नौकरी, जो आज़ादी और मजबूरी दोनों थी
बात उस दौर की है जब हमारी उम्र 16 साल की थी और अपनी मां और छोटी बहन का पेट पालने के लिए नौकरी कर रहे थे. ऐसा करने पर हमें अपने परिवार, रिश्तेदारों और मोहल्ले वालों की तरफ से बहुत सारी दिक्कतों का सामना करना पड़ा.
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बात उस दौर की है जब हमारी उम्र 16 साल की थी और अपनी मां और छोटी बहन का पेट पालने के लिए नौकरी कर रहे थे. ऐसा करने पर हमें अपने परिवार, रिश्तेदारों और मोहल्ले वालों की तरफ से बहुत सारी दिक्कतों का सामना करना पड़ा.
हमारी संस्था के कुछ उसूल हैं कि कुछ मुद्दों में हम समझौता नहीं कराते. बलात्कार, दहेज हत्या या हत्या आदि जैसे गंभीर अपराधों में हम समझौता नहीं कराते हैं – मारपीट, लड़ाई-झगड़ा, बच्चों के साथ महिला को घर से निकाल देना, दहेज के लिए परेशान करना – इन मुद्दों में अगर हमारे पास केस आता है तो हम महिला के निर्णय अनुसार इकरारनामा कराते हैं.
मिलिए उत्तर-प्रदेश के बांदा ज़िले में स्थित वनांगना संस्था से जुड़ी शबीना मुमताज़ से, जो पिछले 17 सालों से महिला हिंसा से जुड़े मुद्दों पर काम कर रही हैं. खुद आर्थिक, यौनिक और मानसिक यातनाओं को झेल चुकी शबीना कहती हैं, “एक महिला को न्याय मिलना चाहिए. मुझे बहुत खुशी होती है जब मैं किसी महिला को उस दलदल से बाहर निकाल लाती हूं.”
समझौता ज़्यादातर दो लोगों के बीच में कराया जाता है. जैसा कि हमने देखा है, किसी परिवार में पति-पत्नी के बीच झगड़े को रोकने के लिए समझौता कराया जाता है या किसी और तरह की लड़ाई को खत्म करने के लिए भी समझौता कराया जाता है. लेकिन, ज़िंदगी में हमें कई और तरह के समझौतों से भी गुज़रना पड़ता है.
केसवर्कर्स डायरी के तीसरे एपिसोड में एक केसवर्कर हमें अपने संडे के दिन के बारे में बताती है, सप्ताह का वह दिन जब अपने बेटे के साथ वह अपने पति के गांव जाती है जहां गांव के लोगों के तीखे सवालों के साथ-साथ उसकी सबसे प्यारी सहेली— एक महुआ के पेड़— उसका इंतज़ार कर रहा है.
हंसा छोटी-छोटी गुड़ियाओं को अपने काम में शामिल करती हैं – कभी सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में, कभी भावों को व्यक्त करने के लिए तो कभी अपनी कलाकृति को सामने रखने के लिए. यही वजह है कि ‘क्या है यह समझौता’ सिर्फ़ एक फ़िल्म नहीं बल्कि एक लघु–दृश्य कथा है जिसमें कई तरह के भावों का मिश्रण है जो शब्दों से छन कर आपस में घुलते जाते हैं.
लड़कियां या औरतें समझौता करना कहां से सीखती हैं? कैसे वे मायके और ससुराल में सभी को खुश रखने के लिए अपनी खुद की ज़िंदगी को होम करने के लिए तैयार हो जाती हैं? सच यह है कि पैदा होने से लेकर बड़े होने तक अपने आसपास मां, बहन, दादी, चाची, नानी,,,इन सभी को वे समझौता करते ही देखती हैं.
कोई हमें थोड़ा प्यार करे, हमारी इज़्ज़त करे, हमें सम्मान दे- इसके लिए हम क्या-क्या जतन करते हैं, कितने तरह के समझौते करते हैं, है न! केसवर्कर्स डायरी के इस एपिसोड में उत्तर-प्रदेश के बुंदेलखंड की एक केसवर्कर हमें अपने जीवन के उन तमाम कमरों के बारे में बताती है जहां कभी उसने अपना बचपन जिया तो कभी खुद से उसे बनाया-संवारा.
इस एपिसोड में मिलिए उत्तर-प्रदेश के लखनऊ में स्थित सद्भावना ट्रस्ट से जुड़ी हमीदा खातून से. किसी केस से जो भावनात्मक जुड़ाव है वो सबसे पहले एक केसवर्कर करती है.
इस एपिसोड में मिलिए उत्तर-प्रदेश के बांदा ज़िले में स्थित वनांगना संस्था से जुड़ी पुष्पा देवी से, जिनका मानना है कि वे महिला हिंसा पर काम करते हुए केंद्र में महिला को रखती हैं, परिवार को नहीं.