क्या बगावत का मज़ा तभी है, जब कोई नियम तोड़ने के लिए हो?

साहित्य की एक छात्रा अपने बचपन की यादों को खंगालते हुए एक ऐसा फॉर्मूला खोज लेती है, जो हर खुशी को मज़ेदार सनसनी में बदल देता है

चित्रांकन: पाखी सेन

यह लेख द थर्ड आई सेक्सी लोग मेंटरशिप कार्यक्रम के तहत तैयार किया गया है. इस कार्यक्रम में भारत के अलग-अलग हिस्सों से चुने गए दस लोगों ने यौनिकता को लेकर ‘मज़ा और खतरा’ विषय पर अपने अनुभवों को लेख के रूप में तैयार किया है.

तो, सवाल ये है कि अगर दुनिया में पूरी तरह आज़ादी होती, तो हमारा सुख कैसा होता?और क्या बिना पाबंदियों के भी उत्तेजना हो सकती है? कुछ ऐसे ही और कई सवाल हैं – और उनके जवाब भी हैं – जो एग करी (छद्म नाम) के लेख में उभर कर सामने आते हैं.

अरूपे कैंटीन में एसिडिटी बढ़ाने वाले ज़िंगर बर्गर और तरह-तरह के रंग-बिरंगे पैकेज्ड फूड मिलते हैं, जो दौड़ते-भागते कॉलेज स्टुडेंट्स की भूख को मिटाने का काम करते हैं. मैं अपने स्वास्थ्य को लेकर थोड़ा-बहुत सजग रहने की कोशिश करती हूं, खासकर तब जब कोई मुझे देख रहा हो इसलिए मैं आमतौर पर कैंटीन के चिप्स और टॉफियों से भरे काउंटर से दूर ही रहती हूं, लेकिन अरूपे कैंटीन से मेरा रिश्ता हमेशा ऐसा नहीं था. वहां एक चटक लाल रंग का फ्रिज है, जो जैसे-तैसे काम करता है. उसमें एक लाइन से रखी लाल रंग की, शायद ही पीने लायक, कोल्ड ड्रिंक की बोतलों की कतारें है – जो एक या दो सेमिस्टर तक मेरी कॉलेज की आज़ादी का बुलबुलों भरा सबूत हुआ करती थीं. ये थीं – 20 रुपए वाली कोका-कोला की बोतलें!

सूखे और गले में अटकने वाले पिज़्ज़ा और बर्गर के साथ कोल्ड ड्रिंक ज़रूरी होता है जिससे उसे निगलने में आसानी होती है. मतलब ये तो होना ही चाहिए. तो, जब हम छोटे थे, तो पप्पा हमें लगभग हर आठ हफ्ते में एक बार किसी फास्ट-फूड रेस्टोरेंट ले जाते थे, क्योंकि हमें हर दो महीने में सिर्फ एक बार कोल्ड ड्रिंक पीने की इजाज़त थी. वैसे तो ये नियम थोड़े बहुत बदले जा सकते थे, लेकिन हम ज़्यादातर इनपर टिके रहते थे, क्योंकि हमें डर था कि इससे सीधे तो नहीं लेकिन दूसरे नज़रिए से देखें तो डायबटीज़ की बीमारी हो सकती है. पप्पा हमें वो तस्वीरें दिखाते थे जिनमें बताया जाता था कि कोल्ड ड्रिंक में कितनी चम्मच चीनी होती है और अगर वो रोज़ पिया जाए तो शरीर पर उसका क्या असर हो सकता है. सड़क पर जो भी मोटे लोग दिखाई देते – पप्पा मानते, और हम भी सहमत थे – कि ये सब रोज़ चीनी वाले सॉफ्ट ड्रिंक्स पीने का नतीजा है.और मां, जो गर्भनिरोधक गोलियों की वजह से बढ़े वज़न को कम करना चाहती थी, कहती थीं कि कोका-कोला इनमें से सबसे ज़्यादा खराब है – मोटे, गोरे आदमियों की पसंदीदा चीज़.

सिर्फ़ इसी वजह से कोक हमारी फेवरेट बन गई. मैं और एन*, एक बड़ा पेपर कप लेकर उसमें कोक बांट लेते थे और जब कार्बोनेटेड गैस की डकारों से नाक में जलन होती, तो हमें मज़ा आता. हम खुश थे.

पर, अब ये डकारें इतनी खुशी नहीं देतीं. अब तो दर्द देती हैं और मेरी आंखें भर आती हैं. मैंने बहुत समय से एन के साथ कोल्ड ड्रिंक नहीं पी है. अब वह तेरह साल का हो गया है – उसकी आवाज़ बदल रही है, और उसकी हंसी अब चुलबुली नहीं रही. उसे अब एक तरह का म्यूज़िक बहुत पसंद है जिसे फ़ॉन्क कहते हैं – कुछ हिप-हॉप और ट्रैप जैसा. मम्मी-पापा कहते हैं कि अब वो थोड़ा बगावती हो गया है लेकिन ऐसा जिसे माफ किया जा सके. मैं, मां को थोड़ा उकसाती हूं तो वे बताती हैं कि वे रात को समय से नहीं सोता. ज़्यादातर खेलने के बाद देर से घर आता है जिससे शाम का खाना ठंडा हो जाता है.

तो सिर्फ खेल ही वजह है, कुछ और नहीं इसलिए उसकी ये बगावत माफी योग्य है. ये सफाई देते हुए जो हल्की हंसी मां के चेहरे पर आती है, वह इस बात का सबूत है कि वे उसकी ‘बगावतों’ की तुलना मेरी की गई बगावतों से कर रही होंगी और इसलिए एन उन्हें बहुत सीधा-साधा बच्चा लग रहा होगा. मैं, मां की दूसरी हल्की चिंता को थोड़ा कम करने की कोशिश करती हूं. मैं उन्हें याद दिलाती हूं कि मैं भी आखिर ठीक-ठाक ही निकली, और फिर अपनी पढ़ाई, लिखाई और किताबों की बातें करते हुए उनका ध्यान भटकाती हूं.

मैंने मम्मी से पूछा कि रविवार को उन्होंने कहां लंच किया? क्योंकि अब मैं हर वीकेंड घर नहीं जा पाती, या कहूं कि जाती ही नहीं, जबकि मेरा पीजी (प्राइवेट हॉस्टल) और घर एक ही शहर में हैं. अगर वे किसी फास्ट फूड रेस्टोरेंट का नाम बताती हैं, तो मैं पूछती हूं कि एन ने क्या पिया? और हर बार उनका जवाब यही होता, “पूरा कप भरकर कोका कोला.” मैं सोचती हूं कि क्यों न मैं भी एक कोक खरीद लूं लेकिन फिर नहीं खरीदती. अकेले कोक पीकर डकार लेने में मज़ा नहीं है. और साथ में ग्लास से मुंह निकालकर अपने से सात साल छोटे एन की तरफ देखना, बैकग्राउंड में चल रही हिदायतों को अनसुना करना – कोक पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है – ये भी तो नहीं था!

एक बार फिर मुझे ये एहसास हुआ कि गलत काम अगर दूसरों के साथ किया जाए, तो वो हमेशा ज़्यादा मज़ेदार होता है. एन और मैं न सिर्फ खुश होते थे बल्कि हमें रूल्स तोड़ने में एक उत्तेजना सी महसूस होती थी.

फोटो साभार: शिवम रस्तोगी

मैं खुशी से ज़्यादा मज़ेदार सनसनी की तलाश में रहती हूं, लेकिन मुझे हमेशा लगता है कि रोमांच, खुशी के मुकाबले थोड़ा कमतर या थोड़ा घटिया है. अपने उपन्यास द ह्यूमन स्टेन में फिलिप रोथ एक पूर्व प्रोफेसर, 71 साल के कोलमन सिल्क के बारे में लिखती हैं, “कोलेमन ने हाल ही में वियाग्रा के ज़रिए अपनी यौन शक्तियों को फिर से महसूस किया है. अब एक 34 साल की महिला के साथ उनका अफेयर चल रहा है जो उनके कॉलेज में सफाई का काम करती है.” उपन्यास में सिल्क का एक दोस्त इस कहानी का सूत्रधार है. वो खुद सेक्सुअली एक्टिव (यौन रूप से सक्रिय) नहीं है और हैरानी में सोचता है कि सिल्क ने उसे अपने अफेयर के बारे में क्यों बताया? वह दोस्ता कहता है, “वह सिर्फ खुश नहीं है बल्कि उससे कहीं ज़्यादा परजोश से भरा है और इस जोश की वजह से ही वो उससे जुड़ा है, बहुत गहरे बंधा है.”

मैं अकेले बैठकर कोक पीते हुए बहुत खुश हूं. इसमें मौजूद चीनी की मात्रा को छोड़ दें तो, कोक एक बहुत अच्छी ड्रिंक है. लेकिन एन के साथ इसे पीते हुए मैं रोमांचित हो जाती हूं. और पप्पा के चेहरे पर दिखाई देने वाली अस्वीकृति कहीं न कहीं मेरी खुशियों में विरोध को मिला देती है. और शायद यही अनुभव – जब खुशी, उत्तेजना में बदल जाती है – ये मुझे एन से गहराई से जोड़ता है.

गणितीय शब्दावली में कहें तो हमारे पास ये समीकरण है: खुशी + प्रतिरोध + साथ = उत्तेजना. तो असल में जो है वो है खुशी = उत्तेजना – (प्रतिरोध + साथ). अब मैं रोथ की बात को आसानी से मान सकती हूं कि उत्तेजना, खुशी से बड़ी होती है. इस समीकरण के हिसाब से विरोध और किसी का साथ मिलना इसे “वज़नदार” बनाते हैं. वही जो उत्तेजना को सिर्फ खुशी से कुछ ज़्यादा भारी-भरकम बनाता है.

मुझे ये समीकरण पसंद है. मुझे ये सोचकर अच्छा लगता है कि मैं हर खुशी को रोंगटे खड़े कर देने वाले अनुभव में बदल सकती हूं, बस साथ में कोई खुशियों को बढ़ाने वाला और कोई उसका विरोध करने वाला मिल जाए तो.

मुझे ये सोच कर भी मज़ा आ रहा था कि अगर सिल्क वही कर रहा होता जो सही माना जाता है (कम से कम, अपने से लगभग आधी उम्र की महिला के साथ संबंध बनाने से ज़्यादा सही) तब वह वियाग्रा लेकर अपने बिस्तर में अकेले बैठकर खुद को संतुष्ट करता, उससे खुशी तो मिलती लेकिन सिहरन नहीं इसलिए मुझे अच्छा लगा कि वो ऐसा नहीं कर रहा. 71 साल की उम्र में भी उसने सिर्फ खुशी तक ही अपने को सीमित नहीं किया. वह भी मेरी तरह कुछ और चाहता था. और मैं, बिना किसी शर्म के, यह मान रही हूं कि रोथ मुझे कभी-कभी कम सही चीज़ें करने, वर्जित चीज़ों को आज़माने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं.

***

वो रविवार का दिन था. मैं फर्स्ट टाइम पीजी में खाना खा रही थी. उस दिन रात के खाने में चिकन-करी बनी थी. मैं जैन परिवार से हूं और चिकन खाने को लेकर ये पहली शुरुआत थी. मैं बालकनी में एक क्लासमेट के साथ बैठकर धीरे-धीरे चिकन खा रही थी. मेरी क्लासमेट को नहीं पता था कि अब तक तकनीकी रूप से देखा जाए तो मैं पूरी तरह से शाकाहारी थी. मैं बहुत चौकन्ने होकर खा रही थी. मुझे डर था कि कहीं कोई देख न ले. पर ये थोड़ा मज़ेदार सनसनी वाला डर था. लेकिन जल्दी ही अहसास हुआ कि जो लोग इसे गलत समझ सकते थे, वे सब बहुत दूर थे और वह मज़ा धीरे-धीरे मेरी उंगलियों से फिसल सा गया.

चित्रांकन: वर्षा ऋतु

दो दिन बाद मैं पीजी का गेट फांद कर अंदर आई क्योंकि मैं अपनी दोस्त के साथ बाहर टहल रही थी और हमें समय का ध्यान ही नहीं रहा. मेरे दिमाग में गेट फांद कर अंदर आने का मतलब है कि ये काम तब ही किया जाता है जब आप देर रात शराब पीकर या किसी से छुपकर मिलने जैसी चीज़ करते हैं. न कि पायजामें में अपने किसी खास दोस्त के साथ टहलते हुए मिलने वाले सुकून में आप ऐसा करते हैं!

जब आप किसी गेट को फांदते हैं तो ऐसे समय में उत्तेजना से दिल-दिमाग चकराना चाहिए. दिल को कलाबाज़ियां खानी चाहिए क्योंकि मुसीबत में फंसने के डर के बावजूद एक उत्तेजना भी होती है कि आप दूसरी तरफ पहुंच गए हैं. चाहे चोट लगे या न लगे, आपने चढ़कर, पार होकर, किसी चीज़ को फांद लिया और नियमों को तोड़कर अपनी खुशी हासिल कर ली है. मैं और मेरी दोस्त, हमने तो सिगरेट तक नहीं पी थी. हम इतने शरीफ और सभ्य थे कि मैं मां को सच्ची वजह बताकर मैसेज कर सकती थी कि मैं कर्फ्यू मिस कर चुकी हूं और वह ज़रा भी परेशान नहीं होतीं.

लेकिन ये सब इतना फीका लग रहा था कि मैं देर तक जाग कर सायरन को फिर से ऑन करने के नए-नए तरीके सोचती रही जिससे मेरे दिल की धड़कने फिर से तेज़ हो उठीं.

बात आज़ादी की नहीं थी, उससे ज़्यादा उस कंट्रोल की कमी परेशान कर रही थी - कहीं कोई रोक-टोक नहीं थी, कोई डराने या परेशान करने वाला नहीं था.

और यहीं से घर को याद करने की पहली रात की शुरुआत होती है – खाने के लिए नहीं, न ही आराम के लिए और न ही बर्तनों और कपड़ों के लिए जो खुद-ब-खुद साफ हो जाते हैं, बल्कि उस मज़े के लिए जो नियम तोड़ने में था.

***

पप्पा को जितनी कोका-कोला पसंद नहीं थी, उतनी ही मां को डरावनी फिल्में नहीं पसंद थीं इसलिए जब मैंने तीसरे सेमेस्टर की पढ़ाई में ‘हॉरर’ विषय को चुना तो मुझे लगा कि मैंने अब सब कुछ कर लिया है. दिन की आखिरी क्लास के बाद मैं मां को फोन लगाकर उन्हें बॉडी हॉरर और भूतों के बारे में बताने लगी. जुनजी इटो द्वारा जापानी लघु कथा ‘द ह्यूमन चेयर’ की रूपांतरित कहानी के बारे में बताने लगी और कैरी फिल्म के अंदर खून से भरे दृश्यों के बारे में भी बताया. पता नहीं कैसे हमारी बातचीत एच* पर आ गई. हम दोनों में से किसी के लहजे में कोई फर्क नहीं आया. हॉरर और लड़के, दोनों ही मेरे लिए एक ऐसी खुशी लाते हैं जो बेचैनी से भरी होती है – जैसे फिल्मों या वीडियो गेम्स में अचानक से कूदने के दृश्य से पहले सांसे थम सी जाती हैं. मां के लिए ये वैसा ही घबराहट वाला क्षण है जैसा डरावने सीन के बाद का भारी सन्नाटा.

मां के लिए, एच उस समय का प्रतीक है जब मुझे नहीं पता था कि मैं क्या कर रही थी लेकिन मुझे तो एकदम सही-सही पता था कि मैं उस समय क्या कर रही थी. मैंने एच को ढूंढ, उसके पास जाने का रास्ता बनाया. हर रात, खेल खत्म होने के बाद, हम उस टूटे-फूटे जर्जर बरामदे के रास्तों से होते हुए एक खाली पड़ी हुई इमारत की छत पर मिलते. ऊंची दीवारों के पास, जो बारिश और राख की गंध से भरी थीं, मैं खुद को उसमें डुबो देती, जब तक कि मैं बस उन रेखाओं में बदल न जाती जो उसने मेरी टेनिस स्कर्ट के नीचे बनाई थीं. वो कोई शरीफ लड़का नहीं था लेकिन मेरी पीठ कभी दीवार से नहीं लगी और मेरे कपड़े कभी ज़मीन पर नहीं गिरे. कभी-कभी वो बचा हुआ लेज़ चिप्स और चॉकोबार लाता और मैं उसे उसकी हथेलियों के पसीने के साथ चाट लेती, जैसे इतने में ही मैं उसे पूरा जान लेती.

फोटो साभार: शिवम रस्तोगी

हर चरम-आनंद मुझे दोस्तों से थोड़ी और दूर ले जाता, और उस दुनिया से भी, जिसे मिडिल स्कूल की भाषा में समझाना नामुमकिन था. जब चौकीदार की छड़ी पास आती, हमारी ज़बानें और कसकर लिपट जातीं, जिस्म और ज़ोर से धकियाते, खींचते.

हमारी नज़दीकियां सिर्फ प्यार में नहीं थीं, बल्कि कर्फ्यू तोड़ने में, एक-दूसरे को अपने डर सौंपने में थीं.

हम दोनों ने साथ मिलकर अपना एक साझा डर बनाया था – एक ऐसा खौफनाक सपना जिसे सिर्फ हम समझ सकते थे. गुनाहगार आशिक ज़्यादा गहराई से चूमते हैं, ज़्यादा जल्दी चरम पर पहुंच जाते हैं.

मुझे एच तब और ज़्यादा चाहिए था जब उसे मुझसे दूर रखा गया इसलिए मैंने एक खेल खेलना शुरू कर दिया. मां को ये अहसास दिला कर कि एच मेरी दुनिया का अहम हिस्सा है, बिना उन्हें उसे मुझसे छीनने का मौका दिए. एच का कुत्ता बीमार है, एच को 1डी पॉप बैंड के गाने पसंद है, एच ने मेरे फोन में टॉरेंट से एनाबेला फिल्म डाउनलोड की है. अगर मैं ज़्यादा बोलती, तो साथ का हमारा समय नियंत्रित किया जाता. लेकिन यह खेल मुझे रोमांचित करता – एक टाइमर जो मां के हाथों में था, मगर चालू करने की चाबी सिर्फ मेरे पास थी. धीरे-धीरे, एच मेरे लिए किसी भूत की तरह हो गया – हर जगह मौजूद, और फिर असहनीय सच.

उन हॉरर फिल्मों में, जिनकी कहानी परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है, जब दरवाज़े की चरमराहट या सरसराहट सुनकर मुख्य किरदार बेवाकूफी में ठीक उसी तरफ बढ़ता है तो ये सीन एक तेज़, अधूरी सांस जैसा होता है. एक हलकी सिसकी, जो पूरी तरह संतोष नहीं देती और इस चाहत को और बढ़ा देती है. ठीक वैसे ही जैसे मेरा और एच का खेल. मैं, हम दोनों को खतरे में डालती, सिर्फ इसलिए कि हमें बचाने वाली सिर्फ मैं ही रहूं. मां जैसी बाहरी ‘धमकियों’ ने, जिनपर हम निर्भर थे, हमारे छत के प्यार को और बढ़ावा दिया. उसे और ज़्यादा रोमांचक बना दिया. ये खतरे इतने अवास्तविक थे कि कभी-कभी तो अलौकिक लगते थे.

अब सब कुछ बहुत अलग है. मुझे नहीं लगता कि अब मुझमें वैसे घबराहट भरे जुनून का जोश बचा है. और मां भी अब ज़्यादा सवाल नहीं पूछती. जब मैं बॉडी हॉरर के बारे में बात करती हूं, तो वह उससे बचने की कोशिश करती है. मुझे यह तब समझ आया जब उसने मर्दों का ज़िक्र किया. एक ऐसा खतरा जिसकी वह अब शायद अभ्यस्त हो चुकी हैं. मर्दों को छोड़ो. हाल ही में, मां के साथ जब मैं एक फोन कॉल पर अपनी बातें बड़बड़ा रही थी तब मुझे गलती से पता चला कि मां को ये लगता है कि मैं किसी लड़की के साथ भी हो सकती हूं.

मैं एक स्वर में मां को बता रही थी कि एक नेल पॉलिश लगाए लड़के ने मुझसे पूछा कि क्या मैं क्वियर-बेटिंग (मतलब जब आप क्वियर होने का दिखावा करते हैं या उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करने का दिखावा करते हैं) कर रही हूं? मैंने उलझन में जवाब दिया, “अगर मैं खुद क्वियर हूं, तो क्या मैं क्वियर-बेटिंग कर सकती हूं?” उसने समझाया, “हां, कर सकती हो”. 

मैं मां को यही बताने की कोशिश कर रही थी लेकिन उसने मुझे बीच में ही रोक दिया. फोन कंधे और गाल के बीच दबाए, रोटियां बेलते हुए बोली, “रुको-रुको, तुम क्वियर हो? किस तरह की?”

“बाय?”

“ओह्ह, अच्छा”. 

“मैं लड़कियों को डेट कर सकती हूं?” (अब तक मैंने लड़कों के बारे में पूछना ज़रूरी ही नहीं समझा था) “मुझे कैसे पता चलेगा?” मां ने कहा. मतलब साफ था – जो करना है, करो. न कोई गुस्सा, न कोई जिज्ञासा कि मैं अब तक क्या करी हूं.

अगर मां ने यह जवाब पांच साल पहले दिया होता तो मुझे खुशी से नाचने का मन करता लेकिन अब, जब परिवार से इतनी दूरी मिल चुकी है! मैं खुद को उस बच्चे जैसा महसूस कर रही हूं जो भीड़ में मां के दुपट्टे को खींच रहा हो. अगर मेरी टीनएज वाली मैं सही थी कि आज़ादी का मतलब खुशी है तो क्या ये खुशी उत्तेजना की कीमत पर मिली है? पुराने नियमों की याद अब नए, तोड़े जा सकने वाले नियमों की तलाश बन गई है. और जब मैं कोल्ड ड्रिंक से बड़े ‘गुनाह’ और मां से सख्त ‘पुलिस’ ढूंढ रही हूं, तब मैं सोचती हूं – अगर दुनिया में पूरी तरह आज़ादी होती, तो मेरा सुख कैसा होता? अगर फौनिया भी सत्तर साल की होती, तो क्या वो कोलमन के साथ सोती? अगर किसी को परवाह न होती, तो क्या कोलमेन फिर भी फौनिया के साथ सोता? अगर ‘फ***’ शब्द बोलना वर्जित न होता, तो क्या मैं इसे इस्तेमाल कर पाती?

क्या बिना पाबंदियों के भी उत्तेजना महसूस हो सकती है?

***

कभी-कभी, सुबह के मेरे पास आती है और हम साथ में अंडे बनाते हैं क्योंकि 1) मुझे हमेशा पीजी का खाना पसंद नहीं आता 2) अंडों को कितने अलग-अलग रूपोंं मे खाया जा सकता है, ये बात मुझे हमेशा चौंका देती है, ये नॉन-वेज आलू जैसा है, 3) हमने एक गज़ब का, मक्खन से भरा और बेहद लाजवाब फ्रेंच टोस्ट बनाना सीख लिया है. 4) सिंक के पास खड़े होकर के से एक हाथ से अंडा फोड़ना सीखना मुझे थोड़ा सेक्सी महसूस कराता है. भले ही हमें रोकने-टोकने वाला यहां कोई नहीं है लेकिन जब मेरी उंगलियों पर लगे इस गाढ़े, ऑर्गेनिक और चिकने अंडे की महक मेरी नाक तक पहुंचती है तो मेरे पेट में थोड़ी-थोड़ी तितलियां उड़ने लगती हैं और कदमों में हल्की-सी लहराहट आ जाती है.

यह अंधेरी सीढ़ियों पर किसी लड़के के साथ चोरी-छिपे चढ़ने जैसा नहीं है, लेकिन यह सिर्फ खुशी से कहीं ज़्यादा है.

इस लेख का अनुवाद सुमन परमार ने किया है. 

एग करी, बैंगलोर की सेंट जोसेफ यूनिवर्सिटी में की छात्रा रही हैं. उनकी रचनाएं द बॉम्बे लिटरेरी मैगज़ीन, द ओपन डोसा, द हिंदू जैसी जगहों पर प्रकाशित हो चुकी हैं. वे अंग्रेज़ी में लिखने वाले कवि बिली कॉलिन्स और यूनिस डी सूज़ा की बहुत बड़ी प्रशंसक हैं, और अक्सर लड़कियों, बिल्लियों, फलों और ‘मौला मेरे मौला’ के बारे में लेखन कार्य करती हैं.

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