“सब जानता हूं कि तुम लोग क्या खाते हो, क्या नहीं.”

शुद्ध शाकाहार और मांसाहार की बहस के बीच एक समुदाय के व्यंजनों का इतिहास

चित्रांकन: बिग फैट बाओ (IG:@thebigfatbao)

‘खाना’ शब्द सुनते ही भूख सी लगने लगती है. तरह-तरह के व्यंजन और पकवान दिमाग में घूमने लगते हैं. मन कहता है बस ढेर सारा स्वादिष्ट भोजन सामने आ जाए और हम उसे खाने लगें. लेकिन मेरे लिए यह जीभ, पेट या मन की भूख को मिटाने का साधन भर नहीं है. इसके साथ मेरा एक अजीब ही रिश्ता है. इसे लेकर मेरे दिल और दिमाग में एक डर सा बैठा रहता है, या यूं कहें कि यह डर बिठाया गया है. ये वो डर है जो बचपन से अब तक गया नहीं. और बहरूपिए समाज में लौट-लौट कर आता रहता है. पता नहीं कभी जाएगा भी कि नहीं.

खाने से जुड़ी बहुत सारी ऐसी बातें हैं जो बड़े होते हुए कदम-कदम पर मेरे साथ घटती गईं. अलग-अलग रिश्तों में, मेरी दोस्तियों के बीच यहां तक कि ठीक मेरे घर के भीतर ये एक सवाल बनकर खड़ी हो जाती हैं. एक दिन मैं और मेरी एक साथी खाने को लेकर हमारी पसंद-नापसंद के बारे में बात कर रहे थे. उसने कहा उसे “प्योर वेज” खाना बहुत पसंद है. मैंने उससे कहा कि तुम “प्योर वेज” की जगह बस वेज या शाकाहारी बोल सकती थीं, उसमें शुद्ध जोड़ने का क्या मतलब है? और इसे जोड़ना क्यों ज़रूरी है? अगर तुम्हारा खाना ‘शुद्ध’ है तो मैं जो मांसाहारी खाना खाती हूं क्या वो ‘शुद्ध’ नहीं? उसके पहले “प्योर” क्यों नहीं लगता?

मैं उससे यही जानना चाहती थी अपने खाने को प्योर कहते वक्त वो मेरे खाने के बारे में क्या सोचती है?

यह ‘प्योर वेज’ या ‘शुद्ध शाकाहारी’ जो हर दूसरी दुकान के बाहर लिखा होता है आखिर है क्या? ये ‘शुद्धता’ का मापदंड आखिर कैसे तय होता है? मेरी दोस्त ने तो मेरे सवालों का कोई जवाब नहीं दिया. फिर वही हुआ जो मेरी बाकी दोस्तियों के साथ होता आया था. हमारी बातें और हमारी दोस्ती दोनों वहीं खत्म हो गए.

मेरी दोस्त ने फिर मुझसे कभी बात नहीं की. मेरे लिए ये कोई नई बात नहीं थी. जब से मैंने होश संभाला है, तब से मैं इस ‘शुद्ध’ शब्द को देख-सुन रही हूं और अब इसे पढ़-पढ़कर और सुन-सुनकर थक गई हूं. इस शब्द से जब भी मेरा सीधा पाला पड़ता है तो मेरे अंदर एक उबाल सा आने लगता है. भीतर एक बेचैनी सी होने लगती है.

मैं खटिक समुदाय से हूं. मेरे समुदाय के लोग मीट का काम करते हैं. बचपन से मीट के सिवा मैंने कुछ देखा ही नहीं है, या यूं कह लें कि मीट के बिना हमारी पहचान ही नहीं है. मैंने सुअरों को पालते, काटते, और बिकते देखा है. सुअर के अलावा मेरे समाज में बकरे, मुर्गे, और मछली की भी कटाई और बिक्री होती है. अगर मैं याद करूं तो मेरी मम्मी और पापा हमेशा अपने किस्से सुनाते थे कि कैसे पापा के परिवार के लोग 1947 में बंटवारे के समय पैदल ही पाकिस्तान स्थित रावलपिंडी से दिल्ली आए और कैसे उन्हें और उनके समुदाय के बाकी लोगों को सरकार द्वारा एक खाली सुनसान जंगल में रहने की जगह दी गई. पापा बताते थे कि उन्होंने बचपन में बड़ी गरीबी देखी. छोटी सी उम्र से ही उन्हें काम करना शुरू करना पड़ा था. मेरी दादी मंडी से वो फल लेकर आती थीं जो सड़ जाते थे और उन फलों के सड़े हुए हिस्सों को हटाकर वे मुंडेर पर बैठकर उन फलों को बेचा करती थीं. कुछ इस तरह हमारे घर का गुज़र-बसर चलता था.

पापा के बचपन के किस्सों में यह था कि वे फफूंद लगी रोटी को सुअर की चर्बी में पका कर खाते थे. वहीं मेरी मम्मी के घर वाले काम की तलाश में उत्तर प्रदेश से हरियाणा गए. वहां मेरे नानी-नाना और मेरी मम्मी सुअर की मीट का काम करती थीं. मेरी मम्मी सुअरनी के बच्चों को पालती और उन्हें बेचकर अपना गुज़ारा चलाती थीं. मम्मी के किस्सों में कई तरह के पकवानों का ज़िक्र होता. जिसमें वे सुअर की मीट और सुअर की चर्बी का इस्तेमाल करते थे. वे दो तरह के व्यंजनों के बारे में बहुत चाव से बताती हैं – एक ‘झाई कुट्टा’ और दूसरा ‘चर्बी वाले पापे’. दोनों ही खाने में बड़े मज़ेदार होते हैं. झाई कुट्टा बनाने के लिए सिर्फ सूअर की चर्बी का इस्तेमाल किया जाता है. चर्बी में आटा और गुड़ मिलाकर हाथ से मसलकर झाई कुट्टा बनाया जाता है. यह बेसन के लड्डू जैसा होता है, पर उससे कहीं ज़्यादा स्वादिष्ट. चर्बी के पापे बनाने के लिए सूअर की चर्बी को अंगीठी पर दूध में चीनी डालकर पकाया जाता है.

फोटो साभार: सुरेश सोनकर
झाई कुट्टा और चर्बी के पापे, सिर्फ़ मेरी मम्मी के ही नहीं, मेरे बचपन का भी एक अहम स्वाद हैं. पापा की तरह ही मैनें भी बचपन में घर में खाना ना होने पर चर्बी में पकी हुई हफ्तों पुरानी रोटियां खाई हैं. मेरे समुदाय में ज़्यादातर खाना चर्बी में ही बनाया जाता है लेकिन यह चलन धीरे- धीरे कम हो गया है. मैं जहां रहती हूं वह जगह झुग्गी-झोपड़ी कहलाती है. लोग हमारे घर आते हैं और कहते हैं, “अरे ये तो नाले के पास रहते हैं. सुअर, मुर्गे, मछली और बकरे का छांटन खाते हैं.” उन लोगों के अनुसार हम गंदे लोग हैं, गंदा खाना खाते हैं.

जब मैं स्कूल में पढ़ती थी तो अपना खाना छुप-छुप कर लेकर जाया करती थी क्योंकि मेरे खाने को लेकर हमेशा ताने कसे जाते. एक तो इतनी गरीबी थी कि खाना बड़ी मुश्किल से मिलता, और अगर मिल जाए तो उसे खाने के लिए इतना रुलाया जाता था कि जैसे कोई गुनाह कर दिया हो.

एक दिन मैं क्लास में बैठी थी. अचानक से एक मास्टर ने क्लासरूम में घुसकर मुझसे पूछा, “ऐ काली भूतनी! आज क्या लाई है खाने को? सुअर की सांठ (सूअर की चर्बी वाली चमड़ी)?” मैं घबरा गई और मैंने कहा, “ऐसे क्यों बोल रहे हो मुझे? मैं नही खाती ये सब!” तब वो कहता, “सब जानु हूं मैं, क्या खाओ हो तम लोग और क्या नहीं.” फ़िर क्या था, पूरी क्लास मुझ पर हंसने लगी और मैं रोने लगी. अगले दिन शाम को स्कूल के बाद उसी मास्टर को मैंने हमारी गली में सांठ खाते देखा. मैंने उसे दुकानदार से कहते सुना, “ज़रा चर्बी वाला पीस डाल दो.” उसकी बात सुनकर इच्छा तो हुई कि उसे उसी चर्बी में तल दूं, ख़ैर!

ये तो मात्र एक छोटी सी झलक है. मेरे पास तो भर-भर कर पोटलियां हैं ऐसे किस्सों की जो मेरे ज़हन में, मेरी यादों में पड़े हैं. बचपन से इस सब से लड़ती आ रही हूं और अब बड़ी भी हो गई हूं, लेकिन कुछ बदला नहीं है. आज भी मैं इस तरह के किस्सों को जी रही हूं. माहौल धीरे-धीरे और कसता जा रहा है. आज, अपनी पहचान बताना तो छोड़ो खुल के सांस लेने में भी डर लगता है. इसलिए रोना भी बहुत आता है. ऐसी मानसिक पीड़ा में हूं जहां कुछ भी समझ नहीं आता. लोग मुझसे पूछते हैं, “कहां रहती हो? नाम के पीछे क्या लगता है? खाने में हमेशा मीट ही क्यों लाती हो, सब्ज़ी क्यों नहीं लातीं? आज किस तरह का मीट बनाकर लाई हो? गंदे हाथों से खाना तो तुम्हें पसंद होगा ना?” ये मेरी ज़िंदगी के वे सवाल हैं जो हर जगह, हर वक्त मेरे साथ चिपके रहते हैं और जिन्हें पूछने से पहले पूछनेवाला कभी संकोच नहीं करता. बहरूपिए समाज के लिए जाति से जुड़ा भेदभाव एक आम बात हो सकती है लेकिन मेरे लिए यह आम नहीं है. लेकिन इनका जवाब देना मेरे लिए उतना ही मुश्किल है.

हमारे यहां एक व्यंजन बनाया जाता है, छांटन. क्या आप इसके बारे में जानते हैं? असल में जानवरों की कटाई के बाद कुछ हिस्से बच जाते हैं जिन्हें छांटन कहते हैं. छांटन में हड्डियां ज़्यादा होती हैं और मांस बहुत कम. इसमें जानवरों का दिल, फेफड़ा, कलेजी और आंतें भी होती हैं और ये आम मीट से बहुत सस्ता होता है. इसे पानी और चर्बी, या कम तेल में पकाया जाता है. ‘आम’ भाषा में बोलें तो इसे सूप जैसा पकाया जाता है. जानवरों के जिन हिस्सों में मीट ज़्यादा होता है वो तो दुकानों में और होटलों में सपलाई होते हैं. जो छांटन बच जाते हैं, हमारे यहां लोग उसे अपने घर ले जाते हैं और उसे खाते भी हैं, और बेचते भी हैं.

सूअर के इस्तेमाल के बिना हमारा गुज़ारा नहीं है.

जिनके पास पैसे अधिक हैं उन लोगों के पास सलाटर होता है जहां मीट को काटने और साफ करने का काम बड़े पैमाने पर किया जाता है. इनके अंदर काम करने वाले भी हमारे जैसे समुदाय के लोग ही होते हैं, और कुछ बाहरी लोग जैसे कि यूपी और असम से काम की तलाश में आए लोग जो हमारे साथ मीट का काम करते हैं.

एक और प्रचलित व्यंजन है ‘गुज्जी’ जिसे घरों में बनाया जाता है. इसे हम मीट का पेड़ा भी कहते हैं. जो सुअर और बकरे की आंतें होती हैं, उन्हें साफ करके उनमें कीमा भरा जाता है और उन्हें उबालकर खाया जाता है. गुज्जी बनाने में जो आंतें इस्तेमाल होती हैं उन्हें साफ करने का काम ज़्यादातर घर की लड़कियां और महिलाएं करती हैं, और बेचने का काम हमेशा मर्द करते हैं. मैं बचपन से ये सब काम होता देखती आई हूं. ये कुछ ऐसी चीज़ों में से हैं जिससे बचपन के स्वाद और उसकी यादें अभिन्न रूप से जुड़ी हैं. हम इसे खाकर बड़े हुए हैं. वहीं, यह हमारी जीविका का बहुत अहम हिस्सा है, लेकिन, अपने ही खाने के लिए मैंने हमेशा लोगों से ताने, भद्दी टिप्पणियां सुनी हैं? क्यों?

हमारे व्यंजनों ने अभाव और गरीबी में आकार लिया. इसका स्वाद चखने के लिए हर तरह के लोग हमारे मोहल्लों में आते हैं. सूअर के तवा-फ्राइ की मशहूर-ए-आलम यह है कि इसे खाने के लिए लोग दूर-दूर से हमारे इधर आते हैं. जिस छांटन की मैं बात कर रही हूं, उसका एक बड़ा इस्तेमाल इस व्यंजन को तैयार करने में होता है. हर रात बड़ी-बड़ी गाड़ियों में लोग इस तवा फ्राई को खाने आते हैं, वही बड़ी गाड़ियां जिनपर उनकी जाति का नाम और उसका घमंड साफ दिखाई देता है.

असल में तवा फ्राई खाने हर वो इंसान आता है जो दिन में हमें देखकर मुंह बनाता है.

उन रातों में और भी बहुत कुछ होता है, जिसके बारे में अभी बात करना संभव नहीं.

खाने के ये सारे प्रकार सिर्फ एक स्वादिष्ट व्यंजन भर नहीं हैं बल्कि हमारे समाज के लोगों की जीविका का मुख्य आधार हैं, जो उनकी पहचान उनके इतिहास से भी जुड़ा है. और इतिहास से हमें यही पता चलता है कि मांस खाना किसी जाति विशेष से नहीं जुड़ा था बल्कि बाबा साहब आम्बेडकर के शब्दों में “प्राचीन काल में हिंदुओं के गोमांस खाने की बात को नकारा नहीं जा सकता.” बाबा साहब, अपने निबंध ‘अछूतः कौन थे और वे अछूत क्यों बने?’ में हिंदुओं के इस दावे को चुनौती देते हैं कि हिंदुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया और गाय को हमेशा पवित्र माना है और उसे अघन्य (जिसे मारा नहीं जा सकता) की श्रेणी में रखा है. आम्बेडकर ने साबित करने के लिए हिंदू और बौद्ध धर्मग्रंथों का सहारा लिया. लेकिन ऐसा क्यों है कि अपने ही खाने को खाने या उसे बेचने के लिए हमारे समुदाय के लोगों को मारा जाता है, उन्हें जेल में डाला जा सकता है?

हमारे समुदाय के लिए जीविका के साधन को धीरे-धीरे खत्म करने की कोशिश की जा रही है. नए-नए सरकारी आदेश रोज़ निकाले जा रहे हैं – कभी कहते हैं खुले में मीट नहीं बेच सकते, कभी कहते हैं रात में इतने बजे नहीं बेच सकते, तो कभी व्रत, पूजा, त्यौहार के समय मीट की दुकानें बंद करवा दी जाती हैं. और अगर आदेश नहीं माने तो समझो खैर नहीं. डराने के लिए कभी घर खाली करने की धमकी देते हैं, तो कभी झुग्गी तोड़ने की. इतना ही नहीं एक दिन तो गाड़ी पर गाड़ी आई और सारी रेड़ही और पटरी को साफ कर दिया. किसी का सामान सड़क पर फेंक दिया तो किसी का सामान उठा कर ले गए. अब तो इतनी निगरानी रखते हैं कि कुछ भी इधर-उधर हुआ तो सीधे पुलिस थाने में धुलाई होती है.

मेरे परिवार के लोग आज भी इस काम से जुड़े हैं लेकिन अब हम व्यंजनों के साथ कम, ‘डर’ के साथ ज़्यादा व्यापार करते हैं.

और यह सिर्फ अकेले मेरे समुदाय की बात नहीं है. मध्य प्रदेश में खुले में मीट बेचने पर प्रतिबंध है. कई राज्यों में मीट की दुकान चलाने को लेकर इतने सारे कड़े और परेशान कर देने वाले नियम हैं कि लोगों ने तंग आकर ये काम छोड़ दिया है. ऐसी खबरें हमें लगभग हर रोज़ जानने-पढ़ने को मिलती हैं. और ऐसे कई अनगिनत किस्से होंगे जो मुख्यधारा की खबरों तक अपनी पहुंच नहीं बना पाए होंगे, जिन्हें कभी छपने का मौका नहीं मिला.

शुद्ध शाकाहारी और मांसाहारी खाने को लेकर भेदभाव के इस ज़हर ने शिक्षण संस्थानों में भी अपनी पैठ जमा ली है.

दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रतिष्ठित कॉलेज की कैंटीन में नॉन वेज खाना बैन कर दिया गया. छात्रों के प्रतिरोध के बावजूद यह फरमान अभी भी जारी है.

मुम्बई आईआईटी के मेस के भीतर टेबलों पर पर्ची चिपकी है कि ‘यहां सिर्फ शाकाहारी खाना खाने वाले ही बैठ सकते हैं.’ कर्नाटक के सागर में स्थित एक महिला कॉलेज के फूड फेस्ट में कुछ लड़कियां अपने घर से चिकन व्यंजन ‘कोली कज्जया’ बनाकर लाईं जिसे देखकर बहुत सारे शिक्षक नाराज़ हो गए और उन्होंने उस खाने को डिस्प्ले से हटाने का आदेश दिया. उन लड़कियों के बार-बार यह कहने के बावजूद कि यहां लगभग 90 प्रतिशत छात्र और कैंपस में रहने वाले लोग नॉन वेज खाना खाते हैं और यह उनका एक पारंपरिक व्यंजन है किसी ने उनकी एक बात नहीं सुनी. यहां तक कि आदेश न मानने पर दंडात्मक कार्यवाही करने तक की बात कही. कितना अजीब है कि एक तरफ हम जहां परांपरा और प्रथाओं का सम्मान कर उसे उत्सव के रूप में मनाते हैं, वहीं किसी के घर में बनने वाला पारंपरिक भोजन उसके ऊपर ‘अनुशासनात्मक कार्यवाही’ का कारण बन जाता है. आखिर किसकी परंपराओं को मान्यता दी जाती है, किसकी नहीं.

सवाल यह है कि इस मानसिक पीड़ा का हरज़ाना कौन देगा? पल-पल मौत से बदतर दर्द झेल रही हूं, इसका हिसाब यह समाज कैसे देगा? जानवर की रक्षा की बात चल रही है लेकिन क्या इंसान के जीवन का कोई मोल नहीं? दलित, आदिवासी, मुस्लिम और जो हाशिए के समुदायों के लोग हैं, उनके साथ जानवरों से भी बुरा व्यवहार किया जा रहा है लेकिन उनकी रक्षा का ज़िम्मा कौन लेगा?

जो व्यंजन हमारी गली में बनाए जाते हैं उन्हें बहुत आसानी से किसी महंगे रेस्टोरेंट या सितारों जड़ित होटलों में परोसा जाता है लेकिन वहां इसे लेकर कोई भेदभाव नहीं है. जिस मल्टीनेश्नल बर्गर, पिज्जा के हम आदि हैं उन्हें भी किसी सूअर, गाय या मुर्गी के मांस से बनाया जाता है, उसे खाने में तो कुछ भी भ्रष्ट नहीं होता. पर वही खाना जब हमारी गली में बनता है तो वो हमारे लिए मुसीबत का कारण बन जाता है. उसे अशुद्ध मान लिया जाता है. हाईजिन के नाम पर उसपर प्रतिबंध लगा दिया जाता है?

क्यों हमारे काम को काम नहीं समझा जाता? पहले मैं इन सवालों से और बातों से डरती थी, पर अब लड़ती हूं. मेरे अंदर बहुत गुस्सा है और यह बस बड़ता जा रहा है. क्या यह सिर्फ खाने या स्वाद का सवाल है? या फिर यह जाति, हायरार्की को बनाए रखने, उसे बचाने की सदियों से चली आ रही कवाइद है? मेरे भीतर अपने खाने को लिए बहुत सम्मान है. इसके इतिहास में मेरा वजूद भी जुड़ा है, मेरी पहचान जुड़ी है. लेकिन वहीं मेरे अंदर दुख है. मेरे अंदर बहुत गुस्सा है. क्या मेरा ये दुख, ये गुस्सा मायने नहीं रखते? क्या कभी ये खत्म हो सकेंगे?

हिना दिल्ली की रहने वाली हैं. उन्होंने आंबेडकर यूनिवर्सिटी, दिल्ली से पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की है. शहरों और गांवों में सामाजिक मुद्दों को समझने के लिए कई संगठनों के साथ काम किया है. हिना का मानना है कि जब तक हम ज़मीनी हकीकत और हाशिए पर पड़े लोगों के नज़रिए को नहीं समझेंगे, तब तक बदलाव लाना मुश्किल है. उन्हें ज़मीनी स्तर पर काम करना और कहानियों को कलमबंद करना पसंद है.

ये भी पढ़ें

Skip to content