रियाज़

नारीवादी सोच एक बहुरंगी चश्मा है जो हमारे जीवन के भिन्न और उलझते तारों को देखने में मदद करता है. यहां हम अपनी सामूहिक, सामाजिक कोशिशों को साझा करते हैं. विरोधी स्वरों, अपनी आकार लेती पहचानों और रोज़मर्रा के बदलते मौसम, भावनाओं को खोलते हैं. तिल भर में भी दुनिया को जानने का ज्ञान है – इस नज़र से भी ज्ञान को समझते हैं.

क्या आप भारतीय महिलाओं के साहित्यिक लेखन के 150 साल पुराने इतिहास के बारे में जानते हैं?

हैदराबादी महिलाएं 19वीं सदी के उत्तरार्ध से ही उर्दू भाषा में साहित्य सृजन कर रही थीं. वैसे यह कोई अनूठी बात नहीं क्योंकि यह वही दौर था जब बिहार और बंगाल जैसे राज्यों में भी महिलाएं साहित्य रचना कर रही थीं. स्त्री लेखन के इस उभार के अपने ऐतिहासिक कारण रहे हैं, जिन पर इस लेख में मैं बाद में बात करूंगी.

‘ये है असुर अखड़ा रेडियो, नाचेंगे…खेलेंगे…गाएंगे…’

झारखंड राज्य की राजधानी से लगभग 150 किलोमीटर दूर लातेहार ज़िले में नेतरहाट का इलाका अपने खूबसूरत पहाड़ों और जंगलों के लिए जाना जाता है. ठंड यहां पूरे साल बनी रहती है. पहाड़ों पर छोटे-छोटे गांव बसे हैं.

शब्दों की आड़ में

मेरी एक छात्रा हुआ करती थी जो बहुत कम बोलती थी. बस उतना ही बोलती जितने की उसे ज़रूरत होती, वो भी काफी कम. ऐसा नहीं है कि उसे बोलने से डर लगता था या वह संकोची रही हो. बस अपने शब्‍दों को लेकर वह इतना सतर्क रहती थी कि जब तक समझ न आए क्‍या बोलना है, वह चुप रहती थी.

लाइफ इन 10 – हमारी ज़िंदगी में आम्बेडकर

2022 में डॉ. भीमराव आम्बेडकर की 131वीं जयंती पर द थर्ड आई ने कुछ शिक्षकों से बात की और उनसे जाना कि शिक्षण कार्य से जुड़े होने पर सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में आम्बेडकर उन्हें कैसे प्रभावित करते हैं.

शहर और सिनेमा

शहर के बनने और लगातार बढ़ने के परिदृश्यों और कारकों को डॉक्यूमेंट्री फिल्मों ने समय-समय पर अपने कैमरे में कैद करने की कोशिश की है. इस विषय से जुड़ी फिल्मों को किसी एक लिस्ट में समेट पाना बहुत ही मुश्किल काम है. इस सूची के ज़रिए हमारा मकसद सिनेमा और शहर पर एक सार्थक बातचीत की शुरुआत करना है.

“गांव में लोग रात में मछली पकड़ते हैं और शहरों में अपना काम पूरा करके सो जाते हैं”

मेरा गांव कोंकेया, झारखंड के खूंटी ज़िले में आता है. मुझे वहां के पर्व-त्यौहारों में सभी के साथ मिलकर नाचना-गाना, एक-दूसरे के घर जाना, मिठाई खाना, वहां की चहल-पहल अच्छी लगती है. खासकर जब ढोल, नगाड़े, मादर बजते हैं और लोग साथ में गाने हैं, मुझे बड़ी खुशी होती है.

“पहले घर में कपड़े रखने के लिए कुछ नहीं था, तो मुझे बहुत खुशी हुई कि अब मेरे घर में भी बक्सा है.”

मैं अपने गांव कोंकेया से, जो झारखंड के खूंटी ज़िले में आता है, दिल्ली इसलिए गई कि मेरे गांव की दो लड़कियां दिल्ली गई हुई थीं. जब भी दोनों गांव आती थीं, अच्छे कपड़े पहनतीं, उनके पैरों में चप्पल होती, अच्छी खुशबू वाला तेल लगातीं, चेहरा गोरा यानी साफ दिखता था, मोटी होकर आतीं.

छत, दिल्ली और नसरीन के अफसाने

20 साल की नसरीन, दिल्ली शहर को अपनी छत से देख रही है क्योंकि पूरे शहर में यही वो एक जगह है जो उसे अपनी लगती है, जहां वो कभी भी आ-जा सकती है. जिस महानगर में सांप की तरह तेज़ी से भागती मेट्रो मिनटों में एक जगह से दूसरी जगह पहुंचा देती है, वहीं नसरीन के लिए उसका शहर उसकी पहुंच से बहुत दूर है.

“हमारी ज़िंदगियां दो समांतर रेखाओं की तरह है. हम दोनों की भटकन और तलाश एक जैसी है.”

उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर फतेहपुर के रहने वाले रुहान आतिश अपनी पहचान एक ट्रांसमैन के रूप में देखते हैं. उन्हें कविताएं लिखने का शौक है. वकील होने के साथ-साथ वे एक कार्यकर्ता भी हैं. इस सीरीज़ में रूहान के ‘नक्शा ए मन’ को आकार देने का काम तमिलनाडु की रहने वाली, ट्रांसजेंडर कार्यकर्ता, कवि, उद्धमी, एक्टर एवं प्रेरक वक्ता कल्कि सुब्रमण्यम ने किया है.

कमरा और उसके भीतर की कहानियां

इस नक्शा ए मन में एक ट्रैवल लेखक के साथ एक कलाकार, लेखक के मन के नक्शे को सामने लाने का प्रयास कर रही हैं. “किसी का कमरा बहुत ही व्यक्तिगत जगह होती है. हम चाहते थे कि कुछ ऐसी चीज़ें हों जो किसी को भी दुविधा में डाल दें, किसी को पता न चल पाए कि इस कमरे में रहने वाले का जेंडर, उसकी उम्र, सेक्सुएलिटी क्या है, ऐसे कमरों में किस तरह की बातें होती हैं!”

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