लर्निंग लैब

द थर्ड आई लर्निंग लैब, कला-आधारित एक शैक्षिक प्लेटफॉर्म है. जहां हम साथ मिलकर अपने आसपास की दुनिया को समझने की कोशिश करते हैं. यहां हम अपने विचारों और नज़रियों की पड़ताल करते हैं, उन्हें आलोचनात्मक दृष्टि से जांचते-परखते हैं.

केसवर्कर्स से एक मुलाकात एपिसोड 1 – मीना देवी

इस एपिसोड में मिलिए उत्तर-प्रदेश के ललितपुर ज़िले में स्थित सहजनी शिक्षा केंद्र से जुड़ी मीना देवी से जो खुद यह समझने की कोशिश कर रही हैं कि कोविड के बाद लोगों की ज़िंदगियों में ऐसे कौन से बदलाव आए हैं जिनकी वजह से महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा लगातार बढ़ती जा रही है.

“वो मेरी बेटी है और मुझे उसे अकेले पालने में कोई दिक्कत नहीं है”

जेंडर आधारित हिंसा से जुड़े केस पर काम करते हुए एक केसवर्कर महसूस करती है कि कैसे हमारा जीवन उन छोटे-बड़े समझौतों से घिरा होता है जो हमें रोज़मर्रा की ज़िंदगी में करने पड़ते हैं. खासकर तब जब यह समझौते पारिवारिक विवादों और घर के भीतर सत्ता के समीकरणों की वजह से करने पड़ते हैं?

बिना शर्तों का कॉन्ट्रैक्ट – निकाहनामा

शादी या निकाह खुशी का वह मौका होता है जब लड़का और लड़की के साथ-साथ दोनों के परिवार भी एक नए रिश्ते में बंधते हैं. शादी, संस्कार होने के साथ-साथ एक समझौता भी है. कुछ समझौते कागज़ पर किए जाते हैं तो कुछ को रीति-रिवाजों का जामा पहना कर अदृश्य तरीके से लड़कियों के गले में डाल दिया जाता है.

आप क्या चाहते हैं – समझौता या न्याय?

जब सौदे की बात आती है, तब दिमाग में अनगिनत महिलाओं की मौतें आ जाती हैं. क्योंकि समाज औरत के ज़िंदा होते हुए दहेज के नाम पर और उसके मरने पर लाश का सौदा करता है. महिला मरी नहीं कि गांव प्रधान, थाना, ससुराल वाले सभी के दिमाग में यही ख्याल आता है कि अब जो हो गया, वह हो गया, मामले को यहीं रफा-दफा करते हैं और बोली लगाते हैं.

हिंसा, श्रम और समझौता

किसी महिला की ज़रूरतों को केंद्र में रखते हुए उसकी काउंसलिंग करने का क्या मतलब होता है? निर्णय लेते समय महिला के सामने अनेक सामाजिक पहलू खड़े हो जाते हैं जिनमें वह फंसती है और निकलती भी है. कई सवाल सामने होते हैं. जैसे, ससुराल छूटा तो कहां रहूंगी? क्या करूंगी?

‘हम सिर्फ़ ससुराल वापस जाने का कोम्प्रोमाईज़ नहीं करवाते हैं.’

समझौता और इकरारनामा ये दो शब्द जेंडर आधारित हिंसा से जुड़ी शब्दावली में महत्त्वपूर्ण हैं. इकरारनामा का मतलब कोर्ट-कचहरी, थाना-पुलिस, पंचायत या मध्यस्थता केंद्रों द्वारा करवाए जाने वाले समझौतों से बहुत अलग है.

“वहां देखो, ज़िंदा होने पर एक बेटी के शरीर का सौदा, अब मरने के बाद एक लाश का सौदा! वाह रे समाज क्या खूब है…”

अपने आसपास की तमाम खबरों पर अगर नज़र दौड़ाएं तो किसी महिला की मौत का सौदा कितनी आम बात है. इस तरह के सौदे हमारे निजी रिश्तों की क्षणभंगुरता और उसके भुरभुरेपन पर पड़े पर्दे को उघाड़ कर रख देते हैं.

हॉस्टल डायरी

जोधपुर में समाज के हॉस्टल सिर्फ़ लड़कों के लिए क्यों हैं? हॉस्टल के अंदर इतना अकेलापन क्यों है? क्या अच्छा लड़का होना एक दिन के लिए छोड़ा जा सकता है? लर्निंग लैब के तहत होने वाले ‘मंडे अड्डा’ में ऐसे कई सवालों को खोलते-खोलते यह हॉस्टल डायरी जितना विकास को चकित कर रही थी, उतना ही यह हमारे भीतर की उत्सुकता को भी जगा रही थी.

छोटे शहरों की लंबी रात

फ़िल्म ‘रात: छोटे शहरों की लंबी रात’ डिजिटल एजुकेटर्स द्वारा अपने-अपने गांव और कस्बों में रात के अपने अनुभवों का चित्रण है. कौन है जो रात में बाहर निकल सकता है? कौन है जो हम पर नज़र रखता है? किस पर नज़र रखी जाती है? घुप अंधेरे के बारे में होते हुए भी यह फ़िल्म हमें उजाला दिखाती है. उजाला, नए इतिहास के बनने का.

होने, न होने के बीच

सोशल मीडिया पर हम जैसे दिखाई देते हैं क्या असल में हम वही होते हैं? सोशल मीडिया पर क्या कितना दिखाना है कितना नहीं? क्या दिखाना है, क्या नहीं इससे हमारे खुद के बारे में क्या पता चलता है?

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