“वो मेरी बेटी है और मुझे उसे अकेले पालने में कोई दिक्कत नहीं है”

समझौता (संज्ञा) घुटन के रूप में

चित्रांकन: शिराज़ हुसैन

जेंडर आधारित हिंसा से जुड़े केस पर काम करते हुए एक केसवर्कर महसूस करती है कि कैसे हमारा जीवन उन छोटे-बड़े समझौतों से घिरा होता है जो हमें रोज़मर्रा की ज़िंदगी में करने पड़ते हैं. खासकर तब जब यह समझौते पारिवारिक विवादों और घर के भीतर सत्ता के समीकरणों की वजह से करने पड़ते हैं? क्या इस तरह के समझौते से उभरे गुस्से, डर, लाचारी जैसे भावों को परिवारवाले समझ पाते हैं? उस महिला के मन में उस समय क्या चल रहा होता है?

लखनऊ के सद्भावना ट्रस्ट से जुड़ी यह केसवर्कर जब खुद की ज़िंदगी में झांककर देखती हैं तो उन्हें समझ आता है कि उनके लिए समझौता, घुटन का दूसरा नाम है जो आज भी उनके अंदर लाचारी की भावना को भरता रहता है. क्यों? पढ़िए सद्भावना ट्रस्ट से जुड़ी केसवर्कर की कहानी खुद उनकी कलम से.

पिछले एक साल में द थर्ड आई टीम ने उत्तर-प्रदेश के बांदा, ललितपुर और लखनऊ से जुड़ी 12 केसवर्करों के साथ मिलकर लेखन, थियेटर एवं कला आधारित शिक्षाशास्त्र (पेडागॉजी) पर काम किया. इस गहन प्रक्रिया से कुछ शब्द निकले और उनपर चर्चा करते-करते हिंसा की शब्दावली ने जन्म लिया. यह शब्दावली केसवर्करों द्वारा तैयार की गई है और यह उनके काम, अनुभव और ज़िंदगी के प्रति उनकी समझ और ज्ञान को समेटे हुए है.

 

समझौता! शादी से पहले इस शब्द के अर्थ को शायद मैं ठीक से समझ नहीं पाई थी. लेकिन, धीरे-धीरे ज़िंदगी ने इसका मतलब मुझे बहुत ही अच्छे से समझा दिया. जब, भीतर इस शब्द को टटोलने की कोशिश की तब खुद को उस मुकाम पर खड़ा पाया जहां मैंने अपने आप से न जाने कितने समझौते किए थे. पर, ज़िंदगी में मैंने सबसे बड़ा समझौता तब किया जब अपनी बेटी को अपने पति को सौंप दिया था.

उस वक्त मेरे आसपास की सारी दुनिया मेरे खिलाफ़ खड़ी थी. हर कोई बस यही कहता कि – “अपनी लड़की को वापस मत लाना, उसे आदमी (शौहर) के पास ही रहने दो…” लोग अपने फैसले मेरे सर पर मढ़ने की कोशिश करते और हर तरह से दबाव बनाते जो मुझे बिल्कुल मंज़ूर नहीं था. मेरी बेटी को मुझसे दूर करके लोगों को बहुत खुशी मिल रही थी. उस वक्त मैं चिल्ला-चिल्ला कर सभी को बस यही कहना चाहती थी कि – “वो मेरी बेटी है और मुझे उसे अकेले पालने में कोई दिक्कत नहीं है. लेकिन, लोगों ने अपने फैसले मुझपर थोप-थोप कर, मुझे अपनी बेटी से दूर रहने के समझौते पर मजबूर कर दिया. यह एक ऐसा समझौता था जिसमें मेरी कोई सहमति नहीं थी. मुझे इस समझौते से घुटन होती थी.

मेरे मायके वाले मेरे पति को बिलकुल पसंद नहीं करते थे. वे नहीं चाहते थे कि मैं अपनी बेटी के साथ ससुराल में रहूं, इसलिए वे मेरे पति पर दवाब बनाते थे कि वो अपने घर से बाहर कहीं हमारे रहने का इंतज़ाम करे. लेकिन मेरे पति ने ऐसा नहीं किया. मेरे माता-पिता को मेरी बेटी से कोई लेना-देना नहीं था. एक तरफ जहां मेरा पति मुझे और मेरी बेटी के लिए रहने का इंतज़ाम नहीं करना चाहता था वहीं दूसरी तरफ मायके वाले मुझे मेरी बेटी के साथ स्वीकार नहीं कर रहे थे. आखिरकार मेरे पति और घरवालों की बीच की कलह में मुझे अपनी बेटी को अपने पति को देना पड़ा. डिलिवरी के बाद हॉस्पिटल से मायके लौटते ही मेरे सामने से मेरी बेटी को मेरा पति लेकर चला गया.

“पालने दो उसको लड़की, तुम दूसरी शादी कर लो और आराम से रहो, बच्चे तो फिर से हो जाएंगे.” लोग कहते कि यह बात वह मेरी भलाई के लिए कह रहे हैं. पर, सच्चाई यह थी कि उनकी इन भलाई की बातों से मेरा दम घुटता था.

मायके और ससुराल, दोनों परिवारों के आपसी लड़ाई-झगड़े में मेरी बेटी मुझसे दूर हो गई. दोनों परिवारों ने मुझसे बिना पूछे हमारे लिए समझौता कर, मेरी बेटी को मुझसे अलग कर दिया. घरवालों का दबाव इतना था कि उनके डर से मैं अपनी बेटी को देख भी नहीं सकती थी. इस तरह पूरे 13 महीने मैंने अपनी बेटी की याद में गुज़ार दिए. ना तो कोर्ट से मुझे कोई सहारा मिला न ही समाज ने मेरी कोई मदद की. उस वक्त मैं आर्थिक और सामाजिक दोनों स्थितियों से बहुत कमज़ोर थी. ऑपरेशन से बच्चा होने के बाद मैं ठीक से रिकवर भी नहीं कर पाई थी कि मैंने एक ऑफिस में ऑपरेटर की नौकरी शुरू कर दी. दो महीने हो गए थे लेकिन मैं अपनी बेटी से नहीं मिल पाई थी. इतना सब कुछ होते हुए भी मेरे मन में बस एक ही बात घर कर रही थी कि मुझे अपनी बेटी को वापस लाना है, बस!

रात, दिन, सुबह और शाम बस मुझे अपनी बेटी की सूरत ही नज़र आती थी. दिल न तो किसी महफ़िल में लगता, और न ही अकेले में. खाना-पीना कुछ अच्छा नहीं लगता था. उस वक्त, उदासी ने मेरे चेहरे पर घर बना लिया था. बस एक ही बात को लेकर मैं भीतर ही भीतर घुटती रहती और खुद को कोसती कि – “मैं कैसी हूं जो अपनी बच्ची को अपने पास नहीं ला पा रही हूं. मैंने सोचा भी नहीं था कि मेरी ज़िंदगी में कभी ऐसा भी पल आएगा जब मुझे अपनी बच्ची से दूर कर दिया जाएगा! जब कभी रिक्शा या टैक्सी में बैठकर कहीं जा रही होती और किसी औरत को अपने बच्चे को गोद में लिए देखती तो, बस मेरा मन तड़प उठता. उस पल मेरी यही इच्छा होती कि उस बच्चे को अपनी गोद में ले लूं. आज भी जब मैं किसी एक-दो महीने के बच्चे को कहीं देखती हूं, तो मेरा दिल मचल जाता है. शायद, आज भी उस समझौते की घुटन मेरे दिल में कहीं न कहीं कायम है जो मैंने अपनी बच्ची को दे कर किया था. इस बात को लेकर मैं आज भी मन ही मन घुटती रहती हूं कि कोई कैसे एक मां के पास से उसकी दुधमुही बच्ची को ले जा सकता है.

अपनी बेटी की याद में एक-एक दिन गुज़ारते हुए 13 महीने पूरे हो गए, पर, मैंने अपना फैसला नहीं बदला. तभी, मेरी मुलाकात सद्भावना ट्रस्ट की एक कार्यकर्ता से हुई. उस कार्यकर्ता के ज़रिए मैं सद्भावना के दफ़्तर पहुंची जहां मेरी बात की सुनवाई हुई और कोशिश करके आखिरकार मेरी बेटी मेरे पास लौट आई. अब वो मेरे साथ है और लखनऊ के बेहतरीन स्कूल में पढ़ रही है. लेकिन, उस समझौते और घुटन के अहसास को मैं आज भी महसूस कर सकती हूं. जब, मैं किसी महिला के मुंह से सुनती हूं कि उसके बच्चे को उससे छीन कर, उसे घर से बाहर निकाल दिया गया है, तो मैं ‘समझौते की हुकूमत’ की छाप उस महिला के चेहरे पर देख पाती हूं. इन्ही सब बातों को लेकर मैंने अपनी ज़िंदगी को अकेले गुज़ारने का फैसला किया. ऐसा नहीं कि अगर आदमी आपके साथ नहीं तो आप खुश नहीं रह सकती हैं. मैं अपनी ज़िंदगी में अपनी बच्ची के साथ खुश हूं. जहां दिल करता है, उसके साथ जाती हूं, घूमती-फिरती हूं. मेरी सबसे बड़ी खुशी मेरी बेटी ही है.

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