“एक केस पर सिर्फ एफआईआर करवा देना ही हमारा काम नहीं है, बल्कि उसके लिए भी दस-बारह बार थाने और पुलिस अधिकारियों के दफ्तरों के चक्कर लगाने पड़ते हैं. उसके बाद लगातार उस केस में लगे रहना, कभी-कभी तो धमकियां भी मिलती हैं.” इन सबके बावजूद वे महिला को न्याय दिलाने में जुटी रहती हैं.
साल 2022 में हमने उत्तर-प्रदेश के ललितपुर, बांदा और लखनऊ ज़िले में काम करने वाली 12 केसवर्करों के साथ काम किया, एक-दूसरे को सुना और समझा भी. हमारी इसी गहन प्रक्रिया से कुछ शब्द निकले और उनपर चर्चा करते-करते ‘हिंसा की शब्दावली’ ने जन्म लिया. यह शब्दावली केसवर्करों के काम, अनुभव और ज़िंदगी के प्रति उनकी समझ को समेटे हुए है. इसमें जेंडर आधारित हिंसा से जुड़े उन महत्त्वपूर्ण शब्दों को शामिल किया गया है, जिनकी मदद से ज्ञान और समझ का निर्माण होता है.
‘महिला ने बच्चों सहित आग लगाकार आत्महत्या की या कुएं में कूद कर जान दे दी’ – हम में से ज़्यादातर लोगों के लिए इस तरह की खबरें अखबार के पन्ने पर छपे कुछ काले शब्द होते हैं जिनपर हम कुछ सेकेंड देकर आगे बढ़ जाते हैं या शायद उनपर हमारी नज़र भी नहीं जाती. पर, एक केसवर्कर के लिए यह न्याय हासिल करने की वो अनगिनत कहानियां हैं जिसमें बिना थके वो लगातार लगी रहती है.
शब्दावली पर काम करने वाली सभी केसवर्कर हत्या, बलात्कार, अपहरण, बच्चों के यौन शोषण, दहेज हत्या और घरेलू हिंसा जैसे मुद्दों पर काम करती हैं. ये सभी अपने समुदायों के बीच से ही निकलकर आई हैं. इनमें से कुछ तो खुद भी हिंसा का शिकार रही हैं.
इस प्रोजेक्ट का एक मकसद केसवर्करों के काम को नए नज़रिए से देखना भी है. अबतक हम उन्हें संकट के समय मदद के लिए सबसे पहले खड़ी होने वाली मददगार के रूप में देखते आए हैं. यह शब्दावली उनके व्यक्तित्व के उन पक्षों को सामने लाने का काम करती है जो सक्रिय रूप से न्याय की खोज में जुटी हैं और जिन्हें इस बात का ज्ञान है कि ज़मीनी स्तर पर ‘न्याय’ की क्या स्थिति है और इसे पाने के लिए किस तरह की भुलभुलैया से गुज़रना होता है.
‘केसवर्कर्स से एक मुलाकात’ सीरीज़ के ज़रिए मिलिए उन 12 केसवर्करों से जिन्होंने हिंसा की शब्दावली को तैयार करने का काम किया है. और जानिए कि एक महिला को हिंसा से बचाने या उसे न्याय दिलवाने के लिए एक केसवर्कर को परिवार, समुदाय और प्रशासनिक ढांचे के त्रिकोणीय समीकरण से कैसे जूझना पड़ता है?