क्वीयर ज़िंदगियां

सलीम_क्वीयर इतिहास

“प्रतिरोध की राजनीति ‘मज़ा’ के बिना अधूरी है.”

सलीम किदवई एक इतिहासकार और स्वतंत्र विद्वान थे, जिन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में बीस वर्षों तक अध्यापन किया है. उन्होंने मध्यकालीन और आधुनिक भारत पर कई अकादमिक निबंध प्रकाशित किए हैं और कई कृतियों का अनुवाद किया है, जिनमें मलका पुखराज द्वारा लिखित “सॉन्ग सुंग ट्रू: ए मेमॉयर” और सैयद रफीक हुसैन की लघु कथाओं का संग्रह “द मिरर ऑफ वंडर्स” शामिल हैं.

“खुद को एक कलाकार के रूप में देखती हूं और कला का मतलब भी तो खुद को शिक्षित करना ही है”

एजेंटस ऑफ़ इश्क के संदर्भ में मैं कहूंगी कि इसका ढांचा कलात्मक है जो कि ज्ञान या जानकारीपरक होने से कहीं ज़्यादा अहम है. लोगों को यह बताना कि आप जो हैं, आप वैसे ही रह सकते हैं, चीज़ें समझ नहीं आ रहीं, कन्फ्यूज़न है तो कोई बात नहीं ऐसा होता है और चलो हम इस पर बात करते हैं.

वह कौन सी भाषा है जिसमें हम सेक्स या सेक्स एजुकेशन के बारे में बात करते हैं?

पारोमिता वोहरा, एक पुरस्कृत फ़िल्म निर्माता और लेखक हैं. जेंडर, नारीवाद, शहरी जीवन, प्रेम, यौनिक इच्छाएं एवं पॉपुलर कल्चर जैसे विषयों पर पारोमिता ने कई डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों का निर्माण किया है जो न सिर्फ़ अपनी फॉर्म बल्कि अपने कंटेंट के लिए बहुत सराही एवं पसंद की जाती हैं. यहां, द थर्ड आई के साथ बातचीत में पारोमिता उस यात्रा के बारे में विस्तार से बता रही हैं जिसमें आगे चलकर एजेंट्स ऑफ़ इश्क की स्थापना हुई. पढ़िए बातचीत का पहला भाग.

एक ट्रांसजेंडर शिक्षक के शिक्षा के अनुभव

डॉ. राजर्षि चक्रवर्ती बर्द्धमान विश्वविद्यालय में इतिहास विषय पढ़ाते हैं और बतौर सहायक प्रोफेसर कार्यरत हैं. इतिहास के एक शिक्षक के रूप में उनकी यात्रा 1999 से शुरू होती है जब उन्होंने कलकत्ता के तिलजला ब्रजनाथ विद्यापीठ में पहली बार पढ़ाना शुरू किया था. राजर्षी 1997 से एलजीबीटीक्यूआई+(LGBTQIA+) आंदोलनों से भी जुड़े हैं.

लव, सेक्स और क्‍लासरूम

पढ़ाई के दौरान हमें पांच बार फोटोसिंथेसिस के बारे में पढ़ना पड़ा. छठी क्लास से ग्यारहवीं तक हर साल लगातार मैं उसकी परिभाषा भूल जाता था इसलिए मुझे फिर से रटना पड़ता था, बावजूद इसके कि फोटोसिंथेसिस का मतलब मैं अच्छे से समझता था. इसी तरह हर साल मुझे बार-बार सीखना पड़ता था कि मेरी क्‍लास के लड़के दूर से ही मेरी हकीकत सूंघ लेते थे.

फिल्मी शहर – सिनेमा में समलैंगिकता

इस मास्टरक्लास के दो भागों में – सिनेमा में समलैंगिकता – विषय पर बातचीत करते हुए फिल्म निर्देशक अविजित मुकुल किशोर ने सिनेमा की भाषा, सही एवं सम्मानजनक शब्दावलियों का अभाव, LGBTQI+ से जुड़े लोगों के संघर्ष एवं अपमान से पहचान की उनकी यात्रा को फिल्मी पर्दे पर उनकी प्रस्तुति के क्रम में देखने की कोशिश की है.

“हमारी ज़िंदगियां दो समांतर रेखाओं की तरह है. हम दोनों की भटकन और तलाश एक जैसी है.”

उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर फतेहपुर के रहने वाले रुहान आतिश अपनी पहचान एक ट्रांसमैन के रूप में देखते हैं. उन्हें कविताएं लिखने का शौक है. वकील होने के साथ-साथ वे एक कार्यकर्ता भी हैं. इस सीरीज़ में रूहान के ‘नक्शा ए मन’ को आकार देने का काम तमिलनाडु की रहने वाली, ट्रांसजेंडर कार्यकर्ता, कवि, उद्धमी, एक्टर एवं प्रेरक वक्ता कल्कि सुब्रमण्यम ने किया है.

कमरा और उसके भीतर की कहानियां

इस नक्शा ए मन में एक ट्रैवल लेखक के साथ एक कलाकार, लेखक के मन के नक्शे को सामने लाने का प्रयास कर रही हैं. “किसी का कमरा बहुत ही व्यक्तिगत जगह होती है. हम चाहते थे कि कुछ ऐसी चीज़ें हों जो किसी को भी दुविधा में डाल दें, किसी को पता न चल पाए कि इस कमरे में रहने वाले का जेंडर, उसकी उम्र, सेक्सुएलिटी क्या है, ऐसे कमरों में किस तरह की बातें होती हैं!”

बदलती निगाहों का शहर

प्रयागराज एक्सप्रेस ने जैसे ही अपनी रफ़्तार धीमी की, मैंने ट्रेन की खिड़की से बाहर का जायज़ा लिया. रेल की पटरियों के दोनों तरफ़ जुगनूओं जैसी टिमटिमाती रौशनी की कतारों को देखकर सर्दी में सुस्त पड़े दिल ने मानो फ़िर से धड़कना शुरू कर दिया.

दिल्ली की सड़कों पर घूमते हुए

शहर जहां अपने लोगों को पहचान देता है वहीं इसकी भीड़ में बहुत आसानी से गुम हुआ जा सकता है. पर, क्या ये सभी के लिए संभव है? क्या होता है जब शहर किसी को अलग-थलग कर दे? क्या शहर का नक्शा हर तरह के व्यवहार और नज़रियों को ज़ेहन में रखकर तैयार किया जाता है?

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