जुबान ने, जो एक नारीवादी प्रकाशक है, भारत के सभी राज्यों से महिला आंदोलनों के पोस्टर जमा करने शुरू किए. ये अभियानों के पोस्टर थे, जिन्हें महिला संगठनों द्वारा गांवों, नगरों, शहरों में बनाकर, डिज़ाइन करके, प्रकाशित किया गया था.
आज, 1500 पोस्टरों वाला ये संग्रह एक्टिविज़्म, नारीवाद और संवैधानिक अधिकारों के लिए सड़कों पर हुए संघर्षों का इतिहास बयान करता है.
द थर्ड आई, प्रस्तुत करता है, ‘द पोस्टर वीमेन प्रोजेक्ट’ से ‘महिला और काम’ पर एक अंश.
जुबान की संस्थापक, उर्वशी बुटालिया, इन पोस्टरों पर वर्षों बाद, एक बार फिर नज़र डाल रही हैं और एक नारीवादी एक्टिविस्ट और प्रकाशक के रूप में काम के अर्थ पर विचार कर रही हैं, “जो काम ही है और उसे यही माना जाना चाहिए, ये कोई स्पष्ट और पवित्र चीज़ नहीं है.”
सहयोग: शामिनी कोठारी
आपका सबसे पहले किस चीज़ पर ध्यान जाता है, जब आप इन पोस्टरों को और इनमें ‘महिला और काम’ के वर्णन को देखती हैं?
अगर आप पोस्टरों की उस श्रृंखला को देखें जिनमें महिलाओं के कई हाथ हैं, तो जानेंगी कि ये हिंदू धर्म में मौजूद कई हाथों वाली देवी पर आधारित हैं. वे शक्ति प्रदर्शन के हर तरह के हथियार को अपने हाथों में लिए हैं या उसकी बाहें कटी हुई हैं या उसने काम करने की, ख़ासकर घर के कामों में इस्तेमाल होने वाली चीज़ों को हाथ में पकड़ा है. इनमें से एक तस्वीर जो मुझे ख़ासकर पसंद है, वह केरल की है.
यह तस्वीर देवी की छवि का अलग ही तरह से इस्तेमाल करती हैं, जिसमें बाहें सीधी खुली हैं. इनमें काम से जुड़ी चीज़ें हैं मगर उनमें से एक हाथ में पर्स या हैंडबैग भी है. मुझे यह बहुत पसंद है क्योंकि, मेरे लिए यह घर की चारदीवारी से बाहर निकल कर काम करने को दर्शाता है. वह घर से बाहर निकल रही है. हालांकि उस समय यह बहुत मध्यमवर्गीय तस्वीर थी. लेकिन आज के समय में ज़रूरी नहीं कि ऐसा हो. एक तरह से इन 40 साल पुराने पोस्टरों में आप आते बदलाव को देख सकती हैं.
अगर आज आप ‘महिला और काम’ पर कुछ नई तस्वीरें बनवाना चाहें तो आपको क्या लगता है, उनमें क्या-क्या बदलाव होंगे?
मुझे लगता है उनमें कई समानताएं होंगी तो कई अंतर भी होंगे. ‘द पोस्टर वुमेन’ संग्रह पूरा होने के तीन-चार साल बाद ही हमने कुछ और तस्वीरें इकट्ठी की थीं. ये पोस्टर नहीं थे तस्वीरें थीं जिन्हें अधिकतर गांव और आदिवासी औरतों ने बनाया था. इन्हें परंपरागत कला के रूप में प्रस्तुत किया गया है. अगर आप इनको देखेंगी तो पाएंगी कि इनमें एक तरह का बदलाव आ चुका है.
उदाहरण के लिए इनमें कई महिलाओं ने, जो ख़ासकर मध्यप्रदेश या छत्तीसगढ़ के आदिवासी कलाकारों द्वारा बनाई गई हैं, पतलून पहनी हुई है, वे छोटी मोटरसाइकिलों पर बैठी हैं और एक तरह से ‘घर से बाहर’ निकलने को दर्शा रही हैं.
इस संग्रह में, कपड़े का प्रयोग करके बिहार में किया जानेवाला खूबसूरत काम शामिल है, जिसमें रेशम के बचे हुए टुकड़ों का इस्तेमाल किया गया है. इन तस्वीरों में दिखाया गया है कि कैसे बिहार की मछली पकड़ने वाली महिलाओं ने मछली पकड़ने के अधिकार को हासिल किया. जबकि पहले वे केवल पुरुषों द्वारा पाली गई मछलियों को बेचने का ही काम करती थीं. इनमें भी, आपको काम करने वाली महिला की छवि में बदलाव नज़र आएगा.
परंपरागत कपड़ों में तो कोई फर्क नहीं, मगर सार्वजनिक दुनिया तक उनकी जो पहुंच बनी है, जिसकी एक समय में मनाही थी, इस पहुंच को समुद्र के ज़रिए दिखाया गया है.
दरअसल, ‘काम’ पर कार्य करते हुए काम करने की जगह उतनी ही महत्त्वपूर्ण हो जाती है. उसमें कैसे बदलाव आ रहा है ये ख़ाका खींचना बहुत ज़रूरी हो जाता है.
इस बात का एहसास भंवरी देवी मामले में हुआ. यह एक नई तरह की जानकारी थी जो महिला आंदोलन को मिली. ये विचार कि काम की जगह कहीं भी हो सकती है : घर, बाहर (फील्ड) इन दोनों के बीच का रास्ता आदि.
तो, इस तरह की चीज़ों को देखना और देखना कि किस तरह ये महिलाओं की पहुंच, मौकों और काम को प्रभावित करती हैं.
मेरे दिमाग में, ऐसी ही कई चीज़ें काम के विचार को दोबारा से सोचने में आती हैं. क्या ये सिर्फ मेहनत से संबंधित है? क्या ये सिर्फ काम की जगह के अंदर है? क्या ये कुछ ऐसा है जिसे आप अनौपचारिक रूप से कर सकती हैं? क्या आप इसे केवल घर के अंदर करती हैं? क्या यह ऐसा है जिसे कभी गिना नहीं जाता?
क्योंकि ये पुरुषों को सहायता देने वाला कार्य है? क्या इसे मिलकर, परिवार के अंदर किया जाता है? अगर अधिक शहरी मध्यमवर्गीय स्थितियों में देखें तो क्या ये कुछ ऐसा है जिसे आप केवल औपचारिक काम की जगह या किसी कैफे में बैठ कर सिर्फ अपने कंप्यूटर पर ही करती हैं? इनमें से कैफे मूल रूप से, ऐसी जगह है जहां फुर्सत के पलों में बैठा जाता है, जहां पर आप दरअसल काम कर रही हैं. आपका काम इतना पोर्टेबल (वहनीय) हो गया है कि आप इसे अपने साथ उठा कर कहीं भी ले जाती हैं.
क्या आप कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक या आर्थिक बदलावों के बारे में बात कर सकती हैं, जिन्होंने पिछले दो दशकों मे ‘कामकाजी महिला’ के विचार को प्रभावित किया है?
ऐसा माना जाता है कि 1991 की जनगणना के बाद काम की परिभाषा बदल गई और इसके कारण थे महिलाओं से सवाल करने के वे तरीके, जो गणना करने वालों को सिखाए गए थे. इससे पहले तक, काम आदि को मापते समय डाटा जमा करने वाले पुरुष घरों में जाते थे और मुख्यत: पुरुषों से ही बात करते थे और पूछते थे – आप क्या करते हैं? जिसका जवाब वो देते थे, फिर उनसे पूछा जाता था – आपकी बीवी क्या करती हैं? और वो कहते – मेरी बीवी कुछ नहीं करती.
तो फिर, नारीवादियों ने एक लंबी लड़ाई की और कहा कि पहली बात तो यह कि आपको गणना करने के लिए महिलाएं रखनी चाहिए.
दूसरा, आपको घरों में ऐसे समय पर जाना चाहिए जब महिलाएं हों और वे अपने पति की अनुपस्थिति में बात कर सकें.
तीसरा, क्योंकि महिलाएं खुद ही अपने काम को कम आंकती हैं इसलिए उनसे न पूछें कि ‘आप क्या करती हैं?’ क्योंकि उनसे पूछने पर शायद आपको वही जवाब मिलेगा जो उनके पति ने दिया था. इसकी जगह उनसे कहें कि वे अपने दिन को बयान करें, सुबह से रात तक और फिर आपको एक अलग ही तस्वीर दिखाई देगी.
दूसरा बड़ा बदलाव था – आंगनवाड़ी कार्यकर्ता. अध्यापक/ टीचर तो हमारे पास पहले भी थे. मगर ये श्रमिक वर्ग की महिलाएं थीं, जो अपने घर से निकलकर कुछ करना चाह रहीं थीं. इनमें से कई को यह एहसास हुआ कि वे अपनी कमाई का एक भाग अपने पास रख सकती हैं और साथ ही इससे मिलने वाले सम्मान को भी उन्होंने महसूस किया.
कुछ महीने पहले मैं कोच्ची बैनाले (Kochi Biennale) में थी और कुदूम्बाश्री (Kudumbashree) महिलाओं के काम करने के तरीकों को देख रही थी [Kudumbashree Café में ]. यही काम, यानी खाना पकाना वे घरों में भी करती हैं, मगर सार्वजनिक स्थल पर होने का आत्मविश्वास – लोगों को खाना परोसना, उनसे बात करना – मुझे लगता है ये सब बदलाव के बिंदु रहे हैं जिन्हें ज़रूरी नहीं कि हम जान पाएं या महसूस कर पाए हैं.
फिल्मों की दुनिया में, एक धारावाहिक आया करता था – रजनी –उसकी मुख्य पात्र की भूमिका विजय तेंदुलकर की बेटी ने निभाई थी – वे एक नौकरी करने वाली महिला थी और साड़ी पहनकर घर से निकलती थी. वह उपभोगता अधिकारों के प्रति बहुत सजग थी और काफी चौकन्नी रहती थी…
मुझे याद है अक्सर लोग कहते थे – “तू रजनी क्यों बनती है?” क्या उसे एक्टिविस्ट के रूप में देखा जाता था?
वो एक तरह से एक्टिविस्ट ही थी. वो काफी मशहूर हो गई थी. तो इस तरह आप कुछ बदलाव देखना शुरू कर देती हैं, यहां तक कि कुछ चीज़ों की शुरुआत भी जैसे- शिल्प उद्योग.
कमला देवी चटोपाध्याय का काम, जया जेटली का काम जिन्होंने कई महिलाओं को घर से निकाला और विभिन्न जगहों तक पहुंचाया. जब आप बाहर आओ और लोगों से बातचीत करो तो ये बहुत मज़बूती देने वाला हो सकता है. फैक्टरियों में भी महिलाओं को लिया गया और महिला संघों ने उदाहरण पेश किए. तो इन सब चीज़ों ने मेरी पीढ़ी द्वारा माने जा रहे आदर्श (paradigm) में थोड़ा परिवर्तन कर दिया.
‘काली फॉर वीमेन’ की शुरुआत के लिए आपका संदर्भ क्या था?
संदर्भ स्पष्ट रूप से जो भी उस समय महिला आंदोलन (1984) में चल रहा था, वही था. जिस तरह के सवाल उठाए जा रहे थे, जिस तरह का एक्टिविज़्म हो रहा था. और हमारी अपनी बेख़बरी -– कि हम जिसका मुकाबला कर रही थीं, उसके बारे में जानती ही नहीं थीं.
उदाहरण के लिए, हम उस समय के दहेज़ विरोधी, बलात्कार विरोधी आंदोलनों में बहुत सक्रिय थीं, मगर जिस तरह की समझ आज हमारी है कि किस तरह यौनिक हिंसा महिलाओं की ज़िंदगी पर असर करती है वो उस समय बिलकुल नहीं थी. फिर भी, हमारे सवाल थे. मगर हमने ढूंढना शुरू किया लेकिन हमें इस दिशा में बहुत सफलता नहीं मिली. उदाहरण के लिए, उस समय दहेज़ पर एक किताब का ही पता हम लगा पाईं. यह एक छोटा मोनोग्राफ था जिसमें किसी स्टेनली तंबिआह नाम के व्यक्ति ने समाजशास्त्रीय विश्लेषण किया हुआ था. हमें एहसास हुआ कि ज्ञान है ही नहीं. यही विचार था ‘काली फॉर वीमेन’ की शुरुआत करने के पीछे. विचार था कि हम अपने ज्ञान का निर्माण कर पाएं. जो एक तरह का काम ही है.
हालांकि मुझे यह कभी काम नहीं लगा क्योंकि मुझे ऐसा करना बहुत पसंद है और काम और आनंद का मेल बहुत महत्त्वपूर्ण है
यदि काम और नारीवादी वेदनाओं की बात करें तो क्या आपको लगता है कि ऐसा कुछ है जिसे लेकर आप राजनीतिक रूप से प्रतिबद्ध हैं या जिसे करना आपको बहुत ज्यादा पसंद है, वह कमाई का साधन बने तो एक नैतिक सवाल खड़ा होता है?
मुझे लगता है कि हमें इस भावना को पीछे छोड़कर आगे बढ़ना होगा कि एक्टिविज़्म का काम कोई बहुत ही पवित्र काम है जिसे आप राजनीतिक प्रतिबद्धता की वजह से करते हैं और जिससे कमा नहीं सकते.
एक तरह से यह बहुत ही मध्यमवर्गीय धारणा है क्योंकि यह इस विचार पर आधारित है कि एक्टिविज़्म आपके एक मुद्दे पर विश्वास से पैदा होता है, यह आपकी सोच का हिस्सा है इसलिए आपको एक्टिविज़्म के बदले में किसी तरह की आर्थिक आपूर्ति यानी पैसे कमाने की ज़रुरत नहीं है.
मगर फिर आप जिएंगी कैसे? अगर आपको दुनिया भर की सुविधाएं प्राप्त हैं और एक संरचना है जो आपको सहारा देती है, तो आप ऐसा कर सकती हैं. मगर कई लोग हैं जिनके पास इस तरह का कोई सहारा नहीं और उसी से दुविधा उत्पन्न होती है…
आपको क्या लगता है आपके काम से आपको क्या मिलता है?
जिस तरह का काम मैं करती हूं उससे मुझे बहुत कुछ मिलता है. नई सोच के बीच हर समय रहने से एक ख़ास तरह का जोश और खुशी महसूस होती है. मैं इससे बहुत कुछ सीखती हूं, ये मेरे दिमाग को लगातार सचेत रखता है. जिस तरह का काम हम करती हैं उससे मुझे बदलाव की संभावना भी मिलती है.
जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूं, 35 साल पहले जब हमने ‘काली फॉर वीमेन’ की शुरुआत की थी, उस समय औरतों द्वारा लिखी गई मुश्किल से कुछ ही किताबें थीं. आज मैं देखती हूं कि कितना ज़्यादा प्रकाशन किया जा रहा है, महिला लेखन को आज मान्यता प्राप्त है.
मैं यह बदलाव देख सकती हूं. आप एक कंफर्ट ज़ोन में जा सकती हैं, मगर आपको अपने आप से सवाल करना होता है और पूछना होता है कि किनकी आवाज़ को आज प्रतिनिधित्व प्राप्त है? क्यों? क्या महिला आंदोलन में केवल यही है? मेरी पीढ़ी की नारीवादियों के विचारों को लगातार चुनौती दी जाती है और ये हमारे द्वारा प्रकाशित किताबों में आना चाहिए. जिसका मतलब है कि ज्ञान का निर्माण किस तरह हो रहा है, इस पर पुनर्विचार करना, ज्ञान पर पुनर्विचार करना और इसका मतलब है अपने प्रकाशन के तरीकों पर पुनर्विचार करना. तो 40 साल काम करने के बाद, यह काम आज भी जोश से भर देने और चुनौती देने वाला है. और ऐसा उन सब क्षितिजों के कारण है जिनसे आपको मोल भाव करना होता है और जिन तक पहुंचना होता है.
आपने लोगों की कई पीढ़ियों के साथ काम किया है – कौन से दिलचस्प तनाव थे जो आपने अलग-अलग पीढ़ियों के साथ काम के दौरान महसूस किए?
ये काफी दिलचस्प है क्योंकि ये सब तनाव साथ काम करने के तरीकों को लेकर हैं. मेरी पीढ़ी की नारीवादी महिलाएं, जो फील्ड में कई तरह के एक्टिविज़्म के कामों से जुड़ी रही हैं, हम अपने साथ सामूहिक रूप से, मिलकर काम करने की समझ लेकर आती हैं.
हमारे तर्कसंगत दिमाग को पता है कि सामूहिक रूप से काम करने में, दक्षता और कार्यकुशलता ख़त्म हो जाती है.
काम समय पर पूरा नहीं हो पाता क्योंकि हो सकता है कि आप लगातार बहस ही करते रहें. मेरे लिए पहली चुनौती थी, हमने जो कुछ सीखा था उसे अपने काम में शामिल कर पाने की संभावनाओं की खोज करना. जहां आप अपनी सीख को शामिल तो कर पाएं मगर उसके कारण दक्षता और काम की रफ़्तार पर फर्क न पड़े.
निर्णय लेने के ऐसे तरीकों को खोजा जाए जो पारदर्शी तो हों मगर ये भी पता हो कि काम की ज़िम्मेदारी किस पर आकर रुकती है. तो वे दर्जाबंद हों मगर पारदर्शी भी हों. जनतांत्रिक हों यानी सबकी सुनी जाए मगर दर्जाबंदी को भी पहचानें. ऐसा करने के तरीकों की खोज करना और काम के कई नारीवादी तरीकों को पीछे छोड़ते हुए नए तरीकों को अपनाना. मगर क्या इसका मतलब है कि आप अपने नारीवाद को छोड़ रही हैं? तनाव यही है.
दूसरी बात यह है कि सबसे महत्त्वपूर्ण संपत्ति जो आपके पास होती है और जिसे दूसरों के साथ बांटने की ज़रुरत होती है वह है ज्ञान. जो ज़्यादातर आपके दिमाग में ही होता है. आप संस्था के इतिहास और इसके कामकाज को अपने दिमाग में रखती हैं. तो जब कोई संस्था छोड़ कर जाता है तो ये सब उसके साथ ही चला जाता है. चाहे आप कितना भी बोल लें कि इसे अगले व्यक्ति के लिए छोड़ा जाना चाहिए, आप केवल ठोस (जिन्हें छुआ जा सकता है) वस्तुओं को ही पीछे छोड़ सकती हैं. युवाओं के साथ काम करने से इसमें बदलाव आया है.
मगर यह बदलाव मेरे या वरिष्ठ कर्मचारियों के विरोध के बिना नहीं आया. क्योंकि हमें काम के अपने तरीकों की इतनी आदत हो चुकी है कि जब आपका सामना जानने की इच्छा से होता है और जब आप इस बात पर उनका गुस्सा देखती हैं कि ज्ञान तक उनकी पहुंच नहीं बन पा रही है – तो आपके लिए बहुत मुश्किल हो जाती है.
आपको यह एहसास होता है कि आप नई पीढ़ी की तरफ बढ़ गई हैं. यह पहला कदम है. आपको एहसास होता है कि उनके काम करने का तरीका आपसे काफी अलग है.
आपको यह भी एहसास होता है कि उनके नारीवाद में फर्क है. और जिस नारीवाद के बीच आप बड़ी हुई हैं वह अब बदल गया है. और अब आपको कुछ चीज़ें भुला देने या पीछे छोड़ देने की ज़रुरत है.
इस प्रक्रिया में बहुत अधिक तनाव है क्योंकि पीढ़ियों के बीच का तनाव, व्यावसायिक तनाव से टकराता है और व्यावसायिक तनाव निजी तनाव से. यह मुश्किल है, मगर आप सीखती हैं और ऐसा करना बहुत फायदेमंद होता है.
काम आपके लिए क्या मायने रखता है? जब आपकी उम्र 35 वर्ष के आस-पास थी तो इसका क्या मतलब था और आज इसका क्या मतलब है?
जब मैं तकरीबन 35 साल की थी, उस समय इसका मतलब था, नौकरी. मुझे पता था मुझे कौनसी नौकरी नहीं करनी है, मगर मुझे यह भी नहीं पता था कि मुझे कौन सी नौकरी करनी है. तो जब मुझे यह मिली, मैंने सोचा अच्छा है. काम मिल गया, हो गया. आज मेरे लिए इसका मतलब बहुत अलग है. मैं जिसमें विश्वास रखती हूं ये उसके प्रति मेरी प्रतिबद्धता है. और जैसाकि मैंने बताया ही, मुझे ये काम नहीं लगता. ये ज़िंदगी है, जो शायद बहुत स्वस्थ परिस्थिति नहीं है. मुझे अपने फुर्सत के पलों में लंबी वॉक पर जाना और पढ़ना पसंद है. काम और आनंद मेरे दिमाग में आपस में गुंथे हुए हैं.
हमने कामकाजी महिलाओं के पोस्टर सदभावना ट्रस्ट की बेबाक लड़कियों को दिखाए. ये युवा मुसलमान लड़कियां हैं जिन्हें प्रशिक्षण दिया जा रहा है ताकि वे अपने समुदाय की लीडर के रूप में उभरें. उनसे कहा गया कि वे भी कामकाजी औरत का चित्र बनाएं और उसके बारे में लिखें. उन्होंने जो दर्शाया, यहां पढ़ें.
इस लेख का अनुवाद सादिया सईद ने किया है.