क्या हो अगर आपका काम लड़कों और मर्दों को ‘बेहतर लड़के और मर्द’ बनना सिखाने का हो?

यह असल में काम कैसे करता है? इसमें किस तरह की दिक्कतें आती हैं?

चित्रांकन: बेकरी प्रसाद

बिहार के 17 साल के लड़के के बारे में नीचे लिखी खबर को पढ़ते हुए मेरे कई दोस्त हंसे, उनकी हंसी में थोड़ी चिन्ता भी मिली हुई थी. छानबीन करने पर जानकारी मिली कि लड़के के प्रवेश पत्र पर उसे महिला बता दिया गया था जिसका कारण कोई मानवीय त्रुटि या फिर छपाई में गलती रही होगी, जिसकी वजह से उसे ऐसा परीक्षा केंद्र आवंटित हुआ जहां सभी विद्यार्थी लड़कियां थीं.जब वह वहां पहुंचा तो उससे उस गलती के बारे में पूछा गया, जो कि उसकी हालत बिगड़ने का कारण बना. एक छोटे वीडियो, जिसमें लड़के की चाची बताती हैं कि क्या हुआ था, के अंत में वह मुस्कुराती हैं. एक अन्य पुरुष जो कि लड़के के अभिवावक मालूम होते हैं, वे भी उसकी पीठ सहलाते मुस्कुरा रहे थे.

जो इकलौता व्यक्ति उस वायरल हो चुके वीडियो में नहीं मुस्कुरा रहा है वह स्वयं वो लड़का है जो उस घटना के बाद से बुखार में पस्त पड़ा हुआ था, वही घटना जिसपर कई लड़कियों ने ठहाके मारते हुए लड़के की खिल्ली उड़ाई थी.

सामाजिक विकास के क्षेत्र में जेंडर पर होने वाले काम में पारम्परिक रूप से महिलाओं और लड़कियों को ही शामिल किया जाता रहा है. नब्बे के दशक के मध्य तक आने के बाद ही कुछ चुनिंदा गैर-सरकारी संगठनों ने जेंडर के मुद्दे पर लड़कों और पुरुषों के साथ काम करना शुरू किया. इसके शुरूआती बिंदुओं में से एक था जनसंख्या नियंत्रण और प्रजनन स्वास्थ्य, जिसके अंतर्गत लड़कों और पुरुषों को कॉन्डोम का इस्तेमाल करने और अपनी गर्भवती पत्नियों के साथ स्वास्थ्य केंद्रों तक जाने के लिए प्रोत्साहित किया गया.

इसका उद्देश्य पुरुषों को जेंडर संवेदीकरण कार्यशालाओं के माध्यम से महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य में शामिल करना था. जल्दी ही इसका उद्देश्य महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा, खासकर पत्नियों के साथ मारपीट के रूप में होने वाली हिंसा को रोकने का भी हो गया. 2000 के अंत तक आते-आते ‘मेन एंगेज’ जैसे कई वैश्विक मंच दक्षिण एशिया में सक्रिय हो गए और इसके साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर ‘फोरम टु एंगेज मेन (FEM)’ का भी उदय हुआ. यह बहुत हाल की ही बात है जब लड़कों और पुरुषों के साथ जेंडर पर होने वाले काम में ‘मर्दानगी’ की ओर गौर करना शुरू किया गया है और हिंसा को जेंडर आधारित हिंसा से परे हटकर एक अधिक व्यापक नज़रिए से देखने की कोशिश हुई है.

नारीवादी प्रयासों में मर्दों की क्या भूमिका है? यह वह प्रश्न है जिसे विकास के क्षेत्र में काम कर रहे कुछ शिक्षक स्वयं से पूछते आ रहे हैं और इसका जवाब तलाशने की कोशिश में हैं. बहुत लम्बे समय तक पुरुषों को एक विशुद्ध चुनौती की श्रेणी में रखा गया जिन्हें शराब पीने, जुआ खेलने, पत्नी को पीटने, और बच्चों पर चिल्लाने से रोका जाना चाहिए.

नब्बे के दशक के मध्य में एक नया नज़रिया उभरा जिसमें विकास क्षेत्र ने महिलाओं के साथ काम को आसान और अधिक स्थाई बनाने के लक्ष्य को पाने के लिए पुरुषों को भी हितधारक मानना शुरू किया. इसका एक उदाहरण प्रजनन स्वास्थ्य संबंधी कार्यक्रम हैं जहां पुरुषों को कॉन्डम पहनने और अपनी गर्भवती पत्नियों के साथ नियमित रूप से मातृत्व चिकित्सालय जाने के लिए प्रोत्साहित किया गया. इस सोच ने 2000 के अंत तक विकास के कार्यक्रमों में व्यवस्थित रूप से लड़कों और पुरुषों को नारीवादी आंदोलन में बतौर साझीदार और एक सहयोगी के रूप में देखना शुरू किया. इस हालिया काम, जुड़ाव और सीखने की पद्धति की बदौलत एक नई चीज़ सामने आई जिसे अक्सर ‘मर्दानगी का संकट’ कहा जाता है.

हमने उन प्रशिक्षकों से कुछ सवाल पूछे जो कि लड़कों के साथ और/अथवा मर्दानगी (यों) पर काम कर रहे थे: उन्हें किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है? वे अपने ज़मीनी अनुभवों से मर्दानगी के बारे में क्या सीख रहे हैं? पुरुषों और मर्दानगी (गियों) पर काम करने के लिए नारीवादी शिक्षण पद्धती (पेडागॉजी) कैसे खुदमें फेर-बदल करती है? जैसे कि जब आप लड़कों से भरे हुए किसी कमरे में घुसते हैं तो जेंडर या यौनिकता या मर्दानगी (गियों) के बारे में उन्हें सिखाने का जो लक्ष्य आप सोचकर जाते हैं उसकी जगह आप खुद और उन्हें क्या सिखाने में सफल हो पाते हैं?

हमने 11 लोगों से बात की, जिनमें सुविधाएं मुहैया कराने वाले (फैसिलिटेटर), प्रशिक्षक, फिल्म निर्माता, सिद्धांतकार, अकादमिक आदि शामिल थे, ताकि हम उन विभिन्न तरीकों की शिनाख्त कर पाएं जिनके द्वारा पुरुष एक नई दुनिया में; जहां महिलाएं बदल चुकी हैं, खुद को देखते और महसूस करते हैं. इससे एक बात उजागर हुई कि जेंडर पर काम करना कितना गड़बड़ी या ऐसा जिसमें सारे पहलू मिल-जुले हों, से भरा हो सकता है, और तब जब जिस जेंडर पर आप काम कर रहे हैं वो स्वंय ताकतवर हो.

मर्दानगी के संकट को समझा जा चुका है; लेकिन मर्दानगी पर काम कर रहे प्रशिक्षकों के संकट को नहीं समझा गया है.

सत्ता को क्यों छोड़ा जाए?

वाई.पी. फाउंडेशन के पूर्व डायरेक्टर मानक मटियानी ने इस सवाल के साथ वाई.पी. के समक्ष मर्दानगी के एजेंडे को रखा कि, “मर्दों को बिना अलगाव में डाले जेंडर के कार्यक्रम कैसे उनसे बात करें…” अपनी आखों में एक चौंध लिए वे जोड़ते हैं, “और इस बात के प्रति भी सचेत रहते हुए कि उनके विशेषाधिकार और मज़बूत न हो जाएं?”

यही तो पहला संकट है, क्योंकि युवा महिलाओं के साथ की जानेवाली कार्यशालाएं, सकारात्मक रूप से अपने बारे में बात करने और सशक्तीकरण जैसे पहलूओं पर केंद्रित हैं, उससे ठीक इतर युवा लड़कों के साथ किए जाने वाले सत्र उन्हें सज़ा देने जैसे लगते हैं. जैसा कि मानक कहते हैं, “ये सकारात्मक अनुभवों के ठीक उलट हैं” जिनमें काफी हद तक लगता है कि लड़कों को कैद में रखा गया है और अब उन्हें बताया जाएगा कि उन्होंने क्या गलत किया है. ऐसे में लड़के इस तरह के सत्रों/ मंचों का हिस्सा बनेगें ही क्यों?

“लाख टके का सवाल यह है कि इससे (जेंडर के बारे में सीखने से) मुझे बदले में क्या मिलेगा, क्योंकि एक चीज़ जिससे हम सभी जूंझते हैं कि पुरुषों को अपने विशेषाधिकार छोड़ने होंगे… अगर मैं अपने सभी विशेषाधिकार छोड़ दूं, जिनका फायदा मैं वर्षों से उठाता आ रहा हूं, तो मुझे बदले में क्या मिलेगा? वे कौन से व्यक्तिगत लाभ होंगे जो मुझे मिलेंगे?” मुम्बई स्थित मेन अगेंस्ट वायलेंस एंड एब्यूज़ (मावा) के सचिव और मुख्य कर्ताधर्ता हरीश सदानी कहते हैं.

सेंटर फॉर हेल्थ एंड सोशल जस्टिस (सी.एच.एस.जे.) के प्रबंध संरक्षक अभिजीत दास, जिन्हें मर्दानगी के क्षेत्र में बीते तीन दशकों में सार्वजनिक स्वास्थ्य के ज़रिए हुए हस्तक्षेपों का अनुभव है, तर्क देते हैं कि मर्दानगी की पैरवी करने वालों के लिए “जेंडर समानता” इकलौता लक्ष्य नहीं हो सकता. पहला, वे इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि, अधिकांशतः महिलाओं के साथ किये जाने वाले कार्यक्रमों में अक्सर सिर्फ उनके हाशियाकरण या उनकी उपेक्षा पर ध्यान दिया जाता है, इसके मुकाबले पुरुषों के साथ काम करने के दौरान हमेशा यह समझा जाता है कि वे अपने विशेषाधिकारों के साथ आएंगे. मर्दानगी पर विकास क्षेत्र के द्वारा किए जाने वाले काम विशुद्ध रूप से गरीबी-आधारित कार्यक्रम मालूम पड़ते हैं जो कि ग्रामीण इलाके और/अथवा वंचित जाति/वर्ग से आने वाले पुरुषों से जुड़ा है. ऐसे में इन पुरुषों के पास जेंडर संबंधी विशेषाधिकार तो हैं लेकिन दूसरी ओर ये रोज़ाना जाति और/अथवा वर्ग के कारण दमन का शिकार होते हैं (वैसे, यह स्थिति तब अलग होती जब विकास क्षेत्र के यह कार्यक्रम सवर्ण, उच्चवर्गीय सिस-विषमलैंगिक पुरुषों के साथ चल रहे होते हैं, हालांकि तब इसकी अपनी चुनौतियां होती हैं). इस तरह से विशेषाधिकार के साथ हमेशा अधीनता की भावना मौजूद रहती है. वे कहते हैं कि, “महज़ मर्दानगी ही नहीं बल्कि किसी भी तरह की समानता पर किए जा रहे काम के दौरान आपको विशेषाधिकार को समझना ज़रूरी है क्योंकि समानता किसी भी अधीन समूह का इकलौता हित नहीं हो सकती. ऐतिहासिक रूप से भी अधीन सामाजिक समूहों ने ही समानता की मांग की है. लेकिन जब समानता महज़ अधीन समूह की ही सामाजिक आकांक्षा होगी तो फिर असल में समानता कहां है?”

पर, जब लड़कों से विशुद्ध रूप से यह उम्मीद की जाएगी कि वे सत्ता छोड़ दें, तो…

… लड़के इस प्रक्रिया में शामिल ही क्यों होंगें?

जैसा कि मानक कहते हैं कि, “पितृसत्तात्मक मर्दानगी के हिसाब से काम करने के एवज़ में एक तरह से असली फायदे मिलते हैं… मैं कैसे जाकर लड़कों से यह कहूं कि भाई अपने को इस तरह के दबाव में मत रखो (और जो फायदे मिल रहे हैं उसे लेने से बचो)?” जेंडर लैब के सह-संस्थापक अक्षत सिंघल कहते हैं कि, “बतौर मर्द हमारे लिए यह बहुत आसान और आरामदेह है कि वर्तमान में मौजूद ढांचों के साथ जुड़े रहें. यह हमारे लिए बेहद आसान है कि बगैर सवाल पूछे चुपचाप सब करते रहें क्योंकि इससे कोई समस्या नहीं आएगी. क्योंकि ज्यों ही मैं लड़कों के सामने उनकी ताकत और विशेषाधिकार पर सवाल उठाउंगा तब उन्हें खुद पर काम करना पड़ेगा और उसकी अलग कीमत होगी. खुद पर काम करना इतना आसान नहीं होता. उन्हें एक स्तर पर आने के बाद वह सब कुछ छोड़ना पड़ेगा जो उन्हें विरासत में मिल रहा था.”

लेकिन क्या वर्तमान में मौजूद ढांचा लड़कों और मर्दों के लिए सुचारु रूप से काम कर रहा है? हरीश अपने स्कूल के दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि, “मैं उस वक्त अकेला और तनावग्रस्त रहा करता था” क्योंकि मुझे “नाज़ुक और लड़कियों के जैसा” होने की वजह से छेड़ा जाता और ताने मारे जाते थे. नियम कायदों से हटकर जीने वाले मर्दों (सिस-विषम हों या नहीं) का अपना अकेलापन है और अति मर्दवादी पुरुषों का अपना अकेलापन है जिसकी वजह से वे कभी सार्थक रिश्ते नहीं बना पाते हैं. जहां एक ओर नारीवादी पैरवी महिलाओं को सामूहिकता, दोस्ती, और एकजुटता का भाव मुहैया कराती है वहीं दूसरी ओर इस देश के युवा मर्दों को यह सिर्फ़ और सिर्फ़ अकेलापन ही दे पाती है. यह बात न सिर्फ़ हमें साक्षात्कार देने वाले प्रशिक्षकों के अनुसार सही है बल्कि युवा संस्था द्वारा 50 भारतीय शहरों के लगभग 100 कॉलेजों में किए गए सर्वेक्षण से भी यही बात सामने निकलकर आती है. (यह अध्ययन 2022 में मुम्बई स्थित रोहिणी निलेकनी, लोकोपकार – फिलैन्थ्रपिस की संस्था द्वारा आयोजित ‘बिल्ड टुगेदर: जेंडर एंड मैस्क्युलिनिटीज़ सम्मेलन’ में युवा द्वारा प्रस्तुत किया गया था.)

युवा संस्था के मुख्य कार्यकारी अधिकारी और संस्थापक निखिल तनेजा कहते हैं कि, “ऐसा क्यों है कि अधिकतर लड़कों द्वारा लड़कियों के प्रति दर्शाया जाने वाला इकलौता भाव प्रेम ही है? क्योंकि यही वह भाव है जिसे दर्शाने की उन्हें अनुमति है. वे हमेशा प्रेम और दिल टूटने की ही बात करते हैं क्योंकि उदासी जताने का यही एकमात्र रास्ता उन्हें दिखाई पड़ता है.” दिल टूटना एक आम बहाना है जिसके ज़रिये मर्द संगठित हो सकते हैं.

ऑस्ट्रेलियाई समाजशास्त्री आर. डब्ल्यू. कॉनेल के मर्दवाद के सिद्धांत से प्रभावित होकर मानक, इस काम के सैद्धांतिक आधार की व्याख्या करते हैं और कहते हैं कि,

“मर्दानगी को आमतौर पर सत्ता तक पहुंच या सत्ता की धुरी समझा जाता है जबकि असल में वह सत्ता की अपेक्षा है. आपसे यह अपेक्षा की जाती है कि आप हमेशा ताकतवर रहें… जबकि मर्दानगी का अनुभव बताता है कि असल में ऐसा है नहीं!”

मर्दों के सत्ता के उनके अनुभव और सत्ता की अपेक्षाओं में ज़मीन-आसमान का फ़र्क है. मर्दों के विभिन्न समूह इस फ़र्क को अलग-अलग तरीके से अनुभव करते हैं जो कि इस बात से तय होता है कि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की सीढ़ी में उनका स्थान कहां है और यही वह वजह है जिससे भिन्न-भिन्न किस्म की मर्दानगियों का उदय होता है. यानी मर्दानगी का संकट शायद तब सामने आता है जब पितृसत्ता सता के अपने वादे से मुकर जाती है.

प्रशिक्षक, जेंडर और मर्दानगी पर बातचीत की कई भिन्न-भिन्न तरीकों से शुरुआत करते हैं, जैसे- यौनिक एवं प्रजनन स्वास्थ्य, यौनिकता, रोमांस, और कई मामलों में मर्दानगी के प्रचलित विचार से ही. मानक, के एक सत्र में बातचीत इस सवाल से शुरू होती है कि “आप ‘कूल’ से क्या समझते हैं और क्या आप खुद को एक कूल इंसान मानते हैं?” बिना जेंडर और मर्दानगी का ज़िक्र किए यह सवाल मर्दानगी के प्रति असुरक्षाओं की ओर स्वतः ही ध्यान ले जाता है. मानक इसे ‘आत्म-छवि की खोज’ का नाम देते हैं- जिसमें बाहर की ओर देखने से पहले खुद के अंदर झांकने से शुरुआत होती है.

‘मर्दों वाली बात’ नामक अपने कार्यक्रम पर आई प्रतिक्रिया के बारे में वे बताते हैं कि, “जो पहला पोस्टर हमने एक कॉलेज में लगाया उसपर सुपरमैन की फोटो के साथ ‘मर्दानगी क्या होती है’ लिखकर एक प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दिया और उस कार्यक्रम में ऐसे बहुत सारे लड़के आए क्योंकि उन्हें इस सवाल का जवाब चाहिए था! उनका मानना था कि “हां, हम जानना चाहते हैं कि मर्दानगी क्या होती है ताकि हम इसे ढंग से निभा पाएं.”

शिक्षा और मनोरंजन दोनों ही क्षेत्रों में काम करने का अनुभव लिए हुए निखिल यह बात जानते हैं कि हास्य एक ऐसा माध्यम है जिससे लोगों को निहत्था करने में आसानी होती है. “मैं एक कहानी से बात शुरू करता हूं और उन्हें बातचीत में शामिल करता हूं ताकि वे यह न समझें कि, यह इंसान सिर्फ़ हमें उपदेश देने, पकाने और यहां तक कि चुनौती देने के लिए आया है…” जितनी जल्दी वे बातचीत में शामिल हो जाते हैं तब वह अपनी एक सधी हुई असुरक्षा उनके सामने रखते हैं, जैसे कि पैनिक अटैक की कोई घटना. निखिल के अनुसार, अगर आप चाहते हैं कि लड़के आपसे खुलें तो आपको उन्हें इतना सम्मान देना होगा ताकि वो आपके सामने अपनी असुरक्षा को ज़ाहिर कर सकें. “मेरा विश्वास है कि कहानियां हमें सिर्फ़ कहानियों की ओर ले जाती हैं और असुरक्षा हमें असुरक्षा की ओर.”

2021 में डॉ. केतकी चौखानी ने मुम्बई में मध्य-वर्गीय और उच्च-वर्गीय विषमलैंगिक लड़कों के साथ एक शोध अध्ययन किया जिसमें उनसे उनकी किशोरावस्था के रोमांस के अनुभवों के बारे में पूछा गया और यह भी पूछा गया कि इसके बारे में उनकी जानकारी के स्रोत क्या हैं. उनके अध्ययन में एक बात उभर कर आई कि अनिश्चितता, यानी परिभाषा की अनुपलब्धता, और रोमांस में ‘विफलता’ किशोरों के लिए बेहद आम अनुभव हैं और यह घटनाएं बहुत कम ही हिंसा का रूप ले पाती हैं, चाहे रिश्ता कितना ही संजीदा क्यों न रहा हो.

“इससे हिंसक मर्द का समूचा विचार ही पूरी तरह से बदल गया. मैंने यह महसूस किया कि उनके भीतर ढेर सारा डर और ढेर सारा ख्याल रखने का भाव मौजूद था. हमारा शुरुआती बिंदु आमतौर पर हिंसा होता है लेकिन क्या हो अगर हम यह बिंदु असुरक्षा रखें? अगर हम अनिश्चितता, विफलता, असुरक्षा, और झिझक को हिंसा से बदल दें तो जेंडर संबंधों का क्या होगा?” इस शोध के दौरान डॉ. केतकी ने यह भी अनुभव किया कि शोध की जगह, धीरे-धीरे ‘थेरेपी’ का रूप ले रही थी. “उन्हें लगता था कि मैं एक मनोवैज्ञानिक हूं और वे इस पूरी प्रक्रिया को ‘थेरेपी की प्रक्रिया’ की ही तरह देखते थे…” इस प्रक्रिया ने उन्हें अपनी किशोरावस्था के दौरान मिली रोमांटिक विफलताओं और अस्वीकार होने के बारे में बोलने में मदद की, जिन्हें अक्सर मर्दानगी की प्रचलित छवियों और समझदारी के अंतर्गत नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है.

और इस तरह प्रशिक्षकों ने पहले आए संकट का जवाब दिया. इस तरह से उन्हें लड़कों को बातचीत के स्तर पर लाने में मदद मिली. उन्होंने लड़कों को इस बात के प्रति आश्वस्त भी किया कि लड़कों की कहानियां उसी तरह सुनी जाएंगी जैसे एक पैडगॉजी वाली जगहों पर सुनी जानी चाहिए और किसी भी तरह से उन्हें पूर्वाग्रह से नहीं देखा जाएगा. लेकिन इससे एक अन्य गहरा संकट उभर कर सामने आया.

दूसरे भाग में हम गम्भीर सवाल से दो चार होंगें: क्या मर्दों द्वारा मर्दानगी पर चिंता करने के लिए महज़ उनकी बातें सुनना, भावनाओं को निकलने का रास्ता देना और साझा करना काफी है?

(लेख में दी महत्त्वपूर्ण जानकारी के लिए निरंतर ट्रस्ट के लर्निंग रिसोर्स सेंटर का साभार)

इस लेख का अनुवाद अभिषेक श्रीवास्‍तव ने किया है.

जूही, शहरी अध्ययन में डिप्लोमा के साथ साहित्यिक और सांस्कृतिक अध्ययन में स्नातक की पढ़ाई पूरी कर चुकी हैं. शोध एवं संपादन में गहरी रूचि रखने वाली जूही, फिलहाल वीडियो संपादन एवं रचनात्मक लेखन के साथ-साथ खाना पकाने के कौशल को भी निखारने में निरंतर कार्यरत हैं. वे पिज़्ज़ा को कभी न नहीं कहतीं और प्रेरणा के लिए अपने बिल्ले ‘गब्बर’ के पास जाती हैं.

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