गौतम भान इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट (IIHS), बेंगलूरू से जुड़े हैं. वर्तमान में वे एसोसिएट डीन एवं एकेडमिक्स एंड रिसर्च सीनियर लीड के बतौर कार्यरत हैं. वे LGBTQ समुदायों के अधिकारों के लिए भी आवाज़ उठाते रहते हैं. गौतम के प्रमुख शोध कार्यों में दिल्ली में शहरी गरीबी, असमानता, सामाजिक सुरक्षा और आवास पर केंद्रित काम बहुत ही सराहनीय रहा है. फिलहाल, उन्होंने किफायती और पर्याप्त आवास तक लोगों की पहुंच के सवालों पर अपना शोध जारी रखा हुआ है.
गौतम की चर्चित प्रकाशित किताबों में प्रमुख हैं – ‘इन द पब्लिक इंटरेस्ट: एविक्शन्स, सिटिज़नशिप एंड इनइक्वलिटी इन कंटेम्पररी दिल्ली’ (ओरिएंट ब्लैकस्वान, 2017) और बतौर सह-संपादक ‘क्योंकि मेरे पास एक आवाज़ है: भारत में क्वीयर पॉलिटिक्स’ (योडा प्रेस, 2006) शामिल हैं.
द थर्ड आई के शहर संस्करण में गौतम भान के साथ हमने सरकारी नीतियों के बरअक्स वास्तविकता के बीच शहरों के बनने की प्रक्रिया, शहरी गरीबों की पहचान के सवाल, शहरी अध्ययन एवं कोविड महामारी की सीखें और भारत में शहरी अध्ययन शिक्षा के स्वरूप पर विस्तार से बातचीत की है. पेश है बातचीत का पहला अंश:
शहर की पहचान कैसे होती है? हम किसे शहर कहते हैं?
इस सवाल का जवाब अगर रूपक में दूं तो भारतीय शहरीकरण को इस एक दृश्य से समझा जा सकता है – एक घर जिसके चारों कोनों के ऊपर सरिया की छड़ें एक ठोस स्तंभ से चिपकी हुई दिखाई देती हैं, और जिसकी बिना पलस्तर की गई लाल ईंट की दीवार भविष्य की ओर देख रही होती है. लगभग आधी दिल्ली ऐसी ही है. क्योंकि घर अभी बना नहीं है, बनता जा रहा है. ज़्यादातर लोग घर में रहते हुए इसे बनाते हैं. और यही हमारा शहरीकरण भी है. आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ते जाना. इसलिए हमारे शहरीकरण के उपाय एवं प्रयासों को भी इसी धीमी चाल की वृद्धि से परिवर्तन लाना होगा.
वैसे, हमारे यहां पर शहर की एक विचित्र तकनीकी परिभाषा है. भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां रोज़गार से शहर को परिभाषित किया जाता है – 400 वर्ग किलोमीटर के घनत्व में रहने वाली 5000 जनसंख्या जिनमें से 75% पुरुष गैर-कृषि रोज़गार में हों – इस औपचारिक भाषा में भारत में शहर को परिभाषित किया जाता है.
अब, मैं आपको बताता हूं,
यदि आप इस रोज़गार श्रेणी को हटा दें, तो भारत पहले से ही 60% शहरी क्षेत्र है. ये जो हम कहते रहते हैं ना, “भारत गांव प्रधान देश है. हम केवल 35% शहरी हैं." नहीं, अब ऐसा नहीं है. और ये कैसी ऊटपटांग सी परिभाषा है जो पुरुषों के रोज़गार के आधार पर शहरों की श्रेणी तय करती है. यह बहुत ही उलझाई हुई परिभाषा है.
लेकिन ऐसा क्यों है? क्योंकि, मूल रूप से, हम शहर को लेकर कभी सहज नहीं हो पाए हैं. आप ट्रेन में बैठे हैं. आपसे किसी ने पूछा, “तुम हो कहां से?” आप कहेंगे, “मैं दिल्ली से हूं.” वे फट से दूसरा सवाल करेंगे, “नहीं, नहीं, असल में कहां से हो, घर कहां है तुम्हारा?” क्योंकि हमारे यहां शहरों से कोई होता नहीं है. यहां लोग सिर्फ आते हैं.
हम (70-80 के दौर में पैदा हुए) वह पहली पीढ़ी हैं जिसने शहर में जन्म लिया है और जिसके ज़ेहन में फौरन गांव नहीं आता. लेकिन, अभी भी इसे मानने में वक्त लगेगा कि लोग शहर के भी होते हैं. शायद एक और पीढ़ी बीत जाने के बाद शहर को लेकर यह सोच पुख्ता हो सके.
अपने फील्ड वर्क के दौरान जब मैं दिल्ली के बवाना औऱ पुश्ता में उन लोगों के साथ काम कर रहा था, जो दिल्ली के अलग-अलग इलाकों से बेदखल कर, वहां पुनर्वासित किए जा रहे थे, तो एक बात मुझे बिलकुल समझ नहीं आई. वे सुलभ शौचालय में शौच का इस्तेमाल करने के लिए रोज़ाना तीन रुपए दे रहे थे. उनका इलाका शहर का एकदम बाहरी इलाका था. उनके सामने सरसों के खेत ही खेत थे. और वे रोज़ शौच के लिए पैसे दे रहे थे.
हैरानी के साथ उनसे पूछा, “आप शौच करने के लिए हर बार तीन रुपए क्यों देते हैं? आप तो वैसे ही एकदम खुले में हैं.” जवाब देनेवालों में वे पुरूष भी शामिल थे जो दिल्ली के बड़े-बड़े इलाकों में अपने को हल्का करने के लिए दीवरों की तरफ खड़े होकर बेझिझक खुले में शौच करते हैं. उन्होंने मुझसे कहा, “हम गांववाले नहीं हैं, शहरी हैं.” पेशाब करने के लिए सुलभ शौचालय को तीन रुपए देकर हम शहरी कहलाते हैं. मैंने ऐसा कुछ पहली बार सुना था.
शहरी और गांववाला होने के इस अंतर को आप कैसे देखते हैं? शहरी गरीब और गांव के गरीब में क्या अंतर है?
शहर के मुकाबले आपका गांव में होना कोई सवालिया निशान नहीं है. शहर में लाखों सवाल हैं – तुम बस्ती में क्यों रहते हो? तुमने इस ज़मीन पर क्यों कब्ज़ा कर रखा है? तुमने यहां झुग्गी कैसे बना ली? इस सवालों के पीछे सरकार यही कहना चाहती है कि तुम यहां कैसे अधिकार मांग सकते हो, अधिकार चाहिए तो अपने गांव जाकर लो. गांव में भूमि सुधार की कम से कम बात तो हो सकती है लेकिन शहर में कोई भूमि सुधार नहीं होता. अब जाकर कहीं-कहीं इसकी शुरुआत हो रही है जैसे उड़ीसा में किया गया है.
अगर आप शहर में गरीब हैं तो आपकी कोई अलग से शनाख्त, एहमियत या आर्थिक पहचान नहीं होती है. वहीं, आप गांव में गरीब हो सकते हैं और वहां गरीब के रूप में आपकी पहचान स्वीकार्य भी होती है. वहां आप गरीब के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं. हमारे यहां लोगों के कल्याण से जुड़ी सारी योजनाएं गांव के लिए होती हैं, जैसे राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार योजना – नरेगा, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना, ग्रामीण सोलर योजना इस तरह की सारी योजनाएं ये सब गांव में सुधार के लिए हैं. ये योजनाएं शहरी गरीब के लिए नहीं है. इन योजनाओं को शहरी नहीं बनाया गया. मतलब गांवों को सारा कल्याण स्कीम दे दो और शहरों को उत्पादन करने दो.
दूसरा गांव को लेकर जो आदर्शवादिता है, रूमानियत है जिसकी वजह से लोग कहते हैं कि ‘असल भारत तो गांव में ही बसता है’, दरअसल, ये दोनों ही बातें गावों और गांववालों के प्रति एक शुद्धता, उन्हें एक खास दर्जेबंदी में रखती हैं. उसके विपरीत शहरी गरीब को एक चालाक की नज़र से देखा जाएगा. उसके प्रति हमेशा यही व्यवहार होगा कि ये कुछ हड़पने के लिए यहां है.
शहर का यहां के गरीबों के प्रति कुछ ऐसा ही रवैया है कि जबतक वे काम करते रहें तबतक वे बहुत अच्छे हैं लेकिन, जैसे ही वे यहां अपना अधिकार मांगने लगें तो वे पराए हो जाते हैं. काम करो, अधिकार की बात मत करो. अपनी सुविधानुसार जब उनका इस्तेमाल करना हो तो लो बिजली ले लो, लेकिन सैनिटेशन के लिए ड्रेन हम नहीं लगाएंगे, पहले कहेंगे बस्ती यहां तक बढ़ा लो, ताकि बाद में उसे तोड़ने का हक भी हमारे पास होगा. 20 साल के लिए बस्ती बनाने के लिए बोल दिया लेकिन पट्टा 10 साल का ही देंगे. शहर अपनी शर्तों पर लगातार उनसे मोल-भाव करता रहता है ताकि कभी वे स्थाई-पन महसूस ही न कर सकें.
इसका असल चेहरा महामारी में एकदम खुलकर सामने आ गया. यही है शहरी गरीब होने का मतलब. आपका कोई अस्तित्व ही नहीं होता.
इसका लब्बोलुबाब ये है कि आप हर तरह की सोच से बाहर हैं. सरकार और सरकारी योजनाओं की सोच से बाहर हैं. आप उस डेटा से भी बाहर हैं जहां एकाउंट में कैश ट्रांसफर किया जाता है. शहरी गरीब के पास अपना कोई इलाका नहीं, कोई पहचान नहीं, उसे नागरिक होने का भी अधिकार नहीं है.
इस सबके लिए हमने इतनी ज़्यादा लड़ाई लड़ी है. सरकार के लिए ज़मीन महत्त्वपूर्ण है, वो बस्ती में रहने वाले बाशिंदे नहीं देखती. कोर्ट अतिक्रमण की बात करती है. उन्हें ज़मीन और ज़मीन पर अधिकार दिखाई देता है, लोग दिखाई नहीं देते.
मेरे ख्याल से परेशानी का शुरुआती सबब यही है – शहर में एक गरीब नागरिक के रूप में रहना – जिसका शहर की संरचना में कोई अस्तित्व ही नहीं है. इक्का-दुक्का फैक्ट्रियों में काम करने वाले मज़दूरों या ऑटो चलाने वालों की आवाज़ सुनने को मिल जाएगी. लेकिन, सच तो ये है कि ये फैक्ट्री मज़दूर या ऑटो चलाने वाले हमारे शहरीकरण की पूरी तस्वीर नहीं हैं. एक तो ये सारी आवाज़ें पुरुषों की हैं, उसके ऊपर ये एक बहुत छोटा सा हिस्सा हैं.
हम जानते हैं, हमने पढ़ा है कि शहरों का निर्माण औद्योगिक क्रांति के सिद्धांतों और उसके साथ हुए औद्योगिक शहरीकरण के सिद्धांत पर आधारित है. लेकिन, हमारे यहां औद्योगिक शहरीकरण नहीं है! हमारे शहरी क्षेत्र किसी भी तरह के उद्योग, उद्योग से जुड़े उत्पादन के बिना ही विस्तार पा रहे हैं. वित्तीयकरण के दौर में जहां पूंजी पर अधिकार ही सबकुछ है वहां शहरीकरण किस तरह हो रहा है? अब जिसके पास पूंजी है वही अपनी मनमानी करेगा ऐसे में अव्यवस्थित अर्थव्यवस्था (इंफॉर्मल इकॉनमी) के ज़रिए ही काम होगा – आप डिलिवरी ब्वॉय ही बनाएंगे, ज़िंदगी भर ज़ोमाटो, स्विगी के लिए खाना और सामान पहुंचाने का काम ही करवाएंगे, कंस्ट्रक्शन की जगहों पर काम करवाएंगें. क्योंकि आपने शहर में उनके लिए कोई और रास्ता ही नहीं बनाया है.
तो न सिर्फ शहर की परिभाषा में अंतर है बल्कि यहां रहने वाले लोगों की पहचान में भी विभेद है. ऐसे में ‘शहरी अध्ययन’ की कक्षा में आप स्टूडेंट्स को शहर की परिभाषा कैसे समझाते हैं? एक शिक्षक होने के नाते शहर को समझने के क्या रास्ते हो सकते हैं?
वास्तव में अपनी कक्षा के शुरुआती सेमेस्टर में हम इन्हीं सवालों से क्लासरूम में बात की शुरुआत करते हैं. पहले कुछ हफ्ते स्टूडेंट्स को यही करना होता है कि वे सवाल करें कि कौन शहरी है, शहर क्या है? हम बच्चों को प्रोत्साहित करते हैं कि वे सवाल पर सवाल करते रहें कि शहर की पहचान कैसे होती है- क्या शहर सामाजिक संबंधों की जगह है, क्या ये एक ऐसी जगह है जहां लोकतंत्र, आधुनिकता और महानगरीय जीवन को लेकर एक निश्चित धारणाएं हैं?
कक्षा में इन सवालों में सबसे खास होता है जाति के सवाल पर बात करना. उनके मन में जो धारणा है कि शहर वो जगह है जहां जाति का कोई महत्त्व नहीं होता, शहर आकर जाति गायब हो जाती है या जहां कोई जाति नहीं पूछता. इसपर बात करना मज़ेदार होता है. खैर, ये सच तो नहीं है लेकिन, उनकी बातें सवाल तो खड़ा करती हैं कि क्या सच में ऐसा है कि शहर में जाति की जकड उतनी गहरी नहीं होती जितनी गांवों में उसकी पकड़ मज़बूत होती है?
अब हम क्लास में जाति के सवाल पर बात कर रहे हैं. सवाल है कि आप गांव और शहर में जाति आधारित अलगाव का आकलन कैसे करते हैं? इसके लिए किस तरह का डेटा आपके पास है? यहां के स्टुडेंट्स को डेटा विश्लेषण के लिए आधुनिक जीआईएस (GIS) तकनीक के गुर भी सिखाए जाते हैं. मैं उनसे कहता हूं कि अपनी जीआईएस क्लास में जाइए और शहर के भीतर जाति संरचना का एक नक्शा बना लाइए. वो जाते हैं और वापस आकर कहते हैं कि हम नहीं बना सकते. ऐसा क्यों? तो वे कहते हैं कि इसके लिए कोई डेटा ही नहीं है. इसपर मेरा सवाल यही होता है कि, तो बताओ कि शहर की जातिगत संरचना पर कोई डेटा क्यों नहीं है?
दरअसल, उन्हें यही बताना है कि सवाल पूछो.
सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना की थी न, तो उसका डेटा कहां हैं? अगर, सार्वजनिक नहीं है तो, क्यों सार्वजनिक नहीं है? अब यही सवाल गवर्नेंस की कक्षा में जाकर पूछो कि शहर की जाति जनगणना सार्वजनिक क्यों नहीं है? क्यों हमें ये नहीं पता होना चाहिए कि हमारे यहां किस जाति के कितने लोग हैं, वे क्या करते हैं?
अब यही सवाल इकॉनोमिक्स की क्लास में लेकर जाओ. वहां वे सवाल करते हैं कि शहर के भूगोल को आर्थिक आधार पर देखने का क्या मतलब होता है? अर्थशास्त्रियों के लिए शहर वो जगह है जहां पूंजी है. शहरी अर्थशास्त्रियों के लिए शहर ज़मीन और उसपर काम करने वाले मजदूरों के बीच की सांठगाठ है जिसे वे अपनी भाषा में समूह अर्थशास्त्र कहते हैं. कक्षा में स्टूडेंट्स को ये सब बताते हुए हम कहते हैं कि, “इस बात को समझने की कोशिश करो कि महानगर से जुड़ा एनसीआर आर्थिक क्षेत्र क्यों है, बावजूद वहां नगरपालिका का कोई हस्तक्षेप नहीं होता?” लेकिन फिर यह भी पूछें कि अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के भीतर समूह अर्थशास्त्र क्या है? क्या यह ठीक उसी तरह काम करता है जिस तरह इसमें बड़ी कंपनियां और पूंजी के सिद्धांत काम करते हैं?
गवर्नेंस की क्लास में शहर एक सरकारी श्रेणी हो जाता है. वैधानिक शहर या जनगणना का शहर क्या होता है? नगर पंचायत क्या है? क्या ये गांव के लिए है या ये शहर के लिए ही है सिर्फ? इन श्रेणियों को देखकर क्या समझ आता है? इसपर स्टूडेंट्स कहते हैं “ये सब अलग-अलग नहीं है, ये तो सब एक विस्तार हैं जो बनते-बदलते रहते है, ये सब एक-दूसरे में मिले हुए हैं.” यहां मेरा जवाब होता है, “नहीं, बिलकुल नहीं. नरेगा सिर्फ गांवों में मिलता है. ये विस्तार वाला नज़रिया सुनने में अच्छा लग सकता है लेकिन सरकारी कागज़ों में नरेगा उन्हीं जगहों पर मिलता है जो सरकारी श्रेणी के अनुसार गांव कहलाते हैं.”
तो, एक शहरी अध्ययन से जुड़े शिक्षक होने के नाते मुझे ये बात सुनने में बहुत सुंदर लग सकती है कि सब एक ही हैं, गांव और शहर अलग-अलग थोड़े हैं वे तो एक ही नदी की धारा हैं. लेकिन, ये सच नहीं है. भारत में, सरकारी श्रेणियों में गांव और शहर साफतौर पर विभाजित हैं. आपको ये मानना ही होगा और इसे इसी तरह देखना है.
क्योंकि इससे बहुत फर्क पड़ता है कि आपके यहां पंचायत है या नगरपालिका. आप प्रॉपर्टी टैक्स देते हैं कि नहीं. आपको एनएचआरएम (राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन) की सुविधा मिलती है कि एनयूएचएम (राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन) की. आपको नरेगा के तहत काम मिलता है कि कुछ भी नहीं मिलता?
अब, यहां से स्टूडेंट्स फिर पर्यावरण विज्ञान की क्लास में जाते हैं. वहां प्रोफेसर कहेंगे कि, “हमें इन श्रेणियों से कोई फर्क नहीं पड़ता. क्या शहर है क्या गांव है. क्योंकि हवा और पानी के लिए कोई कैटगरी नहीं होती. आप इन्हें सिर्फ इन स्रोतों के भूगोल के ज़रिए ही समझ सकते हैं. बैंगलोर का पानी कावेरी से आ रहा है. इस पानी के रूट को समझो ये ही पानी का भूगोल है.”
तो, शहर की कोई एक परिभाषा नहीं है. आप कहां खड़े होकर किस नज़रिए से सवाल पूछ रहे हैं उसी के आधार पर इसका जवाब दिया जा सकता है.
शहर और गांव के प्रति हमारी बहुत सारी धारणाओं को कोविड महामारी ने बिलकुल ध्वस्त कर दिया है. तमाम शहरी अध्ययन एवं शोध के बावजूद शहरों में रोज़ी-रोटी और ज़िंदा रहने का संकट गहराता जा रहा है. क्या आपको लगता है कि हम अपने शहरों को सही तरह नहीं जान पाए हैं?
कोविड को हमने एक स्वास्थ्य संकट के रूप में देखकर उसकी बहुत ही सतही, संकीर्ण और गलत पहचान की. अगर हम इसे स्वास्थ्य के साथ-साथ आजीविका के संकट के रूप में देखते तो शायद हमारी स्ट्रैजी कुछ और होती. यहां ‘गलत पहचान’ (misrecognition) शब्द फ्रांसीसी राजनीतिक दार्शनिक एटिन बलिबार की देन हैं. इसका अर्थ ‘ठीक से न समझने या कुछ न समझने से’ कहीं ज़्यादा हमारे समाज की सत्ता की संरचना की सच्चाई से जुड़ा है – आप किसकी नज़र से देख रहे हैं, उसे किस ढंग से बता रहे हैं. इसलिए, हम जिस ‘गलत-पहचान’ की बात यहां कर रहे हैं वो इस संदर्भ में है कि ‘घर से काम करने की, घर पर रहने की’ जिस सुविधा के आधार पर हम ये बात कहते हैं वो एक खास तरह के शहर की कल्पना पर आधारित है. शहर की एक ऐसी कल्पना जो हकीकत में बिल्कुल अलग है.
मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि यही हमारे ‘अर्बन स्टडीज़: शहरी अध्ययन’ की भी समस्या है. आप उस शहर के बारे में बात करते हैं जो आपकी कल्पनाओं में, आपके दिमाग के भीतर है. जहां हर किसी के पास एक औपचारिक नौकरी है, हर कोई दफ्तर जाता है. सभी एक व्यवस्थित अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं. उनके पास लौटने के लिए घर है. असल में आप उस शहर के बारे में बात नहीं करते जो वास्तव में आपके पास है.
सोचिए, भारत में काम करने वाले 10 मज़दूरों में से 8 किसी व्यवस्थित अर्थव्यवस्था से नहीं जुड़े हैं. वे अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करते हैं. उन 8 में से भी 4 सार्वजनिक जगहों पर काम करते हैं जैसे – सड़कों पर, कचरे फेंकने के स्थानों पर, निर्माण स्थलों पर, परिवहन और बस स्टेशनों पर काम करते हैं. यहां ‘घर से काम करने का’ लॉजिक सरासर बेबुनियाद है क्योंकि उनका कोई ऑफिस नहीं है.
दूसरा, जिसे बाद में लोगों ने समझा और इसपर चर्चा भी की, कि भारत में दो-तिहाई परिवार 1.5 स्क्वायर फीट के घरों में रहते हैं. ऐसे में आपस में दूरी बनाए रखने की बात ही उनके लिए बेईमानी है.
महामारी के इस समय में बड़ा सवाल इस बात को समझना कि शहरीकरण के इतिहास के बारे में हम कहां से खड़े होकर बात कर रहे हैं. हमें सिएरा लियोन, केन्या और उन अंतरराष्ट्रीय शहरों के अनुभवों को जानने और समझने की कोशिश करनी चाहिए जिन्होंने हमारे जैसे संदर्भों में इबोला जैसी महामारी का सामना किया है. लेकिन, हम तो सुपरपावर हैं और हम सिर्फ लंदन या न्यूयॉर्क के शहरों को ही देखेंगे. हम नहीं सीखेंगे सिएरा लियोन से जिसने इबोला के दौरान शानदार सामुदायिक क्वारंटाइन के मॉडल विकसित किए थे.
उदाहरण के लिए, मुम्बई में चॉल या किसी गली में बने घरों को ही ले लीजिए. इसमें एक प्वाइंट से दूसरे प्वाइंट के बीच जो चार-पांच घर होते हैं उनके अलावा इस बीच की जगह का इस्तेमाल कोई नहीं करता है. इन घरों के लोग वहां अपने कपड़े धोते हैं, बर्तन साफ करते हैं, बच्चे वहां खेलते हैं. उन्हें हम एक समूह कह सकते हैं, किसी एक यूनिट की तरह. कोविड के दौरान कई समुदायों ने ऐसी जगहों के दोनों प्वाइंट – ऐसे अहातों या गलियों के शुरुआत में और गली जहां खत्म हो रही है वहां साबुन और पानी रखना शुरू कर दिया. अगर, क्वारंटाइन करना है तो वो समूह अपनी जगहों पर इंसानियत के साथ क्वारंटाइन तो कर सकता है. हमारे शहरों को देखते हुए यही सही लॉजिक है कि क्वारंटाइन ज़ोन घर न होकर गली को बनाया जाए.
मुख्य बात यही है कि ग्लोबल साउथ के शहर जिसकी एक भिन्न तरह की संरचना होती है, जिसका अपना एक अलग ही इतिहास है उसे देखते हुए ये नहीं कहा जा सकता कि ‘घर पर रहें, घर पर रहकर काम करें.’
आईआईएचएस में एक संस्था के रूप में आप ग्लोयबल साउथ या शहरी अध्ययन की प्रक्रिया को कैसे देखते हैं? इसे अध्ययन में कैसे शामिल किया जाता है?
हमारे यहां शहर या शहरीकरण के विचार पर अमेरिकन और यूरोपीय औद्योगिक शहरीकरण की छाप बहुत गहरी है, जो मूलतः ग्लोबल साउथ के शहरों की असलियत से बहुत अलग हैं. इस बात के एहसास ने ही आईआईएचएस और ग्लोबल साउथ थियोरी के जन्म की नींव रखी.
मैं जब कैलिफोर्निया विश्वविद्य़ालय, बर्कले में पीएचडी कर रहा था, तब हमें यूरोपीय औद्योगिकिकरण के समय हुए शहरीकरण या नागरीकरण के उदाहरण के आधार पर ही शहरी सिद्धांत पढ़ाया जाता था. हालांकि, ‘ब्लैक लाइव्स मैटर मूवमेंट’ को देखकर तो पता चलता है कि शहरीकरण के वे सिद्धांत खुद नॉर्थ अमेरिका के देशों में ही कारगर साबित नहीं हुए.
आईआईएचएस (IIHS), का बहुत सारा काम और मेरा खुद का काम इस बात को स्थापित करने में खर्च होता है कि ग्लोबल साउथ (लातिन अमेरिका, एशिया, अफ्रीका) के शहरों के इतिहास में कई तरह की विशिष्टताएं एवं समानताएं हैं. ग्लोबल साउथ शहरी इतिहास का हमारे वर्तमान शहरों के निर्माण में बहुत बड़ा हाथ है.
उदाहरण के लिए,
एक बड़ा सच यह है कि हमारे शहर उत्तर-औपनिवेशिक काल की देन हैं. इसमें हमारी स्थानीयता भी शामिल है. जैसे, नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली दोनों एक दूसरे से बिलकुल भिन्न है. दोनों ही इलाकों की अपनी विरासत है, चिन्ह हैं. देखा जाए तो हमारे शहर मुख्य रूप से अनियोजित ही रहे हैं, है ना?
वे आर्थिक व्यवस्था एवं स्थानीयता के रूप में बिल्कुल अनियोजित हैं. दिल्ली में हर चार में से तीन व्यक्ति सुनियोजित कॉलोनियों के बाहर रहते हैं.
इनके नामकरण को ही देख लीजिए – अनधिकृत कॉलोनी, नियमित कर दी गई अनधिकृत कॉलोनियां, शहरी गांव, ग्रामीण गांव, स्लम एरिया, जेजे क्लस्टर… इसके बावजूद हम योजनाओं के बारे में ऐसे बात करते हैं जैसे कि सबकुछ हमारे नियंत्रण में है.
दिल्ली मास्टर प्लान 2021 में एक ऐसे क्षेत्र को ‘शहरीकरण के योग्य क्षेत्र’ के रूप में रेखांकित किया गया है जहां प्लान तैयार होने की तारीख के दिन भी एक-एक इंच ज़मीन पर पहले से ही निर्माण हो चुका था. ये वो इलाका है जिसपर ब्लू लाइन मेट्रो चलती है और जिसे हम पश्चिमी दिल्ली कहते हैं. तो, जो इलाके पूरी तरह से बन चुके हैं, जहां आपकी मेट्रो चल रही है उसे आप शहरीकरण के नाम पर भविष्य की योजनाओं में शामिल कर रहे हैं!
दूसरा, हमें ग्लोबल साउथ के बाशिंदो की मानसिकता को भी समझने की ज़रूरत है. कई लोगों को उनके रोज़मर्रा के जीवन और महामारी से आए संकट में बहुत ज़्यादा नाटकीय बदलाव दिखाई नहीं दे रहा था. बहुमत शहरी भारतीयों के लिए इस तरह के संकट और रोज़मर्रा से जुड़ी परेशानियों में बहुत ज्यादा अंतर नहीं था. कुछ भारतीयों के लिए ज़रूर ये किसी तिलिस्म के टूटने और वास्तविकता का सामना करने जैसा था लेकिन अधिकांश के लिए महामारी से निकले संकट का अनुभव नया नहीं था.
यही वजह है कि 2020 में जब हाईवे पर लोगों की भीड़ उमड़ने लगी और सभी पत्रकार हाईवे पर पैदल अपने घर लौट रहे मज़दूरों से पूछते कि ‘आप क्यों ऐसे जा रहे हैं?’ उनका जवाब होता कि ‘जाना है तो जाना है’. उनकी हिकारत भरी निगाहें उल्टा सवाल कर रही होतीं कि ‘क्या हो गया? यह आपके लिए इतना चौंकाने वाला क्यों है? हम हमेशा से इसी तरह मोल-भाव करते रहे हैं. हमें हमेशा से यही करना पड़ता है.’
इसके पीछे की मंशा यही थी कि कोविड से लोग मर रहे हैं. बिना कोविड के भी लोग मर रहे हैं. फिर भूख और रोज़ी-रोटी की कमी से भी मर रहे हैं. हमारा काम मौत से बचना है. हमारा काम कोविड से मरना नहीं है. मरना नहीं है तो फिर चलना ही हमारे पास एकमात्र उपाय है. यही मेरी सबसे अच्छी संभावना है – वापस गांव लौट जाना. गांव, जहां दो वक्त की रोटी तो इज़्ज़त से मिलेगी.
गौतम भान के साथ बातचीत हम दो हिस्सों में प्रकाशित कर रहे हैं. अगले भाग में बात करेंगे कि गुस्सा और नाराज़गी को सकारात्मक रूप में सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में कैसे शामिल किया जा सकता है. साथ ही खुश रहना हमारे लिए क्यों आवश्यक है औऱ आईआईएचएस संस्था में शहरी अध्ययन से जुड़े भिन्न आयाम कौन-कौन से हैं.
इस लेख का अनुवाद सुमन परमार ने किया है.