लेकिन, एक सिनेमाघर, मल्टीप्लेक्स, सिंगल स्क्रीन पर्दे की किसी शहर के बनने में क्या भूमिका होती है? क्या ये सिर्फ़ बड़े पर्दे पर किसी कहानी को हमारे लिए जीवित भर करते हैं या ये शहर के भीतर रह रहे किरदारों की ज़िन्दगियां भी बदलते हैं.
कन्नड़ कहानी गुलाबी टॉकीज़ इस जिज्ञासा का बहुत मार्मिक ढंग से जवाब देती है. लेखक वैदेही की इस कहानी का हिन्दी अनुवाद कर इसे निरंतर रेडियों के ज़रिए हम आपके साथ साझा कर रहे हैं. यह कहानी एक सिंगल स्क्रीन पर्दे के पीछे की कहानी है जिसने उस छोटे से कस्बे की औरतों की ज़िन्दगी में रातों-रात ही तहलका मचा दिया. कहानी की मुख्य किरदार लिलीबाई – जो एक दाई का काम करती-करती थियेटर के गेटकीपर का काम भी संभालने लगती है – की कहानी में थियेटर उसी तरह नए रूप में जन्म लेता है जैसे एक दाई की ज़िन्दगी में कोई नया बच्चा पैदा होता है.
निरंतर रेडियो के लिए इस कहानी को हिन्दी में रूपांतरित करते हुए इसमें 1970-80 के दौर की अनुभूतियों को हिन्दी गानों के ज़रिए वैसा का वैसा भाव देने की कोशिश की गई है जिससे एक शहर या कस्बा हमारे सामने जीवित हो उठता है. तो फौरन ही इस कहानी को सुनें… लिलीबाई तो पहले से गेट पर खड़ी आपका इंतज़ार कर ही रही है.