कैसा दिखता है या दिखती है एक किसान? आपके मन में इसकी जो छवि उभरी है, मुमकिन है कि यह एक मर्द की छवि हो. अगर हम देश के सबसे बड़े किसान आंदोलन की मीडिया कवरेज को देखें जो – वर्ष 2020 में नए कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहा है- उसमें भी वह (मीडिया) औरतों की बहुत कम मौजूदगी दर्ज करता है. हम जानते हैं कि औरतें खेती-किसानी में लगी हैं, मगर विभिन्न तरीकों से उन औरतों की छवियों को हम ऐसे बांट-बांटकर देखते हैं, जैसे वे महज़ मर्दों की ‘मददगार’ हैं.
यह कहना ठीक है कि यह एक रूढ़ छवि है, मगर हमारे इस पूर्वग्रह से कोई या किसी का नुकसान है? हमारा सोचना कि हिंदुस्तानी किसान मर्द ही होते हैं, क्या इस सोच की वजह से कोई बड़े नतीजे निकलते हैं?
कंचनबाला 1970 के दशक में, जयप्रकाश आंदोलन की शुरूआत से ही बिहार के बोधगया और अन्य जगहों पर महिला किसानों के साथ काम कर रही हैं. वे कहती हैं,
आपको यह समझना है कि इस समाज में एक महिला किसान जैसी कोई चीज़ ही नहीं है. वह अस्तित्व में ही नहीं है. भले ही प्रगतिशील अंदाज़ में अख़बारों में छपने वाले विचार-लेख और चमकदार व नुमाइशी सरकारी नीति-दस्तावेज़ ‘महिला किसान’ का ज़िक्र करते हों, मगर हर दिन इस्तेमाल होने वाले कामचलाऊ लफ्ज़ ‘किसान’ का मतलब मर्द ही होता है. एक किसान का उत्तराधिकार एक मर्द का उत्तराधिकार है और एक किसान का दस्तूरी (संवैधानिक) वक्फ (निधि) एक मर्द का ही वक्फ है. किसानों के लिए बने सरकारी फायदों का प्रावधान, कर्ज़ तथा क्रेडिट कार्ड की व्यवस्था मर्दों के लिए ही है.
किसानों को मिलने वाले खाद और बीज मर्दों को ही मिलते हैं और वे मर्द ही होते हैं जो ज़मीन को खरीद- बेच सकते हैं. महिलाओं को कर्ज़ नहीं मिलते. यहां हम न सिर्फ अधिकारों के बारे में, जो कानूनी और गैर-कानूनी-दोनों हो सकते हैं, बल्कि ज़हनियत (मानसिकता) के बारे में भी बात कर रहे हैं.’
2011 की जनगणना के अनुसार महिला कामगारों की करीब 65.1 फीसदी आबादी या तो किसान या खेतिहर मज़दूर के रूप में खेती-किसानी पर निर्भर है. यह आंकड़ा मर्द कामगारों के मामले में 49.8 फीसदी का ही है.*
संख्याएं कहती हैं क्या?
संख्याएं बताती हैं कि हमारे पूर्वग्रह महिलाओं की बहुत बड़ी जमात और उनके काम को गौण कर देते हैं. नेशनल काउंसिल ऑफ एपलायड इकॉनोमिक रिसर्च (एन.सी.ए.ई.आर.2018) और अमेरिका के मेरीलैंड विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार हिंदुस्तान में महिलाएं, कुल कृषि श्रम-शक्ति में 42 फीसदी से ज़्यादा हैं. अध्ययन यह भी दिखाते हैं कि जहां ग्रामीण क्षेत्रों में मर्द कृषि से गैर-कृषि पेशों की तरफ बढ़ते हुए शहरों की ओर जा रहे हैं, वहीं ज़्यादातर महिलाएं खेतिहर कामों की तरफ बढ़ रही हैं.
अगर आप इस सवाल को दूसरे छोर से देखें तो? भारत सरकार द्वारा जारी 2017-2018 के ‘आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण’ के अनुसार देश की 73.2 फीसदी ग्रामीण महिलाएं कामगार खेती-किसानी में लगी हैं. इसका अर्थ है कि अब भी वह कोई भी तस्वीर जो महिलाओं को ‘गैर कामकाजी’ दिखाती है, वह पूरी तरह झूठी है.
महिला किसानों को कामकाजी महिलाओं के रूप में देखने के लिए हमें नए तरीके से यह परखना होगा कि आख़िर हमारे लिए कार्यस्थल का मतलब क्या है. महिला खेतिहर मज़दूरों को कामगारों के तौर पर नहीं पहचानना, पेंशन और संस्थागत कर्ज जैसे हकों से लाखों इंसानों को बेदखल करना है.
हिंदुस्तान में कार्यस्थल पर होने वाले यौन-उत्पीड़न के खिलाफ़ जो कानून बने, उनके बनने के पीछे ग्रामीण परिवेश की दर्दनाक परिस्थिति, भंवरी देवी का बलात्कार जैसी भयानक त्रासदियां कारण बनीं. हालांकि जब हम यौन-उत्पीड़न पर बात करते हैं, हमारी चर्चाओं में शहरी मध्यवर्गीय नौकरी-पेशे ही प्रमुखता हासिल करते हैं.
जैसा कि ‘खबर लहरिया’ रिपोर्ट करती है कि ‘‘स्थानीय गल्ला-मंडियों में भी महिला किसान गंभीर किस्म के भेदभाव का सामना करती हैं और उनके साथ यौन-उत्पीड़न से भरे ऐसे बुरे बर्ताव होते हैं जिनका अब तक कोई कानूनी समाधान नहीं निकाला गया है.” जहां इन मंडियों में महिलाएं दिन-ब-दिन और सप्ताह-दर-सप्ताह गुज़ारती हैं, वहां शौचालय भी नहीं होते. जिसके कारण उन्हें स्वास्थ्य संबंधी इसके अनेक दुष्परिणाम झेलने पड़ते हैं.
खेती-किसानी (घरेलू श्रम और सेवा-सहायता समेत) में लगी लाखों महिलाओं की मौजूदगी का तथ्य हमें सोचने के लिए मजबूर करता है कि आख़िर यह महिलाएं क्यों इस तरह की गैर-महफूज़ियत की गिरफ़्त में हैं?
हिंदुस्तान की राज्य-व्यवस्था द्वारा बनाई गई कृषि नीति को ज़रूरी तौर पर खेती-किसानी में महिलाओं की मौजूदगी की पहचान से प्रभावित होना चाहिए. उसे खेती-किसानी के पेशों में मौजूद जेंडर-संबंधी रुकावटों को ख़त्म करना चाहिए. आख़िर क्या हैं ये रुकावटें? इन अवरोधों में एक ऐसा मूल अवरोध है जो कृषि क्षेत्र में मर्दों और औरतों के बीच की बुनियादी भिन्नता से जुड़ा है.
सेंटर फॉर लैंड गवर्नेंस संस्था के अनुसार भले ही महिलाएं खेत-खलिहानों में काम कर रही हों, वे केवल 12.8 फीसदी परिचालन योग्य भूमि जोत का ही मालिकाना हक़ रखती हैं.
ज़मीन से वंचित महिला किसान
नारीवादी अर्थशास्त्री प्रोफेसर बीना अग्रवाल ने 1994 की अपनी मशहूर किताब ‘अ फील्ड्स ऑफ़ वन्स ओन’ में लिखा था कि “वह एकमात्र सबसे अहम कारक जो महिलाओं के हालात को प्रभावित करता है, वह है – संपत्ति पर इख्तियार में जेंडर का फासला”. यह फासला तब से अब तक बहुत कम बदला है.
प्रोफेसर अग्रवाल ने 2016 के एक साक्षात्कार में अपने इस बीस साल पुराने वक्तव्य पर चर्चा करते हुए कहा कि “महिला किसानों पर काम करते हुए मुझे यह स्पष्ट हुआ कि महिलाओं की वंचित हैसियत ख़ासकर ज़मीन जैसी उपजाऊ जायदाद पर उनके अधिकार की कमी से गहरे जुड़े हैं. इसकी वजह से उन्हें क़र्ज़, औज़ार व यंत्र और तकनीक तक पहुंच हासिल करने में मुश्किलें आती हैं. दरअसल ग्रामीण हिंदुस्तान के ढांचों पर काम करने वाला कोई भी इंसान जानता है कि यह ज़मीन का मालिकाना हक़ ही है जो यह तय करता है कि कोई परिवार गरीब है या माली तौर पर मज़बूत. यही मालिकाना हक़ उसकी सामाजिक हैसियत और राजनीतिक ताकत को भी तय करता है. और तो और, वे महिलाएं जिनके पास खुद की संपत्ति नहीं भी है, लेकिन अगर वे ज़मीन-जायदाद वाले घरों की हैं, तो उन्हें भरा-पूरा और खुशहाल माना जाता है.”
जैसाकि बीना अग्रवाल ने कहा, “हकीकत यही है कि परिवारों के भीतर संसाधनों और कार्यभारों, शिक्षा और स्वास्थ्य, यहां तक कि बच्चियों की उत्तरजीविता (अस्तित्व में बने रहने की स्थिति) के मामलों में भारी असमानताएं हैं. मैंने पाया कि जिनके पास ट्रैक्टर है, उन परिवारों में भी महिलाएं आदम ज़माने के धुएं फेंकने वाले चूल्हों पर खाना पकाती हैं. इनसे उन महिलाओं की सेहत पर गंभीर असर पड़ते हैं. वे महिलाएं जिनके पास खुद की संपत्ति-जायदाद नहीं होती, उनमें अपने परिवारों और समुदायों के भीतर मोल-तोल करने की भी सीमित ताकत होती है.”
राजनीतिक अधिकारों की स्थिति
जब हम यह पहचान करते हैं कि महिला किसान ‘ओझल’ हैं, तब हम समझ लेते हैं कि किसानों का प्रतिनिधित्व ‘किसान’ की आबादी की तुलना में कम है. इसका अर्थ है कि अगर सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सिंचाई के लिए मूलभूत सुविधाओें की कमी 10,000 किसानों को प्रभावित कर रही है, तब इस 10,000 के आंकड़ों में महिला किसानों की गिनती नहीं होती जो इस समस्या से प्रभावित हैं. ‘किसान’ की सियासी कोटि में महिलाओं को शामिल नहीं किए जाने का मतलब होता है – महिलाओं का बेहद कम प्रतिनिधित्व.
2016 में ‘गोरखपुर इंवायरेन्मेंटल एक्शन ग्रुप’ और गैर-सरकारी संस्था ‘ऑक्सफैम’ द्वारा कराए गए सर्वेक्षण ‘उत्तर प्रदेश में महिला किसानों की स्थिति’ के अनुसार सरकारी समितियों, योजनाओं और कार्यक्रमों में महज़ 2.3 फीसदी महिला किसानों की मौजूदगी है. हद तो यह है कि मौत की घटनाओं में भी महिला किसानों व कामगारों की अनदेखी होती है.
भारत सरकार के गृह मंत्रालय से जुड़ा राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो महिला किसानों और किसान विधवाओं द्वारा की जाने वाली आत्महत्या की घटनाओं की गिनती ही नहीं करता. वह उन घटनाओं को किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्या की उस कोटि में शामिल नहीं करता जिससे सियासी जवाब-तलबी का दौर शुरू हो जाता है.
इस तरह महिला किसानों के ‘ओझलीकरण’ का मतलब है कि आत्महत्याओं की संख्या, जिसे ‘गृहणियों की आत्महत्या’ के तौर पर दर्ज किया जाता है. ये घटनाएं महिला किसानों व मज़दूरों की आत्महत्या की घटनाओं के रूप में दर्ज नहीं हो पाती.
ज़मीन के मालिकाना हक़, हिंसा और ताकत से जुड़े सवाल
कंचनबाला कहती हैं, “हम हर शाम मिला करते थे और चीज़ों के बारे में बात करते थे. कभी आपको एक महिला यह बताते हुए मिलेंगी कि किस तरह उनके घर का मुखिया या पंचायत या प्रधान ने उन्हें मारा-पीटा क्योंकि उस मर्द को जो खाना दिया गया था, उसमें नमक तेज़ था. वह महिला बुरी तरह पीटी गई. वह अब भी डरी हुई हैं और कहती हैं कि यह मर्द, क्या करेगा जब वह जोतदार भी बन जाएगा? वह जो काम करता है, उसे वह भी तो करती है. तब आख़िर क्यों ज़मीन का ‘कानूनी दस्तावेज़’ उसके नाम पर ही होना चाहिए? कायदे से यह दस्तावेज़ तो औरत और मर्द – दोनों के नाम पर होना चाहिए”.
कंचनबाला ने बताया कि (लगातार ऐसी महिलाओं से संवाद करने का) नतीजा यह निकला कि जब बिहार और अन्य जगह इंदिरा आवास योजना और अन्य ऐसी योजनाओं के तहत बेघरों के लिए घर बने, तब उसके कानूनी दस्तावेज़ पति और पत्नी – दोनों के नाम पर बने. प्रोफेसर बीना अग्रवाल और उनके सहकर्मी प्रदीप पांडा द्वारा केरल में किया गया एक अध्ययन बताता है कि जब महिलाएं अचल संपत्ति (घर या ज़मीन) का मालिकाना हक़ हासिल करती हैं, तब चैंकाने वाले तरीके से उसका असर घरेलू हिंसा पर भी पड़ता है. अग्रवाल कहती हैं,
“15 से 49 साल के बीच की विवाहित महिलाएं जिन्हें न तो ज़मीन और न ही घर का मालिकाना हक़ हासिल था, उनमें 49 फीसदी शारीरिक हिंसा की चपेट में आ चुकी थीं, मगर केवल 7 फीसदी ही ऐसी हिंसा की चपेट में आईं थीं जिन्हें ज़मीन और घर - दोनों का मालिकाना हक़ हासिल था और क्रमशः 18 फीसदी और 10 फीसदी ऐसी महिलाएं थीं, जो या तो ज़मीन या सिर्फ घर पर ही मालिकाना हक़ रखती थीं”
ज़मीन पर मालिकाना हक और अपने बूते किसान बनने की पहचान (जिसे प्रोफेसर अग्रवाल ज़मीन पर ‘इख़्तियार’कहती हैं) से निर्णय लेने की प्रक्रिया में भी भारी बदलाव आते हैं. बोधगया की एक महिला किसान बड़की ने बताया, “जब मेरे हाथ में बैंक के कर्ज़ से रुपये आ गए, तब मेरे पति ने उसे हथियाना चाहा ताकि वह उन रुपयों को उड़ा सके. मैंने उसे रुपये नहीं दिए और एक बैल ख़रीद लिया. इसके बाद पूरे गांव में ऐसा ही हुआ. किसी भी मर्द को कोई पैसा नहीं मिला और हर परिवार ने बैल ख़रीद लिए. यही वह परेशानी है जिसका सामना मर्द कर रहे हैं. अगर ज़मीन महिलाओं के नाम पर हों, तब लिए जाने वाले किसी भी कर्ज़ को पियक्कड़ी या अन्य किसी तरीके से लुटाने पर खर्च नहीं किया जा सकता”.
राज्य से हकदारी
चूंकि महिलाएं न तो ‘किसान’ और न ही ‘जोतदार’ मानी जाती हैं, इसलिए कृषि-उत्पादन (क़र्ज़, सब्सिडी, खाद या बीज के आवंटन, आदि) को सुगम बनाने के लिए तय किए गए अधिकार और कानूनी हक के प्रावधान महिलाओं के लिए लागू नहीं होते. इन सबके कारण महिला किसानों की आजीविका के हालात अपने मर्द साझीदारों के हालात से भी बदतर हो जाते हैं.
जहां तक 2020 के इस किसान आंदोलन की बात है, यह क़ानून महिला किसानों और महिला खेतिहर मज़दूरों को कैसे प्रभावित कर रहा है? कैंब्रिज विश्वविद्यालय की शोधकर्ता श्रेया सिंहा दो बड़े झटकों की ओर इशारा करती हैं. उनके अनुसार, “पहला तो यह कि देश के अनेक हिस्सों में खेती-किसानी से मर्दों के पलायन के बाद इसकी ज़िम्मेवारी महिलाओं पर ही आ जाती है.
अगर ठेका-आधारित खेती का चलन शुरू हुआ, तब वे महिलाएं कहां जाएंगी जिनके नाम न तो ज़मीन-जायदाद के कानूनी दस्तावेज़ों पर दर्ज हैं और न ही क़र्ज़ के कागज़ातों (छोटे-छोटे क्रेडिट क़र्ज़ के अलावा) पर. दूसरा यह कि इन नए कृषि कानूनों के तहत अब किसान कहीं भी जाकर अपना उत्पाद बेच सकते हैं, मगर उन महिला किसानों का क्या होगा, जो अपनी सीमित गतिशीलता के कारण कहीं भी आ-जा नहीं सकतीं.
यह वाकई चकित करने वाली बात है कि इन कानूनों को महिला किसानों की ढांचागत गैर-महफूज़ियत को ध्यान में रखे बगैर बनाया गया है. सचमुच ही पूरे विमर्श में महिलाएं ओझल हैं”.
कैसे हम ज़मीन के मालिकाना हक़ के स्वरूप को बदल सकते हैं?
‘इंडियन ह्यूमन डवेलपमेंट’ (2018) के अनुसार 2 फीसदी से भी कम परिवार की महिला सदस्य खेती की ज़मीन की उत्तराधिकारी हो पाती हैं. इसलिए इसका समाधान उत्तराधिकार के कानूनों में बदलाव करके ही किया जा सकता है. अगस्त, 2020 में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘हिंदू उत्तराधिकार कानून’ के पहले के संशोधनों की अस्पष्टता को दूर करते हुए कहा कि बेटों की तरह बेटियां भी समान तौर पर पैतृक संपत्ति की हकदार हैं.
ज़रूर ही जेंडर-न्यायशील उत्तराधिकार कानून अहम है, मगर वे पर्याप्त नहीं हैं. देश के सामाजिक और राजनीतिक आर्थिकी पर तथ्य दर्ज करने वाली एजेंसी ‘इंडियास्पेंड’ के अनुसार ‘‘अधिकतम 4.9 फीसदी किसान ही देश के 32 फीसदी खेती की ज़मीन पर कब्ज़ा रखते हैं. एक ‘बहुत बड़े’ किसान के पास एक ‘सीमांत’ किसान से 45 गुना ज़्यादा ज़मीन है. करीब दस करोड़ दस लाख यानी 56.4 फीसदी से ज़्यादा ग्रामीण परिवारों के पास खेती की कोई ज़मीन ही नहीं है”.
मकाम से जुड़ी कार्यकर्ता (एक्टीविस्ट) कीर्ति कहती हैं कि “महिलाओं के भूमि-अधिकारों को दलित या मूल निवासी समुदायों के भूमि-अधिकारों (उदाहरण के तौर पर जंगलों और नदियों पर उनके अधिकारों) के सवालों से अलग-थलग कर देखा नहीं जा सकता”. वह कहती हैं, “महिलाओं के भूमि-अधिकार के सवाल भूमि-सुधार और पुनर्वितरण के मुद्दों से बहुत गहरे तौर पर जुड़े हैं. यह केवल संपत्ति के अधिकार कानून में किए जाने वाले इस या उस संशोधन से हासिल नहीं हो सकते. 33 लाख परिवार भूमिहीन हैं. आदिवासी जोतकार ज़मीन के बहुत छोटे टुकड़ों के मालिक हैं. हम उनके बारे में क्या सोचते हैं?’’
कीर्ति का कहना है कि हमें एक ऐसे नीतिगत माहौल में काम करना है जहां सरकार महिलाओं को भूमि सुधारों के ज़रिए ज़मीन दे या ज़मीनों को ख़रीदकर उन्हें महिलाओं तथा अन्य भूमिहीन लोगों में बांटे. यह कोई नया विचार नहीं है और न ही बगैर सोचे-विचारे दिया जाने वाला भावुक विचार. यह विचार तीन दशकों से चर्चा में है. 2008 में ही बिहार में बंदोपाध्याय आयोग ने इसकी अनुशंसा की थी.
किस तरह महिला किसान अपने हकों के लिए लड़ रही है?
दशकों से हज़ारों महिला किसान संगठनों के संघ, स्वयं सहायता समूह, महिला संगठन और नागर अधिकार संगठन, प्रतिबद्ध कार्यकर्ता और शोधकर्मी महिला किसानों तथा उनके संस्थानिक और वैयक्तिक स्तर के जुल्मों सितम के बारे में बात करते रहे हैं. महिला किसानों और मज़दूरों के सशक्तिकरण की अनेक रणनीतियां आज़माई गई हैं.
‘महिला किसान अधिकार मंच’ यानी ‘मकाम’ का उदाहरण लीजिए, यह एक अखिल भारतीय मंच है जो देशभर के महिला किसानों की सामूहिक मांगों को आगे बढ़ाने के लिए काम करता है. लंबे समय से इस मंच से जुड़ी कीर्ति कहती हैं, “चूंकि महिलाओं की मांगें ज़मीनी हकीकतों पर निर्भर हैं, भले ही वे झारखंड, उड़ीसा और गुजरात के किसी गांव में भिन्न हों. बिहार में हर जगह लगभग उत्तराधिकार और भूमि अधिकार के सवाल ही केंद्र में हैं.
कुछ समूह-संघों के लिए महिला किसानों को ‘किसान पहचान पत्र’ दिलवाना प्रमुख है और कुछ अन्यों के लिए ऐसे पहचान पत्रों की कोई प्रासंगिकता नहीं है और वे चाहते हैं कि महिलाओं की भागीदारी और नुमाइंदगी के मुद्दों पर ही मुख्य ज़ोर होना चाहिए. कुछ जगहों पर स्वयं सहायता समूह मानते हैं कि महिलाओं के लिए पहली समस्या यह है कि वे शिक्षा और कारोबार के लिए क़र्ज़ नहीं ले पा रही हैं. उनके अनुसार महिलाओं के लिए बैंक खाते और वित्तीय योजनाओं पर ज़ोर होना चाहिए.
कुछ लोग प्रवासी या विस्थापित लोगों के अधिकारों पर काम करते हैं, तो कुछ शारीरिक तौर पर सक्षम नहीं रह गए लोगों के मुद्दों पर, तो कुछ वन-अधिकारों और आधारभूत सुविधाओं की उपलब्धता के लिए या कुछ एकल महिलाओं के अधिकारों पर. कुछ जगहों पर जाति, जाति आधारित आरक्षण और जातीय हिंसा जैसे सवाल ज्वलंत मुद्दे बन गए हैं. कुछ अन्य जगहों पर जेंडरजनित हिंसा ही एक बड़ा मुद्दा है.
स्पष्ट है कि भिन्न ज़मीनी हकीकतों और भिन्न प्राथमिकताओं की वजह से रणनीतियों में विविधताएं हैं. यह भिन्नताएं मान्यताओं या विश्वासों के आधार पर भी हैं. कुछ समूहों का मानना हो सकता है कि ग्राम सभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण का मुद्दा सार्वजनिक दायरे में महिलाओं की मौजूदगी से जुड़े फायदों के संदर्भ में उल्टा नतीजा दे सकता है”. कीर्ति बताती हैं, “महिलाओं को पंचायतों में जगह दी जा सकती है, मगर बगैर किसी एजेंसी (खुद के बूते काम करने व फैसले लेने की क्षमता) या ताकत के’. कीर्ति के अनुसार ‘मकाम’ की सोच यही है कि हर हालत में महिला किसानों व कामगारों की आवाज़ बुलंद हो, उनका प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो और उन्हें खुद की ‘एजेंसी’ मिले.
कंचनबाला की नज़र में आगे का रास्ता महिला किसान इस तरह दिखा रही है, “अब महिलाएं ज़्यादा से ज़्यादा सहकारी समूहों में काम कर रही हैं. वे अपने-अपने समूहों का साझा मंच बना रही हैं और अधिकतम संभव लोगों को साथ लेकर चल रही हैं. अब वे अलगाव में नहीं जी रही हैं. इन सबसे उनके काम के तरीकों और खेती-किसानी के स्वरूप में बदलाव आ रहे हैं”.
*आंकड़े ‘मकाम’ के सौजन्य से
इस लेख का अनुवाद रंजीत अभिज्ञान ने किया है।
खबर लहरिया के ‘जल, जंगल, ज़मीन’ में मिलिए 3 महिला किसानों से और जानिए भूमि के लिए उनके संघर्ष को.