सोशल मीडिया पर हम जैसे दिखाई देते हैं क्या असल में हम वही होते हैं? सोशल मीडिया पर क्या कितना दिखाना है कितना नहीं? क्या दिखाना है, क्या नहीं इससे हमारे खुद के बारे में क्या पता चलता है?
खुशी के लिए ये सारे सवाल तब पैदा हुए जब “डिजिटल” को समझने की प्रक्रिया में खुशी ने गौर किया कि उसके जैसी ही युवा मुस्लिम लड़कियां जब सोशल मीडिया पर रील्स डालती हैं तो उसमें सिर्फ़ उनका हाथ दिखाई देता है!
खुशी 20 साल की हैं और लखनऊ के सद्भावना ट्रस्ट की सोशल मीडिया टीम से जुड़ी हैं. वे पिछले दो साल से द थर्ड आई लर्निंग लैब टीम का हिस्सा भी हैं.
खुशी कहती हैं, “हमारी ऑनलाइन और ऑफलाइन ज़िंदगी में बहुत ज़्यादा अंतर है. दोनों जगहों पर हमारी ज़िंदगी बहुत अलग है.” सोशल मीडिया पर जो “मैं” दिखाई देता है, वो “मैं” किसी दूसरी जगह पर नहीं होता. यहां से खुशी के लिए यह जेंडर, चाहतों और डिजिटल के बीच के संबंध को जानने और समझने का रास्ता बना. इसकी शुरुआत कल्पना का सहारा लेकर एक फेक प्रोफाइल बनाने से होती है. रौशनी, खुशी की काल्पनिक दुनिया है. लेकिन, खुशी उसके साथ असल दुनिया की चाहतों को जीना चाहती है? कैसे?
सोशल मीडिया पर फेक प्रोफाइल कोई नई बात नहीं है. वहां इसकी भरमार है. पर, अपनी ही पहचान के एक काल्पनिक पहलू को सच करने में फोन कैसे काम करता है?
बार्बी गुड़िया और सोशल मीडिया रील दोनों ही ऐसी चीज़ें हैं जिसपर विश्वास करना बहुत मुश्किल है. लेकिन, खुशी की ‘रौशनी’ के लिए उन जगहों पर रील्स बनाना आसान है जहां खुद खुशी नहीं जा सकती. यहां फोन एक तरह से खुशी का विस्तार है. खुशी कहती है, “रौशनी उन जगहों को जीवित कर देती है जो सच में हैं, लेकिन नहीं भी हैं.”
खुशी की गुड़िया उन सारी जगहों पर जाती है जहां खुशी नहीं जा सकती. मिलिए ‘खुशी की रौशनी’ से जो काल्पनिक होकर भी वास्तविक जीवन को जीवंत बना रही है. क्या वो दो दुनियाओं को एक जगह लाने में कामयाब होती है?
और हां, आप अपने जीवन के किस हिस्से को ऑनलाइन में दिखाते हैं और क्या है जिसे आप नहीं दिखाते?