क्वीयर घर: बसने-बसाने का काम, भाग-2
क्या ऐसा कोई तरीका हो सकता है कि घर बसाने के इस काम से उस जेंडर पहचान को अलग रखा जाए जिसे ये ‘स्वाभाविक रूप से’ बढ़ावा देता लगता है?
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जहां हम राज्य, कानून, जाति, धर्म, अमीरी–ग़रीबी और परिवार की मिलती बिछड़ती गलियों के बीच से निकलते हैं और उन्हें आंकते हैं. यह समझने की कोशिश करते हैं कि कैसे ये ढांचे अपने आप को नए ढंग और नए रूप से संचित करते हैं, फैलते और पनपते हैं. इस सबमें पितृसत्ता जीवन के अलग–अलग अनुभवों पर कैसे अपनी छाप छोड़ती है.
क्या ऐसा कोई तरीका हो सकता है कि घर बसाने के इस काम से उस जेंडर पहचान को अलग रखा जाए जिसे ये ‘स्वाभाविक रूप से’ बढ़ावा देता लगता है?
कैसा दिखता है या दिखती है एक किसान? आपके मन में इसकी जो छवि उभरी है, मुमकिन है कि यह एक मर्द की छवि हो. यह कहना ठीक है कि यह एक रूढ़ छवि है.
विकलांगता अधिकारों के लिए काम करने वाली जीजा घोष ने कोविड-19 के कारण राष्ट्र स्तर पर हुए लॉकडाउन के दौरान विकलांग समुदाय के लोगों से बातचीत की.
द थर्ड आई के साथ बातचीत में ‘पार्टनर्स फॉर लॉं इन डेवलपमेंट’ की मधु मेहरा सहमति, अस्वीकृति और चाहत को समझने में हमारी मदद कर रही हैं.
घरेलू कामगार औरतों के अधिकारों के लिए संघर्ष करती, उत्तरी दिल्ली स्थित ‘राष्ट्रीय घरेलू कामगार यूनियन’ की संस्थापक, सुनीता रानी से बातचीत.
द थर्ड आई टीम को लॉकडाउन के पहले से ही घर पर होने वाले काम के बंटवारे को लेकर कई सवालों के जवाब पाने की धुन सवार है.