मेरी सगीना

कहानियों और किरदारों की तलाश में घुमक्कड़ी करती एक लेखक की सिलीगुड़ी की यात्रा और सिनेमाई पर्दे से बाहर सगीना महातो की कहानियों के यथार्थ की दास्तान

चित्र साभार: सिलीगुड़ी टाइम्स

बात टटकी है.

नए शहर की घुमक्कड़ी के रोमांच, कोरोना के खुलने के बाद की आकुलता, हउआ के सब चीज़ों को देख लेने की आकांक्षा से भरी एक टटकी बात. न्योता मिला एक शादी में जाने का. ढोल, बाजे- गाजे और बिग फैट इंडियन वेडिंग देखने का प्रलोभन कुछ ज़्यादा ही था. शादी के लिए एक नितांत नए शहर में जाना और नए किरदार खोजने का उत्साह उससे भी ज़्यादा.

मन में जाने क्यों बार–बार कोई अनजानी धुन बज रही थी जिसे डीकोड करना मुश्किल हो रहा था. धुन के साथ एक नई भाषा के कुछ शब्द भी बजने लगे थे. मन केमोन कोरे, तुमि एशो. (मन कैसा-कैसा कर रहा है, तुम आओ).

जिस भोर एक छोटी सी रेलगाड़ी की छुक–छुक के पार्श्व में यही धुन बजने लगी और उसी भोर के सपने में सीपीया रंग में बंगाली ढंग की साड़ी बांधे बार-बार एक बंग औरत नज़र आने लगी, मैं समझ गई कि हो न हो ये हाल ही में आए न्योते के शहर, सिलीगुड़ी की पुकार है और कहीं न कहीं से ये भविष्य में लिखी जाने वाली मेरी कहानियों के किरदार हैं जो मुझे बुला रहे हैं.

चित्र साभार: अपूर्वा बहादुर

तो पहुंच ही गई सिलीगुड़ी और निराशा से भर देखने लगी कि शहर के भीतर से गुज़रते हुए सब कुछ दूसरे और शहरों की तरह ही कितना घालमेल सा था. हर शहर की तरह यह शहर भी एक सुपर रेस दौड़ने की कोशिश कर रहा हो जैसे, 'हमें बदलना है, हम विकसित हो रहे हैं' बोलते-बोलते वह कई कदम गिरता भी जा रहा हो.

जैसे, कचरे के ढेर और तीस्ता नदी की किसी सूखी धारा के ऊपर से गुज़रते हुए एक भी नई बात नज़र नहीं आती थी जो उसके मुख्तलिफ़ होने की आश्वस्ति दे. कोई पुरानी बात भी नहीं नज़र आ रही थी, जो जगह का रोमांच बनाए रखती. मेरे आसपास, यात्रा के साथियों के बीच सुकना के जंगल घूमने की चर्चा हो रही थी और विलक्षण फूलों की तलाश में जाने की बात भी. इस तरह धीरे–धीरे, फरवरी के सुंदर महीने में मेरी मिनीबस चाय बागानों की तरफ रुख करती है और मैं उम्मीद में संभल कर बैठ जाती हूं.
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मेफेयर टी रेसॉर्ट. चित्र साभार: Punjabtribune.com

सिलीगुड़ी के ऐतिहासिक चुमटा टी एस्टेट को मेजर सी एम फिट्ज़ेराल्ड ने 1866 में खड़ा किया और एक नई संस्कृति को उस क्षेत्र में वैसे ही रोप दिया जैसे रोपे गए चाय बागान में चाय के पौधे. विशाल टी एस्टेट के बदले हुए रूप में अब एक शानदार रिज़ॉर्ट है, ऐन चाय बागान के बीच में शान से खड़ा. रिज़ॉर्ट की मैनेजर, राजेश्वरी मुसकुराते हुए कहती हैं – “आप निरद्वन्द, निर्भीक हो घूमिए. यहां सबकुछ बहुत सुरक्षित है.”

रिजॉर्ट मैनेजर सिक्किम की रहने वाली है और खुश है अपनी नौकरी से. सिलीगुड़ी में मुझे एक छोटा सा सिक्किम भी मिलता है. खुशनुमा सा. लेकिन फिर भी सिलीगुड़ी तो सिलीगुड़ी है. बचपन से सिलीगुड़ी और जलपाईगुड़ी रेल्वे स्टेशनों के नाम सुनती आई हूं. छोटी वाली उस ट्रेन को सिनेमा में देखती आई हूं.

होगा तुमसे प्यारा कौन, हमको तो तुमसे है, हे कांचन! प्यार… जब ऋषि कपूर पद्मिनी कोल्हापुरे को सेरनैड करते हैं, तो लगता था इस पूरे क्षेत्र को उस टॉय ट्रेन की मार्फत सेरनैड कर रहे हैं. हॉल में बैठे दर्शक भी झूम जाते थे.

‘होगा तुमसे प्यारा कौन’ गाना. फिल्म: ज़माने को दिखाना है (1981).

सिलीगुड़ी के बागान देखने पर लगता है,चाय के पौधों की अभी अभी, छटाई-कटाई हुई है. लेकिन कुछ दिन बाद ही ये ललहाने लगेंगे. बागान के बीच बसे रिज़ॉर्ट की औपनिवेशिक साज-सज्जा बहुत लुभावनी है. वहीं दीवारों पर दिलकश और कलात्मक ढंग से चाय के प्रकारों का विवरण और उसके इतिहास का पता चलता है - कैसे रॉबर्ट फॉर्चून नाम के स्कॉटिश बाटनिस्ट ने चीन के 2000 वर्ष पुराने चाय के राज़ चुरा लिए थे और भारत समेत आस-पास के कई देशों में रोप दिए थे.

नई फसल लहलहा उठी थी और चाय की गमक समूची फिज़ा में घुल चुकी थी. चाय की खेती बाकायदा यहां होने लगी थी और देशी लोगों को रोज़गार मिलने के साथ-साथ उनका शोषण भी शुरु हो गया था.

फिर फिल्म सगीना महतो याद आने लगती है.

अभिनेता दिलीप कुमार और सायरा बानो , फिल्म सगीना महतो (1970, डायरेक्टर तपन सिन्हा) की एक तस्वीर में. यह फिल्म सिलीगुड़ी में शूट की गई थी.

और मैं चाय की फैक्ट्री में काम करने वाले मज़दूरों की कहानी तलाशने चल देती हूं. लेकिन जब बागान के मोहल्लों में निकलती हूं तो कुछ खास हासिल नहीं होता. विकास नाम की चिड़िया यहां किसी के भी छप्पर पर नहीं बैठी थी. सब मज़दूरों के घर तीन टप्पर से छवाए हुए थे. अलबत्ता वे पक्के ज़रूर थे. फिल्म सगीना महतो के युग से अलग थे ये घर.

सड़क पार करते ही सब्ज़ी बेचती हुई एक काली कजरारी आंखों वाली आकर्षक औरत अचानक दिखलाई पड़ गई. उसने बंगाली ढंग से हरी-नीली सी साड़ी बांधी हुई थी. उसे देख मुझे दिल्ली में देखा अपना भोर का सपना याद आता है.

मैं थमकती हुई जब उसके पास पहुंचती हूं, तो वो आंखों ही आंखों में मुझे गीत गाती नज़र आती है, ‘मन केमोन? ऐशों रे…
मैं मुस्कुरा के पूछती हूं, “कहां की हो?”

“येहीन सिलीगुड़ी

मैं उसके माध्यम से अब इस शहर का अगला, पिछला सब जान लेना चाहती हूं.

वह पीछे की ओर इशारा करती है, एक सस्ते चमकीले नीले घर की ओर, “ओई आमार बाड़ी”.

“ओह! यह तो चाय बागान की है. मैं अंदाज़ा लगाती हूं.”

“घर में कौन-कौन है?” मैं बातों का सिरा पकड़ आगे बढ़ने लगती हूं.

“चार बच्चा और पति. बागान में हम सब मज़दूरी भी करता और सब्ज़ी बेचता. बच्चा सब स्कूल में पढ़ता. रिज़ॉर्ट में नौकरी के लिए कोशिश किया लेकिन नहीं मिला इसलिए बाप-दादा की तरह यहीं काम करता.”

“बाप दादा के बारे में कुछ बताओ।”, मैं धीरे-धीरे चालाक खोजी लेखक बन रही हूं.

वह एक उजास भरी हंसी हंसती है और कहती है, “क्या करोगी जानकार? बहुत गरीब था सब! जाओ बागान घूम आओ।”
“नहीं!” मैं वहीं बैठ जाती हूं, “अब बताओ.”

चुमता टी एस्टेट, सिलीगुड़ी
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वह फंस गई है और जानती है, अब मैं उससे कहानियां उगलवा ही लूंगी.

“बोलो लड़की” मैं उसे अतिरिक्त प्यार से कहती हूं. मेरी आवाज़ का टोन सुन उसकी हिचक कुछ कम हो जाती है. वह फसक्कड़ा लगा बैठ जाती है. इत्मीनान से मेरी तरफ देखकर कहती है, “काम बंदी के दिन थे. सुना था किसी ने कलकत्ता खबर कर दी थी कि मालिक लोग बंदूक गोली इकट्ठा कर रहे हैं और मदद की ज़रूरत है. मालिकों को खबर लग गई की मज़दूरों का संबंध कलकत्ता की राजनैतिक पार्टी से था और वे काम बंद करने वाले मज़दूरों पर बेरहमी से कहर बरपाने लगे. साम-दाम-दंड-भेद सब अपनाया और यूनियन के खिलाफ लोगों को काफी भड़काया. मेरा ससुर ही आगे बढ़-बढ़ कर लोगों को काम बंदी के लिए समझाया, अपना हक़ मांगना चाहिए इसको दोहराया और लोग उसकी बात मानने लगे और काम बंद ही रहा.

मालिकों ने उसे तोड़ने की कोशिश जारी रखी लेकिन वो नहीं माना. कहा, “यूनियन तय किया, काम बंद तो काम बंद, हम लोग का पगार बढ़ाओ और हमारी औरतों पर गंदी नज़र डालना बंद करो.”

मैं आवाक हूं. यह सब सचमुच घटा है यहां! ये तो फिल्म में था, सगीना महतो फिल्म में.

ओ! फिल्में सारा तो नहीं लेकिन कुछ सच पर ज़रूर बनती हैं.

मैं यह सब सोच ही रही थी, कि एक 10 साल की बच्ची छींटदार कुर्ता सलवार पहने मुझे एक चटके हुए चीनी मिट्टी के कप में गाढ़ी लाल चाय पकड़ा देती है. मैं पहला घूंट भरते ही आनंद से भर जाती हूं.

महिला मुझे देख फिर अपनी वही उजास वाली हंसी हंसती है, “इधर के बागान का ही है. अच्छा लगा? चाय?”

मैं शुक्राने में सर हिला देती हूं. वह अपनी कहानी जारी रखती है.

थोड़ी देर में हमारे इर्द-गिर्द एक पूरा मोहल्ला इकट्ठा होने लगता है जिसमें ज़्यादातर बूढ़े लोग हैं और जवान औरतें. सब अलग-अलग शक्लों सूरत की. कुछ भूटिया और कुछ नेपाली भी, जो अब भारतीय हैं. 15- 20 लोगों के बीच बैठी मैं, सामने चुमटा टी एस्टेट को देख रही हूं और सोच रही हूं, ‘वह पुरानी बिल्डिंग ही फैक्ट्री थी क्या? पुरानी वाली?’ सामने शानदार रिज़ॉर्ट में शादी में आए दुनिया के लोग तरह-तरह की सुंदर पोशाकों में हंसते-गाते घूम रहे हैं. एक पार यह, एक पार वह!
एक आदमी में होते हैं कितने ही आदमी की तर्ज़ पर एक सिलीगुड़ी में हैं अनेक सिलीगुड़ी.

मैं अपनी सिलीगुड़ी का चुनाव नहीं कर पा रही हूं. लेकिन मुझे यह सब्ज़ी वाली कुछ अधिक खींच रही है. मैं चुपचाप बैठी हूं, मानों पुजारी के सामने याचक. सामने पुजारन मंत्र पढ़ रही है. मुझपर जादुई असर हो रहा है.

“हमारे ससुर को वो सामने वाले बागान में ले जाकर लंबा बंदूक से भून दिया. सबने देखा. उसी दिन मालिक का घर को आग लगा दिया गया.”

“किसने लगाई आग?” मैं सर्द हुए अपने खून के बीच से अपनी आवाज़ खोजती हुई पूछती हूं.

इर्द-गिर्द जमा हुआ मोहल्ला फुसफुसाता है, “हमने”.

मैं यह मंत्र जाल तोड़ना चाहती हूं, तुम लोग तब थोड़े ही रहे होगे? ये तो भूली बिसरी बातें हैं, मेलड्रामा से भरी सिनेमाई बातें! वे सब बुत हैं.

सिर्फ सांसें चल रही हैं. उस छुटकी सी रेलगाड़ी की तरह धड़-धड़ जो दार्जिलिंग जाती है.

“कई दिन बागान बंद रहे फिर मालिक बदले और दोबारा काम शुरु किया. हमारा ससुर जब मारा गया तो हमारा सास कर्सिऑन्ग चला गया अपना बच्चा लोग को लेकर.”

तो क्या वह औरत जो मेरे भोर के सीपीया सपने में आई थी वह इसकी सास थी?

वही तो गा रही थी, ‘मन केमोन करे?’ कभी यूट्यूब पर सुने गीत की स्मृति है शायद जो इस अनजान औरत की कहानी से जुड़ गई है.

मेरा ज्ञान इस क्षेत्र में बने सिनेमा पर आधारित है. पूरी तरह से मैं सिनेमा को सच के खांचे में फिट करने को उतावली हो रही हूं. शायद! वरना ऐसे कैसे हो सकता है? इतने सच एक साथ कैसे मिलजुल कर कहानी बना सकते हैं?

मैं अब साहसिक हो गई हूं और इस पार के सिलीगुड़ी को मन में बसाना चाहती हूं.

“फिर तुमलोग दोबारा यहां कब आए?”

“जब बागान चालू हुए और रिज़ॉर्ट वगैरह बनने लगे.”

इतना बता वह बंगाली में अपने आस-पास के लोगों से बातें करने लगी. मुझे लगा यह उसका इशारा करने का तरीका था, ‘जाओ तुम्हारा टाइम खत्म हुआ, पुजारन का अनुष्ठान खत्म हुआ.’ लेकिन मेरे ऊपर तो मंत्रों का असर तारी था. घनघोर रूप से तारी.

मैंने उससे इस बाबत कुछ भी नहीं कहा, बस अपना अंतिम सवाल धीरे से पूछ लिया, “और आजकल? क्या आजकल भी यूनियन वगैरह कुछ होता है? कोई कलकत्ता से आकर तुम लोगों को कुछ बतलाता है? क्या तुमलोगों के पास बंदूक-गोली वगैरह होती है?” मेरा इतना पूछते ही सब हंस पड़े. 

उसने एक व्यक्ति की ओर इशारा किया, “गुरुङ्ग तुम बोलो”.

गुरुङ्ग नाम का नौजवान खींसे निपोरते हुए बोला, ”अब कहां बंदूक-गोली? ऊ अलग ज़माना था. ई अलग. कलकत्ता में अब हमारा कोई नहीं. यहां सबकुछ अपने आप, अपने ढंग से चलता है.”

“मतलब?”, मैंने पूछा.

“मतलब अब सबका मन मिज़ाज बदल गया है हां, लेकिन यूनियन तो अभी भी है. यूनियन नहीं होगा तो हमारे लिए कौन बोलेगा? कौन लड़ेगा?” अच्छा! मैं समझने की कोशिश करती हूं. यूनियन ज़रूरी है. बहुत सारे लोग एक साथ , एक सुर में बोलने लगे.

गुरुङ्ग बीच में हंसते हुए फिर टपक पड़ा, ”ये है ना हमारी लीडर.”

मैं देखती हूं. वह सब्ज़ी बेचने वाली उसी औरत की ओर इशारा कर रहा है. जिससे मैं इतनी देर से बतिया रही हूं. मैं थोड़ा शर्मसार महसूस करती हूं. इतनी देर से इस लड़की से बात कर रही हूं, इतना भी अनुमान नहीं लगा पाई कि यह लड़की इतनी ज़िम्मेदार भी हो सकती है.

मैं एक संकोच से भरी हंसी हंस कर कहती हूं, “तुम इनके यूनियन की लीडर हो?”

वह चमकती आंखों से कहती है, ”हमारा यूनियन! ज़रूरी है, बोलना ज़रूरी है.”

मैं ज़ोर-ज़ोर से सहमति में सर हिलाती हूं. “ये लोग सब, बाकी मज़दूर सब-सबके सब क्या तुम्हारा कहा मानते हैं? क्या औरत होने के नाते तुम्हें कुछ परेशानी नहीं झेलनी पड़ती?”

वह अपनी साड़ी का पल्ला दांतों में भींच कर ज़ोर से कहती है. “सब बात मानते हैं, हमलोग मिलजुल कर काम करते हैं.”
बाकी बूढ़े इसपर कुछ-कुछ बुदबुदाने लगते हैं.

मैं समझ नहीं पाती क्या, “क्या?” मैं अपनी हथेली उनकी ओर घुमा कर पूछती हूं.


वे इशारों में जवाब नहीं देते, मुंह से कहते हैं, थोड़े गुरूर से, “इसका सास -ससुर बहुत हिम्मती था, ये उससे भी हिम्मती. हमारा लीडर ये ही.”

मैं उसके सामने पसरी सब्ज़ी को देखती हूं. उसकी बंगाली पाड़ वाली हरी नीली साड़ी को देखती हूं. और मन ही मन कृतज्ञता से भीगने लगती हूं. फिर याद आता है, इसका नाम पूछना तो भूल ही गई हूं. उससे झिझकते हुए पूछती हूं, “नाम की? तोमार नाम की? तुम्हारा नाम?”

वह मेरे नकली बंगालीपने पर रीझ कर प्यार से कहती है, “सपोना मोंडल”.

“सपोना मोंडल तुम्हें बहुत प्यार”.

पूरा मोहल्ला उठ कर खड़ा हो जाता है. मुझे रुखसत करने, “जाओ आपके रिज़ॉर्ट में म्यूजिक बजने लगा. प्रोग्राम शुरु होने वाला है”.

मैं हां, हां कर सर हिलाती हूं और रोड के उस पार दूसरी सिलीगुड़ी में जाने के लिए कदम बढ़ाने लगती हूं. पीछे से सपोना चिल्ला कर कहती है, “कुछ खरीदना है तो सत्यजित रे रोड पर हांग-कांग मार्केट में चले जाना”. “सत्यजित रे?”, मैं चौंकती हूं, “सत्यजित रे! द जीनिएस फिल्ममैकर!”

वह मुझे कौनकते देख फिर कहती है, “अच्छा सामान मिलता है वहां, नेपाल और तिब्बत का भी”.

गुरुङ्ग चिल्लाता है, “छोटी गाड़ी का सफर मज़ेदार होता है, उसमें भी जाना. जोरूर जाना.

मैं मुड़कर पीछे देखती हूं. सस्ते नीले-हरे चमकीले रंगों से रंगे घर आज भी अपने इतिहास के साथ धड़क रहे हैं. उसके सामने खड़े हैं उसमें रहने वाले लोग. सीधे तने हुए. उनके बीच में हरे-नीले रंग की बंगाली साड़ी लहराती है और इस दृश्य को कभी न मिटने वाले अंदाज़ में मेरे ज़ेहन में टांक देती है. सदा के लिए.

“मैं सड़क पार कर लेती हूं.”

मैं लिखना चाहती हूं, सपोना मोंडल की कथा लेकिन लिखती हूं, मेरी सगीना की कथा, गो कि नए के साथ पुराना भूल ना जाए और याद की कड़ियाँ जुड़ी रहें.

और सिलीगुड़ी की सगीना हमेशा ज़िंदाबाद रहे.

गुरुङ्ग अपने छोटे दांत निपोरते हुए कहता है, “हमारी लीडर है सोपोना!”

इसपर सपोना आत्मविश्वास से हंसती है. खुली उन्मुक्त हंसी. मैं दंग हूं, ‘एक सब्ज़ी बेचने वाली लीडर! बागान में यूनियन भी है!’

हिंदी साहित्य की चर्चित रचनाकार वंदना राग ने दिल्ली विश्वविद्यालय से एमए की पढ़ाई की. इनकी पहली कहानी हंस पत्रिका में 1999 में छपी और तब से निरंतर लिखने का सिलसिला जारी है. तब से कहानियों की चार किताबें और एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं – यूटोपिया, हिजरत से पहले, खयालनामा, अरु मैं और मेरी कहानियां, बिसात पर जुगनू (उपन्यास). इसके अलावा वंदना अनुवाद के कार्य में भी सक्रिय हैं.

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