इस कॉलम को अंकुर संस्था के साथ साझेदारी में शुरू किया गया है. अंकुर संस्था द्वारा बनाई जा रही विरासत, संस्कृति और ज्ञान की गढ़न से तैयार सामग्री की है और इसी विरासत की कुछ झलकियां हम इस कॉलम के ज़रिए आपके सामने पेश कर रहे हैं. ‘आती हुई लहरों पर जाती हुई लड़की’ कॉलम में हम आपके सामने लाते हैं ऐसी कहानियां जिन्हें दिल्ली के श्रमिक वर्ग के इलाकों/ मोहल्लों के नारीवादी लेखकों द्वारा लिखा गया है.
मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि कभी मुझे छत से इतना प्यार हो जाएगा कि मैं चौबीस घंटे छत पर ही रहना पसंद करने लगूंगी. अपने समय को छत पर ही एंजॉय करूंगी. शुरू में मेरे लिए लॉकडाउन एक जेल की तरह ही था. किसी और के बारे में मैं क्या कहूं, मैं खुद पूरे दिन घर ही में बंद रहती थी. सुबह से शाम तक बस घर का काम ही काम रहता था. रात का बचा खाना अगर सुबह में खाना है तो उसे कैसे तैयार करें, यह निपटता तो दोपहर के खाने के बारे में सोचने लग जाती. दिन में अगर थोड़ा-सा टाइम मिल भी जाता तो बस टीवी में ध्यान लगा लेती. एक-दूसरे से बात करते भी तो क्या करते? जहां पहले सुबह पांच बजे होती थी वहां वह आजकल नौ बजे हो रही थी.
आज काफी दिनों के बाद जब मैं छत पर गई तो शाम के चार बज रहे थे. भाई के दोस्त वहीं खड़े आपस में बात कर रहे थे.
आज छत पर होना अच्छा लग रहा था. ऐसा लग रहा था मानो ऐसी जगह पर आ गई हूं जहां सांस लेने के लिए खुली हवा है. पिछली गली के घरों को देख रही थी जहां एक आदमी हमेशा अपने पाले हुए कबूतरों को दाना खिलाया करते थे, बगल वाली छत पर एक औरत गमलों में पानी दे रही थी. सामने वाली छत पर अवनी अपनी मम्मी के साथ और कुछ दूसरी औरतों के साथ बैठी बातें कर रही थी.
अब मैं रोज़ छत पर जाने लगी थी. एक दिन जब मैं सूखे हुए कपड़ों को उतारने छत पर आई तो बगल वाली छत से एक दीदी भी कपड़े उतारने आई हुई थीं. उन्होंने मुझसे पूछा, “अब तुम यहीं रहती हो?”
मैंने कहा, “हां.”
“और आप?”, मैंने पूछा.
तब फिर दीदी बोलीं, “नहीं! मगर पहले मैं यहीं रहती थी. अपनी फैमिली के साथ.”
मैंने कहा, “मुझे तो चार साल हो गए पर मैंने आज आपको पहली बार देखा.”
उन्होंने कहा, “मेरे पापा यहां रहते हैं. मेरी तो शादी हो गई है और दो बच्चे भी हैं. अभी मैं यहां गांव जाने के लिए आई हूं, मेरी मम्मी गांव में ही रहती है. यहां मेरे पापा और मेरे भाई रहते हैं. मैं संजय कैंप में रहती थी मगर मेरे पति चार साल पहले एक कार एक्सीडेंट के कारण नहीं रहे. पहले तो मैं बच्चों को जैसे-तैसे पाल रही थी. मगर जब से यह कोरोना हुआ और लॉकडाउन लगा तो मैं पूरी तरह से हिम्मत हार गई.
अब मैं भी गांव जा रही हूं. मैं गाड़ी चलने का इंतज़ार कर रही हूं . गाड़ी में बुकिंग ही नहीं मिल रही है. मैं सोच रही हूं कि बच्चों को लेकर गांव में ही शिफ्ट हो जाती हूं. यहां तो कुछ नहीं हो पाएगा. गांव में अपने सिर पर छत तो है, सिर ढकने के लिए.”
मैंने कहा, “हां! यह तो है.”
जब वो अपनी कहानी सुना रही थीं तो मेरा ध्यान उनकी ओर था ही नहीं, मैं तो बस आसपास को देखे जा रही थी. पर वे बोले ही जा रही थीं. मैं बस उनकी बातों पर हूं… हां… हां… कर रही थी. छत पर मुझे एकांत मिल रहा था. इस कारण मेरा ध्यान उनकी बात पर था ही नहीं. उन्हें इस बात का अहसास हो गया था और वे खाना बनाने के बहाने नीचे चली गईं.
इन दिनों अपनी सुनाने और दूसरों की सुनने के लिए लोग ही कहां मिल रहे हैं? लोगों के पास फुर्सत ही कहां है, एक-दूसरे को सुनने की? उन्हें शायद लगा कि मैं उनके पास खड़ी हूं तो मुझे ही सुनाने लग गईं.
वैसे मैं छत पर कम ही जाती थी क्योंकि भाई अपने दोस्तों से ही बात करता रहता था और मैं बोर हो जाती थी. दूसरे कि लॉकडाउन के कारण लोग बाहर नहीं जा पा रहे थे तो इस कारण हमारे मकान मालिक और पहली मंज़िल पर रहने वाले लोग इन दिनों अपने कुत्तों को छत पर ही टॉयलेट करवा रहे थे. पूरी छत पर बदबू ही बदबू फैली रहती थी. जाने का मन ही नहीं करता था.
अब मुझे मौका मिल गया था छत को अपनी ज़िंदगी से जोड़ लेने का. मैं अगले दिन फिर से छत पर गई तो देखा दो बच्चे मेरी छत पर दौड़ लगा रहे हैं. मैं उन्हें देखने लगी. उन्हें खेलता देख मन को अच्छा लगा. बाद में पता चला कि मैंने जिनसे कल बात की थी ये बच्चे उन्हीं के हैं. उन दोनों बच्चों के चेहरे पर कोई उदासी नहीं थी. वे अपनी मम्मी की उदासी से अनजान बस खेल रहे थे और मेरा ध्यान उनकी मम्मी की तरफ था. मेरी आंखें उन्हें तलाश रही थीं. मन कर रहा था कि वे आएं और मुझसे बात करें.
इन दिनों मैं भी किसी से बात नहीं कर पा रही थी. लेकिन वो थीं ही नहीं. वो दिन मेरा ऐसे ही गुज़र गया. वो मिली ही नहीं. अगले दिन जब शाम को मैं अपने दरवाज़े पर खड़ी थी तो पता चला कि उनकी गाड़ी बुक हो गई और वे अपने गांव के लिए निकलने वाली हैं.