यौनिकता एवं अवचेतन शृंखला में यह चौथा लेख है जो संबंधित विषय पर लेखक के शोध, उनके विचार और विश्लेषण पर आधारित है. यह शृंखला कुछ प्रमुख मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांतों पर विस्तार से चर्चा करती है और यौनिकता पर काम करते हुए इन सिद्धांतों की शैक्षणिक संभावनाओं को भी सामने लाती है. चौथे भाग में, नारीवादी कार्यकर्ता और लेखक जया शर्मा अपने विश्लेषण के ज़रिए बता रही हैं कि कैसे हमारी सबसे अजीबोगरीब यौन कल्पनाएं हर तरह के तर्क के बिल्कुल खिलाफ होती हैं और फिर भी ये हमें समझ आती हैं. जया, यहां मनोविश्लेषण पर नारीवादी दृष्टिकोण का भी गहराई से चिंतन करती हैं.
दिल्ली में रहने वाली एम 37 साल की हैं और मीडिया में काम करती हैं. इस लेख शृंखला में हमने यौनिक फंतासियों के बारे में एक सर्वे की चर्चा पहले भाग में की है. एम ने भी उस सर्वे में भाग लिया था. एम अपनी पहचान “एक स्वतंत्र, मज़बूत महिला” की बनी-बनाई छवि के रूप में करती हैं.
वो अपनी एक फंतासी को बताते हुए कहती हैं कि ये उस सबकुछ के बारे में बात करती है, जिससे असल ज़िंदगी में वे डरती हैं – लोगों का सामना करना और उनका उन्हें एक ‘चरित्रहीन’ महिला की तरह देखना.
“ [ये] बात लोग मुझसे मेरी कामुक किशोरावस्था और उम्र के बीसवें पड़ाव की शुरुआत से ही कहते रहे. मैंने अपने शरीर को ढककर रखना शुरू कर दिया था क्योंकि मेरे दोस्तों को लगता था कि मेरी क्लिवेज कुछ ज़्यादा ही “ध्यान खींचने की कोशिश करती है.” जब उन्हें ये पता चलेगा कि मेरी फंतासियों की वजह से मुझे कितना अटेंशन मिल सकता है, तो पता नहीं क्या होगा.”
एम बताती हैं, “आज कल मैं एक चीज़ पर बहुत ज़्यादा सोच रही हूं, वो ये कि सार्वजनिक जगह पर कोई मुझे ज़बरदस्ती पकड़कर मेरे साथ सेक्स कर रहा है. मेरे बॉयफ्रेंड की वजह से मुझे छत पर और बालकनी में सेक्स करने के आनंद के बारे में पता चला, जहां लोग आपको देख तो रहे हैं लेकिन उन्हें ये नहीं पता चल रहा कि हो क्या रहा है. उन्हें शक होता है पर वो जान नहीं पाते. मुझे लगता है, मैं इसे और आगे ले जाना चाहती हूं.”
इतने लंबे समय से इन फंतासियों के साथ रहते हुए, एम को अब ये अजनबी नहीं लगतीं. उन्होंने इन्हें कभी पूरा करने की कोशिश नहीं की. कम से कम सार्वजनिक जगहों वाली फंतासियों को तो बिलकुल नहीं. एक स्वतंत्र, मज़बूत महिला के रूप में खुद को देखने वाली एम के लिए भी अपने अनुभवों और अपनी फंतासियों को एकदम अलग-अलग करके रखना बहुत मुश्किल लगता है. वो लिखती हैं,
“एक ही चीज़ जो मुझे सबसे ज़्यादा परेशान करती है वो ये कि मुझे ज़बरदस्ती के साथ किया जाने वाला सेक्स पसंद है.
मुझे ये समझ नहीं आता और बहुत हद तक हैरान-परेशान करने वाला लगता है कि मुझे इस तरह के सेक्स से उत्तेजना महसूस होती है. मुझे लगता है कि मुझे अपने बारे में कुछ तो समझने की ज़रूरत है – क्यों एक ऐसा काम जो हिंसा की श्रेणी में माना जाता है, मुझे इतना आकर्षक लगता है?”
छत पर ज़बरदस्ती सेक्स करने की अपनी फंतासी को लेकर एम की जो भावनाएं हैं, उनमें एम के मन के भीतर इस बात को लेकर कोई दुविधा नहीं है कि ये कमरे के बाहर की जगह है और इसमें दो से ज़्यादा लोग शामिल हैं. एम की फंतासियों में दो आदमी और एक दूसरी महिला भी है. हालांकि ये सेक्स की जगह, कमरा न होकर बाहर की जगह है और उसमें दो से ज़्यादा लोग शामिल हैं. इसमें कोई दूसरी औरत भी है, ये तीनों ही पहलू यौनिकता के कायदों को तोड़ने वाले हैं. लेकिन उसे इस बात की कोई चिंता नहीं कि वो इन नियमों या कायदों से बाहर जा रही है, कि सेक्स सिर्फ निजी या प्राइवेट जगह ही किया जा सकता है, वो भी अपने जेंडर के किसी व्यक्ति के साथ ही.
असल में, उसकी फंतासी में जो प्रदर्शनकारी पहलू है – बाहर, खुले में सेक्स करना और लोग उसे देख सकते हैं, इसे लेकर वो उल्लास की भावना से भर जाती है. खासकर दोस्तों की उस सोच को लेकर जो उसके सीने के खुलेपन को लेकर नकारात्मक राय रखते है कि वह अपने ऊपर बहुत ज़्यादा ध्यान खींचने मे लगी रहती है. अगर उसकी यह फंतासी बाहर आ गई तो वे इसके बारे में क्या सोचेंगे! अपनी फंतासी के सिर्फ एक ही पहलू को लेकर एम के भीतर दुविधा है, वो है कि वह चाहती है कि उसके साथ ज़बरदस्ती सेक्स किया जाए.
अपनी यौनिकता और अवचेतन शृंखला में जिस सर्वे का ज़िक्र मैंने किया है, इसमें भाग लेने वाले 30 लोगों में से 20 के भीतर अपनी फंतासियों को लेकर एक तरह की कशमकश थी. मैं प्रतिभागियों द्वारा महसूस की जाने वाली भीतरी दुविधा के दो महत्त्वपूर्ण बिंदुओं पर बात करना चाहूंगी. पहला, जिसे मैं चाहतों को लेकर यमी-यकी (लज़ीज या नागवार) की प्रकृति कहती हूं और इससे जुड़ी जो महसूसियत है और दूसरा बिंदू, मनाही और मंज़ूरी के बीच जो खेल चलता है, उससे जुड़ा है.
चाहतों की यमी-यकी (लज़ीज या नागवार) प्रकृति
चलिए, एम की फंतासियों को लेकर उसकी भावनाओं को थोड़ा नज़दीक से देखते हैं. वो इस बात से परेशान है कि उसे ये ‘हॉट’ या उत्तेजक लगती हैं. वो समझ नहीं पा रही है कि जो “हिंसक” है वो “आकर्षक” कैसे हो सकता है. वो कहती है कि वो “भावनाओं का गड्डमड्डपने” में फंसी होती है. वहीं उसे बहुत अधिक “उत्तेजना भी महसूस होती है.” ब्वॉयफ्रेंड के साथ सेक्स के बाद जब वह अपने जिस्म पर चोट के निशान देखती है तो उसे संतुष्टि के साथ शर्म भी महसूस होती है.
जॉर्जेस बैटेल को परस्पर विरोधी लगने वाली भावनाओं का यह घालमेल बिलकुल सही लगता है. चाहतों की प्रकृति पर विचार करते हुए वे कहते हैं, “अगर मज़े से जुड़ी पीड़ा उसकी विरोधाभासी प्रकृति को उजागर न करे, अगर अनुभव करने वाले व्यक्ति को ही असहनीय न लगे, तो फिर असली मज़ा कहां से आएगा?”
सुखद अनुभूतियों और भावनाओं के साथ इसकी विरोधी लगने वाली अनुभूतियां और भावनाएं भी क्यों जुड़ी होती हैं? ऐसा क्यों है कि असुविधाजनक या अप्रिय लगने वाली अनुभूतियां और भावनाएं हमारे अंदर एक तरह की उत्तेजना या जोश पैदा करती हैं. कभी-कभी दर्द में भी हम उत्तेजना या आनंद जैसा क्यों महसूस करते हैं? यह केवल सेक्स संबंधी फंतासी और इनसे जुड़ी हमारी भावनाओं का मसला नहीं है. बल्कि हमारी ज़िंदगी के हर पहलू में यह यमी-यकी वाली भावना मौजूद होती है, चाहे वह प्यार में महसूस होने वाली तड़प और जलन हो, तीखा भोजन हो, या कि भूत-प्रेत की फिल्में. इसको समझने के लिए हमें फ्रायड की किताब ‘बियॉन्ड द प्लेज़र प्रिंसिपल’ का रुख करना होगा.
एक विश्लेषक के रूप में फ्रायड लंबे अरसे तक यही मानते रहे कि इंसान ‘आनंद के सिद्धांत’ के हिसाब से ही काम करता है. मतलब कि हम सुख या आनंद की तलाश में रहते हैं, और इसको हासिल करने के क्रम में अपने “अंदर की बेचैनी या तनाव को कम करना, स्थिर रखना या दूर करना चाहते हैं.” लेकिन अपने करियर के अंतिम वर्षों में फ्रायड ने पाया कि उनके मरीज़ों के अनुभवों और उनके आसपास के पारिवारिक जीवन में जो चीज़ बार-बार उभरकर सामने आ रही थी, वह आनंद के सिद्धांत से मेल नहीं खाती थी.
फ्रायड ने लिखा है कि जिन मरीज़ों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जंग लड़ी थी, उन्हें बार-बार युद्ध से जुड़े डरावने सपने आते थे और चाहकर भी वह उन सपनों से पीछा नहीं छुड़ा पा रहे थे. दूसरे मरीज़ भी बार-बार उन्हीं लक्षणों की तरफ जा रहे थे, जिन्हें वह खुद विक्षुब्ध करने वाला या परेशान करने वाला मानते थे. मरीज़ों का अपने उन्हीं विक्षुब्ध लक्षणों की ओर जाना और उनसे एक तरह का मोह हो जाने के व्यवहार को फ्रायड बहुत ही मज़ाकिया अंदाज़ में बयान करते हैं. इसने ही उन्हें एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत को रचने के लिए प्रेरित किया.
फ्रायड लिखते हैं कि उनके मरीज़ बार-बार “अनचाही परिस्थितियों और तकलीफ देने वाली बातों” को दोहराते रहते थे और थेरेपी के दौरान उन्हें “बहुत होशियारी” से दोबारा ज़िंदा कर लेते थे.
उनकी कोशिश रहती है कि “उनका इलाज अधूरा रह जाए जबकि वो वैसे भी पूरी नहीं हुआ होता था; वह खुद को दोबारा तिरस्कृत महसूस कराने की कोशिश करते थे.”
ऐसे मरीज़ों के बारे में, जो जान-बूझकर दिल को दर्द देने वाले अनुभवों से चिपके रहना चाहते हैं, फ्रायड लिखते हैं कि वह “अपनी ईर्ष्या के लिए उपयुक्त चीज़ें ढूंढ निकालते हैं” और “ऐसी योजना बनाते हैं […] जो किसी नियम की तरह उतनी ही काल्पनिक होती.” फ्रायड लिखते हैं कि यह जानते हुए भी कि “इनमें से किसी भी चीज़ से उन्हें कभी कोई सुख नहीं मिला […] वे बार-बार उन्हें दोहराते रहते हैं जैसे कि वो ये करने के लिए बाध्य हैं.
लेखक रिचर्ड बूथबी, जो दार्शनिक भी हैं, हमें फ्रायड के इस विचार को और गहराई से समझने में मदद करते हैं कि आखिर क्यों इंसान ऐसा व्यवहार करता है, जो सुख की चाह और दर्द से मुक्ति जैसे स्वत: प्रमाणित या सामान्य सिद्दांतों के बिलकुल विपरीत होता है.
बचपन में शिशु, शरीर के शक्तिशाली ‘सहज आवेगों’ द्वारा संचालित होता है, जैसे मल त्यागना, पेशाब करना, चूसना, स्वाद लेना आदि. इन आवेगों में, जिनमें गुदा (ऐनल) और मुंह (ओरल) के आवेग शामिल हैं, वस्तुओं को अंदर लेने और बाहर निकालने की क्षमता होती है, और इनमें “काम ऊर्जा” भी होती है. लेकिन यह आवेग तभी तक प्रभावी रहते हैं, जब तक कि एक प्रतिस्पर्धी शक्ति, जिसे अहंकार या ईगो कहा जाता है, का जन्म नहीं हो जाता. बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता है, उसका अहं या ईगो इन आवेगों की मनमर्ज़ियों पर अंकुश लगाना चाहता है, इनको बाहर रखना या दबाना चाहता है, ताकि एक पूर्ण और स्थिर पहचान की भावना का निर्माण और संरक्षण हो सके. यह एक तरह का युद्ध है जो अवचेतन के भीतर चलता है!
अहंकार और आवेगों के बीच चलने वाला यह युद्ध या टकराव, सुख और अप्रिय दोनों भावों से युक्त होता है. अहंकार द्वारा जब इन आवेगों पर रोक लगाई जाती है तो अप्रिय महूसस होता है, लेकिन जब कभी यह आवेग हावी होते हैं तो “काम ऊर्जा फूट पड़ती है” और ऊर्जा का यह विस्फोट बहुत ही आनंददायक होता है. ये तो यमी-यकी है ही. अवचेतन में होने वाला काम ऊर्जा का यह विस्फोट भले ही यमी हो, लेकिन इसे दबाने की कोशिश कर रहे ईगो या अहं को यह बिल्कुल ‘यकी या नागवार’ महसूस होता है.
डॉ बूथबी ये बताते हैं कि क्यों यह मान लेना कि आनंद केवल सुखद चीज़ों से आता है, गलत है. वे समझाते हैं कि “जब अबाध ऊर्जा सक्रिय होती है तो तनाव बढ़ता है और इस तनाव के बढ़ने से आनंद आता है. यह आनंद, बाधित या नियंत्रित ऊर्जा से प्राप्त होने वाले आनंद की तुलना में कहीं अधिक होता है.” लीजिए, अब एक बार फिर यहां मनोविश्लेषण हमें उल्टा-पुल्टा ज्ञान दे रहा है, यह कह रहा है कि तनाव में वृद्धि आनंद के अनुभव को तीव्र कर देती है.
“मनाही, कामुकता जगाती है.” (प्रोहिबिशन इरोटिसाइज़ेज़) और “बियोंड द प्लेज़र प्रिंसपल”, अगर इन दोनों को मिला दें, तो हम इस गुत्थी को सुलझा सकते हैं कि आखिर क्यों सेक्स संबंधी फंतासी या यौन-कल्पना में अक्सर हमें एक ही समय पर यमी और यकी, दोनों महसूस होते हैं. उल्लंघन का परिणाम बुरा हो सकता है, फिर भी हम उन चीज़ों की तरफ अधिक आकर्षित होते हैं जो वर्जित होती हैं. जब कोई व्यक्ति किसी ऐसी चीज़ से काम-उत्तेजना महसूस करता है, जिसे वह खुद नियमों के खिलाफ मानता है (चाहे वह मुख्यधारा का बनाया नियम हो या खुद का), तो वह एहसास यमी भी होता है और यकी भी.
लेखों में अब तक मैंने फ्रायड को लगातार उद्धृत किया है और अब यौनिकता और अवचेतन लेख शृंखला के इस चौथे स्तंभ में मैं फ्रायड और नारीवाद के बीच के रिश्ते पर बात करते हुए इसे समाप्त करना चाहूंगी.
मेरी नज़र में ये बहुत ज़रूरी भी है क्योंकि फ्रायड को लेकर नारीवादियों के बीच जिस तरह का संदेह है वो असल में नारीवादी विचारकों का कुल मिलाकर मनोविश्लेषण को लेकर ही संदेह है.
तो मैं जो लिखने वाली हूं वो जितना फ्रायड बनाम नारीवाद है, उतना ही ये नारीवादी बनाम मनोविश्लेषक है.
भारतीय संदर्भ में देखें तो या तो फ्रायड को लेकर पूरी तरह चुप्पी देखने को मिलती है या इस धारणा के आधार पर की वे नारी-द्वेषी हैं, उन्हें खारिज कर दिया जाता है. मैंने यहां ‘धारणा’ शब्द का इस्तेमाल किया है क्योंकि जितना मैंने अपनी साथी नारीवादियों के साथ बात की है, मैंने महसूस किया कि फ्रायड को पढ़े बिना या उनके सिद्धांतों पर जो लोग लिख रहे हैं उन्हें बिना जाने, उन्हें इसलिए खारिज कर दिया जाता है कि इस व्यक्ति ने लिखा है कि महिलाएं ईर्ष्या से पीड़ित हैं, सगे-संबंधियों के साथ यौन संबंध के बारे में झूठ बोलती हैं और योनि परमसुख प्राप्त करने के बाद ही वे परिपक्व होती हैं.
फ्रायड ही वो व्यक्ति हैं जिन्होंने हमें अचेतन की बुनियादी समझ के बारे में बताया और ये भी कि ये कैसे काम करता है. उनके काम के आधार पर ही मनोविश्लेषक ब्रुश फ्रैंक और जैक लकां द्वारा ‘पुश पैराडाइम’, ‘मनाही, कामुकता जगाती है’, ‘कमी’, ‘लॉस्ट ऑब्जेक्ट’ और ‘बिग अदर’ की अवधारणाएं इजाद हो सकीं.अचेतन के बारे में ये अवधारणाएं जो समझ प्रदान करती हैं, वे कई कारणों से नारीवाद के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है.
सबसे पहले हमने जाना कि मनोविश्लेषण के ये सिद्धांत प्यार और सेक्स के मामले में अपने बारे में एवं दूसरों के बारे में, हमारी उलझन और राय को कम करने के लिए बहुत ज़रूरी हैं.
दूसरा जैसा कि हमने यमी-यकी (लज़ीज़-नागवार) के संदर्भ में इसे देखा है, ये हमें नारीवादी मंत्र ‘व्यक्तिगत ही राजनीतिक है’ के साथ आगे बढ़ने में मददगार साबित हुआ है, कि कैसे राजनीति हमारे निजी पर हावी होती है और कैसे हमारा निजी, राजनीति को प्रभावित करता है. ये बहुत ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है क्योंकि एक नारीवादी होने के नाते हमारा काम है अनैतिक सत्ता संरचना की जांच करना और उसे चुनौती देना. उदाहरण के लिए,
हमारे निजी जीवन में तर्कसंगति की सीमाएं हमें सत्ता के खेल में तर्कसंगति की सीमाएं समझने में मदद कर सकती हैं.
इन तरीकों से फ्रायड, मनोविश्लेषण और नारीवाद सभी एक दूसरे के साथ गहराई से जुड़े दिखाई देते हैं. लेकिन फ़्रायड, मनोविश्लेषण और नारीवाद के बीच का संबंध और जटिल तब हो जाता है जब हम देखते हैं कि मनोविश्लेषण किस तरह सेक्स और जेंडर के बारे में बात करता है.
कुछ नारीवादियों ने कहा है कि कैसे फ्रायड सिर्फ अपने समय के प्रतिनिधि के रूप में दिखाई देते हैं और इसलिए उन्होंने 20वीं सदी की शुरुआत के वियना में मौजूद पितृसत्ता को ही प्रतिबिंबित किया है. दूसरों का तर्क है कि फ्रायड सिर्फ वर्णन कर रहे हैं (क्योंकि ये मनोविश्लेक का काम है – सूक्ष्म अवलोकन करना) और किसी तरह का निर्देश नहीं दे रहे.
एक तीसरी तरह का नारीवादी समूह भी है जो हमें नारीवाद और मनोविश्लेषण के बीच के रिश्ते से आगे लेकर जाता है, जहां वे न सिर्फ फ्रायड का पक्ष लेती हैं, बल्कि यह भी दिखाती हैं कि फ्रायड पर आधारित लाकां की मनोविश्लेषणात्मक सोच कैसे नारीवाद को मज़बूत बनाती है. वे यह भी स्पष्ट करती हैं कि मनोविश्लेषण में जेंडर का एक जैविक अंग के रूप में नहीं, बल्कि यह “सत्ता और कामुकता का एक कल्पित प्रतीक” है.
इसी तरह मनोविश्लेषण में अवलोकन का केंद्र मर्द और औरत की जैविक पहचान नहीं होती बल्कि एक ‘मर्द’ और ‘औरत’ की स्थितियां होती हैं. पुरुष स्थिति लगातार एक प्रतीकात्मक लिंग को प्राप्त करने की कोशिश है, ताकि अपने भीतर की कमी को भर सके – जैसे कि ऐसा कर पाना संभव है!
स्त्री स्थिति वह है जो किसी दूसरे की कमी को भर सके.
एलिज़ाबेथ ग्रोज़ जैसी नारीवादी विचारक भी इस बात से सहमत नहीं है कि जैविक या प्रतीकात्मक लिंग स्थितियां और स्त्री स्थितियां जेंडर के मामले में तटस्थ हैं. ग्रोज़ तर्क देती हैं कि “ जैविक लिंग (पीनस) और प्रतीकात्मक लिंग के बीच जो रिश्ता है, वो मनमाना नहीं है बल्कि सामाजिक और राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित है.” वैसे तो यह इस लेख के दायरे से बाहर है कि इस तरह के शब्दों के इस्तेमाल को लेकर जो नारीवादी बहस है उसकी गहराई में जाएं, लेकिन यह ध्यान देने की बात है कि ग्रोज़ भी इसे एक समस्या मानती हैं. इन अवधारणाओं पर सवाल उठाने के बावजूद ग्रोज़ मनोविश्लेषण और नारीवाद के रिश्ते को इतना मूल्यवान मानती हैं कि उन्होंने जैक लकां: एक नारीवादी परिचय (Jacques Lacan: A Feminist Introduction) नामक किताब लिखी. यह केवल एक रोचक तथ्य नहीं है बल्कि यह दिखाता है कि नारीवाद, मनोविश्लेषण किस तरह से, कैसे और क्यों जुड़ना चाहेगा. ग्रोज़ के शब्दों में: नारीवादी मनोविश्लेषकों के काम को “पितृसत्ता के (मनोवैज्ञानिक) कार्यों को समझाने” के लिए कैसे “उपयोग” कर सकते हैं?
पितृसत्ता में, पुरुष और स्त्री स्थितियां जैविक पुरुषों और स्त्रियों पर थोप दी जाती हैं—अर्थात पुरुष हमेशा कमी का पीछा करते रहते हैं, और स्त्रियां लगातार स्वयं को इच्छा की वस्तु की भूमिका में ढालती रहती हैं. अचेतन के ऐसे कामकाज हमें समझाते हैं कि अब तक हुए सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों—जो नारीवादियों के संघर्षों की वजह से संभव हुए—के बावजूद पितृसत्ता क्यों बनी रहती है.
लेकिन उम्मीद भी है – कृत्रिम लिंग. भले ही उसका प्रभाव गहरा है, मगर वह कमज़ोर है क्योंकि वह शुरू से ही वास्तविक नहीं, बल्कि एक कल्पना है. स्त्री स्थिति पितृसत्ता को चुनौती दे सकती है क्योंकि पुरुष स्थिति के विपरीत, जो ‘पाने’ की कल्पना के इर्द-गिर्द संगठित है—और इसलिए प्रभुत्व, संपूर्णता और पूर्ण ज्ञान की इच्छा से बंधी है—स्त्री स्थिति ‘न होने’ के विचार पर आधारित है, और इसलिए उसके पास अधिकार/स्वामित्व वाली प्रतिपूरक कल्पना नहीं होती. यह अनुपस्थिति स्त्री स्थिति में इच्छा, संबंध और ज्ञान के ऐसे रूपों के लिए जगह खोल सकती है जो संपूर्ण प्रभुत्व की कामना से मुक्त हों.
इसी उग्र अनिश्चितता के स्थान से परिवर्तन संभव होता है.
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इस लेख का अनुवाद सुमन परमार ने किया है.
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जया शर्मा, एक नारीवादी, क्वीयर, किंकी कार्यकर्ता और लेखक हैं. जया ने, जेंडर और शिक्षा से जुड़े मुद्दे पर निरंतर संस्था के साथ लगभग दो दशक से भी अधिक समय तक काम किया है. इस दौरान वे ग्रामीण महिलाओं के साथ काम करने वाले संगठनों के लिए यौनिकता विषय पर ट्रेनिंग के काम से गहराई से जुड़ी रहीं. एक क्वीयर कार्यकर्ता के रूप में उन्होंने दिल्ली में कई तरह के क्वीयर मंचों की शुरुआत की. वे वॉइसेज़ अगेंस्ट 377 नामक समूह की सह-संस्थापक हैं. जया, किंकी कलेक्टिव (Kinky Collective) की संस्थापक सदस्यों में से एक हैं – यह एक ऐसा समूह है जो बीडीएसएम (BDSM) से जुड़ी जानकारी फैलाने और उस समुदाय को मज़बूत करने का काम करता है. वर्तमान में, जया सेक्सुअलिटी को अवचेतन (psyche) के नज़रिए से समझने और उस पर लेखनी करने की कोशिश कर रही हैं.


