लेख में प्रकाशित तस्वीरें सबसे पहले फर्स्टपोस्ट.कॉम (Firstpost.com) पर प्रकाशित हो चुकी हैं. सभी तस्वीरें फेमिनिस्ट फ़ोटोग्राफ़र एवं पीएचडी स्कॉलर संजुक्ता बसु द्वारा 5 शहरों में किए गए ‘जेंडर एवं पब्लिक स्पेस प्रोजेक्ट’ का हिस्सा हैं. इस प्रोजेक्ट के सिलसिले में बसु ने पांच भारतीय महानगरों की यात्रा कर महिलाओं द्वारा सार्वजनिक स्थानों तक उनकी पहुंच का दस्तावेज़ीकरण करने का प्रयास किया है. प्रोजेक्ट के सिलसिले में अधिक जानकारी के लिए इस लिंक पर संपर्क करें.
दुनिया भर में, शहरों को पुरुषों द्वारा पुरुषों के लिए डिज़ाइन किया गया है. और वो भी एक ख़ास तरह के पुरूषों के लिए जो – जवान, स्वस्थ और सिस-जेंडर हैं. इस कारण महिलाएं – युवा हों या बुज़ुर्ग, ट्रांसजेंडर समुदाय, और जेंडर के नियमों से परे किसी भी अन्य को – जो हट्टे कट्टे पुरुषों के इस सजातीय समूह में फिट नहीं होते – कई तरह की दिक्क़तों का सामना करना पड़ता है. दुनिया भर में, जैसे-जैसे शहरों ने इन सीमाओं को समझना शुरू किया है, शहरों की एक छोटी लेकिन बदलती हुई संख्या ने चीज़ों को अलग तरीके से करने के लिए प्रयोग करना शुरू कर दिया है, जिसके कभी-कभी बड़े ही हैरतअंगेज़ नतीजे सामने आए हैं.
उदाहरण के लिए, 1990 के दशक के मध्य में वियना शहर में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि बास्केटबॉल कोर्ट जैसे सार्वजनिक खेल क्षेत्रों पर लड़कों का कब्ज़ा था, और लड़कियां वहां नहीं खेल पाती थीं. फिर वहां एक प्रयोग किया गया. बड़े पार्कों को कई स्थानों में विभाजित करके, और बेंचों के साथ अधिक महिला-अनुकूल स्थान बनाए गए, जो उन लड़कियों को आकर्षित करते हैं जो अपने दोस्तों के साथ घूमना और वक़्त बिताना चाहती हैं. इसके साथ लड़कियों के लिए बैडमिंटन और वॉलीबॉल कोर्ट जैसे वैकल्पिक खेल क्षेत्र बनाकर, वे ऐसे सार्वजनिक स्थलों के निर्माण में सक्षम हुए, जहां लड़कियां भी लड़कों की तरह सहज महसूस कर सकें. जेंडर मेनस्ट्रीमिंग का उपयोग करते हुए 60 से अधिक पहलों अथवा प्रस्तावों को अंजाम तक पहुंचाने के लिए विएना ने साल 2006 से जेंडर बजटिंग भी शुरू की है. इस तरह की पहलों में सड़कों पर रौशनी के लिए स्ट्रीट लाइटिंग प्रोजेक्ट, महिलाओं के लिए, महिलाओं द्वारा डिज़ाइन किए गए सामाजिक आवास और अपार्टमेंट कॉम्प्लेक्स और छोटे-छोटे रास्तों और गलियों में आईना लगाकर सुरक्षा को बेहतर बनाना शामिल है.
यह जानने के लिए कि लड़कियां अपने खेल क्षेत्रों का उतना उपयोग क्यों नहीं कर पातीं, जितना कि लड़के अपने खेल क्षेत्रों का करते हैं, स्वीडन की एक वास्तुशिल्प फर्म ने लड़कियों के साथ गहन चर्चा करने के बाद पाया कि वे चाहती थीं कि “उनकी जगह अन्य लोगों के करीब ही हो लेकिन भीड़ के केन्द्र में न हो, ताकि उन्हें पता रहे कि कौन उन्हें देख रहा है और ऐसा भी न हो कि मैदान के ठीक बीच में होने से लोग उन्हें घूरते रहें.” दुर्भाग्यवश, फर्म ने महसूस किया कि वे एक भी ऐसी परियोजना के बारे में नहीं सोच पाए, जहां विशेष रूप से युवा लड़कियों के उपयोग के लिए उन्हीं के परामर्श से शहरी जगहें डिज़ाइन की गई हों.
दरअसल, दुनिया भर में वास्तुकला और शहरी नियोजन में उच्च पदों पर महिलाएं आमतौर पर सिर्फ़ 10 फीसदी हैं, यह एक डरावना आंकड़ा है जो हमें बताता है कि शहरों की बनावट महिलाओं के लिए इतनी ख़राब क्यों हैं.
पूर्वाग्रह की जड़ें कहीं अधिक गहरी हैं. सार्वजनिक डेटासेट जो योजनाकारों को सूचित रखते हैं, जैसे कि ओपन सोर्स गूगल मैप्स, शहरों को पुरुष-केंद्रित नज़रिए से ही दर्शाते हैं – इसकी अधिकांश प्रविष्टियां पुरुषों से ही आती हैं. इस प्रकार, महिलाओं के लिए महत्त्वपूर्ण सेवाएं – जैसे अस्पताल, शिशु देखभाल केंद्र और घरेलू हिंसा केंद्र – अक्सर मैप से गायब ही रहते हैं. महिला कार्यकर्ता समूह यहां अहम भूमिका निभा सकते हैं. सेफ्टीपिन, एक संगठन है जो दिल्ली में शुरू हुआ था. यह दिल्ली और भोपाल जैसे शहरों में महिलाओं के लिए असुरक्षित क्षेत्रों के नक्शे तैयार करने के लिए महिलाओं के क्राउड-सोर्स से इकट्ठा डेटा का उपयोग करता है, जो महिलाओं के लिए सार्वजनिक स्थलों को रात में भी सुरक्षित बनाने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी भागीदारों के साथ मिलकर काम करता है. इसी तरह जियोचिकास, 2016 में मेक्सिको में बनाया गया एक समूह है, जो मैपिंग कार्यक्रम आयोजित करता है ताकि लैटिन अमेरिका में जेंडर-आधारित हिंसा का सामना करने वाली महिलाओं को मदद के लिए कहां जाना है, इस बारे में वे सुरक्षित और विश्वसनीय जानकारी हासिल कर सकें. इसका विस्तार अब लैटिन अमेरिका और यूरोप के 22 देशों में हो चुका है.
ऐसे नारीवादी दृष्टिकोण, जो महिलाओं के साथ मिलकर सुरक्षित शहरों का निर्माण करना चाहते हैं, वे महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा की घटनाओं की प्रतिक्रिया स्वरूप भारतीय शहर प्रशासन के कार्यों से बिल्कुल अलग हैं. प्रशासन का रूझान ज़्यादातर सीसीटीवी कैमरों जैसी ‘स्मार्ट तकनीक’ के इस्तेमाल पर केंद्रित है जबकि ऐसे विचारों पर अमलदारी से महिलाओं का घरों से निकलना और सड़कों पर आना और भी कम हो सकता है. इसके बजाय, सड़कों पर बेहतर रौशनी का इंतज़ाम, और सार्वजनिक जगहों पर सभी के लिए समान रूप से भूमि का उपयोग जैसे साधारण बदलाव, जिससे सड़कों पर अधिक रेहड़ी और फेरीवालों की उपस्थिति की गुंजाइश बनती है, और महिलाओं को पसंद भी आते हैं, शायद ही कभी लागू किए जाते हैं.
भारत के कई शहरों में हमारा शोध प्रकृति स्थल जैसे पार्क, और उन स्थानों तक लोगों के विभिन्न समूहों, पुरुष बनाम महिला, विशेषाधिकार प्राप्त बनाम उत्पीड़ित जाति समूह, अमीर बनाम गरीब, आदि, की पहुंच पर केंद्रित है.
दिल्ली में, पार्क आने वाले लोगों का सर्वेक्षण करते समय, हमने पाया कि महिलाएं पार्कों में अकेले या छोटे समूहों में शायद ही कभी आती हैं.
महिलाओं ने यह बार-बार कहा कि पुरुषों की तुलना में उन्हें बहुत कम वक़्त मिल पाता है, अंतहीन घरेलू ज़िम्मेदारियों के बीच अपने लिए कुछ समय निकालना और हर दिन किसी पार्क में जाना उनके लिए मुश्किल है.
एक महिला ने अपनी ज़िंदगी से जुड़ी एक घटना का ज़िक्र करते हुए बताया कि कैसे वह अपने घर के पास पार्क में मिले दोस्तों पर भरोसा करके घरेलू हिंसा से बच पाई थी. उसने बताया कि पार्क में मिले दोस्तों ने ही उसे सुरक्षित स्थान तक पहुंचने में मदद की थी.
दूसरी महिलाओं ने बताया कि पार्कों में आने-जाने की वजह से उन्होंने शहर में ख़ुद को कम अकेला, कम उदास और कम अलग-थलग महसूस किया.
यह किसी नए शहर में आए अप्रवासियों के लिए विशेष रूप से सच है, जिन्हें अजनबी शहर में नए दोस्त बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. एक महिला ने बताया, “मैं केरल से हूं, हैदराबाद में वहां के हिसाब से पर्याप्त हरियाली नहीं है. मैं जंगलों में पली-बढ़ी हूं – मुझे यहां ज़्यादा लगाव महसूस नहीं होता. लेकिन मैंने सिर्फ़ इस पार्क की वजह से ही यहां पर अपने लिए अपार्टमेंट ख़रीदा है. यही मुझे हैदराबाद में रहने में मदद करता है.” एक अन्य महिला कहती हैं, “जब भी मेरा कहीं बाहर जाने का मन होता है तो मेरा बेटा मुझे यहां ले आता है. मुझे पेड़ और फूल पसंद हैं. मेरा बेटा और बाकी सब अपने काम में व्यस्त हैं. कभी-कभी वे ऑफिस जाते समय मुझे यहां पहुंचा जाते हैं. मुझे यहां रहना अच्छा लगता है, अकेले में भी शायद ही कभी ऊब महसूस होती है.”
वर्ग, जाति, सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक स्थिति भी यह तय करती है कि महिलाएं सार्वजनिक स्थानों, विशेष रूप से प्राकृतिक स्थलों का उपयोग कैसे करती हैं. भारतीय शहरों में, जो कि बेहद असमान स्थान है, भले ही हम महिलाओं को ध्यान में रखते हुए बेहतर सार्वजनिक डिज़ाइन के लिए डेटा क्राउड सोर्स करते हैं, लेकिन इस तरह हम सिर्फ़ उन महिलाओं से डेटा एकत्र कर सकते हैं जो अंग्रेज़ी बोलती हैं, जो ऐप्स का उपयोग कर सकती हैं, जो एक ख़ास तरह से शहर का अनुभव करती हैं. यह बहिष्करण या निषेध के अन्य रूपों में परिणत हो सकता है. उदाहरण के लिए, हैदराबाद में, उच्च आय वाले परिवारों की महिलाओं ने इस विचार का समर्थन किया कि पार्कों में प्रवेश के लिए टिकट लागू किया जाना चाहिए, ताकि पार्क प्रबंधन इकट्ठा होने वाले शुल्क से बेहतर सुरक्षा, बेहतर सुविधा और बेहतर रखरखाव को यक़ीनी बना सके.
वहीं, अन्य महिलाओं ने कहा कि एक बार जब पार्कों ने प्रवेश के लिए शुल्क लेना शुरू किया था तो उन्हें अपने बच्चों को रोज़ाना पार्क में लाना बंद करना पड़ा था. जब पार्क 'अच्छी तरह से' सुरक्षित थे तो पार्क के गार्ड उन्हें मवेशियों के लिए घास, पूजा के लिए फूल और खाना पकाने के लिए सूखी टहनियां इकट्ठा करने से रोकते थे.
बैंगलोर में, एक झील जो कुछ साल पहले तक एक स्थानीय गांव का हिस्सा हुआ करती थी अब शहर ने निगल ली है और अब जॉगिंग और पैदल पथों के साथ एक प्रबंधित शहरी स्थान में तब्दील हो गई है. गांव की एक महिला ने झील से जुड़े अपने पूर्व अनुभवों को कुछ इस तरह बताया, “हम काम करते और गीत गाया करते थे, हमें इसमें खुशी मिलती थी. हम झील के चारों तरफ घूमा करते थे. ऐसा माना जाता था कि कई देवियों के साथ ‘अम्मा’ रात के 12 बजे सरोवर में स्नान करती हैं, हमें वहां एक ख़ास क़िस्म का स्पंदन महसूस होता था. अब तो शाम छह बजे के बाद ही महिलाओं को झील से बाहर निकाल दिया जाता है. तब मेरे गांव में महिलाएं कोल्लता (छड़ी लोक नृत्य) किया करती थीं. यह हमें खुशी देता था, इससे काम का बोझ कम होता और हमें आनंद मिलता था. हर कोई अपने खेत की उपज का थोड़ा सा हिस्सा दान करता और सामूहिक पूजा होती थी और गांव में सभी को प्रसाद बांटा जाता था.”
एक अन्य महिला ने पुरानी यादें ताज़ा करते हुए बताया, “जब झील पानी से लबालब भर जाती थी, तो हम दीये जलाते थे, एक मेमने की बलि देते और वहीं खाना बनाया करते थे. हम झील के किनारे ही खाना खाते और जश्न मनाते थे. अच्छी फसल होने पर भी हम ऐसा ही किया करते थे. जिसके पास अपनी ज़मीन थी, वह झील के पानी से अपने खेत की सिंचाई करता था. हम झील के आसपास उगने वाले साग भी खाया करते थे. उस समय यह वास्तव में बहुत ही सुंदर हुआ करता था. अगर मेरे पति काम से जल्दी घर वापस आ जाते तो हम दोनों साथ में झील पर जाते. झील को इस तरह देखना एक अलग क़िस्म की अनुभूति से भर दिया करता था. मैंने पिछले 5 वर्षों में एक बार भी झील नहीं देखी है.”
नई तरह से पुनर्निर्मित झीलें वास्तव में सघन आबादी वाले नगरीय शहर के बीचों-बीच एक बहुत ही ख़ूबसूरत, हरी-भरी क्यारी की तरह दिखाई देती हैं. लेकिन अगर उन महिलाओं को ही झील से दूर कर दिया जाए जो पहले इनका इस्तेमाल किया करती थीं, तो ऐसे सुधार अपने आप में अधूरे और बेमानी हैं. हालांकि, शहर के विकास ने कुछ ऐसे प्रतिबंधों को ख़त्म तो किया है जो जातिगत भेदभाव ने वंचित जातियों की महिलाओं पर कायम किए थे. जैसे इन जातियों की महिलाओं को झील में अपने कपड़े धोने की अनुमति नहीं थी. कपड़े धोने के लिए उन्हें कूड़ा-करकट से भरे पानी का इस्तेमाल करने पर मजबूर किया जाता था. उन्हें अपनी गायों को झील के बांध अथवा किनारों पर लाने की इजाज़त नहीं थी – आज, कोई भी उनकी पहुंच को झील के किसी ख़ास हिस्से तक सीमित नहीं कर सकता, वे झील के किसी भी हिस्से का उपयोग कर सकती हैं.
हालांकि उनकी कृषि-भूमि, कुएं, यहां तक कि उनकी पूज्य देवियां भी झील की परिधि से गायब हो गई हैं, और उनका स्थान गंदे नालों की बदबू और ट्रैफिक के कोलाहल समेत सिमेंट, ईंटों, ऊंचे-ऊंचे अपार्टमेंट्स और सड़कों ने ले लिया है.
एक पुनर्निर्मित झील के ठीक बगल में निजी ज़मीन पर नीले प्लास्टिक के तम्बू में रहने वाली एक महिला से जब हमारे साथी ने पूछा कि क्या वह कभी झील की तरफ़ जाती है, तो वह खिलखिला कर हंस पड़ी और उसने जवाब देने के बजाए सवाल पूछा कि क्या हमें लगता है कि उसके पास झील के इर्द-गिर्द जॉगिंग करने का समय है?
इनमें से कई झीलों और पार्कों के किनारों पर स्कूल बने हैं, प्रायः सरकारी स्कूल या सहायता प्राप्त स्कूल, जो कम आय वाले घरों के बच्चों की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं. लोकयोजना (पब्लिक प्लानिंग) की बहिष्करण की प्रकृति यहां सबसे गहरा विभाजन करती है. कई भारतीय शहरों में कार्य-दिवसों पर सुबह 10 बजे से शाम 4 बजे तक पार्क बंद रहते हैं. लिहाज़ा सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे, जिनके पास अक्सर खेलने के लिए जगह और पैसे की कमी होती है, इन स्थानों का उपयोग नहीं कर पाते हैं. स्कूल से लौटने के बाद, सड़कों पर और एक-दूसरे के घरों के अंदर-बाहर धमाचौकड़ी के माध्यम से लड़के तो फिर भी इसकी भरपाई के तरीके खोज सकते हैं. लेकिन लड़कियों की आज़ादी कहीं ज़्यादा प्रतिबंधित हो जाती है. वे स्कूल के बाद सीधे घर आती हैं, और ज़्यादातर वक़्त घर में ही बिताती हैं.
सार्वजनिक पार्कों को बंद करने का मतलब है उन्हें आज़ादी से वंचित करना. इससे भी बदतर यह है कि जब स्कूल के घंटों के दौरान पार्कों और झीलों को बंद रखा जाता है, तो इसका मतलब है कि लड़कियों को अक्सर मासिक धर्म के दौरान सार्वजनिक शौचालयों तक पहुंच से वंचित कर दिया जाता है, और उन्हें पूरे दिन शौचालय जाने से खुद को रोकना पड़ता है. खेलने की जगहों तक पहुंच को भूल जाइए, हम तो युवतियों को बुनियादी स्वच्छता सुविधाओं तक पहुंच से भी महरूम रखते हैं. यह स्थिति शहर के क्रूरतम पक्ष को दर्शाती है.
ऐसे में हरएक लड़की और महिलाओं के लिए सार्वजनिक स्थानों की योजना कैसी बनाई जाए? किशोरावस्था के चरम पर युवा लड़कियां दूसरों की सवालिया और चुभती नज़र से दूर उन्मुक्त जगहों की तलाश करती हैं लेकिन बंद दरवाज़ों, सुरक्षा गार्ड्स और समय पर खुलने-बंद होने जैसे नियमों के द्वारा ऐसे स्थानों से उन्हें बाहर ही रखा जाता है. ग्रामीण बुज़ुर्ग और महिलाओं का झीलों से एक मज़बूत, गहरा और पवित्र सम्बंध है, लेकिन वे इन झीलों को इनके नए अवतार में स्वीकार नहीं कर पाते हैं, क्योंकि उनकी आत्मीय झीलों को, निर्देशों एवं नियमों की लम्बी सूची के साथ मनोरंजक स्थलों में परिवर्तित कर दिया गया है.
प्रवासी श्रमिक परिवारों की महिलाओं को फ़ुर्सत नहीं मिलती है, लेकिन इसकी उन्हें सख़्त ज़रूरत है – क्या कोई ऐसा तरीका हो सकता है जिससे कि उन्हें सार्वजनिक स्थानों पर थोड़ी देर विश्राम करने का मौक़ा मिल सके? और उन महिलाओं के बारे में क्या जिनसे शहर की योजना बनाने वाले शायद सबसे अधिक परिचित हैं – मध्य वर्ग या संपन्न घरों से आने वाली औरतें, जो दिन भर की व्यस्तता के बाद अपने परिवारों के साथ समय बिताने और कुछ एकांत के लिए जगह तलाशती हैं. यहां तक कि वे भी, जिन्हें इस श्रेणी में सबसे अधिक विशेषाधिकार प्राप्त है, ख़ुद को पुरुषों की तुलना में बहुत अधिक वंचित पाती हैं.
इस लेख का अनुवाद अकबर रिज़वी ने किया है.
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लेख
- https://www.downtoearth.org.in/hindistory/development/urbanisation/demand-for-nirbhaya-fearless-city-80727
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- https://www.orfonline.org/hindi/research/cities-for-women-taking-stock-of-gender-sensitive-urban-planning-and-design/
वीडिया
- https://www.youtube.com/watch?v=TpJYd9tYCtM
- https://www.youtube.com/watch?v=7d6awx1E1J8&t=16s
- https://player.vimeo.com/video/141410072
- https://www.ted.com/talks/kamla_bhasin_there_s_miles_to_go_before_you_sleep