मदरसे में आखिर क्या पढ़ाया जाता है? पाकुर, झारखंड के अशरफ और अजफरूल के साथ देखिए उनके स्थानीय मदरसे के भीतर के दृश्य जो हमारी बनी-बनाई समझ को चुनौती देते हैं.
वो कौतूहल ही था जिसने अशरफ हुसैन और अज़फरूल शेख के कदमों को उधर की ओर मोड़ दिया जिधर स्थानीय मदरसा हुआ करता है और जिसके पास से वे अक्सर गुज़रा करते थे, पर अंदर जाने का मौका नहीं मिलता था.
मदरसा, जिसे लेकर हमारे भीतर कई बने-बनाए ख्याल हैं. बने-बनाए इसलिए क्योंकि गूगल पर भी अगर मदरसा शब्द लिखें तो खास तरह की छवियां दिखाई देती हैं. कुछ-कुछ रहस्यमयी, जिनके साथ एक तरह का डर जुड़ा हुआ है. जबकि, अन्य स्कूल और कॉलेजों को अलग तरह से दर्शाया जाता है, जो कि काफी सकारात्मक है.
ऐसा क्यों हैं कि हमारे दिमाग में मदरसों की एक ही तरह की छवि बैठी हुई है?
इन सुनी-सुनाई बातों, या अपने खुद की सीमित जानकारी पर विश्वास न कर, इन दोनों ने तय किया कि वे अपने पास के मदरसे में कुछ वक्त बिताएंगे. सीखने-सिखाने की प्रक्रिया से निकली यह फ़िल्म दरस का पेड़ दृश्यों के ज़रिए से लिखी गई डायरी है. यह मदरसे के भीतर शिक्षकों और छात्रों के बीच होते हुए भी बिना अपनी उपस्थिति को थोपे बहुत ही सरल, सहज और बारीक नज़रिए से जिन दृश्यों को हमारे सामने लाती है वे कई तरह की बनी-बनाई धारणाओं को ध्वस्त करते हैं.
“हम लोगों का सिर्फ़ साक्षात्कार नहीं करना चाहते थे. किसी चीज़ पर बात करना और उसकी बारीकियों को दिखाना – इन दोनों में बहुत फ़र्क होता है. बोलने को तो सब हमेशा अच्छा ही बोलते हैं पर, खुद चीज़ों को नज़दीकी से सावधानी से देखना – यह बहुत ज़रूरी है.”