हिंसा की शब्दावली

‘हिंसा की शब्दावली’ का निर्माण ज़मीनी स्तर पर काम करने वाली एवं अनुभवी केसवर्करों द्वारा किया गया है जो जेंडर आधारित हिंसा से जुड़े मुद्दों पर दशकों से काम करती रही हैं.

निर्णय

केसवर्कर डायरी | एपिसोड 2: निर्णय

लड़कियां या औरतें समझौता करना कहां से सीखती हैं? कैसे वे मायके और ससुराल में सभी को खुश रखने के लिए अपनी खुद की ज़िंदगी को होम करने के लिए तैयार हो जाती हैं? सच यह है कि पैदा होने से लेकर बड़े होने तक अपने आसपास मां, बहन, दादी, चाची, नानी,,,इन सभी को वे समझौता करते ही देखती हैं.

केसवर्कर्स डायरी | एपिसोड 1 : अनेकों कमरों का समझौता

कोई हमें थोड़ा प्यार करे, हमारी इज़्ज़त करे, हमें सम्मान दे- इसके लिए हम क्या-क्या जतन करते हैं, कितने तरह के समझौते करते हैं, है न! केसवर्कर्स डायरी के इस एपिसोड में उत्तर-प्रदेश के बुंदेलखंड की एक केसवर्कर हमें अपने जीवन के उन तमाम कमरों के बारे में बताती है जहां कभी उसने अपना बचपन जिया तो कभी खुद से उसे बनाया-संवारा.

केसवर्कर्स से एक मुलाकात एपिसोड 3 – हमीदा खातून

इस एपिसोड में मिलिए उत्तर-प्रदेश के लखनऊ में स्थित सद्भावना ट्रस्ट से जुड़ी हमीदा खातून से. किसी केस से जो भावनात्मक जुड़ाव है वो सबसे पहले एक केसवर्कर करती है.

केसवर्कर्स से एक मुलाकात एपिसोड 2 – पुष्पा देवी

इस एपिसोड में मिलिए उत्तर-प्रदेश के बांदा ज़िले में स्थित वनांगना संस्था से जुड़ी पुष्पा देवी से, जिनका मानना है कि वे महिला हिंसा पर काम करते हुए केंद्र में महिला को रखती हैं, परिवार को नहीं.

केसवर्कर्स से एक मुलाकात एपिसोड 1 – मीना देवी

इस एपिसोड में मिलिए उत्तर-प्रदेश के ललितपुर ज़िले में स्थित सहजनी शिक्षा केंद्र से जुड़ी मीना देवी से जो खुद यह समझने की कोशिश कर रही हैं कि कोविड के बाद लोगों की ज़िंदगियों में ऐसे कौन से बदलाव आए हैं जिनकी वजह से महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा लगातार बढ़ती जा रही है.

“वो मेरी बेटी है और मुझे उसे अकेले पालने में कोई दिक्कत नहीं है”

जेंडर आधारित हिंसा से जुड़े केस पर काम करते हुए एक केसवर्कर महसूस करती है कि कैसे हमारा जीवन उन छोटे-बड़े समझौतों से घिरा होता है जो हमें रोज़मर्रा की ज़िंदगी में करने पड़ते हैं. खासकर तब जब यह समझौते पारिवारिक विवादों और घर के भीतर सत्ता के समीकरणों की वजह से करने पड़ते हैं?

बिना शर्तों का कॉन्ट्रैक्ट – निकाहनामा

शादी या निकाह खुशी का वह मौका होता है जब लड़का और लड़की के साथ-साथ दोनों के परिवार भी एक नए रिश्ते में बंधते हैं. शादी, संस्कार होने के साथ-साथ एक समझौता भी है. कुछ समझौते कागज़ पर किए जाते हैं तो कुछ को रीति-रिवाजों का जामा पहना कर अदृश्य तरीके से लड़कियों के गले में डाल दिया जाता है.

आप क्या चाहते हैं – समझौता या न्याय?

जब सौदे की बात आती है, तब दिमाग में अनगिनत महिलाओं की मौतें आ जाती हैं. क्योंकि समाज औरत के ज़िंदा होते हुए दहेज के नाम पर और उसके मरने पर लाश का सौदा करता है. महिला मरी नहीं कि गांव प्रधान, थाना, ससुराल वाले सभी के दिमाग में यही ख्याल आता है कि अब जो हो गया, वह हो गया, मामले को यहीं रफा-दफा करते हैं और बोली लगाते हैं.

हिंसा, श्रम और समझौता

किसी महिला की ज़रूरतों को केंद्र में रखते हुए उसकी काउंसलिंग करने का क्या मतलब होता है? निर्णय लेते समय महिला के सामने अनेक सामाजिक पहलू खड़े हो जाते हैं जिनमें वह फंसती है और निकलती भी है. कई सवाल सामने होते हैं. जैसे, ससुराल छूटा तो कहां रहूंगी? क्या करूंगी?

‘हम सिर्फ़ ससुराल वापस जाने का कोम्प्रोमाईज़ नहीं करवाते हैं.’

समझौता और इकरारनामा ये दो शब्द जेंडर आधारित हिंसा से जुड़ी शब्दावली में महत्त्वपूर्ण हैं. इकरारनामा का मतलब कोर्ट-कचहरी, थाना-पुलिस, पंचायत या मध्यस्थता केंद्रों द्वारा करवाए जाने वाले समझौतों से बहुत अलग है.

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