कोविड -19 महामारी ने बेहद ग़रीब और उपेक्षित भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली की ख़ामियों को साफ़-साफ़ उजागर कर दिया है. इससे भी ज़्यादा इस महामारी ने स्वास्थ्य सेवा उद्योग में भीतर तक समाई जातिगत समझ की तेज़ धार को भी सभी के सामने उजागर रख दिया. जाति व्यवस्था में सीढ़ीनुमा असमानताओं की तरह, अस्पतालों के भीतर भी एक दर्जाबंदी मौजूद है जिसके बारे में शायद ही कभी बात की जाती है.
एक डॉक्टर, जो लगभग हमेशा लैंगिक रूप विषमलैंगिकता को बढ़ावा देता है, और अधिकांश बार शोषित जातियों से जुड़ा हुआ होता है, इस सीढ़ी के ऊपरी सोपान पर विराजमान रहता है. इस व्यवस्था के दूसरे छोर पर सफ़ाई कर्मचारी, मुर्दाघर के कर्मचारी, वॉर्ड बॉय और हाउसकीपिंग टीम के लोग होते हैं- यदि सभी नहीं, तो इनमें से अधिकांश अपनी ख़ुद की लिंग-आधारित भूमिकाओं के साथ-साथ शोषित जातियों से संबंधित होते हैं.
जब डॉक्टरों के ऊपर हेलीकॉप्टर से फूलों की बरसात हो रही थी, उसी समय इनमें से बहुत से श्रमिक चुपचाप हाड़ तोड़ कर अपना काम कर रहे थे. कई बार तो इन्होंने सबसे बुनियादी सुरक्षा उपकरणों के बग़ैर भी काम किया. इनमें कई मारे गए, अपने परिवार को उनके रहमो-करम पर छोड़ कर चले गए. उनकी मौत की गिनती तक नहीं की गई.
ज़्यादा काम करने वाली और कम तनख़्वाह पाने वाली देश की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की पैदल सिपाही – आशा कार्यकर्ताओं- को शायद ही कभी वह सम्मान मिलता है, जिसकी वे हक़दार हैं. इस महामारी के दौरान उन्हें कोविड-19 का टीका लेने की ज़रूरत पर संदेह करने वाले लोगों को समझाने के लिए दूर-दराज़ के इलाकों में घर-घर जाना पड़ा.
आशा कार्यकर्ताओं को नियमित रूप से यौन शोषण और शारीरिक हिंसा की धमकियों का सामना करना पड़ रहा है. कर्नाटक में आशा कार्यकर्ताओं से जुड़े विभिन्न आयामों को समझने के लिए 2015 में किए गए एक अध्ययन में यह पाया गया कि बड़ी संख्या में आशा कार्यकर्ता सामाजिक रूप से वंचित जातियों से आती हैं.
लोग चाहे इस तथ्य को जितना भी नकारें, लेकिन स्वास्थ्य उद्योग के कामकाज के तौर-तरीके, सबकुछ – जैसे जिस तरह से आरक्षण से आए छात्रों के साथ कॉलेजों में व्यवहार किया जाता है, मेडिकल क्षेत्र से जुड़े पेशेवरों के साथ जिस तरह उनके करियर के दौरान व्यवहार किया जाता है- में जाति अपनी भूमिका निभाती है.
डॉ. सोबिन जॉर्ज ने ‘जाति और देखभाल’ से जुड़े अपने शोधपत्र में स्वास्थ्य से जुड़ी संस्थानों में देखभाल का दायित्व निभाने वालों के सामाजिक आयामों को परखा है. उनका मानना है कि देखभाल के काम से जुड़े, बड़े पैमाने पर ऊंची जाति से आने वाले लोगों ने जातिवाद को जन्म देने वाले वातावरण को बढ़ावा दिया और कायम रखा है. डॉ. जॉर्ज का तर्क है कि इस समस्या से निपटने का एक तरीका है – स्वास्थ्य सेवा उद्योग के सभी स्तरों पर शोषित जाति के लोगों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देना.
संस्थागत जातिवाद का एक और पहलू, जो उच्च शिक्षा के संस्थानों, विशेष रूप से मेडिकल कॉलेजों में हावी है, वह है ज्ञान- इल्म से जुड़ा अन्याय- जिसमें किस तरह के व्यक्ति को एक जानकार के रूप में माना जाता है, वह बहुत कुछ उसकी सामाजिक स्थिति से प्रभावित होता है.
‘कौन ज्ञानी है’ जैसे ग़ैर-बराबरी से जुड़े विमर्श- महिलाओं की आवाज़ को अक्सर सिर्फ़ उनके जेंडर के आधार पर ख़ारिज करने या कम गंभीरता से लेने जैसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं. ये उदाहरण अपनी जगह पर सही हैं, लेकिन जैसे ही हम इसे जाति के चश्में से देखने लगते हैं तो अक्सर इसका विरोध किया जाता है या इसमें हिचकिचाहट दिखाई पड़ती है.
शोषित जातियों से ताल्लुक रखने वाले छात्रों को अपने सहयोगियों और सीनियर्स के पूर्वाग्रहों का मुकाबला करने के लिए अधिक मेहनत करनी पड़ती है. उन्हें इस बात का डर होता है कि ये पूर्वाग्रह उनके पूरे मेडिकल करियर के दौरान उनका पीछा करेंगे. अक्सर उन्हें ऊंची जातियों से आने वाले अपने सहयोगियों के मन में पाली गई योग्यता की ग़लत धारणाओं से जूझना पड़ता है. यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है कि इस धारणा से छुटकारा पाने और समान नज़र से देखे जाने की निरंतर ज़रूरत एक व्यक्ति पर किस प्रकार का मानसिक आघात करती है. शोषित वर्ग के छात्र के लिए मेडिकल की पूरी पढ़ाई के दौरान साथ-साथ चलने वाला यह मानसिक तनाव उसके सबसे अच्छे समय में उसे सबसे कमज़ोर करता चलता है.
अपने व्यक्तिगत अनुभव से, मैं इस बात की पुष्टि कर सकता हूं कि अभाव या कमतर की ये निराधार भावनाएं अक्सर शोषित जाति के छात्रों में अधिक प्रचलित हैं. यह कोई हैरानी की बात नहीं, ख़ासकर उस परिस्थिति में जब हर मौके पर एक जानकार के रूप में आपकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाया जाता हो. मैं इस मामले में भाग्यशाली रहा हूं क्योंकि मेरा सरनेम इतना अस्पष्ट है कि इससे तुरंत मेरी जाति का पता नहीं चलता. (पीठ पीछे, मेरी जाति का पता लगाने के लिए लोगों द्वारा किए जाने वाला मौखिक जिम्नास्टिक मुझे बहुत मज़ेदार लगता है!)
एक शोषक जाति के छात्र के साथ जाति को लेकर की गई कोई भी चर्चा जाति-आधारित आरक्षण की व्यापक चीड़फाड़ के बिना अधूरी रहेगी. शोषित जाति के छात्रों की योग्यता पर लापरवाह तरीके से सवाल उठाया जाएगा. हर साल, घड़ी की सुई की तरह, मेडिकल प्रवेश परीक्षा के मौसम के दौरान #MurderOfMerit, और #SaveMeritSaveNation जैसे साधारण हैशटैग रिजर्व कैटगरी के छात्रों पर पड़ने वाले उसके असर की पूरी तरह से नज़रअंदाज करते हुए सोशल मीडिया पर चक्कर लगाने लगते हैं.
ऐसा नहीं कि ये बहस पानी पीते हुए या चलते-फिरते अंदाज़ में की जाती है – ये व्हाट्सएप ग्रुप पर, फ़ेसबुक पोस्ट पर, हॉस्टलों के कमरों में और कभी-कभी तो ख़ुद डिपार्टमेंट के सदस्यों द्वारा भी की जाती है. इन बहसों के दौरान
अक्सर जाति-आधारित आरक्षण, जो एक संवैधानिक अधिकार है, का लाभ लेने वाले छात्र अपने शोषण को बार-बार जीने के लिए मजबूर होते हैं. उनपर दवाब होता है कि वे इन शैक्षणिक संस्थानों के परिसरों में अपनी उपस्थिति को सही ठहराने की कोशिश करते रहें.
हालांकि, उन्हें उन लोगों द्वारा जल्दी ही चुप करा दिया जाता है, जो उनकी दुर्दशा से अनजान हैं या उनकी दुर्दशा को समझने के लिए तैयार नहीं हैं. बहुत कम ऐसे अवसर होते हैं जब सूक्ष्म या यहां तक कि स्पष्ट रूप से जातिवाद के उदाहरणों को संस्था के भीतर संबंधित अधिकारियों के ध्यान में लाया जाता है, तो उन्हें अक्सर बचाव या रैगिंग का मामला करार देकर ख़ारिज कर दिया जाता है.
आरक्षण के छात्रों को रैगिंग, जो पूरी तरह वर्जित है, की आड़ में बहुत अभद्र और हिंसक व्यवहार का सामना करना पड़ता है. लेकिन, कई लोग इसे सबके साथ घुलने-मिलने का रास्ता मानते हैं. जातिवादी गालियों को रैगिंग के रूप में पेश करना संस्थागत जातिवाद से आंखें मूंदने का एक और तरीका है.
उच्च शिक्षा संस्थानों में छात्रों द्वारा किए जाने वाले जातिगत भेदभाव के बारे में भले ही बहुत कुछ कहा और लिखा गया है, लेकिन शोषित जातियों से ताल्लुक रखने वाले फैकल्टी के सदस्यों के साथ होने वाले जातिगत भेदभाव पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता है. आईआईटी मद्रास के समाजशास्त्र विभाग में कार्यरत एक सहायक प्रोफ़ेसर, विपिन पी. वीतिल, ने जाति-आधारित भेदभाव की घटनाओं के बाद जुलाई 2021 में संस्थान से इस्तीफ़ा दे दिया. यह न सिर्फ़ जाति-आधारित भेदभाव था, बल्कि प्रोफ़ेसर विपिन को बेशर्मी से कहा गया कि वो संबंधित अधिकारियों के बीच इस मुद्दे को उठाएं. जहां सभी इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि यह व्यवस्था अपने आप में स्वाभाविक रूप से पक्षपाती है और इससे कभी कुछ नहीं होने वाला है.
हर किसी की नज़र में मौत से बड़ा समदर्शी और कुछ भी नहीं है – राख से राख, धूल से धूल। लेकिन हम सभी इस सच से कोसों दूर अपना जीवन जी रहे हैं. वर्तमान महामारी ने स्पष्ट रूप से दिखाया कि कैसे सामाजिक असमानताएं जीवन रक्षक दवाओं और चिकित्सा सुविधाओं की सुलभता से लेकर मृत्यु के बाद श्मशान तक सब कुछ तय करती है.
2020 में एक श्वेत पुलिस अधिकारी के हाथों एक निहत्थे अश्वेत अमेरिकी, जॉर्ज फ्लॉयड की संस्थागत हत्या के बाद उपजी नागरिक अशांति और विरोध के दौरान नस्लीय अन्याय की याद दिलाने वाले अमरीकी सिवील वॉर के पहले के समय से जुड़े कई स्मारकों में तोड़फोड़ की गई या उन्हें आधिकारिक तौर पर हटा दिया गया. जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के अपराधियों को न्याय के कटघरे में लाया गया और अब वे जेल की लंबी सज़ा काट रहे हैं.
मैं कई बार सोचता हूं कि ये शोषित जाति के लोगों के साथ व्यवस्थागत जाति-आधारित भेदभाव की घटनाओं से निपटने के क्रम में भारतीय न्यायिक प्रणाली से इसी किस्म की तेज़ी और दक्षता की अपेक्षा की जा सकती है या नहीं? मई 2021 को मुंबई के नायर मेडिकल कॉलेज में प्रसूति एवं स्त्री रोग विभाग की रेजिडेंट डॉ. पायल तडवी की आत्महत्या के दो साल हो गए हैं. डॉ. तडवी की मां, अबेदा तडवी, अभी भी न्याय के लिए लड़ाई लड़ रही हैं.
अमेरिका में नस्ल की भूमिका और भारत में जाति की भूमिका में कई व्यापक समानताएं हैं.
1959 में, डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने अपनी पत्नी के साथ भारत की यात्रा की. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उनका स्वागत किया. उन्होंने केरल के तिरुवनंतपुरम में एक स्कूल का दौरा किया जहां अछूत परिवारों के छात्र पढ़ते थे. उस स्कूल के प्रिंसिपल ने डॉ. किंग का छात्रों से परिचय कराते हुए “संयुक्त राज्य अमेरिका के अछूत साथी” वाक्यांश का प्रयोग किया. डॉ किंग, हालांकि शुरू में इस संबोधन से नाखुश थे, लेकिन बाद में उन्हें संयुक्त राज्य अमेरिका में एक अश्वेत व्यक्ति के रूप में अपनी स्थिति और भारत में वे जिन छात्रों से मिल रहे थे उनकी स्थिति के बीच सूक्ष्म संबंधों का एहसास हुआ. इस किस्म के उदाहरणों में, नस्लवाद और जातिवाद के बीच की रेखाएं थोड़ी धुंधली लगती हैं.
लेखक एवं पत्रकार इसाबेल विल्करसन ने 2020 में प्रकाशित अपनी किताब ‘ कास्ट: द ओरिजिन्स ऑफ अवर डिसकंटेंट’ में जाति और नस्ल के बीच के सूक्ष्म अंतरों को प्रस्तुत किया है. वह कहती हैं, “जाति और नस्ल पर्यायवाची नहीं हैं और न ही एक दूसरे से अलग हैं. वे एक ही संस्कृति में साथ–साथ रह सकते हैं और एक-दूसरे को मज़बूत करने का काम करते हैं. जाति हड्डियां हैं, नस्ल त्वचा. नस्ल वह चीज़ है जिसे हम देख सकते हैं, उसके भौतिक लक्षणों को मनमाने अर्थ दिए गए हैं और वे एक व्यक्ति की पहचान का आसान तरीका बन जाते हैं. जाति, भौतिक रूप से दिखाई नहीं देती क्योंकि वो एक शक्तिशाली आधारभूत संरचना है, जो सभी समुदायों को उसके स्थान पर बनाए रखती है. जाति स्थिर और कठोर है. नस्ल तरल और सतही है, जो अब संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रभुत्वशाली जाति की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए समय-समय पर पुनर्परिभाषित किए जाने पर निर्भर है.”
इस उदाहरण में नस्ल और जाति के बीच मूलभूत अंतर निहित है. एक ओर जहां एक अश्वेत व्यक्ति के लिए समर्थन करना, और यहां तक कि अमेरिका में संघ के स्मारकों को ख़त्म करने में सक्रिय रूप से भाग लेना आसान हो सकता है, वहीं, भारत में मनु की एक मूर्ति – जिसकी मनुस्मृति को कई लोग भेदभाव का प्रतीक मानते हैं- राजस्थान उच्च न्यायालय के मैदान को सुशोभित करने के लिए आज भी मौजूद है.
मैं इस बातचीत में नस्ल का मामला इसलिए उठा रहा हूं क्योंकि
पश्चिमी चिकित्सा ने अश्वेत और आदिवासी लोगों और एक ख़ास रंग के लोगों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर व्यवस्थागत नस्लवाद के बुरे प्रभावों को पहचानने और कुछ हद तक सुधारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
यह सुझाव देने वाले पर्याप्त शोध हैं कि नस्लवाद के अनुभवों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर ख़राब असर पड़ता है. इसका असर जातीय अल्पसंख्यकों और एक ख़ास रंग के लोगों के लिए स्वास्थ्य संबंधी ख़राब नतीजे देता है.
‘दमन विरोधी व्यवहार’ मनोचिकित्सा और काउंसलर के लिए एक उभरता हुआ ढांचा है जो उन दमनकारी शक्ति संरचनाओं को चुनौती देता है जिनसे नस्लवाद की व्यवस्था को कायम रखने में मदद मिलती है. इस ढांचे को अक्सर संरचनात्मक उत्पीड़न की चीड़फाड़ करने के अन्य रूपों को भी चुनौती देने के लिए लागू किया गया है.
हालांकि, हिन्दुस्तान के संदर्भ में, व्यक्तिगत और व्यवस्थागत जातिवाद के अनुभव से गुज़रने वाले शोषित जातियों के लोगों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर को देखने वाले अध्ययन बहुत कम हैं.
जब जाति और जाति-आधारित भेदभाव की बात आती है, तो हमारे पास दमन-विरोधी व्यवहारों से संबंधित साहित्य और शिक्षण सामग्री की कमी है.
अमेरिकन मेडिकल स्टूडेंट और साइंस कम्युनिकेटर लाशायरा नोलन अपने एक शोधपत्र में लिखती हैं कि मेडिकल शिक्षा स्वाभाविक रूप से नस्लवादी है. इस लेख में लेखक इस बात की चर्चा करती हैं कि कैसे छात्रों को केवल गोरी त्वचा वाले व्यक्तियों में चिकित्सा संबंधी स्थितियों का निदान करने के बारे में सिखाया जाता है. हमारे संदर्भ में हमने इस दिशा में कोई बातचीत शुरू भी नहीं की है. जिस समस्या की उपस्थिति को हम स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं, उसे हम कैसे ठीक करें?
मुंबई में एक संस्था है, मारीवाला हेल्थ इनिशिएटिव. यह संगठन मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े पेशेवरों को अपने क्वीयर मरीज़ों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त ज्ञान से लैस करने का एक अद्भुत काम करता है. ‘क्वीयर अफर्मेटिव काउंसलिंग प्रैक्टिस’ (क्यूएसीपी) पर उनके पाठ्यक्रम ने इस संबंध में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है. उनका मानना है कि
मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों के लिए इतना काफ़ी नहीं कि वे क्वीयर मरीज़ों के साथ बराबरी वाला व्यवहार करें, बल्कि उनके लिए सही और नैतिक ज़िम्मेदारी है कि वे अपने सुविधा सम्पन्न अधिकारों को समझते हुए उससे बाहर निकलें, अपने क्वीयर मरीज़ों की जीवंत हकीकतों के बारे में खुद को शिक्षित करें और सभी हाशिए के समूहों के अधिकारों की वकालत करें.
उसी तर्ज़ पर, जाति को लेकर सकारात्मक भाव के साथ काउंसलिंग के चलन को विकसित करने की ज़रूरत है, हालांकि फ़िलहाल यह बहुत दूर की कौठी जैसा दिखाई दे रहा है. मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े पेशेवर (एमएचपी), एक शोषक जाति से आते हैं, अक्सर वे अपने ख़ुद के जातिगत विशेषाधिकार को ख़त्म करने में असमर्थ होते हैं और जातिवाद को किसी व्यक्ति के मानसिक तनाव में एक महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में देखने के लिए तैयार नहीं होते हैं.
बहुजनों के लिए मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल से जुड़े सहायता समूह, द ब्लू डॉन के साथ घनिष्ठ रूप से काम करते हुए, मुझे ऐसे कई उदाहरणों से अवगत कराया गया है. लोगों ने मानसिक परेशानियों के कारक के रूप में जाति की भूमिका को पूरी तरह से नकारते हुए एमएचपी के साथ हुए भयानक अनुभवों को साझा किया है. इसने अक्सर इस बहस को जन्म दिया है कि अगर थेरेपिस्ट का ऑफिस भी नहीं तो फ़िर कोई सुरक्षित स्थान क्या हो सकता है. इन वजहों ने लोगों को थेरेपी से दूर करते हुए अपना इलाज करवाने के विचार से भी दूर कर दिया है.
स्वास्थ्य सेवा उद्योग के काम करने के तरीके में व्यापक बदलाव एक लम्बे समय से बकाया है. हमें मेडिकल शिक्षा के कुछ पहलुओं पर भी सामूहिक रूप से पुनर्विचार करने की ज़रूरत है. मनोचिकित्सा और निवारक चिकित्सा जैसे विषय सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी नतीजों के निर्धारक के रूप में जाति का उल्लेख करने में विफल रहते हैं.
शोषित जातियों के छात्रों और व्यक्तियों ने एक बहुत लंबे अरसे तक एक दमनकारी व्यवस्था, जोकि स्वाभाविक रूप से उनके खिलाफ़ खड़ी है, से लड़ने की अपनी आशाओं और आकांक्षाओं पर अंकुश लगाया है. सदियों से शोषितों के पक्ष में काम करने वाली इस प्रणाली को मौलिक रूप से बदलने की उनकी अनिच्छा निराशाजनक है, लेकिन आश्चर्यजनक नहीं है.
जो हमारा हक है उसे लेने का समय आ गया है और उससे कुछ भी कम नहीं. यह शिक्षित करने, आंदोलन करने, संगठित होने का समय है.
यदि आप मानसिक स्वास्थ्य संबंधी देखभाल को सभी के लिए सुलभ बनाना चाहते हैं, तो आप यहां चिकित्सा सत्र प्रायोजित कर सकते हैं.