रफीना खातून, द थर्ड आई सिटी संस्करण के ‘ट्रैवल लोग’ प्रोग्राम का एक हिस्सा हैं जो हमारे शहर संस्करण से जुड़ा था. इस कार्यक्रम में भारत के अलग-अलग हिस्से से 13 ट्रैवल लोग शामिल थे जो अपने शहरों, कस्बों और गांवों के अनुभवों को नारीवादी नज़रिए से जानने और समझने की कोशिश कर रहे थे.
युवा फ़िल्ममेकर रफीना खातून को उसके माता-पिता “आज़ाद पक्षी” कहते हैं. एक दिन ये आज़ाद पक्षी पलटकर अपने उस घोंसले की तरफ लौटती है जहां से उसने उड़ना सीखा था. वह उन सारी कहानियों को अपने कैमरे में कैद कर लेना चाहती है जिनकी नींव पर उसका घर रूपी घोंसला खड़ा है. पश्चिम बंगाल के बेलदा गांव में स्थित रफ़ीना की फ़िल्म के किरदारों में उसकी मां, पिता और भाभी शामिल हैं. घर की बेटी और फ़िल्म निर्माता, इस दोहरी भूमिका को निभाते हुए रफीना अपने माता-पिता से कठिन सवाल भी पूछती है. इतिहास और वर्तमान के बीच पुल बनाती यह फ़िल्म कैमरे को लेकर एक युवा निर्देशक की शिद्दत की कहानी है.
जब यह तय हुआ कि मैं अपने परिवार की कहानी कहने जा रही हूं और उसके लिए मुझे अपने घरवालों को ही शूट करना है तो मुझे बहुत अजीब सा महसूस हो रहा था. मैंने घरवालों को फ़िल्म शूट के बारे में बताया तो मेरी मां ने फौरन ही मुझसे पूछा कि, “तुम क्या शूट करोगी? क्या दिखाओगी, बताओ? मैं क्या करूंगी उसमें ?” मैंने कहा, “आपको कुछ नहीं करना है. आप जो हो, जैसे हो, बस वैसे ही रहना है. आप अपना काम करो. मैं अपना काम करूंगी.”
खुद से अपने परिवार वालों को कैमरे में शूट करना बहुत मुश्किल काम है. इससे ज़्यादा आसान है बाहर जाकर शूट करना. क्योंकि बाहर लोग हमारी बात आसानी से मान लेते हैं. लेकिन घर वाले तो हमें किसी भी समय कुछ भी कहकर मना कर सकते हैं. “अरे मत करो ना अभी.” या “मैं अभी बिज़ी हूं.” इसलिए परिवार को रिकॉर्ड करना काफ़ी मुश्किल काम है. मेरी फ़िल्म की शूटिंग पूरी करने में मुझे 6 महीने का समय लगा, यही वजह है थोड़े समय बाद ही मेरा परिवार कैमरा और उसके साथ मेरी मौजूदगी को लेकर सहज हो गया था. अक्सर वो मुझे नज़रअंदाज़ ही कर देते.
‘ट्रैवल लोग’ प्रोग्राम के ज़रिए जब मैं द थर्ड आई टीम से शबानी और शिवम से मिली और उन्हें मैंने अपनी बहन (फरहा खातून) के बारे में बताया – जो हमारे गांव (पश्चिम बंगाल का एक छोटा सा गांव बेलदा) की पहली लड़की थी जिसने गांव से बाहर जाकर उच्च शिक्षा पूरी की – तो मेरे फ़िल्म का आइडिया भी वहीं से निकलकर आया. हम तीनों ने मिलकर तय किया कि मैं अपने परिवार के लोगों से कैमरे पर बात करूं और उनके ज़रिए बेलदा की कहानी कहूं.
फ़िल्म बनाने से पहले और शूटिंग के दौरान भी मुझे बिलकुल पता नहीं था कि मैं इसे कैसे करूंगी. पहली बार मैं कोई फ़िल्म शूट कर रही थी. तो शुरुआत में तो बस शूट करती और खुद ही ए़डिट भी करती जाती थी. एक-दो दिन शूट करने के बाद फिर उस हिस्से को एडिट करने बैठ जाती. अब, जब आखिरी शूट और एडिट के बाद इस फ़िल्म को देख रही हूं तो फ़िल्म काफ़ी सही लग रही है. मैंने उम्मीद नहीं की थी कि इतनी अच्छाी फ़िल्म बन जाएगी. अब थोड़ा विश्वास हो रहा है कि जो कहानी मैं कहना चाहती थी वो भी सही से फ़िल्म में निकल कर आ रही है.
कैमरे के सामने होने पर कुछ सारी चीज़ें भी बदल गई हैं. जैसे, मेरी मम्मी बहुत ज़्यादा बोलती हैं. उन्होंने ही पूरे परिवार को एक सूत्र में बांधे रखा है और उन्हीं की वजह से हमारा पूरा घर एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है. मम्मी, हमारे घर की मुखिया हैं. लेकिन, जब आप फ़िल्म में उन्हें दिखेंगे तो वो वैसी नहीं दिखाई देतीं. ऐसा भी नहीं था कि उन्हें कैमरे के सामने झिझक महसूस हो रही थी. आप देखेंगे कि कैमरे के सामने भी वो पापा को टोक देती हैं कि वो ठीक से बैठें. पर, जैसी वो रोज़मर्रा की ज़िंदगी में होती हैं वैसी वो फ़िल्म में नहीं दिखाई दे रहीं. उन्हें बस कैमरे के सामने बोलना अच्छा नहीं लगता है. वो उसके पीछे रहकर ही अपना काम करना चाहती हैं.
हां, पापा कैमरे को लेकर बहुत सहज हैं. उन्हें किसी चीज़ को कोई फ़र्क नहीं पड़ता. वो अपनी ज़िंदगी में हमेशा एक खिलाड़ी रहे हैं और उन्हें इस बात की भी आदत है कि लोग उन्हें देख रहे हैं. इसी तरह मेरी बड़ी बहन भी कैमरे को लेकर बहुत सहज है. हां, भाभी काफी संकोची हैं. उन्हें इस सब की आदत नहीं. पर, घर पर जब हम दोनों बैठकर बात कर रहे होते थे तो हमारी बातचीत बहुत सहज होती थी. ऐसा इसलिए भी हो सकता है क्योंकि हम अपने घर पर बैठकर बातें कर रहे थे. मेरे लिए भी बहुत आसान था कि मैं चारों तरफ़ घूम-घूमकर आराम से शूट कर सकती थी. फ़िल्म में मैंने लगभग घर के सभी सदस्यों को शामिल किया है.
कुछ सवाल ऐसे थे जो मैं जानबूझ कर अपने मम्मी-पापा से आखिर में पूछना चाहती थी. ये वो सवाल थे जिसके बारे में मैं जानती तो थी लेकिन मुझे नहीं पता था कि कैमरे के सामने वे इसका जवाब देंगे या नहीं. मुझे बस इतना पता था कि कैमरे के सामने वे मुझे डांटेंगे नहीं. जैसे, मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने दीदी को पत्रकार क्यों नहीं बनने दिया? मैं नहीं जानती थी कि इस सवाल को सुनकर उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी. सवाल पूछने पर सन्नाटा तो छा गया. यही वजह थी कि कठिन सवाल मैं शूट के आखिरी दिन पूछना चाहती थी. ताकि अगर कोई गुस्सा होकर कैमरा के सामने से चला भी जाएगा तो कोई बात नहीं. पर, सवाल पूछते हुए मुझे बुरा लग रहा था कि कहीं कैमरे की नज़र से मैं अपने माता-पिता को बुरा तो नहीं बता रही. मुझे पता है कि मेरे परिवार के सभी लोग बहुत अच्छे हैं. पर क्या होगा अगर फ़िल्म में ये बिलकुल इसके उल्टा दिखाई दें? पता नहीं, पर ये कठिन सवाल पूछना भी मेरे लिए ज़रूरी था. भले ही उन्होंने हमें आज़ादी और अपनी पसंद का करने की छूट दी लेकिन एक समय ऐसा भी था जब उन्होंने बहुत सारे विकल्प हमसे छीने भी थे. इसलिए इन सवालों का पूछा जाना ज़रूरी था. सवाल पूछने के बाद मैंने अपने परिवार के प्रति ज़्यादा भरोसा महसूस किया.
भले ही मैं फ़िल्म में कहीं दिखाई नहीं देती लेकिन ये पूरी फ़िल्म मेरी ही कहानी है क्योंकि सबकुछ मेरे सामने ही खुलता जाता है. इसे मैंने शूट किया है और मेरे ही नज़रिए से ये कहानी कही जा रही है. मेरी मौजूदगी यहीं है. आखिरी में सबकुछ मुझसे ही जुड़ा है. इन सभी लोगों ने इतना संघर्ष किया ताकि आगे जाकर मुझे संघर्ष न करना पड़े. तो घूम फिरकर तो बात मेरे पर ही आती है! और मैं कौन हूं? मैं एक आज़ाद परिंदा हूं, फ्री बर्ड.
मेरे लिए ये सिर्फ़ एक ‘फ़िल्म’ नहीं है, ये मेरी कहानी है. ये मेरी पहली फ़िल्म है इसलिए ये मेरे लिए बहुत खास भी है. फ़िलहाल मैंने अपनी दूसरी फ़िल्म पर काम शुरू कर दिया है. पर, ये फ़िल्म हमेशा मेरे लिए बहुत करीब रहेगी. अभी तक मेरे परिवारवालों ने इसे देखा नहीं है. मैं अगली बार जब भी अपने गांव जाउंगी सभी के लिए एक स्पेशल सक्रीनिंग रखूंगी.