हमारी देह हिंसा को कैसे देखती और महसूस करती है?

रंगमंच कैसे देह पर पड़ने वाले हिंसा के प्रभाव को व्यक्त करने और उसे चुनौती देने का माध्यम बनता है

(बाएं) ललिता वाडिवा द्वारा बनाया गया चित्र 'अनसेड' और (दाएं) विष्णु सोलंकी द्वारा बनाया गया चित्र 'फ्रीडा थिएटर', चित्र साभार: मरा - ए मीडिया एंड आर्ट्स कलेक्टिव)

साल 2021 का ग्यारहवां महीना यानी नवंबर. इंदौर, मध्य प्रदेश का शहर. इंदौर में किसी मकान के एक कमरे में साथ बैठीं ग्यारह महिलाएं. कमरे में जिज्ञासा और घबराहट का एक मिश्रण था जो कमरे में बैठी महिलाओं के चेहरों पर भी झलक रहा था. हममें से तीन (अनुषी, एकता और अंगारिका) बेंगलुरु से और बाकी आठ मध्य प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों से यहां आई थीं. हमने वहां बैठी महिलाओं से पूछा, “आपको क्या लगता है, हम सब यहां क्यों आए हैं?” उनमें से एक ने जवाब दिया, “नाटक बनाना है.” दूसरी ने कहा, “अपनी कहानी, अपने तरीके से  दर्शानी है.”

“फ्रीडा” के बनने की कहानी

बात 2018 की है. मरा को एक काम सौंपा गया था. काम था – उन महिलाओं के अनुभवों का दस्तावेज़ीकरण करना, जो उस नेटवर्क का हिस्सा थीं जिसका निर्माण जाति आधारित यौन हिंसा को चुनौती देने के लिए किया गया था. मरा की तरफ से यह ज़िम्मेदारी अनुषी और मुझे सौंपी गई थी. हमसे यह उम्मीद थी कि हम 22 राज्यों की यात्रा करते हुए उन महिलाओं से मिलेंगे, उनके इंटरव्यू करेंगे और इस तरह उनके संघर्ष को समझने की कोशिश करेंगे. हमारी बातचीत के दायरे में जातिवाद, कानून व्यवस्था की बेपरवाही, अपमान और परिवार के भीतर अलगाव और जो हुआ उसका दोष, जैसे विषय शामिल थे.

उन महिलाओं के अनुभव दर्द भरे और पेचीदा थे. उन्होंने बताना शुरू किया. वो एक-एक अनुभव सुनना ठीक वैसे था जैसे कोई आपको एक-एक कर घूंसा मार रहा हो. हिंसा के तथ्यों और क्रमों के भीतर, बहुत भीतर दबा हुआ एक जिस्म था, जिसने यह सब कुछ सहा था. लेकिन पता नहीं क्यों वहां भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं थी. “रोओ मत, यह तुम्हें कमज़ोर बनाता है,” संगठन के सदस्यों द्वारा महिलाओं से ऐसा बार-बार कहा गया, जब वह दर्शकों के सामने अपने अनुभव सुनाने को तैयार खड़ी थीं. चूंकि कैमरे के पीछे के लोग एक दिन में कई-कई इंटरव्यू रिकॉर्ड कर रहे थे, इसलिए कहीं न कहीं हमें सौंपा गया यह काम बहुत ही अहम और ज़रूरी था. हम सुनते रहे, और धीरे-धीरे हम भी सिर्फ सुन ही रहे थे और कुछ नहीं.

जिस तरह से हमारा जिस्म कठोर मौसमों के साथ तालमेल बिठाता है, ठीक उसी तरह हिंसा के इन अनुभवों को सुनते हुए हमारे दिल का हाल भी बदलता गया.

शुरू-शुरू में यह घटनाएं हमें असामान्य लगीं, फिर सामान्य लगने लगीं और फिर आम सी महसूस होने लगीं. हमारा काम यह सुनिश्चित करना था कि महिलाओं के ये अनुभव पुलिस, मीडिया और विभिन्न सरकारी प्रतिनिधियों द्वारा सुने जाएं. इसके लिए इसे कुछ इस तरह से रिकॉर्ड करना ज़रूरी था कि वह मुकम्मल सबूत की तरह पेश किए जा सकें. किसकी कहानियां सुनी जाती हैं? किन शर्तों पर सुनी जाती हैं? किस नज़रिए से सुनी जाती हैं? यह कुछ ऐसे सवाल थे जिनसे हम देश के विभिन्न हिस्सों की खाक छानते समय लगातार जूझते रहे थे.

हम भारी दिल और दिमाग के साथ बेंगलुरू लौटे. मरा में हमारी एक सहकर्मी है – एकता. उसने सुझाव दिया कि “ज़रा ठहरो, जो कुछ भी तुमने देखा-सुना और महसूस किया है उसके बारे में थोड़ा सोचो. ऐसा करने के लिए थिएटर एक तरीका हो सकता है.” कुछ हद तक हमें उसकी राय सही लगी और हम सहमत भी हुए. फिर हमने एक वरिष्ठ रंगकर्मी अनीश विक्टर से संपर्क किया, ताकि वह इस काम में हमारा मार्गदर्शन कर सकें, हमें सिखा सकें, क्योंकि अनुषी और मेरे, हम दोनों के लिए थिएटर की दुनिया एक बिल्कुल नई दुनिया थी. अनीश ने हमसे कहा कि अपने विचार और विश्लेषण से ज़्यादा, इस खोज में अपने जिस्म को केंद्र में रखो. जिस्म कैसे गवाह बनता है? जिस्म कैसे इन अनुभवों को बटोर कर रखता है? वे कौन-से संवाद है जो हिंसा के बाद महिला के जिस्म में अधूरे छूट जाते हैं?

इन सवालों से गुज़रते हुए हमने “छू कर देखो” नाटक तैयार किया. हमारा जिस्म हिंसा को किस तरह देखता और महसूस करता है, नाटक इन्हीं निजी अनुभवों के आधार पर तैयार किया गया.

एक सीन में अनुषी मंच पर बैठी है और अंगारिका के बाल बना रही है. वह दर्शकों को एक कहानी सुना रही है. यह कुछ और नहीं, बल्कि उसके और उसकी मां के बीच मौजूद उम्मीदों की कहानी है. बहुत कुछ अनकहा ही छोड़ दिया गया है, फिर भी दर्शक उस अनकहे को बड़ी शिद्दत से महसूस करते हैं. इन उम्मीदों से एक चट्टानी चुप्पी पैदा होती है जो पूरे माहौल में बस जाती है. कैसे एक पीढ़ी अपनी इच्छा, भय और परंपरा दूसरी पीढ़ी को सौंपती है.

दूसरे सीन में अंगारिका अपने साथ हुई हिंसा की दास्तान बयान करती है. इस सीन को एक खेल का रूप दिया गया है. खेल का एक खास नियम है. नियम यह है कि दर्शकों को जब भी यह लगे कि उन्हें कोई अलग कहानी सुननी है तो उन्हें ताली बजानी है. मतलब दर्शक जितनी बार ताली बजाएंगे, अभिनेता उतनी बार नई कहानी सुनाएगा. लेकिन कहानी नहीं बदलती! दर्शक जब भी तालियां बजाते हैं, अंगारिका उसी कहानी को दोबारा सुनाना शुरू कर देती है. एक ही कहानी बार-बार सुनाई जाती है, और फिर धीरे-धीरे चीज़ें बदलने लगती हैं. कहानी से एहसास और भावनाएं धीरे-धीरे गुम हो जाते हैं और अंततः यह महज़ तथ्यों तक सिमट कर रह जाती है. यह दृश्य दर्शाता है कि बार-बार, लगातार एक ही बात को दोहराने से सुनने और सुनाने के रिश्ते पर किस तरह का असर पड़ता है.

नाटक तैयार करने की प्रक्रिया हमारे लिए परिवर्तनकारी थी. थियेटर के ज़रिए यह संभव हो सका कि हम एक ही कहानी को अलग-अलग नज़रीए से सुना सकें. हमने महसूस किया कि कारण या तर्क के बरक्स हमारा जिस्म क्या कह रहा था! शो के बाद दर्शकों के अलग-अलग समूहों के साथ हमारी जो चर्चा हुई, उससे हमें एहसास हुआ कि रंगमंच कैसे दर्शकों को अपने अनुभवों, पूर्वाग्रहों और अपराध में भागीदारी जैसे विषयों पर विचार के लिए उकसा सकता है.

इस तरह रंगमंच स्वीकार करने और चुनौतियों दोनों का स्थान बन गया.

चित्र साभार: मरा, कला एवं मीडिया कलेक्टिव

इस अनुभव से गुज़रने के बाद, हम उन महिलाओं के बीच इस नाटक का एक शो करना चाहते थे, जिनकी वजह से हमें यह नाटक तैयार करने की प्रेरणा मिली थी. यह वही महिलाएं थीं, जिनसे 2018 की यात्रा के दौरान हमारी मुलाकात हुई थी. इस तरह हम मध्य-प्रदेश गए और वहां इस नाटक का मंचन किया. चूंकि यह शो उन्हीं महिलाओं के बीच किया जा रहा था, जिनकी कहानियों पर यह आधारित था, अतः शो के दौरान दर्शक और अभिनेता के बीच की रेखा धुंधली पड़ती गई. उन्होंने हमारे सवालों का जवाब देना और हमारे संवादों को पूरा करना शुरू कर दिया. उदाहरण के लिए, एक सीन में अंगारिका “घर” जाने की कोशिश कर रही है, जबकि अनुषी उसे तरह-तरह के कारण बताकर रोकने की कोशिश कर रही है. वह उसे बता रही है कि रास्ते में क्या-क्या रुकावटें हैं. यह जो रुकावटें हैं, सामाजिक नैतिकता के उदाहरण हैं. दृश्य जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, कारण और ज़्यादा बेतुके और हास्यास्पद होते जाते हैं. बीच-बीच में अनुषी और अंगारिका दर्शकों से प्रश्न भी पूछने लगती हैं. अनुषी एक ऐसी बूढ़ी औरत का किरदार निभा रही हैं, जो नैतिकता को लेकर काफी सतर्क है. जबकि अंगारिका का किरदार प्रतिरोध और चंचलता की ऊर्जा से भरपूर है. दर्शक धीरे-धीरे दृश्य से जुड़ते चले गए और किरदारों में घुलमिल गए. इस तरह यह सीन महिलाओं द्वारा सामाजिक सीमाओं को तोड़ने के तरीकों पर बहस में बदल गया. ऐसा महसूस होता था मानो दर्शक दीर्घा में मौजूद महिलाएं हमारे परफॉर्मेंस के दौरान हमारे ही साथ सांस ले रही हों! शो के बाद हमने उनसे पूछा कि क्या आप थिएटर करना चाहेंगी? …और इस तरह “फ्रीडा” का सफर शुरू हुआ.

****

छुओ और महसूस करो

जब हम मीडिया में हिंसा से जुड़ी खबरें पढ़ते या सुनते हैं, तो हमें क्या महसूस होता है? हिंसा की खबरों को ऐसी सुर्खियों के साथ परोसा जाता है कि पढ़ने वाला हिल जाए. कुछ खास तरह की जानकारी कामुकता की चाशनी में लपेट कर पेश की जाती है. विकास के क्षेत्र में, हिंसा को मापने का मतलब कभी-कभी इसे आंकड़ों या लफ्फाज़ी तक ही सीमित कर देना होता है. अक्सर देखा गया है कि कानूनी नज़रिए पर कुछ ज़्यादा ही ज़ोर दिया जाता है. नतीजा यह होता है कि हिंसा पर होने वाली बातचीत, अपराध की घटना, पीड़ित/अपराधी, साक्ष्य, सबूत और कोर्टरूम में न्याय आदि के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती है.

जिन महिलाओं ने हिंसा के अलग-अलग रूपों को झेला और उनके खिलाफ लड़ाइयां लड़ी हैं, उनके अनुभवों को सुनने के बाद हमारी यह गलतफहमी दूर हो गई थी कि हिंसा “बाहरी” चीज़ है. हमने जाना कि जो हमारे आसपास हैं वही सबसे अधिक हिंसक हो सकते हैं और वही हमें सबसे ज़्यादा चोट और दुख पहुंचा सकते हैं.

हिंसा के बाद शरीर को शर्मिंदगी से ढक दिया जाता है. बावजूद इसके भीतर कुछ दबी इच्छाएं होती हैं, कहीं छोटे प्रतिरोध होते हैं. हमारी शुरुआती बैठकों में से एक में फ्रीडा की एक सदस्य ने अपनी कहानी बयान करते हुए कहा था कि “अगर मैं लिपस्टिक लगा लेती हूं, या नई साड़ी पहन लेती हूं, तो परिवारवाले ही कहते हैं कि इतना बनने-संवरने का क्या मतलब है? क्या तुम भूल गई कि तुम्हारे साथ क्या हुआ था?” उनके अनुभवों से हिंसा के अप्रत्यक्ष नैतिक प्रभावों का पता चलता है जो शायद उस व्यक्ति को घटना से कहीं अधिक प्रभावित करता है. उदाहरण के लिए, यह आम धारणा है कि अगर किसी महिला के साथ यौन हिंसा हुई है तो उसे दोबारा कभी सेक्स की इच्छा नहीं होगी, या फिर खोई ‘इज़्ज़त’ दोबारा पाने का एक ही तरीका है कि उसकी जल्दी से जल्दी शादी करा दी जाए.

एक कला और मीडिया कलेक्टिव होने के नाते हमारी प्रतिबद्धता सांस्कृतिक न्याय की राजनीति के प्रति है. सांस्कृतिक न्याय दरअसल एक तरीका है, ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित समुदायों के साथ होने वाले अन्याय, बहिष्कार और ज़ोर-ज़बर्दस्ती का सामना करने का.

सांस्कृतिक न्याय में सौंदर्यबोध की राजनीति भी शामिल है, जो यह तय करता है कि क्या ज्ञान है और क्या ज्ञान नहीं है, किसको और किन शर्तों पर अपनी कहानी कहने का मौका मिल सकता है?

हम महिलाओं की रचनात्मक अभिव्यक्ति को व्यक्त करने के लिए एक जगह तैयार करना चाहते थे, जहां वह अपने कड़वे अनुभवों से उबरने के अपने तरीके तलाश कर सकें और अपनी कहानियों को अपनी शर्तों पर बयान कर सकें. हमारा मानना था कि इन अनुभवों से उबरने के लिए थियेटर एक बेहतरीन तरीका है. सृजन करने या कुछ बनाने के काम में खुद में एक अधिकार महसूस होता है. मंच पर एक जगह, एक साथ काम करते हुए इन महिलाओं ने अकेलापन कम महसूस किया. अपनी देह के साथ फिर से एक रिश्ता बनाने में उन्हें मुक्ति का एहसास हुआ. “पहले जब उन घटनाओं की याद आती थी तो मैं वहीं अटक कर रह जाती थी. ऐसा महसूस होता था जैसे मैं डूबती ही जा रही हूं. लेकिन नाटक पर काम करने से मुझे उससे बाहर निकलने का रास्ता मिल गया है. कुछ मायनों में, मुझे लगता है कि मैं अपनी कहानी से अब मुक्त हो गई हूं.”

यह नाटक सच्ची घटनाओं पर आधारित था, और यही कारण था कि हम तीनों अक्सर खुद को कई तरह के सवालों और चिंताओं से घिरा हुआ महसूस करते थे. क्या यह प्रक्रिया महिलाओं को दोबारा उसी आघात से गुज़रने के लिए मजबूर कर रही थी? दोहराव का उन पर क्या प्रभाव पड़ा? इस बात को ध्यान में रखते हुए कि हम एक अलग सामाजिक परिवेश से आए हैं, हमें उनके अनुभवों को किस हद तक ‘निर्देशित’ करना चाहिए? एक बहुत ही कठिन रिहर्सल के बाद, हमने इन सवालों को समूह के सामने रखने का फैसला किया.

“ परफॉर्मेंस के दौरान हम रोने लगते हैं, ऐसा इसलिए क्योंकि हमारे भीतर कुछ घाव अभी भी हरे हैं. लेकिन मुझे मुक्ति का भी एहसास होता है. मुझे अब पहले जैसी घुटन महसूस नहीं होती. जब आपको कोई ऐसी जगह मिलती है जहां पर आप अपना दुख-दर्द साझा कर सकते हैं तो आपका दिल हल्का हो जाता है.” एक सदस्य ने बताया. 

एक मंच पर एक साथ काम करते हुए हमें इनसे बाहर निकलने के भी कुछ पल मिले. हर वर्कशॉप के अंत में हम खुलकर खूब नाचते. इन पलों में हमें एक बहुत ही आंतरिक किस्म का जुड़ाव महसूस हुआ करता था, जिसे अभी भी, कभी-कभी बयान करना मुश्किल है. हम यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि नाटक तैयार करने की प्रक्रिया आपसी सहयोग की भावना पर आधारित हो. हमने जानबूझ कर “निर्देशन” के परंपरागत तरीके से खुद को दूर रखने का फैसला किया, ताकि बिना किसी पूर्व-निर्धारित एजेंडे या ढांचे के अनुभवों को स्वाभाविक रूप से बाहर निकलने का मौका मिले. थिएटर में कितनी संभावनाएं हैं, हमने खुद इसका अनुभव किया था. और अब हम चाहते थे कि महिलाएं भी ऐसा ही अनुभव करें.

हम तीनों ने भी सभी अभ्यासों में भाग लिया, ताकि हमारे और उनके बीच जो फर्क है हम उसकी तस्लीम कर सकें. हमने समूह के सामने अपने विचारों और सवालों को रखा. उन्हें यह भी बताया कि बतौर फैसिलिटेटर हमने कब-कब खुद को कमज़ोर और सत्ताहीन महसूस किया. इससे हमें एक-दूसरे के करीब आने में मदद मिली. हमने एक ऐसी जगह ढूंढ ली जहां हम हमारे बीच के फर्क और विशेषाधिकारों को पहचान पाए. साथ ही हमारे बीच जो समानताएं हैं उसे भी हमने ढूंढ निकाला: नैतिकता, पारिवारिक संरचना, और आज़ादी से जुड़े हम सबके अनुभव और संघर्ष. उन्हें विषयों और प्रसंगों के बजाय, हमने प्रॉम्प्ट (रंगमंच का सामान), क्लू और हुक दिए. हमने उन्हें कहानी कहने के विभिन्न तरीकों के बारे में सोचने और परंपरागत तरीकों को चुनौती देने के लिए उकसाया, ताकि वह दर्शकों के साथ स्पष्ट तरीके से संवाद कर सकें. हमने उन्हें थिएटर और मूवमेंट तकनीकों के बारे में बताया, जिनका उपयोग वह अपने नाटक के निर्माण में कर सकते थे.

'तुम्हारे और मेरे बीच' ममता तंवर द्वारा बनाया गया चित्र. साभार: मारा, ए मीडिया एंड आर्ट्स कलेक्टिव

एक दोपहर हमने पूछा, “एक औरत के लिए आज़ादी का क्या मतलब है?” इस सवाल पर समूह की राय एक नहीं थी. युवा पीढ़ी जहां आज़ादी, बदलाव, और दुनिया देखने के अलग तरीके की वकालत कर रही थी, वहीं पुरानी पीढ़ी अपनी पुरानी लीक छोड़ने को तैयार नहीं थी. “एक औरत असल में कैसे आज़ाद हो सकती है? आज़ादी सिर्फ ली नहीं जाती, देनी भी पड़ती है.” ऐसा नहीं था कि यह बहसें रिहर्सल तक ही सीमित थीं, बल्कि रिहर्सल के बाद भी यह मुद्दा गर्म ही रहता. हम तीनों उठाए गए मुद्दों पर बार-बार लौटते, और खुद को अपने-अपने दृष्टिकोण और स्थिति पर अक्सर बहस करता हुआ पाते. इन बहसों ने भी अपने तरीके से नाटक में अपनी जगह बना ली. इन बहसों ने नैतिकता, पाबंदी और हद के उस बड़े मकड़-जाल को खोलने का काम किया, जिसमें महिला होने के नाते हम अक्सर खुद को फंसा हुआ पाते हैं.

हम रिहर्सल के दौरान विचारों की अभिव्यक्ति के लिए लेखन पर भरोसा नहीं कर सकते थे क्योंकि जो महिलाएं नाटक में भाग ले रहीं थीं उनके साथ जातिगत भेदभाव के कारण औपचारिक साक्षरता का अभाव था. इसके बजाय, हमने अपनी यादों और संवेदनाओं को व्यक्त के लिए चित्रकला को चुना. फिर क्या था! अतीत, वर्तमान और भविष्य – तीनों रंगीन हो उठे. तरह-तरह की आकृतियां और जीव कागज़ों पर जीवंत हो उठे. यही सब नाटक में प्रतीक, चित्र और रूपक भी बन गए, जिससे कल्पना और हकीकत के बीच बहने वाली एक कथा का निर्माण हुआ. उदाहरण के लिए, कुछ प्रॉप्स (रंगमंच का सामान) उनकी रोज़ाना की मेहनत और मेहनत की हकीकत को दर्शाते थे, जबकि अन्य उनकी इच्छाओं और प्रतिरोध का प्रतिनिधित्व करते थे. हमने किसी विशेष घटना, तथ्य या प्रसंग के बजाय इच्छा और स्मृति पर भरोसा किया. सपने देखने या खुद को याद करने की प्रक्रिया की तरह ही नाटक की कहानी भी हमारे सामने कभी साफ तो कभी खंडित या आंशिक रूप से दिखाई देती थी. 

“हमने कई वर्षों तक बोलने और अपनी आपबीती सुनाने की कोशिश की है, लेकिन किसी ने हमारी बात नहीं सुनी. लेकिन हमें उम्मीद है कि इस नाटक के माध्यम से, हमारे प्रॉप्स और चीज़ों के माध्यम से, हमारे जिस्मों के माध्यम से, दर्शक यह महसूस कर सकेंगे कि हम किन मुश्किलों से गुज़रे हैं.”

विष्णु सोलंकी द्वारा बनाया गया चित्र 'वह आगे चलती है'. साभार: मारा, ए मीडिया एंड आर्ट्स कलेक्टिव

देह को केंद्र में रखना

मंच पर अपने अनुभवों को प्रस्तुत करने का तरीका खोजने का मतलब था पहले खुद ही इन अनुभवों का सामना करना. हमने अपना काम देह से ही शुरू किया. शुरू के कुछ महीने तो खराब सेहत से उबरने, फिर से ताकत हासिल करने, दिमाग और शरीर को दोबारा एक-दूसरे से जोड़ने में ही बीत गए. एक अभिनेता तो ऐसी थी कि उसके लिए नज़रें उठाना और किसी की आंखों में देखते हुए बात करना ही असंभव था. वह तो उसने बाद में बताया कि उसके पिता ने उसे अपनी जाति के कारण हमेशा नज़रें नीची रखने की सलाह दी थी.

धीरे-धीरे, हल्के-हल्के, हमने अपने जिस्म की गहराई में उतरना शुरू किया.

छूना या छुअन से जुड़ाव शुरू-शुरू में जोखिम से भरा था.

हमने एक मूवमेंट अभ्यास की मदद से आगे बढ़ने का फैसला किया जिसमें एक साथी को अपनी आंखें बंद करके बिल्कुल स्थिर अवस्था में खड़े रहना था. उन्हें कल्पना करना था कि वह एक मूर्ति है. फिर दूसरी साथी से कहा गया कि वह अपने साथी को कुछ इस अंदाज़ से छूए, जैसे कि वह कलाकार है और अपनी मूर्ति में जान डाल रही है.

हमारा ज़ोर इस बात पर था कि छूने को जहां तक संभव हो, तटस्थ रखने की कोशिश की जाए. एक ऐसा समाज जहां ‘छूना’ अपने आप में कितने अलग-अलग अर्थों को व्यक्त करता है, वैसे में तटस्थ तरीके से छूने की कल्पना ही बड़ा मुश्किल था. लेकिन धीरे-धीरे यह भावना मूर्त रूप लेती गई. जिस्म जगने लगा, मानो गहरी नींद से. भूली हुई, दबी हुई, सोई हुई इच्छाएं उभरने लगीं. जैसा कि एक अभिनेता ने कहा, “बहुत दिनों से मैं खामोशी की गिरफ्त में थी. मैं अपने जिस्म की सुध-बुध खो चुकी थी. लेकिन थिएटर ने मुझे अपनी चेतना वापस पाने में मदद की है. मैं अब समझ सकती हूं कि मेरे जिस्म का एक-एक अंग कैसे बोलता है. जिस्म के हर हिस्से में कहने के लिए कुछ न कुछ है.”

नाटक में भाग लेने वाली महिलाएं जिन जातियों से आती हैं उससे एक ऐसे सामूहिक अनुभवों का पता चलता है जो पीढ़ियों से भेदभाव और दुर्व्यवहार सहता आ रहा था. महिलाओं ने भूख और तेज़ धूप में देर तक काम करने, गरीबी, पढ़ने की ललक, शादी का विरोध करने से जुड़ी कहानियां साझा कीं. हमने महिला श्रम – कार्यस्थल पर, घर में, गर्भावस्था के दौरान, परिवार की निरंतर देखभाल – को केंद्र में रखकर कई सीन तैयार किए. हमने उन इच्छाओं का पता लगाया जो पितृसत्ता के भीतर “वर्जित” मानी जाती थीं जैसे सुंदर दिखना, ज़्यादा पढ़ना-लिखना, अकेले रहना, प्यार में पड़ना. और धीरे-धीरे देह बोलने लगे, यह समूह कारणों की बजाय शारीरिक संवेदनाओं की ओर बढ़ने लगा. इस तरह इस प्रदर्शन शब्द की बजाय प्रतीक महत्त्वपूर्ण हो गए.

शुरू से ही महिलाएं इस बात को लेकर स्पष्ट थीं कि उन्हें सर्वाइवर या ‘पीड़ितों’ पर कोई नाटक नहीं करना है. और न ही वे ‘पीड़ित’ के रूप में पहचानी जाना चाहती थीं. यह सच है कि देह हिंसा की यादों को नहीं भूलती, लेकिन जीवन के अनुभवों की समृद्धि को महज़ एक घटना तक सीमित नहीं किया जा सकता. हालांकि

अक्सर यह उम्मीद की जाती है कि जिन लोगों ने उत्पीड़न सहा है, उन्हें केवल अपने उत्पीड़न के बारे में ही बात करनी चाहिए. उन्हें हिंसा और भेदभाव के एक रेखकीय अंदाज़ में ही अपने अनुभवों को साझा करना चाहिए.

इसके अलावा, एक सोच यह भी है कि नाटक अगर ग्रामीण संदर्भ से जुड़ा हुआ है तो निश्चित रूप से उसकी शैली या तो पारंपरिक होगी या जन-जागरूकता वाली, जिसका अंत ‘समाधान’ की मांग या सामाजिक संदेश के साथ होगा. सच कहूं तो परफॉर्मेंस पर काम करना, अपने आपको अलग ढंग से पेश करने की नए तरीके से आज़ादी की खोज बन गया.

एक वर्कशॉप के दौरान, हमने महिलाओं से अपने बचपन का कोई पसंदीदा खेल खेलने को कहा और इस तरह कबड्डी सबसे लोकप्रिय खेल के रूप में सामने आई. दो टीमें बनीं और दोनों के आमने-सामने होते ही माहौल बदल गया. देह आपस में उलझने लगे, पसीने में तर-ब-तर होने लगे, खिलखिलाहटें गूंजने लगीं – कुल मिलाकर मुकाबला ज़बरदस्त रहा. खेल खत्म हुआ तो हम लोग सुस्ताने बैठ गए. अपनी उखड़ी सांसों पर काबू पाने की कोशिश करते हुए हम बचपन की दुनिया में पहुंच गए – पुरानी गंध, स्वाद, और दृश्य याद आने लगे. इन यादों में आज़ादी के अनुभव तो थे लेकिन साथ ही साथ हिंसा से जुड़ी यादें भी ताज़ा हो गईं. जैसा कि एक महिला ने बताया, “मैं बहुत गरीबी में पली-बढ़ी. मेरे घर में कभी भी इतना भोजन नहीं होता था कि भरपेट खा सकूं. मैं हमेशा भूखी ही रहती थी. ऐसी कोई चीज़ नहीं थी जो मेरी भूख को शांत कर सके. मेरे पिता गुस्से में अक्सर मेरी मां से कहा करते थे कि इस लड़की को इसके बिस्तर के नीचे ही गाड़ दो! यह हमेशा इतनी भूखी क्यों रहती है? लड़कियों में इतनी भूख नहीं होनी चाहिए.” फिर इसी ‘भूख’ से बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ जो गहरा होता चला गया. हम किस-किस तरह की भूख का अनुभव करते हैं? क्या कभी किसी महिला की भूख मिटी है, उसे तृप्ति का अनुभव हुआ है?

मैंने पहली बार 10 रूपए में कान की बालियां खरीदी थीं.
लेकिन कभी पहन नहीं सकी, न घर में न बाहर, इजाज़त ही नहीं मिली.
वह कहते कि इस तरह के आभूषण केवल ऊंची जाति की औरतें ही पहन सकती हैं.
इसीलिए मैं इसे छिपाकर पहना करती थी… यह मेरा छोटा-सा राज़ था.

जब मैं 13 साल की थी, तभी मेरी शादी कर दी गई थी.
तब मुझे पता भी नहीं था कि दुल्हन होने का क्या मतलब होता है.
इसलिए ससुराल में भी मैं सारा दिन बाहर खेलती-कूदती रहती थी.
मुझे याद आता है, मेरे पड़ोस में बेर का पेड़ था, फलों से लदा.
एक दिन मेरी नज़र पड़ी और दिल मचल गया.
यह मेरा पसंदीदा फल था और मैंने बहुत दिनों से इसका स्वाद नहीं लिया था!
बिना कुछ सोचे-समझे मैंने दीवार फांदी और पेड़ पर चढ़ गई. मुट्ठी भर बेर तोड़कर नीचे उतरी.
एक बेर को दांतों के बीच रखकर दबाया तो मुंह मीठे रस से भर गया.
कि तभी अचानक मेरे सिर पर पीछे से एक ज़ोरदार तमाचा पड़ा. यह मेरा पति था.
और फल के रस में खून का स्वाद घुल गया.
मुड़कर देखती हूं तो पाती हूं कि यही वह पल था, जब मैंने अपना बचपन खोया था.

साभार: मारा, ए मीडिया एंड आर्ट्स कलेक्टिव

एक अन्य वर्कशॉप के दौरान, हमने महिलाओं से एक-दूसरे का ‘आईना’ बनने को कहा. इस अभ्यास से पता चला कि वह किस तरह दिन-रात काम में लगी रहती हैं. सुबह से शाम तक बमुश्किल ही उन्हें कभी आराम का कोई पल नसीब हो पाता है. उनकी ज़िंदगी में ऐसा कोई पल नहीं है जब वह आईने पर नज़र डाल सकें और खुद को करीब से निहार सकें. “तुम्हारे साथ जो कुछ हुआ है उसके बाद भी खुद को देखना चाहती हो?” यह एक ऐसा ताना है जो उसे अक्सर सुनना पड़ता है. अभ्यास के बाद अभिनेताओं में से एक ने कहा, “जब वह किसी लड़की की शादी करते हैं, तो चाहते हैं कि वह सुंदर दिखे. उसके नाक-कान छिदवाए जाते हैं. लेकिन वही लड़की जब अपनी मर्ज़ी से सुंदर दिखना चाहे तो हर कोई आपत्ति जताने आ जाता है. कभी-कभी आपका मन सुंदर दिखने का करता है और कभी-कभी नहीं भी करता है. यह तो हमारी पसंद होनी चाहिए, है कि नहीं?”

इस नाटक का नाम है – “नज़र के सामने”. जो कुछ भी हमारी नज़रों के ठीक सामने घटित होता है, क्या हम उसे देखने को तैयार हैं? क्या हम जानबूझकर अपनी आंखों पर पट्टी बांध लेते हैं? क्या ऐसा हम अपनी मर्ज़ी से करते हैं? यह परफॉर्मेंस जितना हिंसा और भेदभाव के खिलाफ है, उतना ही यह सुंदरता के अधिकार और अपने शरीर पर अधिकार की वकालत भी करता है. बाद में जब हम इस परफॉर्मेंस को लेकर अलग-अलग जगहों पर गए तो कई दर्शकों ने नाटक की ‘सुंदरता’ पर सवाल उठाया. इसकी वजह शायद यह थी कि हिंसा को दर्शाने के मामले में हम एक विशेष प्रकार के सौंदर्यबोध के आदि हो चुके हैं, मसलन एक महिला रो रही है, चिल्ला रही है, उसके बाल उलझे और बिखरे हुए हैं आदि. पर यह नाटक गरिमा का दावा करने की एक जगह बना गया. इस नाटक में कानाफुसी करने और मन की बात कहने की जगह बनी, जैसे – कोई महिला अपने प्रेमी के साथ भाग जाती है जो दूसरी जाति का है. एक महिला जी भर कर खाती है. एक महिला आईने के सामने बैठकर सजने-संवरने में समय बिताती है. मां-बेटी एक-दूसरे को करीब से ऐसे देख रही हैं, जैसे पहली बार देख रही हों. इस तरह, रंगमंच केवल यह बताने की जगह नहीं है कि क्या गलत है, या क्या गलत नहीं है, बल्कि यह उकसाने और सुझाव देने की जगह भी है कि ऐसा होता तो? या क्यों नहीं?

चित्र साभार: मरा, कला एवं मीडिया कलेक्टिव

हमारा परिचय

फ्रीडा थिएटर मध्य प्रदेश की अनुसूचित जाति और जनजाति समुदायों की महिलाओं का एक रंग समूह हैं, जिसके सदस्य विभिन्न आयुवर्ग के हैं. गहरे सामंती और पितृसत्तात्मक माहौल में पली-बढ़ी इन महिलाओं ने जाति आधारित भेदभाव, आर्थिक शोषण और यौन हिंसा को सहा है. जातिवाद का बोलबाला और नैतिकता के दबाव के कारण न्याय व्यवस्था और खुद अपने समुदायों में भी न्याय की लड़ाई इनके लिए बहुत ही मुश्किल रही है. जहां यौन हिंसा के बाद, शरीर को अपवित्र मान लिया जाता है, हिंसा की शिकार महिला की एकमात्र पहचान “पीड़ित” हो जाती है. ऐसे हालात में, फ्रीडा की महिलाओं ने मन में घर कर गई कुंठा को दूर करने, हिंसा के सदमे से उबरने और अपनी नुमाइंदगी खुद ही करने के लिए थिएटर का रुख किया. थिएटर ने उन्हें हिंसा के बाद अपने जिस्म से दोबारा जुड़ने के काबिल बनाया, अपने सपनों, चाहतों और संघर्षों को अभिव्यक्त करने का साहस दिया. परिवार और समुदाय के विरोधों पर कभी बातचीत तो कभी प्रतिरोध के माध्यम काबू पाते हुए, “पीड़ित” के ठप्पे से खुद को आज़ाद करने और अतीत को भूलकर भविष्य की राह बनाने के लिए इन महिलाओं ने थिएटर को चुना है. निश्चित रूप से उनका संघर्ष कठिन रहा है.

मरा वास्तव में एक कला और मीडिया कलेक्टिव है, जिसकी स्थापना 2008 में हुई थी. विषय विशेष पर फोकस के बजाय यह कलेक्टिव कला और मीडिया के माध्यम से जेंडर, श्रम, जाति और धर्म की जटिल जुगलबंदी और इसके प्रभावों पर काम करता है. हम उन विचारों और इतिहासों को उजागर करते हैं जिन्हें व्यवस्थित रूप से दबा दिया गया है, सेंसर कर दिया गया है और कम करके आंका गया है. हमारा काम अनुसंधान, लेखन और दस्तावेज़ीकरण है; क्यूरेशन, अभ्यास और प्रोडक्शन तैयार करना है. हम वास्तविक अनुभव, विश्व-दृष्टिकोण और आकांक्षाओं में अंतर के प्रति सचेत हैं जो उन प्रमुख ढांचों को चुनौती दे सकते हैं जिनके दायरे में ज्ञान का उत्पादन होता है. हम रोज़मर्रा के भेदभाव, हिंसा, प्रतिरोध और सहनशीलता को उजागर करते हैं. हम उत्पीड़न के खिलाफ आवाज़ उठाने और स्वाभाविक सामूहिकता के स्पेस के रूप में थिएटर के प्रति प्रतिबद्ध हैं.

इस लेख का अनुवाद अकबर रिज़वी ने किया है.  

अंगारिका गुहा, मरा संस्था से जुड़ी हैं. वे जेंडर,जाति और यौन हिंसा के मुद्दों पर बतौर क्यूरेटर, शोधकर्ता एवं फैसिलिटेटर मरा के साथ काम करती हैं. वह स्वतंत्र संगीतकारों के साथ उनके कला के प्रदर्शन, उसका दस्तावेज़ीकरण करने और उनके लिए आजीविका के अवसर उपलब्ध करवाने के कामों में भी सक्रिय हैं. अंगारिका,’फ्रीडा’ नामक थिएटर समूह की सह-संस्थापक भी हैं जो मध्य प्रदेश में महिलाओं को अपने जीवन के अनुभव और विश्व दृष्टिकोण के आधार पर अपनी कहानियां अपनी शर्तों पर कहने का मौका देती है.

ये भी पढ़ें

Skip to content