकॉर्डिंग्स को आधार बनाकर तैयार की है. ये फिल्म रोज़मर्रा की ज़िंदगी के सामान – कपड़ों के टुकड़ों, सुई-धागे और इंसानी आवाज़ों के स्वर के साथ काम करती है, ताकि उस रंगीन चलचित्र जैसे संसार को जीवंत किया जा सके जिसमें महिलाओं के समझौते बसे होते हैं.

केसवर्कर्स से एक मुलाकात एपिसोड 08 – मंजू सोनी

मिलिए मंजू सोनी से जो बांदा, उत्तर-प्रदेश की रहनेवाली है. मंजू, 2000 से वनांगना संस्था के साथ काम कर रही हैं. पिछले पांच साल से वे संस्था में जेंडर आधारित हिंसा के मामलों में सक्रिय रूप से काम कर रही हैं.

केसवर्कर्स से एक मुलाकात एपिसोड 07 – अवधेश गुप्ता

केसवर्कर्स के साथ मुलाकात के इस एपिसोड में मिलिए बांदा, उत्तर-प्रदेश की रहने वाली अवधेश गुप्ता से, जो 1995 से वनांगना संस्था के साथ बतौर केसवर्कर काम कर रही हैं.

केसवर्कर्स से एक मुलाकात एपिसोड 06 – कुसुम

केसवर्कर्स से मुलाकात के इस एपिसोड में मिलिए महरौनी, उत्तर-प्रदेश की रहने वाली कुसुम से, जो महरौनी स्थित सहजनी शिक्षा केंद्र के साथ 2008 से काम कर रही हैं.
अपने अनुभवों को साझा करते हुए कुसुम बताती हैं, “एलएलबी तो हमने नहीं की है, इनसे तो हम बहुत दूर हैं लेकिन हमें पता है कि किस केस में किस तरह की धारा लगना चाहिए.”

केसवर्कर्स से एक मुलाकात एपिसोड 05 – राजकुमारी प्रजापति

केसवर्कर्स के साथ मुलाकात के इस एपिसोड में मिलिए राजकुमारी प्रजापति से जो उत्तर-प्रदेश के ललितपुर की रहने वाली हैं. 2008 में जब राजकुमारी सहजनी शिक्षा केंद्र से जुड़ीं तो उस वक्त उनकी उम्र 19 साल थी. वे आवासीय शिक्षण केंद्र में बतौर एक शिक्षिका महिलाओं और किशोरियों को पढ़ाने का काम करती थीं. आगे वे सहजनी के साथ ही महिला हिंसा के मुद्दों पर काम करने लगीं और तब से आजतक एक केसवर्कर की भूमिका में निरंतर सक्रिय हैं.

नौकरी, जो आज़ादी और मजबूरी दोनों थी

बात उस दौर की है जब हमारी उम्र 16 साल की थी और अपनी मां और छोटी बहन का पेट पालने के लिए नौकरी कर रहे थे. ऐसा करने पर हमें अपने परिवार, रिश्तेदारों और मोहल्ले वालों की तरफ से बहुत सारी दिक्कतों का सामना करना पड़ा.

“मैं अपने पिता के घर वापस नहीं जा सकती”

हमारी संस्था के कुछ उसूल हैं कि कुछ मुद्दों में हम समझौता नहीं कराते. बलात्कार, दहेज हत्या या हत्या आदि जैसे गंभीर अपराधों में हम समझौता नहीं कराते हैं – मारपीट, लड़ाई-झगड़ा, बच्चों के साथ महिला को घर से निकाल देना, दहेज के लिए परेशान करना – इन मुद्दों में अगर हमारे पास केस आता है तो हम महिला के निर्णय अनुसार इकरारनामा कराते हैं.

केसवर्कर्स से एक मुलाकात एपिसोड 4 – शबीना मुमताज़

मिलिए उत्तर-प्रदेश के बांदा ज़िले में स्थित वनांगना संस्था से जुड़ी शबीना मुमताज़ से, जो पिछले 17 सालों से महिला हिंसा से जुड़े मुद्दों पर काम कर रही हैं. खुद आर्थिक, यौनिक और मानसिक यातनाओं को झेल चुकी शबीना कहती हैं, “एक महिला को न्याय मिलना चाहिए. मुझे बहुत खुशी होती है जब मैं किसी महिला को उस दलदल से बाहर निकाल लाती हूं.”

“क्या हुआ, कोई खुशखबरी नहीं है?”

समझौता ज़्यादातर दो लोगों के बीच में कराया जाता है. जैसा कि हमने देखा है, किसी परिवार में पति-पत्नी के बीच झगड़े को रोकने के लिए समझौता कराया जाता है या किसी और तरह की लड़ाई को खत्म करने के लिए भी समझौता कराया जाता है. लेकिन, ज़िंदगी में हमें कई और तरह के समझौतों से भी गुज़रना पड़ता है.

केसवर्कर डायरी | एपिसोड 3: संडे का दिन

केसवर्कर्स डायरी के तीसरे एपिसोड में एक केसवर्कर हमें अपने संडे के दिन के बारे में बताती है, सप्ताह का वह दिन जब अपने बेटे के साथ वह अपने पति के गांव जाती है जहां गांव के लोगों के तीखे सवालों के साथ-साथ उसकी सबसे प्यारी सहेली— एक महुआ के पेड़— उसका इंतज़ार कर रहा है.

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