“मुझे सभी औरतों से नफरत है”

लड़कों और पुरुषों के साथ जेंडर प्रशिक्षण पर काम करने वाले ट्रेनर्स के लिए प्रशिक्षण के दौरान किस तरह की चुनौतियों सामने आती हैं?

इस लेख के पहले भाग में हमने सामाजिक विकास क्षेत्र के कार्यक्रमों में पुरुषों के जुड़ाव के इतिहास का परिचय दिया और उन सभी कारणों की शिनाख्त की जिनकी वजह से पुरुष जेंडर को समझने में रूचि नहीं लेते हैं. हमने इस बात की भी व्याख्या की, कि नारीवादी जगहों में अभी भी पुरुषों का अपना मूल्य है और इसमें उनके अनुभवों के लिए भी जगह है.

डाक्यूमेंट्री फ़िल्‍म निर्माता एवं शोधार्थी हरजंत गिल, जिन्होनें भारतीय मर्दवाद (या मर्दानगी) पर कई डाक्यूमेंट्री फ़िल्में बनाई हैं, कहते हैं कि, “मर्दवाद के बारे में बात करते वक्त एक बड़ी चुनौती यह आती है कि आप इस बातचीत में मर्दों को शामिल करते हैं और वे यह नहीं समझ पाते कि उन्हें इस बातचीत में किधर जाना है या इस सवाल को कैसे समझना है… साफ़ है कि इन शक्ति के ढांचों की वजह से वे खुद को बहुत शक्तिशाली मानते हैं और इसलिए उन्होंने कभी इस बारे में आलोचनात्मक ढंग से सोचा ही नहीं है. जब मैं उनसे उनकी पगड़ी, उनके बालों या उनके धर्म के बारे में सवाल करता हूं तब वे इसपर पूरा एक शोध प्रबंध दे सकते हैं. लेकिन जब उनसे उनकी यौनिकता, जेंडर, और मर्दानगी के बारे सवाल पूछता हूं तो उन्हें इस बिंदु पर ला पाना नाकों चने चबाने जैसा होता है.”

भाव-विरेचन या भीतर से खुद को खाली कर देना एक महत्त्वपूर्ण अनुभव है लेकिन यह अपने आप में कोई शिक्षण-पद्धति (पेडागॉजी) नहीं है. मर्दानगी पर होने वाले काम को महज़ इस बात तक सीमित नहीं किया जा सकता कि मर्द एक साथ आएं और एक “सुरक्षित” (एक शब्द जिसका नारीवादियों के प्रयास से एक राजनैतिक अर्थ भी है) वातावरण बनाएं जहां वे अपने भाव साझा करें और अपनी असुरक्षाओं को ज़ाहिर कर सकें, और ताकत और विशेषाधिकारों पर कोई सोच-विचार न करें. यह सोच-विचार ही वह चीज़ है जो मर्दानगी पर किए जा रहे काम को नारीवादी भी बनाता है. वरना इन कार्यशालाओं और उन कार्यशालाओं, जिन्हें “मेंस’ राइट्स ग्रुप” द्वारा आयोजित किया जाता है, में कोई फ़र्क नहीं रह जाएगा.

निरंतर ट्रस्ट में जेंडर और यौनिकता की वरिष्ठ प्रशिक्षक निहारिका महाजन विस्तार से बताती हैं कि, “पुरुषों और लड़कों के साथ बड़ी चुनौती उन्हें बात करने के लिए सक्षम बनाने की है ताकि वे अपने अकेलेपन और मानसिक आघातों के बारे में खुलकर बोल सकें और इसी प्रक्रिया में वे सत्ता के साथ होने और उसके खो जाने की परिस्थितियों में खुद को समझ सकें.” निरंतर ट्रस्ट बीते तीन दशकों से ग्रामीण महिलाओं से लेकर एनजीओ कार्यकर्ताओं, सरकारी और कॉर्पोरेट कर्मचारियों तक सभी के साथ जेंडर प्रशिक्षण (जेंडर और यौनिकता को खोलकर सामने रखना) पर काम कर रही है.

बातचीत के दौरान निहारिका एक कार्यशाला अभ्यास के बारे में बताती हैं जिसे इस तरह के सभी प्रशिक्षण सत्रों में शामिल किया जाता है. पहला सत्र अक्सर इस बात पर केंद्रित रहता है कि कैसे जेंडर एक बनाई हुई धारणा है और यह हमारे भीतर से नहीं आती बल्कि बाहर से हमपर थोपी जाती हैं. निहारिका कहती हैं कि यह हिस्सा सबसे आसान होता है, खासकर पुरुषों और लड़कों के लिए जो बहुत सटीक तरीके से अपने ऊपर लादे गए बोझों को समझा पाने में सक्षम होते हैं. दूसरा सत्र इस बात पर केंद्रित होता है कि कोई व्यक्ति जेंडर को कैसे “बरतता” है. यह सत्र अक्सर नाटकों की मदद से किया जाता है जिसमें एक व्यक्ति अपने शरीर और प्रदर्शन कला के माध्यम से किसी के द्वारा जेंडर के प्रदर्शन को दिखाता है. और यहां तक आते-आते यह बहुत साफ़ हो जाता है कि मर्दों को सफलतापूर्वक अपनी जेंडर भूमिका निभाने के एवज़ में जो फायदे मिलते हैं वह उसी जाति या वर्ग की महिलाओं को नहीं मिलते.

यहां यह भी समझना ज़रूरी है कि महिलाएं (खासकर सवर्ण) भी पितृसत्तात्मक ढांचों को विभिन्न परिस्थितियों में मज़बूत करती हैं क्योंकि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता का ढांचा उन महिलाओं को ईनाम (कम से कम सज़ा नहीं) देता है जो उसे बचाए रखती हैं. इसलिए इसका हल इस बात पर भरोसा करने में नहीं है कि सभी महिलाएं (जैसे यह एक समान गुणधर्मों वाला समूह है) परेशानी झेल रही हैं और इसलिए वे हमेशा सही ही होंगीं (जैसाकि अक्सर नारीवादी आंदोलनों के स्त्री-विरोधी रेखांकन में दिखाई देता है). वैसे भी मर्दों के साथ पितृसत्ता पर चर्चा यूं ही बहुत कम होती है और जब होती है तो यह पूरी तरह से इस बात पर केंद्रित हो जाती है कि इसका महिलाओं पर क्या प्रभाव पड़ता है?

अगर मर्द पितृसत्ता को सिर्फ़ इसी रूप में समझेंगे कि इसका महिलाओं पर क्या असर पड़ रहा है तो यह प्रक्रिया उन्हें बड़े आराम से पूरे विमर्श से बाहर कर देगी. वे आसानी से “अच्छे मर्द” बन जाएंगे जो महिलाओं पर हिंसा नहीं करते.

इसे निहारिका सुधारवादी दृष्टिकोण कहती हैं जिसका अकेला उद्देश्य “बुरे मर्द” और “बुरी औरतों” के उलट “अच्छे मर्द” और “अच्छी औरतें” बनाने का रह जाएगा. निहारिका हमें सतर्क करती है कि, “हमें दंडित करने के दृष्टिकोण के साथ-साथ इस सुधारवादी दृष्टिकोण के बारे में भी विचार करना होगा क्योंकि यह महज़ एक दयालु मर्द बनाने की ओर ध्यान देता है न कि जेंडर को बतौर ढांचे कोई चुनौती देता है.”

अच्छे मर्द

इस तरह से यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि पितृसत्ता को एक ढांचे और विचारधारा की तरह देखा जाए जो कि मर्दों पर भी अलग तरीके से लेकिन बराबर असर डालती है. नारीवादी विश्लेषण को लेकर, प्रचलित समझदारी से हटकर, इसके केंद्र में जेंडर नहीं बल्कि सत्ता शामिल है. लड़कियों और महिलाओं के साथ होने वाली कार्यशालाओं में नारीवादियों को उनके “रोज़मर्रा” अथवा “निज़ी” और पितृसत्ता के बीच जुड़ाव (मशहूर मुहावरा पर्सनल इज़ पॉलिटिकल) समझाने में बहुत आसानी होती है. लेकिन इसी चीज़ को लड़कों और मर्दो के साथ कैसे किया जाए? कैसे उनके “निज़ी” को भी राजनीतिक बनाया जाए? और कैसे फसिलिटेटर लड़कों को उनके रोज़मर्रा के अनुभवों को पितृसत्ता से जोड़ने में मदद कर सकते हैं?

जेंडर लैब प्रोजेक्ट से जुड़े अक्षत की नज़र में इसका ज़वाब “मर्दानगी” है. मर्दानगी वह महत्त्वपूर्ण विचार है जिसकी मदद से पितृसत्ता की “राजनीति” को लड़कों के रोज़मर्रा के अनुभवों से जोड़ा जा सकता है. “जब हम मर्दानगी के कुछ निश्चित पहलुओं को खोजना शुरू करते हैं और उनसे पूछते हैं कि, ‘आपके लिए इसका क्या अर्थ है?’ और यह कि ‘आप उन संदेशों के बारे में क्या सोचते हैं जो आपको घर में, स्कूल में, अथवा मीडिया के माध्यम से दिए जाते हैं जो कि आपको मर्दानगी की कुछ शर्तों को पूरा करने के लिए बाध्य करते हैं.’ तब वे सोचना और सवाल करना शुरू करते हैं कि, ‘घर में मुझे यही सिखाया जाता है कि मैं रो नहीं सकता और मुझसे यह भी पूछा जाता है कि मैं शर्मीला क्यों हूं. या मैंने गाली देना इसलिए सीख ली क्योंकि मेरे पिता भी घर पर गालियों का इस्तेमाल करते थे.’ तो मुझे लगता है कि हमें अपनी पड़ताल यहीं से शुरू करनी चाहिए ना कि सीधे उन्हें पितृसत्ता का अर्थ बताकर उनसे उसे रोज़मर्रा के अनुभवों से जोड़ने के लिए कहें.”

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पुणे स्थित सम्यक संस्था के कार्यकारी निदेशक आनन्द पवार के लिए मर्दानगी और पुरुषों के साथ काम करने का सवाल उस एक संकट के उभरने पर सामने आया जब वे अपने करियर के शुरूआती दिनों में एक बड़े स्तर का परिवार सर्वेक्षण कर रहे थे. 2001-02 में हुए इस सर्वेक्षण में 1700 परिवारों ने भाग लिया और जिसमें 80 फीसदी मर्दों ने जेंडर के प्रति संवेदनशीलता के मामले में बहुत अधिक नम्बर पाए जबकि उसी परिवार की महिलाओं ने घरेलू हिंसा की शिकायतें कीं.

वे याद करते हुए बताते हैं कि “मैंने खुद से सवाल पूछना शुरू किया… मैंने खुद इस तरह के तरीके इजाद किए थे जिनसे मैंने मर्दों को बराबरी की भाषा तो सिखा दी लेकिन उनके शक्ति-सम्बन्धों पर कभी कोई सवाल नहीं किया. तब मुझे व्यक्तिगत रूप से इस बात का एहसास हुआ कि मर्द बराबरी की भाषा बहुत जल्दी सीख जाते हैं. निरपवाद रूप से इस बात ने मुझे खुद के बारे में सोच विचार करने की तरफ मोड़ा. यह महज़ एक सैद्धांतिक जुड़ाव नहीं था. मैं खुद भी इसी प्रक्रिया से गुज़र रहा था क्योंकि मुझे लोगों से बेहद सकारात्मक किस्म की शाबाशी मिलने लगी थी कि मैं एक जेंडर संवेदी प्रशिक्षक हूं.”

इसीलिए जैसे ही कुछ मर्द बराबरी की भाषा और प्रतीकों को इस्तेमाल करना और अपनाना सीख जाते हैं वैसे ही “अच्छे मर्द” होने का यह प्रदर्शन उनके लिए बहुत आसान हो जाता है.

दूसरा तरीका या बराबरी दर्शाने का अन्य प्रतीक जनता के बीच जाकर सार्वजनिक अभियान चलाना है. इस तरह के कार्यक्रमों में अक्सर एक मानक सार्वजनिक व्यवहार किया जाता है. क्या वे लड़के जो कार्यशाला में मौजूद थे अपने समुदाय में जाकर कोई अभियान या अन्य किसी गतिविधि के माध्यम से बदलाव की शुरुआत कर सकते हैं? अपने समुदायों और गांवों में सामुहिक भावना और एकजुटता का निर्माण करना जहां नारीवादी इतिहास का अहम हिस्सा रहा है वहीं, यह ज़रूरी नहीं है कि यह बात मर्दों के साथ भी काम करे क्योंकि सार्वजनिक स्थानों पर तो पहले से ही उनका मज़बूत दावा रहा है.

वाई.पी.फाउंडेशन में बतौर डायरेक्टर मर्दानगी से जुड़े कार्यक्रमों से गहरा जुड़ाव रखने वाले मानक, हंसते हुए कहते हैं कि, “यह बहुत आसान है. इसके लिए मुझे बस एक दिन चाहिए और वही काफी होगा. मुझे बस एक कार्यशाला का मौका दीजिए. और उसके खत्म होने तक जब मैं उन्हें कहूंगा कि, “चलिए एक अभियान चलाते हैं”, तो 1000 लड़के सामने आ जाएंगे और कहेंगे कि हां, ठीक है अभियान करते हैं… (लेकिन यह लक्ष्य नहीं है). बाहरी स्तर पर कदम उठाना आसान है बजाय इसके कि अपने भीतर झांका जाए. किसी कार्यशाला को तभी सफल माना जाएगा जब वह इन लड़कों को अपने व्यवहार के प्रति सोच विचार करने की क्षमता दे कि यह सत्ता की व्यवस्था उनके साथ क्या-क्या करती है, जैसे कि उन्हें खुद को व्यक्त कर पाने कि क्षमता देना, “मैं नहीं जानता” यह कह सकने की क्षमता देना आदि. जबकि अंतिम लक्ष्य वह होगा जब यह सोच विचार करने की क्षमता आदत बन जाए.” लड़कियों को बाहर निकलकर बोलने से जो लाभ मिलता है वही लाभ लड़कों को अपने अंदर झांक कर, सोच विचार करने से मिलता है.

जेंडर आधारित हिंसा से इतर हिंसा

हिंसा और मर्दानगी एक दूसरे से इस तरह गुत्थमगुत्था हैं कि “अच्छे मर्दों” से भी यही अपेक्षा की जाती है वे भी अपनी अच्छाई साबित करने के लिए हिंसक हों (उदाहरण- फ़िल्म जाने तू या जाने ना में इमरान खान का किरदार… और फ़िल्म हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया में वरुण धवन का किरदार).

फ़िल्म जाने तू या जाने ना से स्क्रीनशॉट
फ़िल्म हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया से स्क्रीनशॉट

अक्षत के हिसाब से लड़कों को यह बताना कि हिंसा क्या एक बेहतर रणनीति है. इससे उन्हें सोच-विचार करने में मदद मिलती है. वह बताते हैं कि, “यह समझने में उनकी मदद करना कि किसी के साथ बदमाशी या किसी को डराना-धमकाना, यहां तक महज़ अभद्र भाषा का इस्तेमाल करना भी हिंसा के दायरे में आता है, काफी मददगार साबित हुआ.” एक बार जब लड़के हिंसा को समझना शुरू करते हैं तब वे खुद के साथ हुई हिंसा की घटनाओं को भी याद करते हैं, जैसे अपने से बड़ों द्वारा की गई हिंसा, जिसमें उनके भाई, पिता, वरिष्ठ, और शिक्षक शामिल हैं, तब ही वे हिंसा के अर्थ को भी अधिक व्यापक तरीके से समझना शुरू करते हैं. जब तक वे अपने साथ हुई हिंसा के मायनों को नहीं समझ पाते तब तक वे यह बात भी नहीं समझ पाएंगे कि वे जिस तरह की हिंसा किसी और पर कर रहे होते हैं उसके क्या मायने होते हैं. मर्दों को अपने साथ हुई हिंसा की शिनाख्त करने का रास्ता मिलता है इससे पहले कि वो महिलाओं को हिंसा से “बचाने” के लिए आगे बढ़ें.

यह बहुत महत्त्वपूर्ण इसलिए भी है क्योंकि जब हम हिंसा के इर्दगिर्द पैरवी महज़ जेंडर आधारित हिंसा तक ही सीमित रखते हैं तो हम हिंसा के अन्य रूपों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं जो कि बहुत लोग, खासकर मर्द, अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में अनुभव करते हैं. मानक कहते हैं, “यह साम्प्रदायिकता के बारे में है, यह जाति के बारे में है… यह कई अन्य चीज़ों के बारे में है. हमारा एजेंडा महज़ महिलाओं के खिलाफ हिंसा से बड़ा होना चाहिए. हिंसक होना एक ऐसी चीज़ है जो कि आपसे हर वक्त अपेक्षित होती है. और इस तरह से अगर आप हिंसा के खिलाफ बोलते हैं तो यह महज़ महिलाओं के खिलाफ हिंसा के बारे में नहीं हो सकता, बल्कि यह जाति आधारित हिंसा, साम्प्रदायिक हिंसा, धार्मिक हिंसा, और अन्य सभी तरह की हिंसा के भी बारे में होना चाहिए.”

“मुझे सभी औरतों से नफरत है”

एक अन्य संकट जो फसिलिटेटर और प्रशिक्षकों के सामने आया वह था लड़कों और मर्दों के अंदर मौजूद गुस्सा.

अक्षत ने स्कूल में काम करने के दौरान इस चीज़ का अवलोकन किया था. “लड़के यह महसूस करते हैं कि उन्हें लड़कियों के मुकाबले हमेशा हर चीज़ कम मिलती है. इसका एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण बेशक स्कूल था जहां लड़कों को सज़ा के तौर पर पीटा जाता था जबकि लड़कियों को नहीं. शिक्षक लड़कियों को लड़कों के मुकाबले आसानी से छोड़ देते थे. और इसी तरह की समान भावनाएं हमने बड़ी उम्र के मर्दों में POSH (प्रिवेंशन ऑफ सेक्सुअल हैरेसमेंट) और #MeToo को लेकर भी देखीं.” एक अन्य जगह जहां से यह गुस्सा आता है जब लड़कियों को परिवारों में ज़्यादा “संरक्षण” मिलता है. और कई बार लड़कियों पर परिवार द्वारा जो पाबंदियां लगाई जाती हैं उन्हें उनका ‘ख्याल’ रखने के रूप में समझा जाता है, जबकि लड़कों द्वारा उनकी घूमने फिरने की आज़ादी को छोड़ दिए जाने के अहसास में समझा जाता है और वे इस बेख्याल और संरक्षण न मिल पाने की वजह से क्रुद्ध रहते हैं.

युवा संस्था के निखिल को एक लड़के ने बताया कि एक लड़की ने उसे सिर्फ़ इसलिए छोड़ दिया क्योंकि वो एक बार रो दिया था. ऐसे में कैसे लड़कों और मर्दों से इस बारे में बात की जाए कि महिलाएं उनकी शत्रु नहीं हैं? हरीश बताते हैं कि, “हमारे देश में मर्दों की आत्महत्या के आंकड़े दिल दहला देने वाले हैं. मर्दों के अधिकारों पर काम करने वाले समूह इसे इस रूप में व्याख्यायित करते हैं कि मर्दों की ज़िंदगी औरतों की वजह से ज़्यादा कठिन और तनावग्रस्त है, लेकिन मैं उन्हें यह समझाता हूं कि ऐसा नहीं है. आंकड़े एकदम सही हैं, लेकिन यह महिलाओं की वजह से नहीं है बल्कि मर्दों के असफलता और अस्वीकार्यता को स्वीकार न कर पाने की वजह से है.” यह निश्चित रूप से हर बार आसान नहीं होता जब स्त्री-विरोधी विचार (खासकर डिजिटल जगहों में) लगातार कम उम्र के पुरुषों को महिलाओं के खिलाफ खड़ा करने में लगे हुए हों. निखिल कहते हैं कि, “इंटरनेट ने बीते दो वर्षों में यह बात बेहद साफ़ कर दी है कि वह अपने द्वारा सबसे गुस्सैल, तेज़ और घिनौनी आवाज़ों को मुख्यधारा में आगे बढ़ाने का कम करेगा, और इनमें से बहुत सारी आवाज़ें स्त्री-विरोधी और समलैंगिक विरोधी हैं. यह संस्कृति तेज़ी से फ़ैल रही है और यहां जोर्डन पीटरसन (रूढ़िवादी कनाडाई मनोवैज्ञानिक) सरीखे लोग मुख्यधारा में शामिल हैं. मैं लगभग 40 भारतीय यूट्यूबर्स और क्रिएटर्स के नाम गिना सकता हूं जो कि खुलेआम घटिया बातें फैला रहे हैं और लोग दिन-रात धड़ल्ले से  उनकी बात सुन भी रहे हैं. मुझे इससे डर लगता है. क्योंकि आखिरकार हमारी एक सामान्य बातचीत के मुकाबले एल्गोरिदम की ही जीत होगी.

मर्दानगी (गियों) का निर्माण

एक सीख तो हमें यह मिली है कि मर्दानगी का निर्माण करने में अन्य सामाजिक स्थितियां महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं, जो सिर्फ महिलाओं की वजह से नहीं बल्कि भिन्न-भिन्न मर्दों की भी वजह से होती हैं. मानक तर्क देते हैं कि मर्दानगी (गियों) के निर्माण में जेंडर सिर्फ एक हिस्सा है. “लड़कों के लिए मर्दानगी के निर्माण में जाति की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है. इसलिए शारीरिक छवि जाति से जुड़ी हुई है. यौनिकता भी जाति से जुड़ी हुई है.” वे एक छोटी सी कहानी साझा करते हैं, “हाल ही में मैंने सुना कि एक गे लड़का सेक्स के दौरान हमेशा ऊपर ‘टॉप’ पर रहना चाहता है, नीचे ‘बॉटम’ पर नहीं क्योंकि वो एक राजपूत है. क्वीयर मर्दों के साथ हुई एक फोकस समूह चर्चा में भी किसी की तरफ से यह बात आई कि वे चूड़ियां तो पहन सकते हैं लेकिन अपनी जातिगत पहचान की वजह से श्रृंगार नहीं कर सकते. उनकी शारीरिक छवि, प्रदर्शन का दबाव, यह सब जातिगत पहचान से जुड़ा हुआ है.” इसका अर्थ है कि मर्दानगी की चर्चा न सिर्फ़ जेंडर आधारित कार्यक्रमों में होनी चाहिए बल्कि अलग-अलग किस्म के कार्यक्रमों में भी की जानी चाहिए. यह भी महत्त्वपूर्ण है कि मर्दों और मर्दानगी को एक बराबर नहीं आंकना चाहिए. चूंकि मर्दवादी नियम कानूनों का पालन करने के एवज़ में समाज द्वारा न सिर्फ़ ईनाम मिलता है बल्कि उन्हें संजीदगी से भी लिया जाता है. इसलिए कई महिलाएं भी अलग-अलग कारणों की वजह से रणनीतिक रूप से इनका अनुसरण करती हैं. इन बातों पर सोचना बहुत ज़रूरी है जब हम औरतों और मर्दों दोनों के लिहाज़ से जेंडर को “बरतने” की चर्चा करें.

कीर्ति जयाकुमार एक शांति शिक्षक और रेड एलिफैंट फाउंडेशन की संस्थापक हैं और उन्होंने युवाओं के साथ यौनिकता, जेंडर, और हिंसा पर बेमिसाल काम किया है. जाति और मर्दानगी के बीच जुड़ाव के बारे में वे बताती हैं कि, “उच्च जाति के बच्चों के बीच मर्दानगी के मानक पहले से ही जड़ जमाए हुए होते हैं. उनसे यह उम्मीद की जाती है कि वे अपनी मर्दानगी और उसके अनुसार अपने व्यवहार का पालन करेंगे. उनका सामाजिक प्रशिक्षण ही इस तरह का होता है कि वे हक जमाने वाले और तेज़ हों. इसलिए जब कोई शिक्षक स्वैच्छिक कार्यकर्ताओं की मांग करता है तो वे कभी हाथ नहीं उठाते, सीधे उठ के आगे आ जाते हैं.”

इन संकटों और कशमकश के बीच मर्दानगी और स्त्रीत्व के सिद्धांतों द्वारा शुरू किए गए विमर्श के महत्त्व को भूल जाना आसान हो जाता है. निहारिका कहती हैं कि, “अगर आप औरत और मर्द को समीकरण के बाहर रखकर सिर्फ मर्दानगी और स्त्रीत्व पर बात करना शुरू करें तो बातचीत लम्बी चलेगी और अनुभव भी अधिक हासिल होंगे. जैसे ही आप औरत और मर्द से बात शुरू करते हैं, कमरे के भीतर एक तरह का अदृश्य खांचा पैदा हो जाता है जिसमें मर्द चुप और रक्षा की मुद्रा में आ जाते हैं और स्त्रियां क्रोध की मुद्रा में.”

हालांकि, कीर्ति एक ठोस कार्रवाई की मांग करती हैं: “शिक्षाशास्त्र को गोली मारो. इसे किनारे रख दो. केवल इस बात के साथ शुरुआत की जाए कि आप अपनी सत्ता और विशेषाधिकार से परिचित हैं? क्या आप इस सत्ता का बंटवारा करने को तैयार हैं ताकि बाकी सभी छात्रों को उनकी सीखने की यात्रा में हितधारक बनाया जा सके? एक ऐसा हितधारक जो आपसे भी उतने ही सवाल पूछे जितनी परेशानी उसे आपके पूछे हुए हर सवाल से होती है? भले आप कुछ नहीं जानते लेकिन ध्यान लगाकर किसी बात को सुनना ही अज्ञानता का इकलौता इलाज है.”

(लेख में दी महत्त्वपूर्ण जानकारी के लिए निरंतर ट्रस्ट के लर्निंग रिसोर्स सेंटर का साभार)

इस लेख का अनुवाद अभिषेक श्रीवास्‍तव ने किया है.

जूही, शहरी अध्ययन में डिप्लोमा के साथ साहित्यिक और सांस्कृतिक अध्ययन में स्नातक की पढ़ाई पूरी कर चुकी हैं. शोध एवं संपादन में गहरी रूचि रखने वाली जूही, फिलहाल वीडियो संपादन एवं रचनात्मक लेखन के साथ-साथ खाना पकाने के कौशल को भी निखारने में निरंतर कार्यरत हैं. वे पिज़्ज़ा को कभी न नहीं कहतीं और प्रेरणा के लिए अपने बिल्ले ‘गब्बर’ के पास जाती हैं.

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