अंक 005: अपराध

नारीवादी निगाह से

अगर प्रकृति के साथ कुछ बुरा होता है तो क्या वो अपराध कहलाएगा?

लर्निंग लैब में जब हमने क्राइम पर चर्चा शुरू की तो एक ख्याल बार-बार आता रहा. किसी इंसान के साथ कुछ गलत करो तो वह अपराध कहलाता है, पर अगर प्रकृति के साथ कुछ गलत करो, तो क्या वो भी अपराध माना जाएगा? इस सवाल की पेचीदगी को समझने के लिए हमने कुछ लिखित और विज़ुअल नोट्स बनाए हैं, जिन्हें आपके साथ साझा कर रहे हैं.

“हिंसा की तलाश थी और प्यार मिल गया.”

महिला कैदियों की ज़िंदगी के बारे में हम बहुत कम जानते हैं. लोक कल्पनाओं और कहानियों में या तो वे सिरे से गायब होती हैं या सामाजिक नियमों का उल्लंघन करने वाली, असाधारण, बिगड़ी हुई महिला के रूप में उनका चित्रण किया जाता है. पर, एक आम महिला कैदी का जीवन कैसा है? उसकी आपराधिकता क्या है? इसके जड़ में क्या छिपा होता है? उस महिला कैदी के डर, सपने और चाहतें क्या हैं? उसके लिए जेल के बाद की दुनिया कैसी होती है?

क्या किसी अपराधी द्वारा माफी मांग लेना, उसे जेल भेजकर सज़ा दिलाने से ज़्यादा न्यायपूर्ण है?

दो भागों में प्रकाशित यह लेख पुनर्स्थापनात्मक न्याय / रिस्टोरेटिव जस्टिस से हम क्या समझते हैं, इसकी संभावनाओं और प्रक्रियाओं के बारे में विस्तार से बात करता है, खासकर भारत के संदर्भ में. लेख का पहला भाग पुनर्स्थापनात्मक न्याय के दुनिया में उभार पाने, भारत में किशोर न्याय कानून के साथ समानता, यौन अपराधों में भूमिका एवं मध्यस्तता से बिलकुल अलग होने के बारे में है.

अपराध को देखने का नारीवादी नज़रिया क्या है?

प्रोजेक्ट 39 ए, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39-ए से प्रेरित है. अनुभवजन्य शोध की पद्धतियों का उपयोग कर आपराधिक न्याय प्रणाली में प्रथाओं और नीतियों की पुन: पड़ताल के साथ-साथ प्रोजेक्ट 39 ए का उद्देश्य कानूनी सहायता, यातना, फोरेंसिक, जेलों में मानसिक स्वास्थ्य और मृत्युदंड पर नई बातचीत शुरू करना है.

दो दुनियाओं के बीच

मैं समझती हूं कि व्यावसायिक यौन शोषण से बाहर निकलने में महिलाओं की मदद की जानी चाहिए. व्यवसायिक यौन शोषण से बाहर निकलना संभव है. अगर हम एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं जो अपनी औरतों की परवाह करता है, तो व्यावसायिक यौन शोषण को सामान्य नहीं माना जा सकता और न ही ऐसी गतिविधियों को जारी रहने दिया जा सकता है.

Skip to content