2015 में निर्भया केस के दौरान बड़ी संख्या में देशभर में हुए विरोध प्रदर्शन को देखते हुए सरकार ने 36 वन स्टॉप सेंटर (ओएससी) स्थापित किए. सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में पायलेट के रूप में एक-एक ओएससी सेंटर चालू किया गया. आज हिंदुस्तान में कुल 819 ओएससी सेंटर चल रहे हैं. देशभर में स्थित सेंटर्स की लिस्ट यहां है.
ओएससी का काम पीड़ित या सर्वाइवर महिला के लिए न्याय की अलग-अलग व्यवस्थाओं और प्रक्रियाओं, जैसे पुलिस, हॉस्पिटल और कोर्ट, को एक जगह केंद्रित करना है. साथ ही महिलाओं के लिए आपातकालीन स्थितियों में रहने की एक सुरक्षित जगह और मानसिक एवं सामाजिक काउंसलिंग भी उपलब्थ करवाना है. ये सारी सुविधाएं कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले फ्रंटलाइन केसवर्कर्स, काउंसलर, वकील, सुरक्षा गार्ड और अन्य कामों को करने वाले सेंटर स्टाफ – जो सेंटर पर साफ-सफाई और खाना बनाने का काम करते हैं- द्वारा दी जाती हैं.
ऐसा करने के पीछे शुरुआती मान्यता यह थी, जैसाकि नाम से ही पता चलता है कि हिंसा का शिकार होने पर पीड़ित महिला को न्याय के लिए इधर-उधर भटकने के बजाय उसके अधिकारों तक पहुंच के लिए यह जगहें एक वन स्टॉप सेंटर की तरह काम करें. वन स्टॉप सेंटर पर अपने शोध के दौरान इन केंद्रित सुविधाओं का नज़दीकी से निरीक्षण करते हुए मैने इस सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश की कि ओएससी सेंटर महिलाओं के लिए एक जगह पर सारी सुविधाएं उपलब्ध करवा पा रहे हैं या नहीं?
महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा पर शोध में कई जटिलताएं हैं. इसका एक कारण इस विषय पर तुलनात्मक और भरोसेमंद आंकड़ो की कमी भी है. राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो हर साल महिलाओं के खिलाफ अपराध के आंकड़े जारी करता है, लेकिन 2022 के बाद से ये आंकड़े जारी नहीं हुए हैं. इसके अलावा ये आंकड़े सिर्फ उन मामलों को ही दर्शाते हैं जो रिपोर्ट किए गए हैं. ये उनके बारे में नहीं बताते जो हिंसा महिलाएं झेलती हैं, अनुमान के अनुसार जोकि कई गुना अधिक हो सकते हैं. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (NFHS), जो महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा के अनुभवों को रिकॉर्ड करता है, वह भी सिर्फ घरेलू या निजी जगहों पर हुई हिंसा को शामिल करता है, न कि सार्वजनिक स्थानों पर हुई हिंसा को.
मैं और मेरे सहपाठियों ने, अपनी पढ़ाई के दौरान जाना कि कैसे मौजूदा अपराध के आंकड़ों में हिंसा से जुड़ी घटनाओं की कम रिपोर्टिंग एक तरह के दुष्चक्र को बढ़ावा देती है, जिसका परिणाम भारत में शेल्टर आधारित सुरक्षा योजनाओं (ओएससी की तरह ही) में कम निवेश में परिणित होता है. ओएससी जो, महिलाओं को समग्र समाधान देने के मकसद पर काम करते हैं, आदर्श रूप से तो इन्हें भी महिलाओं के हिंसा के अनुभव और उनकी रिपोर्टिंग के बीच के अंतर को पाटने का काम करना चाहिए. इस तरह से वे सरकार को हिंसा की इन घटनाओं का गंभीरता से संज्ञान लेने और वन स्टॉप सेंटर्स में अधिक निवेश के लिए प्रेरित कर सकते हैं.
पर, सवाल यह भी है कि क्या सिर्फ संसाधनों (ज़्यादा फंड, ज़्यादा सेंटर्स) में बढ़ोतरी कर देने से महिलाओं को न्याय मिल जाएगा? और क्या अधिक संसाधनों से उन फ्रंटलाइन वर्कर्स (जिन्हें आगे चलकर हम प्रथम उत्तरदाता कहते हैं) को पीड़ित महिलाओं के साथ बेहतर काम करने के लिए प्रेरणा मिलेगी?
इस फील्ड में काम करने के दौरान मेरे भीतर कई तरह के शोध संबंधी सवाल थे औऱ इसे लेकर विडंबनाएं भी थीं. किस तरह का शोध इन जगहों पर किया जा सकता है? कौन ये शोध कर सकता है? जैसे सवाल मेरे भीतर लगातार चल रहे थे. इसने मुझे बहुत प्रभावित किया. मैंने सवालों को लेकर जो अपना टूलकिट तैयार किया था उसमें ज़्यादातर व्यवस्थित सवाल थे और कुछ खुले सवाल भी थे. इसका मतलब था कि फ्रंटलाइन वर्कर्स को मेरे बहुत सारे उबाऊ और शायद उनके लिए घिसे-पिटे सवालों का जवाब देना पड़ता जो वे अपना कीमती समय निकाल कर देते. जैसे- “सेंटर पर आप क्या काम करते हैं?”. “आप कितने घंटे काम करते हैं?”, “किस तरह के केस आपने सबसे ज़्यादा देखे हैं?” वगैरह वगैरह. क्योंकि ये प्रथम उत्तरदाता जब पीड़ित/सर्वाइवर के साथ बात नहीं कर रहे होते, उस वक्त उनका समय रजिस्टर भरने में जाता है. उनके ऊपर प्रशासनिक काम का बोझ बहुत ज़्यादा होता है. दिल्ली के ओएससी सेंटर जहां मैं अपना फील्ड वर्क कर रही थी, वहां मैंने एक केसवर्कर को 18 रजिस्टर भरते हुए देखा!
इसलिए मैंने अपने शोध के तरीकों को बदलने का विचार किया. मैंने तय किया मैं सीधे सवाल पूछने के बजाय चुपचाप देखने, सुनने और समझने का काम करूंगी. अगर इसे मैं अकादमिक भाषा में कहूं तो मैंने गैर-प्रतिभागी अवलोकन का तरीका अपनाया; मतलब प्रथम उत्तरदाताओं से सीधे सवाल न पूछकर उनके रोज़मर्रा के काम और बातचीत को बिना किसी दखल के देखना-सुनना और एक तरह से उसका गवाह बनना. इस तरह के अवलोकन के ज़रिए मैं बेहतर समझ पाई कि यहां आकर पीड़ित महिलाएं, राज्य द्वारा पोषित व्यवस्थाओं में न्याय पाने की कोशिश कैसे करती हैं.

मैं दिल्ली के वन स्टॉप सेंटर में अपने फील्डवर्क के एक दिन का ब्यौरा साझा करती हूं. मैंने इस विवरण को दो कारणों से चुना है. पहला, ये सभी प्राथमिक प्रतिक्रियादाताओं को शामिल करता है, जिसमें सेंटर के कानूनी वकील, केसवर्कर और परामर्शदाता यानी काउंसलर शामिल हैं. दूसरा, ये पीड़िताओं और सर्वाइवर महिलाओं की न्याय पाने की कोशिश पर फोकस करता है. न्याय की ये कोशिश जो ओएससी की अपनी काबिलियत के दायरे में घटित होती है.
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ये दिल्ली की एक सर्द, धुंध भरी, मंद दोपहरी थी. मुझे सलाह दी गई थी कि मैं दोपहर में सेंटर आऊं क्योंकि कानूनी वकील दोपहर दो बजे के बाद ही वहां होंगे.

वन स्टॉप का ये सेंटर एक सरकारी (ब्यूरोक्रैटिक) कॉम्प्लेक्स के भीतर है. इसके नज़दीक ही महिलाओं का एक अभिजात कॉलेज और एक स्कूल है. हर रोज़ की तरह उस दिन भी इस बिल्डिंग के आसपास और भीतर बहुत सारे लोग थे.
बिल्डिंग के अंदर, ओएससी के लिए दो कमरे निर्धारित हैं, पहला जिसमें प्रशासक और सूचना-तकनीक अधिकारी बैठते हैं और दूसरा कमरा जो विशेष रूप से किसी आपातकालीन शरणस्थली के तौर पर रखा गया है. ये जगह बहुत ही साफ-सुधरी है और इसमें पांच बिस्तर हैं. कमरे के भीतर ही एक वॉशरूम और एक रसोई भी है. कमरे में भरपूर रौशनी है पर खिड़कियों के सील होने की वजह से बाहर की रौशनी बहुत कम कमरे में आती है और वेंटिलेशन भी ठीक से नहीं होता. इससे सटे हुए ही काउंसलर और केसवर्कर के बैठने की जगह है. पीड़िताओं/ सर्वाइवर महिलाओं के साथ बातचीत भी यहीं पर होती है.

वकील के पहुंचने के समय से पहले हर कोई अपना लंच जल्दी-जल्दी खत्म करने की कोशिश कर रहा था. वकील की ताकतवर स्थिति साफ महसूस हो रही थी जब केसवर्कर, फौरन अपनी कुर्सी से उठकर खड़ी हो गई और उन्हें बैठने के लिये पूछा.
मैंने और वकील ने थोड़ी देर बात की और कुछ देर में सुमन (नाम बदला हुआ) वहां पहुंच गई. उसने हम सबकी ओर देखा और मेरे नज़दीक पड़ी एक खाली कुर्सी पर बैठ गई. मैने केसवर्कर की तरफ देखकर इशारे से पूछा कि क्या मैं यहां से हट जाऊं? लेकिन उन्होंने बोला कि मैं वहां बैठी रह सकती हूं. सुमन 181 का केस हैं. ये इकलौती योजना है जो परेशानी में पड़ी महिला को 24 घंटे किसी भी एमरजेंसी के लिए मदद देती है, महिला सहायता सेवा (यानी 181 हेल्पलाइन) जिसे हाल ही में ओएससी सेवाओं में शामिल किया गया था.
सुमन 36 साल की है और अपनी ज़िंदगी शिकायतें दर्ज कराते बिता चुकी है, “ज़माना यूं ही निकल गया.”
वो फिलहाल अपने पति से अलग, अपने परिवार के साथ रह रही है, लेकिन तलाक अभी मिला नहीं है. जब सुमन ने ससुराल छोड़ा, उसकी बेटी 4 साल की थी, वो सुमन के पति के साथ रहती है.
जब सुमन अपने पति के साथ ही रह रही थी, तब उसने घरेलू हिंसा के मामले में पुलिस की मदद ली थी. पति-पत्नी, दोनों ने पुलिस से 10-15 काउंसिलिंग सेशन (परामर्श सत्र) भी लिए थे. लेकिन पति अपने पुराने ढर्रे पर वापस लौट गया, सुमन ने वकील को पति के साथ उसकी स्थिति पूछने पर ये बताया.
जब सुमन कमरे में आई तो उसने बताया कि वो कुछ चक्कर सा महसूस कर रही है और ऐसा इसलिए है क्योंकि उसके घर वाले उसके खाने में ‘नशा’ (नशीले पदार्थ) मिलाते हैं. उसे घर से बाहर निकलने से पहले मेकअप भी करना पड़ता है क्योंकि वे उसके चेहरे पर काटा-पीटी (काटने के निशान) करते हैं. इस बीच वकील ने, वन स्टॉप सेंटर के लिए तय अपना रजिस्टर निकाला और उससे कुछ व्यक्तिगत विवरण पूछने लगीं, उसका नाम, पता, पिता का नाम वगैरह. जब सुमन ने टोका “आप लिखो मत बस सुन लो” वकील ने बोला कि उन्हे लिखना पड़ेगा क्योंकि यह प्रोटोकॉल (नियमावली) है. सुमन ने बताया,
“घर पर टॉर्चर करते हैं. सब झूठ बोल रहे हैं. भाई ने फर्स्ट फ्लोर से फेंक दिया. हस्बैंड बोलता है कि बेटी को कोर्ट से लो. पेरेंट्स जाने नहीं देते. अब बेटी भी मुझे नहीं पहचानती क्योंकि 5 साल हो गए हैं ससुराल छोड़े हुए.”
हम सभी सुमन की बताई गई घटनाओं का ब्यौरा याद रखने की कोशिश कर रहे थे.
यह हमारे लिए था - पर्यवेक्षक और प्रतिक्रियादाताओं के लिए - पहेली के टुकड़ों को जोड़ना.
वकील ने अक्सर अपने सवाल दोहराए और सुमन ने जबाव देने में कुछ मिनट लिए. खुद को बेहतर तरीके से समझाने के लिए या जब उसे लगा कि हम उसे नहीं समझ रहे तो सुमन ये भी कहती थी कि, “आप नहीं समझे?”
सुमन थकी हुई और परेशान लग रही थी. एक महीने पहले, वो पुलिस के पास अपने परिवार के खिलाफ एक और शिकायत करने आई थी. वकील ने हालिया शिकायत का प्रूफ मांगा. सुमन ने फोन पर शिकायती कागज़ की एक फोटा दिखाई. वकीन ने शिकायत पढ़ी और पूछा कि उसके परिवार ने उसके गुप्तांगों के साथ क्या किया? जिसका ज़िक्र शिकायत में था. सुमन ने अपने शरीर के अलग अलग हिस्सों की ओर इशारा किया. उसने अपने सिर पर तीन टांके दिखाए, उसके बाल, जैसाकि उसने बताया कि वो उन्हे काटते रहते थे. उसकी बांह, जिसमें जले के निशान थे, उसका चेहरा और उसके चप्पल. उसने अपने चप्पल की ओर इशारा करते हुए मेरी तरफ देखा.
मेरी तरह ही, केसवर्कर और काउंसलर भी नोट्स (सारा विवरण लिखना) ले रहे थे. उन्होने बीच में सिर्फ स्पष्टीकरण के लिए दखल दिया. वकील , जो प्राथमिक संवादकर्ता थीं, उन्होने सुमन से पूछा कि क्या उसे पति से कुछ गुज़ारा भत्ता मिल रहा है? क्योंकि कानूनन, उसके माता-पिता उसे कुछ देने के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं. “शादी के बाद, पत्नी, पति की ज़िम्मेदारी है. डालसा (डीएलएसए) यानी ज़िला विधिक सेवा प्राधिकरण उसके पति को नोटिस भेज सकता है.” वकील ने ये बात उसे हिंदी में बताई.
डालसा (डीएलएसए) ज़िला स्तर के कोर्ट हैं जो समाज के कमज़ोर तबके को मुफ्त और सक्षम विधिक सेवाएं देते हैं. वकील, डीएलएसए के प्रतिनिधि होते हैं. हालांकि वो खुद सुमन का केस नहीं ले सकतीं पर उसको आगे के कदम के लिए सलाह दे सकती हैं. उन्होने सुमन को बताया कि जब वो अपने नज़दीकी कोर्ट में जाएंगी तो उसके केस के लिए एक सक्षम वकील नियुक्त किया जाएगा.
वकील ने सुमन को सलाह दी कि उसे अपने माता-पिता पर घरेलू हिंसा का केस नहीं करना चाहिए बल्कि उनपर जायदाद के लिए केस करना चाहिए.
इस पर सुमन ने कहा, “पर ज़िंदा नहीं रहूंगी जो प्रॉपर्टी का क्या करूंगी”. ये सुनकर वकील ने कहा कि, फिर उसे दोनों ही मामलों में केस फाइल करना चाहिए. वकील ने सलाह दी कि उसे कोर्ट जाते समय, अपनी पहचान के कागज़ यानी आधार कार्ड, पासपोर्ट और फोटो साथ रखना चाहिए.
केसवर्कर ने सुमन से अपनी शिकायत विस्तार से लिखने को कहा. ओएससी आने वाली सभी पीड़िता/ सर्वाइवर महिलाओं को अपनी लिखित शिकायत दर्ज करानी होती है जो जवाबी प्रक्रिया का हिस्सा है. इस मामले में, क्योंकि सुमन पढ़ी-लिखी है, केसवर्कर ने उसे अपनी शिकायत खुद लिखने के लिए कहा. सुमन ने कहा, “मैंने यूट्यूब पर देखा है ऐसे ही कुछ भी नहीं लिख सकते”. उसने केसवर्कर और वकील से, अनुरोध किया कि उसकी अभी तक बताई गई बात के मुताबिक वे उसकी शिकायत लिख दें. जवाब में उन्होंने कहा कि वे उसकी मदद कर सकते हैं, पर शिकायत सुमन को खुद ही लिखनी चाहिए.
सुमन बार-बार कहती रही कि पुलिस ने उसके लिए कुछ नहीं किया. पूछताछ करने वाले अधिकारी लगातार बदलते रहे. जितनी बार वो पुलिस स्टेशन गई, उतनी बार उसे पागल कह कर मज़ाक बनाया गया, “पागल बोलेंगे तो पागल ही रहूंगी न!”. वकील ने कहा कि उसे कोर्ट में ये सारी बातें भी बतानी चाहिए.
सांस्थानिक उपेक्षा झेलने का सुमन का ये अनुभव पहला नहीं था. इससे पहले जब वो 181 हेल्पलाइन के पास पहुंची थीं, तब उन्होने उसे अपना घर छोड़कर बाहर निकलने और अपने पड़ोसी के घर पर सोने की सलाह दी थी. मुझे आश्चर्य हुआ कि क्या इससे सच में कोई मदद हुई होगी! तय था कि इस सुझाव से सुमन को और भी खीझ महसूस हुई होगी.
अपनी शिकायत लिखते हुए सुमन लगातार बोले जा रही थी. उसमें ज़रूरी कागज़ों को जोड़ते हुए वो अब ओएससी में औपचारिक रिकॉर्ड का हिस्सा बन गई थी. न्याय के लिए उसकी बेसब्री और थकावट कोई हैरानी की बात नहीं थी. इतनी उपेक्षा झेलने के बाद भी, इसमें आगे का रास्ता यही था कि ब्यूरोक्रेसी के भूल-भुलैया वाले रास्तों में फिर से किसी नए अधिकारी तक पहुंचा जाए. अब कोर्ट में फिर से शिकायत दर्ज कराना होगा (क्योंकि ओएससी की कानूनी वकील केवल उसे सलाह दे सकती है, वो कोर्ट में उसकी प्रतिनिधि नहीं हो सकती). और उसे फिर एक नए तरह के लोगों के सामने न्याय मांगने की गुहार लगानी होगी.
इस बातचीत के बीच में, काउंसलर ने मेरी ओर देखकर इशारे से कहा, “इसका दिमाग ठीक नहीं है.” मुझे नहीं पता था कि मैं इस पर क्या कहूं और मैंने अपना ध्यान फिर से सुमन की बातों पर लगा लिया.
सुमन का पति एक बार उसके माता-पिता के घर उससे मिलने आया था. ये जानकारी सुनकर, वकील खुश लगीं और उन्होंने केसवर्कर से कहा कि उन्हे ये सब करने की बजाय इसके पति को काउंसिलिंग के लिए ओएससी सेंटर आने के लिए कहना चाहिए था. सुमन ने आगे बताया कि जब कुछ दिन बाद वो अपने पति के घर मिलने पहुंची, तो उसने सुमन को अपनी भाभी की वजह से अंदर नहीं आने दिया. उसे हमेशा से उन दोनों के बीच रिश्ते का शक था.
“गाड़ी में हाथ डाल रहा है, घर पर डालो ना भाभी के सामने.” सुमन ने बताया कि उसने पति का हाथ हटा दिया. वकील ने पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया? सुमन ने जवाब दिया, “क्योंकि वे दोनों अलग हो चुके हैं. सेल्फ रिस्पेक्ट सिर्फ मेल की नहीं, फीमेल की भी होती है.”
वकील और केसवर्कर ने इस किस्से का सार ये निकाला कि इससे उसके पति की मेल ईगो को ठेस पहुंची और इसलिए वो उसे घर नहीं आने दे रहा.

सुमन को यहां आए एक घंटे से ऊपर हो चुका है. मैं अब असहज महसूस करने लगी थी. मैं जानती थी कि सीधे सुमन की कोई मदद नहीं कर सकती, क्योंकि मैं वहां सिर्फ एक शोधकर्ता की हैसियत से बैठी थी. मैं चुप रही, जबकि वो मेरे एकदम बगल में बैठी थी. लेकिन उस कमरे में मौजूद होने की वजह से, क्या ऐसा नहीं था कि मैं न्याय पाने के उसके इस सफर की एक कड़ी बन चुकी थी?
वकील आखिरी फैसले पर पहुंच चुकी थीं. उन्होने संक्षेप में बताया कि सुमन को अपने माता-पिता के खिलाफ जायदाद के लिए केस करना चाहिए और पति से गुज़ारा भत्ते की मांग करनी चाहिए. इन्हीं दो मूल मुद्दों के कारण घरेलू हिंसा होती है इसलिए घरेलू हिंसा उसकी दूसरी नंबर की शिकायत होनी चाहिए.
“आप मेरे फेवर में क्या करोगे?” वकील ने जवाब दिया कि ये कोर्ट तय करेगी क्योंकि केवल पति को गुज़ारा भत्ते के लिए मजबूर किया जा सकता है. ओएससी उसके परिवार को सिर्फ सलाह दे सकता है. वहां से जाने से पहले सुमन ने हर किसी से उसका नाम पूछा. उसके कुछ समय बाद वकील भी वहां से चली गईं.

वकील और केसवर्कर दोनों ने मुझसे कहा था कि इस तरह के मामले तो यहां रोज़ की बात है. जब वे इस काम से नई-नई जुड़ी थीं तब महिलाओं द्वारा विस्तार में बताए जाने वाले हिंसा के अनुभवों की कहानियों से वे सभी बहुत परेशान हो जाती थीं. पर मैंने सोचा कि इन कहानियों की बारीकियों में ही तो असलियत छुपी है. आगे केसवर्कर ने कहा, “इसके माता-पिता एकदम सज्जन लोग होंगे.” मैने काउंसलर से पूछा कि उसका क्या मतलब था जब उसने इशारे से कहा था कि सुमन का दिमाग खराब है. केसवर्कर ने बने-बनाए ढंग से कहा , “आपने ध्यान दिया कि वो कैसे अपना बयान आगे-पीछे कर रही थी.”
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कई सवाल और विचार सामने आते हैं. न्याय पाने या न पाने की प्रक्रिया के बीच इतनी पर्तें हैं, ऐसे घुमावदार रास्ते हैं जिनका कोई ओर-छोर दिखाई ही नहीं देता.
सुमन को जब हर बार अपनी कहानी दोहरानी पड़ती है तो उसे कैसा महसूस होता है?
ज़्यादातर मामलों में, जब तक पीड़ित/ सर्वाइवर महिलाएं वन स्टॉप सेंटर तक पहुंचती हैं, उससे पहले ही वे पुलिस तक पहुंच चुकी होती हैं- सबसे नज़दीकी अस्पताल में मेडिकल और कानूनी प्रक्रियाओं से गुज़रते हुए और हर स्तर पर अपने साथ हुई हिंसा के अनुभव की लंबी कहानी दोहराते हुए आती हैं. इन सारी जगहों के लिए एक संवादकर्ता के बतौर ओएससी में सारी बातचीत का दस्तावेज़ीकरण किया जाता है और साथ ही जो भी लोग इसमें शामिल हैं, उनका भी रिकॉर्ड रखा जाता है. एक प्रशासनिक डाटा के मुताबिक, साल 2024 में सभी पीड़ित-सर्वाइवर महिलाओं को मनोवैज्ञानिक और सामाजिक परामर्श यानी काउंसिलिंग मिली, हालांकि केवल 1 फीसदी को पुलिस की मदद मिल पाई, 2 फीसदी को मेडिकल मदद और 24 फीसदी को कानूनी काउंसिलिंग मिली.
ऐसे में, ये सवाल उठता है कि ओएससी कैसे एक ही स्थान पर कानूनी पहुंच के अपने वादे को अलग ढंग से कर पा रहा है? कैसे ओएससी किसी पीड़ित/ सर्वाइवर महिला के लिए अपनी ज़रूरतों को पहचानने या समझ पाने में मददगार साबित होता है?
इन सवालों को ध्यान में रखते हुए मैंने काउंसलर से पूछा कैसे वे अपने काम में पीड़ित/ सर्वाइवर महिला को सहज होकर खुलने का समय देती हैं और उसे अपने अधिकारों के लिये सजग बनाती हैं? उन्होंने कहा, “लेकिन वो अक्सर झूठ बोलती हैं”. अलग-अलग जगहों पर दिए गए (उनके) बयान, (घटनाक्रम को) तार्किक रूप से जोड़ने और सत्यापन के प्रमाण के रूप में काम करते हैं. “आखिर किसी जगह तो वो सच बोलेगी. हमें पता चल जाएगा.” काउंसलर ने जोड़ा.
मतलब, इस पूरी प्रक्रिया इस सोच पर टिकी है कि महिलाएं झूठ बोल रही हैं.
अलग-अलग जगहों पर बयान रिकॉर्डिंग दरअसल इस बात को सुनिश्चित करने के लिए है कि कहीं न कहीं सच्चाई बाहर आ जाएगी! ये सोच इसके बिलकुल उलट है कि महिलाएं सच बोल रही हैं और उनके बायन के आधार पर अलग-अलग जगहों पर न्याय प्राप्त करने की प्रक्रिया में उनका साथ देने की ज़रूरत है.

दोनों तरफ से भरोसा न तो अंदरूनी रूप से महसूस होता है, न ही दिखाई देता है. आश्चर्य नहीं कि इस कारण हिंसा के ज़्यादातर मामले दर्ज नहीं हो पाते, या बहुत कम दर्ज होते हैं. जैसा मैंने लेख की शुरुआत में ही बताया था.
हालांकि, सुमन का अनुभव बताता है कि इसके बाद भी वो उम्मीद बनाए रख सकती है. वो जानना चाहती थी कि ओएससी उसकी मदद कैसे करेगा क्योंकि शायद न्याय की उसकी दूसरी कोशिशें असफल रही थीं. ओएससी पहुंचते ही जो सबसे पहली बात उसने कही कि वो चाहती है कि उसे हर कोई सुने. कोई और उसे सुन नहीं रहा था. वो अब भी लड़ने की कोशिश कर रही थी.
क्या होता अगर सुमन ताज़ा घावों के साथ पहुंचती? उन्होंने उसे तब कैसे मदद की होती?
28 फरवरी 2025 तक, दिल्ली में 22 ओएससी सेंटर को मंज़ूरी दी गई थी, लेकिन इनमें से सिर्फ 50 फीसदी ही अभी काम कर रहे हैं. दिल्ली में हर एक प्रशासनिक ज़िले में एक ओएससी मौजूद है.
हालांकि ज़्यादातर ओएससी किसी सरकारी स्वास्थ्य परिसर के भीतर चलते हैं, जोकि ज़िला द्वारा आधिकारिक रूप से तय किया जाता है लेकिन जहां मैंने अपना फील्डवर्क किया उस सेंटर के पास अपना कोई अस्पताल नहीं था. नियमों के अनुसार ऐसी परिस्थिति में, उसके दो किलोमीटर के दायरे में एक अस्पताल होना चाहिए. इस ओएससी से सबसे नज़दीकी अस्पताल 4 किलोमीटर की दूरी पर था. 2024 नवंबर तक इस ओएससी के पास अपना वाहन भी नहीं था.
तुरंत ज़रूरत होने पर केसवर्कर, पीड़ित/ सर्वाइवर महिला को अपने खर्चे पर अस्पताल ले जाती हैं.
इसके अलावा सेंटर के पास मार्च 2024 से बिल्कुल पैसे नहीं हैं. स्टाफ बिना वेतन के काम कर रहा है. रोज़मर्रा के खर्चे सेंटर के प्रशासक पूरे कर रहे हैं. हालांकि, उन्हें भरोसा है कि पैसे आ जाएंगे. ये हमेशा होता है, जब भी ऐसा होता है. उन्होने बताया, “हम पुलिस की तरह काम करते हैं.” साथ ही जोड़ा कि वे सिर्फ इसलिए काम करना रोक नहीं नहीं सकते कि पैसे नहीं हैं.”
पहले, पैसे केंद्र सरकार से सीधे ज़िले के खाते में आते थे. 2022 से, अब पैसे राज्य सरकार के ज़रिए आते हैं. और, जब 87.25 फीसदी पैसे सारे 11 ओएससी के खर्च हो जाते हैं, तभी अगली खेप आती है. प्रशासक ने बताया कि बहुत सारे ओएससी इस खर्च में अक्षम होते हैं क्योंकि वहां पर्याप्त केस नहीं होते. हालांकि उनके ओएससी में बहुत से केस आते हैं, हर महीने कम से कम 40 केस.
केसवर्कर और काउंसलर सोशल वर्क और मनोविज्ञान विषय की पढ़ाई करके आती हैं. उन्हें मालूम है कि उनका काम इतना ज़रूरी क्यों है. इसलिए वे लंबे-लंबे घंटे काम करने और छुट्टी के दिन भी काम करने के लिए तैयार रहती हैं लेकिन जैसे कि उस सरकारी दफ्तर के बाकी ऑफिसों में काम करने का तरीका होता है, उसी तरह इस ओएससी सेंटर पर पीड़ित/ सर्वाइवर महिला को योजना की लाभार्थी की तरह ही देखा जाता है. जैसा कि हमने सुमन के मामले में देखा, इस नज़रिए से एक तरह की दूरी और बेरुखी पैदा होती है, जो पीड़ित/ सर्वाइवर केंद्रित मदद को रोकती है. कई ऐसे पल थे जब उसकी बात को ध्यान से सुनने के बजाय पहले उसकी उपस्थिति का रिकॉर्ड दर्ज करना ज़्यादा ज़रूरी समझा गया.
इसलिए ओएससी के कामकाज पर यह भी सोचने की ज़रूरत है कि सिस्टम की खामियां कैसे पहले मदद करने वाले केसवर्कर्स के महत्त्वपूर्ण काम को कम करके आंकती हैं और उनके सहयोग देने की क्षमता को भी प्रभावित करती हैं.
समय पर और पर्याप्त फंड मिलना केसवर्कर्स के काम में बहुत ज़रूरी होता है. पहले वन स्टॉप सेंटर एक अलग योजना थी, लेकिन 2021 में इसे मिशन शक्ति की ‘संबल’ उप-योजना के तहत शामिल कर दिया गया. इसका मतलब यह हुआ कि अब फंड दो चरणों (केंद्र और राज्य) पर भेजे जाते हैं, जबकि पहले सिर्फ एक चरण पर ही ट्रांसफर होता था.
क्या होता है जब दूसरी पीड़ित/ सर्वाइवर महिला कानूनी परामर्श के लिए आए? एक वकील दोनों को कैसे सुनता है? और क्यों आगे कोर्ट की प्रक्रिया में उस महिला के साथ ओएससी से कोई साथ नहीं जाता?
ओएससी का काम केवल कानूनी सलाह देना है, कोर्ट में प्रतिनिधित्व करना नहीं. हालांकि नियमों के अनुसार, कानूनी काउंसलर (परामर्शदाता) को हफ्ते के हर दिन ओएससी में मौजूद होना चाहिए लेकिन इस ओएससी में, हर शुक्रवार के दिन डालसा से एक वकील आता है. केसवर्कर ने मुझे बताया था कि ओएससी के लिए तय किए गए वकील भी बदलते रहते हैं.
इसलिए, पीड़ित/ सर्वाइवर महिला को सेंटर पर शुक्रवार को आने के लिए कहा जाता है. केसवर्कर और काउंसलर केस की ज़रूरत के आधार पर वकील के साथ बातचीत तय करते हैं. यदि फौरन सलाह की ज़रूरत है तो पीड़ित/ सर्वाइवर महिला को सीधे डालसा जाने के लिए कहा जाता है. ऐसे में ओएससी से कोई स्टॉफ उनके साथ नहीं होता.
अभी, यहां केवल एक केसवर्कर और एक काउंसलर हैं (काउंसलर स्टाफ नहीं है, उन्हें हर महीने 15 दिन के कॉन्ट्रैक्ट पर रखा गया है). ये नियमों के उलट है जो दो केसवर्कर और एक काउंसलर की हर रोज़ मोजूदगी की बात करते हैं.
इसलिए अगर वे चाहें भी तो पीड़ित/ सर्वाइवर महिला के साथ कोर्ट नहीं जा पाएंगे क्योंकि कम स्टाफ और बहुत ज़्यादा प्रशासनिक काम के भार के चलते ऐसा कर पाना उनके लिए नामुमकिन है.
कुछ इन्हीं कारणों की वजह से महिला को फौरन अस्पताल ले जाना भी एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि ये ओएससी अस्पताल के निर्धारित दायरे के बाहर स्थित है. काउंसलर ने अपनी प्राथमिक जांच में कहा कि सुमन को मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं है, लेकिन इस तरह की स्थिति की पुष्टि करना या उसके अनुसार मदद देना लगभग नामुमकिन है. दरअसल, केसवर्कर ने माना कि ओएससी ऐसे मामलों को अक्सर मना कर देते हैं, क्योंकि उनके पास इस तरह की पीड़ित/ सर्वाइवर महिलाओं के साथ काम करने की क्षमता नहीं है. ये मुम्बई के एक ओएससी के मेरे अनुभव से बिल्कुल अलग है. मुम्बई में अपने फील्डवर्क के दौरान मैंने एक ऐसा ओएसएस देखा जो अस्पताल परिसर के अंदर स्थित है और वहां इस तरह के मामलों को संभालने के लिए प्रशिक्षित और संसाधन-संपन्न स्टाफ भी मौजूद है.
एक तरह से ओएससी में कुछ अनौपचारिक नियम बन गए हैं – कुछ तयशुदा तरीके से काम करना और केस लेना (ज़्यादातर मामले पुलिस के ज़रिए ही आते हैं) – ये चीज़ें उस मकसद को कमज़ोर कर रही हैं जिसके लिए वन स्टॉप सेंटर बनाए गए थे, यानी पीड़ित महिलाओं को एक ही जगह पर मदद और न्याय दिलाना. इसके उलट, यह सेंटर खुद पर पुलिस की तरह काम करने पर गर्व करता है (जैसा कि सेंटर की एडमिनिस्ट्रेटर ने माना). जबकि पुलिस एक ऐसी संस्थान है जिस पर महिलाएं अक्सर भरोसा नहीं करतीं.
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मेरे निकलने के 15 मिनट पहले सुमन जा चुकी थी. कार्यालय के अंदर-बाहर का माहौल बदल चुका था. सर्दी का मौसम था, इसलिए सूरज पहले ही डूब चुका था. मुझे गली में एक भी औरत नहीं दिखी. मैं मुश्किल से ही कुछ पहचान पा रही थी, कोई परिचित चेहरा, कोई तो, उस गार्ड को भी नहीं जो कार्यालय भवन के बाहर बैठता है और हर बार मुझे देखकर मुस्कुराता था. यहां तक कि कार्यालय भवन के बाहर बहुत सारी कारें और बाइक खड़ी रहती हैं वो भी नहीं दिख रही थीं. ठीक बाहर जो रेहड़ी वाला था, वो भी दुकान बंद कर चुका था.
मैंने ऑटो बुक करने की कोशिश की लेकिन कुछ भी नहीं मिला. मैं ऑफिस से थोड़ी दूर पैदल चली. मेरी नब्ज़ तेज़ चलने लगी जब मैंने देखा कि एकदम खाली सड़क पर कुछ आदमी खड़े थे, जहां से हाईवे जुड़ता था और मैं वहां से कोई सवारी लेने वाली थी. मैं केवल कल्पना कर सकती थी कि सुमन को क्या महसूस हुआ होगा. या हर बार केसवर्कर और काउंसलर ऑफिस से बाहर निकलते वक्त कैसा महसूस करती होगी. रात में काम करने वाली गार्ड और बाकी के काम के लिए रखी गई सहायिका, जो सभी महिलाएं थीं, कैसा महसूस करती होंगी.
मैंने सोचा, केसवर्कर और काउंसलर तो मेट्रो तक वापस साथ जाती होंगी. काश कि मैं उनके साथ ही निकलती. क्या मैं ये कहने के लिए ओएससी जाऊं कि मुझे डर लग रहा है. इस विचार की बेवकूफी पर मैं खुद मुस्कुराई क्योंकि अभी तो न्याय या सहयोग पाने के लिए सुमन की गुहार देखी थी.
जो संस्था सुमन की मदद के लिए बनी है, वे उसकी न्याय की लड़ाई को और कमतर कर रहे हैं. वे अपने इच्छित वादों से भटक चुके हैं. सुमन की ज़िद और धैर्य का सफर नैतिकता पर खड़ा है पर सांस्थानिक अभिनेताओं के साथ कभी न खत्म होने वाली बातचीत से भरा है. और, इसलिए, हमें सामूहिक रूप से मौजूदा यथार्थ के साथ इसे टटोलते रहना चाहिए, जिससे हम अपने देश में हिंसा के विरुद्ध प्रतिक्रिया की नए सिरे से कल्पना कर सकें.


इस लेख का अनुवाद सुमन परमार ने किया है.