पिछले कुछ महीनों से हमने शिक्षा विशेषांक में शिक्षा से जुड़ी कई तरह की बातें, विचार, जानकारियां, किस्से-कहानियां आपसे साझा की हैं. विशेषांक के इस अंतिम पढ़ाव में हम बात कर रहे हैं उन फ़िल्मों के बारे में जो शिक्षा से जुड़े कई तरह के पेंच खोलने का काम करती हैं. ये फिल्में अपने समय का दस्तावेज़ हैं और उन मुखर सवालों को पूछने का काम कर रही हैं जिन्हें या तो हम समझ नहीं पाते या जानते हुए भी अनजान बने रहते हैं.
भारत, सिनेमा प्रधान देश है. यहां फ़िल्में बड़े पर्दे तक सीमित नहीं होतीं बल्कि ये हमारी रोज़मर्रा का हिस्सा हैं. फ़िल्में हमारा मनोरंजन करती हैं तो हमें सीख भी देती हैं. वो हमारे सपनों को उड़ान देती है, हमें सपने देखना सिखाती हैं. फ़िल्में हमारी वास्तवकिता का आईना हैं जिसके ज़रिए हम बहुत बार खुद से ही मिल रहे होते हैं. आइए, साथ मिलकर शिक्षा से जुड़ी इन बारह फ़िल्मों को देखते हैं और इसपर बातें करते हैं.
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(निर्देशक- अक्षय प्रदीप इंग्ले / 2021 / मराठी / 10 मिनट)
जानू और वेदू मोबाईल के ज़रिए स्कूल की पढ़ाई कर रहे हैं. यह पहली बार है कि उनका स्कूल ऑनलाइन चल रहा है और वे स्कूल के कपड़ों में तैयार होकर मोबाईल के सामने बैठ जाते हैं. महाराष्ट्र में रहने वाले ये दोनों बच्चे बहुत जिज्ञासु हैं लेकिन कभी-कभी बदमाशियां भी करते हैं. लॉकडाउन की वजह से उनका स्कूल फिलहाल मोबाईल में सिमट गया है. इस नई दुनिया को उनके साथ उनके माता-पिता भी समझने की कोशिश कर रहे हैं.
यह फ़िल्म लॉकडाउन में शुरू हुई ज़ूम कक्षाओं के पीछे की दुनिया को कैमरे में कैद करती है. दो भाई-बहन जानू और वेदू स्कूल के कपड़े पहन, तैयार होकर मोबाईल कैमरे के सामने बैठ प्रार्थना गाते हैं, पढ़ाई करते हैं, पढ़ते-पढ़ते झपकियां आ जाती है तो सो जाते हैं, ज़ूम कॉल में टीचर को चकमा देने के प्लान सुझाते हैं, माता-पिता के साथ मिलकर होमवर्क करते हैं, क्लास के दौरान एक दूसरे को छेड़ना और भी बहुत कुछ. यह फ़िल्म उनके द्वारा की जाने वाली हर हलचलों को कैमरे में कैद करने की कोशिश करती हैं. पर वहीं कैमरा उनके लिए इतना अदृश्य हो जाता है कि परिवार के सभी सदस्य उसके सामने सहज महसूस करते हैं, कभी-कभी उसकी उपस्थिति भी भूल जाते हैं. उदाहरण के लिए, एक दृश्य में जानू चश्मा पहने कैमरे के सामने एक्शन करता दिखाई देता है, वहीं कैमरा घूमता है और एक सरकारी स्कूल के शिक्षक पिता एक व्हाइटबोर्ड के सामने वीडियो बनाते हुए दिखाई देते हैं. एक मध्यवर्गीय मराठी परिवार के घर सेट यह कैमरा उन तमाम घरों की कहानी बन जाता है जहां मोबाईल फोन स्कूल की भूमिका में दिखाई दे रहे थे.
फ़िल्म, अपने कैमरे के ज़रिए एक दूसरे कैमरे के पीछे की दुनिया का जीवंत चित्रण है.
2
(निर्देशक- अभय कुमार / 2014 / हिंग्लिश / 1 घंटा 36 मिनट)
कल्पना कीजिए एक ऐसी दुनिया जिसमें कोई और रंग नहीं, लाल रंग के सिवाय. उस दुनिया में कलात्मक कृतियों को बनाने के लिए इंसान को अपनी नसों को प्रशिक्षित करना पड़ता है.
“दाएं हाथ से लिखने वाले एम्स के डॉक्टर ने बाएं हाथ से लिखकर यूपीएससी की परीक्षा उत्तीर्ण की” जुलाई 2015 में मीडिया में छपी इस खबर के अनुसार “कांच की खिड़की पर हाथ लगने से लगी चोट में उनके दाएं हाथ की मांसपेसियों ने काम करना बंद कर दिया था.” बावजूद इसके डॉ. साहिल ने महीनों मेहनत कर बाएं हाथ से लिखना सीखा और यूपीएससी की परीक्षा में अच्छे रैंक के साथ अब इंडियान फॉरेस्ट सर्विस के लिए चुन लिए गए.
इस खबर के पीछे एक पूरी लंबी कहानी है जो उनके भाई अभय कुमार की डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म ‘प्लेसिबो’ में दिखाई देती है. प्लेसिबो, की कहानी गला काट प्रतिस्पर्धी एम्स (दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान) के परिसर पर आधारित है, लेकिन यह सिर्फ़ एक कॉलेज के बारे में नहीं है.
यह भयंकर दवाब वाले उस शैक्षणिक वातावरण के बारे में है जो छात्रों को अवसाद के रास्ते हिंसा की ओर ले जाती है.
‘प्लेसिबो’ उच्च शिक्षण संस्थानों में बढ़ रही आत्महत्या की घटनाओं, किसी भी तरह के सपोर्ट सिस्टम की कमी और उदासीन प्रशासन पर पड़ी परतों को हटाने का काम करती है.
भाई की चोट के अगले दो साल तक अभय एम्स के परिसर में रहते हुए लड़कों के हॉस्टल और कैंपस के भीतर और बाहर की दुनिया को अपने हैंडिकैम और फोन में कैद करते हैं. वे कैम्पस में होने वाली रैगिंग, जातिगत भेदभाव, प्रशासन की लापरवाही, माता-पिता का दबाव और अंत में साहिल के प्रकरण में भड़की हिंसा के पीछे की कहानी की पड़ताल करते हैं. 2017 में इस फ़िल्म को उत्कृष्ट खोजी फ़िल्म के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
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(निर्देशक- हेमंत गाबा / 2018 / अंग्रेज़ी / 48 मिनट)
कोटा, राजस्थान का एक शहर है जो अपनी इंजीनियरिंग और मेडिकल की कोचिंग के लिए मशहूर है. एक अनुमान के अनुसार देश भर से हर साल 2,50,000 के करीब बच्चे स्नातक प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंग के लिए कोटा पहुंचते हैं. खुद से ज़्यादा अपने माता-पिता के सपनों को अपने कंधे पर उठाए ये बच्चे अपने घरों से हज़ारों किलोमीटर दूर यहां छोटे-छोटे क्यूबिकल जैसे कमरों में रहते हुए दो-तीन वर्षों तक लगातार 15 घंटे पढ़ाई करते हैं.
हेमंत गाबा की फ़िल्म ‘आईआईटी निकालने का सपना लिए’ कोटा आने वाले चार छात्रों के ज़रिए एक ऐसे संस्थान में प्रवेश पाने की कहानी है जिसमें प्रवेश पाने की स्वीकृति दर एक प्रतिशत से भी कम है. फ़िल्म के किरदार या तो किताबों से घिरे होते हैं या क्लासरूम के भीतर पढ़ाई कर रहे होते हैं. उनमें से एक का कहना है कि उसने
“चौथी क्लास के बाद टीवी नहीं देखा है.” तो दूसरा कहता है, “पापा का सपना था इंजीनियर बनने का, वो नहीं बन पाए तो उन्होंने मुझे कहा कि अब तू मेरा सपना पूरा करना.”
पूरी फ़िल्म में डर एक स्थाई भाव है. छात्र कोचिंग संस्थानों, साथियों और परिवार के अत्याधिक दबाव का सामना करते दिखाई देते हैं. कैमरे की विहंगम दृष्टि देखने वाले के लिए यह भ्रम पैदा करती है कि ये हाड-मांस के युवा नहीं बल्कि अलग-अलग फैक्ट्री में तैयार होकर निकलने वाले रोबोट हैं.
4
(निर्देशक- समीना मिश्रा / 2021 / हिंदी / 51 मिनट)
यह दस्तावेज़ी फ़िल्म 2018 में स्कूलों में लागू किए गए हैप्पीनेस करिकूलम के विचार की पड़ताल करती है.
फ़िल्म दिल्ली सरकार के स्कूलों में शुरु किए गए ‘हैप्पीनेस करिकूलम’ के प्रभाव एवं उसके लागू करने के पीछे के विचार को समझने का प्रयास है. शुरुआत में ही फ़िल्म में बच्चों से एक सवाल किया जाता है कि, “क्या खुशियों को पढ़ाया जा सकता है?”
“आंखें बंद करते ही आप स्थिर महसूस करते हैं. ये आपके दिमाग को शांत करने और फालूत की चीज़ों को बाहर करने में मदद करता है.” फ़िल्म में किसी की आवाज़ आती है. हैप्पीनेस करिकूलम चार मुख्य तकनीक पर आधारित है – आसपास की चीज़ों को ध्यानपूर्वक देखते हुए उसे धीरे-धीरे महसूस करना, चिंतनशील कहानियां, मज़ेदार खेल और अभिव्यक्ति जैसी तकनीकों का इस्तेमाल. फ़िल्म में बच्चों के अलावा, उनके माता-पिता, शिक्षक सभी के विचारों को जानने का प्रयास किया गया है. सच ये है कि
खुशियों के मामले में भारत की गिनती विश्व में सबसे निचले पायदान पर होती है. आंकड़े बताते हैं कि यहां 13 से 15 साल की उम्र के हर चार में से एक बच्चा अवसाद का शिकार है.
5
(निर्देशक-आर्य रोथे, इसाबेला रिनाल्डी, क्रिस्टीना हैंस / 2020 / अंग्रेज़ी / 1 घंटा 29 मिनट)
नक्सलियों के साथ लड़ाई में साथ देने के बाद अब सोमी और उसके पति को एक बिना लड़ाई वाली ज़िंदगी की तलाश है जहां उनके बच्चे बड़े हो सकें. आदिवासियों के अधिकारों के लिए दशकों से चली आ रहे हथियार बंद संघर्ष को छोड़ वे दोनों छत्तीसगढ़ पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर देते हैं. तब से अब तक वे अपने बेटे को अच्छी शिक्षा देने और अपने अतीत की हिंसक ज़िंदगी से दूर एक आम नागरिक की तरह समाज में घुल-मिल जाना चाहते हैं. अपने अधिकारों की लड़ाई से दूर नई ज़िंदगी की इन पेचीदगियों के बीच कभी-कभी उन्हें यह भी लगता है कि क्या उनका निर्णय सही था?
क्रांति के दूसरी तरफ की दुनिया कैसी होती है? आप नए सिरे से कैसे शुरुआत करते हैं? 2017 से 2019 के बीच फ़िल्माई गई यह फ़िल्म एक पूर्व नक्सलाइट पति-पत्नी द्वारा नई शुरुआत की यात्रा को कैमरे की नज़र से देखने की कोशिश करती है. महाराष्ट्र में पुर्नवासित कॉलोनी में समर्पण कर चुके दूसरे नक्सली परिवारों के साथ रहते हुए सोमी और सुखराम को मालूम है कि शिक्षा ही वो हथियार है जो उनके बच्चों को उनकी वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों से बाहर निकाल सकता है. लेकिन, कब वे नौकरशाही के जंजाल में बुरी तरह फंसते चले जाते हैं उन्हें भी पता नहीं चलता.
कागज़ का एक टुकड़ा - स्कूल में अपने 6 साल के बच्चे के दाखिले के लिए ज़रूरी जाति प्रमाण पत्र प्राप्त करना उनके जीवन की असल बाधा बनकर उभरता है.
तसल्लीबक्श और बिना टेक के अपने लंबे दृश्यों के ज़रिए फ़िल्म दर्शकों को अपने मोहपाश में बांध लेती है.
इस फ़िल्म को मूबी (MUBI) के प्लेटफॉर्म पर देखा जा सकता है.
6
(निर्देशक-अश्विनी अय्यर तिवारी / 2016 / हिंदी / 1 घंटा 40 मिनट)
अपेक्षा, दसवीं कक्षा में पढ़ाई कर रही है. पर, पढ़ाई में उसकी बिलकुल रूचि नहीं है. उसे लगता है कि बड़े होकर उसे भी अपनी मां की तरह ही घरों में काम करना है तो पढ़कर क्या हो जाएगा. इस समस्या से जूझने के लिए उसकी मां उसकी ही क्लास में दाखिला लेकर उसे प्रेरित करने की सोचती है.
फ़िल्म में तीन महिलाओं का किरदार एक दूसरे से जुड़ा हुआ है – दृढ़ निश्चयी घरेलू श्रमिक चंदा सहाय (स्वरा भास्कर अभिनीत), अधेड़वय सभ्रांत मालकिन दीदी (रत्ना पाठक शाह अभिनीत) और बेपरवाह किशोरवय बेटी अपेक्षा (रिया शुक्ला). संभवतः यह मुख्यधारा सिनेमा की गिनती की फ़िल्मों में शामिल है जो महिलाओं की प्रौढ़ शिक्षा के विषय पर बनाई गई हैं. चंदा पढ़ना चाहती थी लेकिन उसे हाई स्कूल पास करने से पहले ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी. वो जानती है कि शिक्षा एकमात्र साधन है जिसके ज़रिए उसकी बेटी अपनी वर्तमान स्थितियों से बाहर निकल एक बड़ी अफसर बन सकती है. पर,
बेटी यह मान चुकी है कि उसके भाग्य में भी मां की तरह घरेलू कामगार बनना ही लिखा है तो पढ़ाई के चक्कर में मस्ती का समय क्यों खराब करे.
परेशान चंदा, हर हालात में बेटी को पढ़ने की तरफ मोड़ना चाहती है. इसके लिए चंदा ने जो किया वो आज एक मिसाल है. साथ ही वह एक आदर्श है इसके लिए भी कि पढ़ाई की कोई उम्र नहीं होती.
नोट – इसके साथ ही हम आपकी मुलाकात नेपाल की उन महिलाओं से करवाना चाहते हैं जिन्हें पढ़ने का इतना शौक है कि वे बच्चों के साथ उनकी क्लास में बैठकर पढ़ाई कर रही हैं. ये दादी-नानी-परदादियां हैं और पूरी शान से अपने पोते के साथ उसके स्कूल में पढ़ती हैं. नेपाल से द थर्ड आई एडू लोग शुवांगी ने उनके जीवन के इन शानदार पलों को अपने कैमरे में कैद किया है. शुवांगी की फ़िल्म बहुत जल्द ही तैयार होने वाली है. इस बीच उन्होंने इन महिलाओं के साथ अपने अनुभवों को एक लेख के ज़रिए साझा किया है. पढ़िए शुवांगी का लेख यहां.
7
(निर्देशक- नील माधब पंडा / 2011 / हिंदी / 1 घंटा 28 मिनट )
यह फिल्म ‘मेरिट’ के समर्थन में दिए जाने वाले तर्कों और आरक्षण की व्यवस्था का असल मतलब समझाती है.
छोटू की मां जानती है कि वो पढ़ने में बहुत होशियार है. लेकिन फिर भी आर्थिक तंगी की वजह से वो उसे ढाबे के काम में लगा देती है. छोटू, ढाबे वाली सड़क के दूसरी तरफ़ बने एक महलनुमा घर में चाय और खाना पहुंचाने जाया करता है. वहीं, उसकी मुलाकात उस घर के कुंवर रणविजय से होती है. रणविजय की उम्र भी छोटू जितनी ही है पर वो स्कूल जाता है और फर्राटेदार अंग्रेज़ी भी बोलता है. एक संवाद में दोनों बात करते हुए एक दूसरे से पूछते हैं –
‘आपको अंग्रेज़ी नहीं आती क्या?' 'तेरेको पेड़ पर चढ़ना आता है?’. ‘हमें घोड़े पर चढ़ना आता है. आपको घुड़सवारी आती है?’ ‘मेरेको ऊंट पर चढ़ना आता है. तेरेको क्या ऊंट की दवा करनी आती है?’
आगे ऐसे ही मज़ेदार संवाद के बाद दोनों के बीच एक समझौता होता है कि छोटू, रणविजय को पेड़ पर चढ़ना सिखाएगा और रणविजय उसे अंग्रेज़ी बोलना. शिक्षा तक पहुंच किसकी है? किसका अनुभव हमारे ज्ञान का आधार बनती है? जैसे शिक्षा से जुड़े महत्त्वपूर्ण सवालों का जवाब यह फ़िल्म बच्चों की भोली लेकिन सजग दुनिया के ज़रिए देने की कोशिश करती है.
रणविजय से बहुत सारे महान लोगों के बारे में जानने के क्रम में छोटू वैज्ञानिक और पूर्व राष्ट्रपति अबुल कलाम के जीवन से बहुत प्रभावित होता है. वह अपना नाम बदलकर कलाम रख लेता है.
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(निर्देशक- अनुपमा श्रीनिवासन / 2021 / हिंदी / 1 घंटा)
यह फ़िल्म राजस्थान के ग्रामीण आदिवासी क्षेत्र डूंगरपुर के एक स्कूल में पढ़ने आने वाले बच्चों और उनके परिवेश के ज़रिए शिक्षा तक उनकी पहुंच की मुश्किलों को सामने लाती है. क्या तुम आज स्कूल जाओगे? यह प्रश्न न सिर्फ़ बच्चों बल्कि शिक्षकों और अभिभावकों के लिए भी एक बड़ा सवाल है.
यहां, स्कूल में पढ़ने आने वाले बच्चे सिर्फ़ पढ़ाई नहीं करते, बल्कि वो घर के कामों में मदद भी करते हैं और साथ ही मज़दूरी भी करते हैं. फ़िल्म, कैमरे के ज़रिए स्कूल के घंटों के बाहर की उनकी दुनिया को हमारे सामने लाती है.
अनुपमा, अपने कैमरे के ज़रिए अभिभावकों, शिक्षकों और बच्चों से यह जानने की कोशिश करती हैं कि स्कूल उनके लिए क्या है? यहां हर बच्चे की अपनी कहानियां हैं जो किताबों में पढ़ाई जाने वाली कहानियों से बहुत अलग है. अनुपमा, उन महिलाओं से भी बात करती हैं जो घरों में काम करती हैं. उनके पास स्कूल से जुड़ी उनकी खुद की स्मृतियां हैं जिसे वो खजाने की तरह सहेज कर रखती हैं और कभी-कभी बाहर निकालकर खुश होती हैं.
नोट- द थर्ड आई में टीचर टॉक्स शृंखला भी कुछ इसी तरह स्कूल के भीतर और बाहर की दुनिया के बारे में बात करती है. देखें यहां.
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(निर्देशक- अमोल पालेकर / 2000 / मराठी / 1 घंटा 30 मिनट)
बहन की मृत्यु के बाद तानी अपनी बहन की बेटी को अपने घर ले आती है. और उसका दाखिला एक स्कूल में करा देती है. छोटी बच्ची के घर आने से तानी का पति बिलकुल खुश नहीं है लेकिन, वो दृढ़निश्चयी है कि वो बच्ची को पढ़ा कर रहेगी.
अन्य सामाजिक मुद्दों पर बनी फ़िल्म श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त यह फ़ि्ल्म स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के सहयोग से निर्मित है. यह मराठी लेखक जी.ए. कुलकर्णी की एक लघु कथा पर आधारित है.
फ़िल्म, एक बच्ची की नज़र से आने वाले समय की कहानी कहती है. उसी समय यह बहन को खोने के तानी के दुख और अपनी भांजी के साथ रिश्ते में धीरे-धीरे आती प्रगाढ़ता को भी मार्मिक ढंग से सामने लाती है.
तानी (शिल्पा नवलकर द्वारा अभिनीत) ने अपनी भांजी (योगिता देशमुख) का दाखिला एक ऐसे स्कूल में करावाया है जहां क्लास में वह अकेली लड़की है. ज़ाहिर है कक्षा में लड़कों की ही चलती है. लेकिन, अपने हुनर से बच्ची जल्द ही लड़कों के क्लब की लीडर बन जाती है. एक दिन स्कर्ट पर लगे इंक के निशान को छुपाने के लिए उस जगह तितली का स्टीकर लगाकर स्कूल पहुंच जाती है. अगले ही पल पूरी कक्षा जानवरों के स्टीकर से भरी पड़ी होती है. बच्ची के लिए तानी मासी है दुनिया में सबसे ज़्यादा प्यारी. पर, जल्द ही बच्ची को स्कूल छोड़ना पड़ता है. कारणों को जानने के लिए इस फ़िल्म को ज़रूर देखें.
10
(निर्देशक- सीबी मल्याली/ 1986/ मलयालम )
फर्ज़ी डिग्री हासिल करने के बाद, दिवाकरन भ्रष्ट लोगों द्वारा चलाए जा रहे एक सरकारी स्कूल में पढ़ाने का फैसला करता है. लेकिन, जब वो देखता है कि स्कूल में बच्चे पीड़ित हैं तो वह व्यवस्था को बदलने का फैसला करता है.
दिवाकरन के पास कोई काम नहीं है. उसके पिता एक स्कूल टीचर हैं. पर दिवाकरन, पहले तो चौरी करता है (उसने पहले तो अपनी बहन की सोने की चेन चुराई) और फिर धोखाधड़ी (वह नकली टीचर ट्रेनिंग सर्टिफिकेट खरीदता है). नकली प्रमाणपत्र के साथ, वह एक छोटे से गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ाने जाता है. उसे विश्वास है कि वह, वहां छोटे बच्चों को पढ़ाने में कामयाब हो सकता है. पर, स्कूल का प्रबंधन पूरी तरह भ्रष्ट है और जल्द ही दिवाकरन को समझ आ जाता है कि वह कहां खड़ा है.
सुजाता, स्कूल में मिड-डे मील बनाने का काम करती है, उसे पता चल जाता है कि दिवाकरन धोखेबाज़ है. अब दिवाकरन क्या करेगा?
फ़िल्म में कई मज़ेदार दृश्य हैं. लेकिन, सबसे खास एक दृश्य में दिवाकरन (मोहनलाल द्वारा अभिनीत) ‘उपमा’ का अंग्रेज़ी अनुवाद करने की कोशिश करता है और घूमते-फिरते वो ‘साल्ट मैंगो ट्री’ पर आकर पहुंचता है. इस मुहावरे ने बाद के समय में बहुत ख्याति हासिल की. इसी के आधार पर 2015 में शैक्षणिक आकांक्षाओं पर आधारित एक मलयालम फ़िल्म भी बनी जिसका हिंदी रीमेक 2017 में हिंदी मीडियम के रूप में सामने आया.
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(निर्देशक- ए सरकुनम / 2011 / तमिल / 2 घंटा 3 मिनट)
वेलुथम्बी हमेशा से सरकारी नौकरी की चाहत रखता है. इस बीच वो एक गांव में गरीब बच्चों को पढ़ाना शुरू करता है. लेकिन, जब उसे ये पता चलता है कि उन्हें बतौर बंधुआ मज़दूर नियुक्त किया गया है, तो वह बदलाव लाने का फैसला करता है.
1960 के तमिलनाडु में स्थित यह फ़िल्म कहानी है एक ऐसे समुदाय की जहां कोई स्कूल नहीं और एक दिन वहां एक नौजवान उनके बच्चों को पढ़ाने पहुंचता है.
वेलुथम्बी (विमल द्वारा अभिनीत) सरकारी नौकरी करना चाहता है. मगर सरकारी नौकरी मिलने से पहले वह एक एनजीओ के साथ साक्षरता कार्यक्रम में बतौर शिक्षक अपना समय देने का फैसला करता है. इस कार्यक्रम के अंतर्गत उसे पुड्डुकोट्टई के एक बहुत ही सूखे और छोटे से गांव भेजा जाता है, जहां हर कोई स्थानीय ईंट भट्ठे में काम करता है. गांववालों में से किसी के पास इतना समय नहीं था कि वे वेलू की तरफ ध्यान दे सकें या रूचि लें. आखिरकार, वेलू परिस्थितियों को बदलने में कामयाब होता है और गांववालों को यह समझा पाता है कि उनके बच्चों के लिए शिक्षा कितनी ज़रूरी चीज़ है? पूरी फ़िल्म इसी पर आधारित है. इस फिल्म को अपने संगीत और ऐतिहासिक विवरणों के लिए बहुत सराहना मिली थी.
फिलहाल यह फ़िल्म प्राइम वीडियो पर उपलब्ध है.
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(निर्देशक- पायल कपाड़िया / 2021 / अंग्रज़ी /1 घंटा 39 मिनट)
फ़िल्म और टेलीविज़न संस्थान की एक छात्रा दूर अपने प्रेमी को संस्थान में हो रहे बदलावों और छात्र आंदोलनों के बारे में बताते हुए खत लिखती है. प्रेमी कहीं दूर है और दोनों ही एक अनिश्चित रिश्ते को टोह रहे हैं. ठीक उसी समय शिक्षा के एक श्रेष्ठ संस्थान के भीतर छात्र अपनी धुरी तलाशने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं. फ़िल्म समकालीन समय में युवाओं द्वारा अन्याय के खिलाफ खड़े होने की सच्चाई का दस्तावेज़ीकरण है.
‘ए नाइट ऑफ नोइंग नथिंग’ पायल कपाड़िया की पहली डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म है. फिल्म का कथानक ‘भारतीय फ़िल्म और टेलिविज़न संस्थान (Film and Television Institute of India, FTII)’ के भीतर हुए छात्र संघर्ष पर आधारित है. लेकिन, यह सिर्फ़ इस एक संस्थान की कहानी नहीं है बल्कि यह वर्तमान समय में भारत के सभी युवाओं की आवाज़ है. पायल कपाड़िया ने एफटीआईआई की एक छात्रा द्वारा अपने प्रेमी को लिखे पत्रों के ज़रिए छात्र जीवन की सबसे कठोर सच्चाई को पर्दे के सामने रखा है. यहां कल्पना और वास्तविकता एक दूसरे में गड़मड़ होते जाते हैं. बहुत करीने से ऐतिहासिक अभिलेखों वाले दृश्यों और कैंपस में हो रहे छात्र संघर्षों के वीडियो को बुनते हुए यह फ़िल्म हमारा हाथ पकड़ हमें न सिर्फ़ एफटीआईआई बल्कि देश के अलग-अलग क्षेत्रों के छात्रों के संघर्ष और जीवन की स्याह सच्चाई से रू-ब-रू करवाती है.
इस लेख का अनुवाद सुमन परमार ने किया है.