हॉस्टल डायरी

राजस्थान के एक लड़के की नज़र से समाज हॉस्टल में रहते हुए शिक्षा के अनुभव

राजस्थान के फलोदी में रहने वाले विकास, द थर्ड आई की लर्निंग लैब के साथ पिछले 2 सालों से जुड़े हैं. द थर्ड आई लर्निंग लैब कला-आधारित शैक्षणिक प्लेटफॉर्म है जहां हम साथ मिलकर अपने आसपास की दुनिया को समझने का काम करते हैं. यहां, हम उन विचारों और नज़रियों की पड़ताल करते हैं जो हममें बसे हैं. साथ ही आलोचनात्मक दृष्टि से उन्हें जांचने-परखने का भी काम करते हैं. इसी प्रक्रिया के अंतर्गत विकास ने द थर्ड आई के शिक्षा विशेषांक के लिए शिक्षा से जुड़े अनुभवों को हिंदी साहित्य की प्रमुख डायरी विधा में लिखने का प्रयास किया है.

जोधपुर में समाज के हॉस्टल सिर्फ़ लड़कों के लिए क्यों हैं? हॉस्टल के अंदर इतना अकेलापन क्यों है? क्या अच्छा लड़का होना एक दिन के लिए छोड़ा जा सकता है? लर्निंग लैब के तहत होने वाले ‘मंडे अड्डा’ में ऐसे कई सवालों को खोलते-खोलते यह हॉस्टल डायरी जितना विकास को चकित कर रही थी, उतना ही यह हमारे भीतर की उत्सुकता को भी जगा रही थी. आखिर लड़कों की नज़र से उनके अनुभवों को जानना, उनके मन में क्या है यह जानना, ये सब हमारे लिए भी खुल रहा था. विकास की डायरी से कुछ अंशों को हमारी ऑडियो सीरीज़ ‘फ से फील्ड, श से शिक्षा’ में भी सुना जा सकता है.

IANT का कोर्स

बारहवीं की कक्षा पास करने के बाद से ही कम्प्यूटर में कुछ करने की हरख हरदम मेरे दिमाग में चल रही थी. एक दिन अखबार के फ्रंट पेज पर मैंने पढ़ा, “कक्षा 10-12 पास/फेल और कॉलेज के अन्य छात्रों के लिए हार्डवेयर नेटवर्किंग और सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनने का सुनहरा अवसर.” साथ ही फ्री कम्प्यूटर, फ्री बैग का ऑफर भी था. उस विज्ञापन की “IANT के साथ करो एडवांस हार्डवेयर नेटवर्किंग, सॉफ्टवेयर का कोई भी कोर्स और साल में 78 हज़ार से 4 लाख 60 हज़ार तक कमाओ.” यह लाइन मेरे दिमाग में छाप छोड़ गई. मन ही मन में अच्छी जॉब के ख्याल बनाने लगा. मैंने ये कोर्स करने का फैसला कर लिया था. 10 बजते ही विज्ञापन पर लिखे नंबर पर फोन मिला दिया. फोन किसी मैडम ने उठाया था. उनसे कोर्स और फीस के बारे में जानकारी ली. उन्होंने कहा, “पूरा कोर्स 1 लाख 20 हज़ार में पड़ेगा और पहले आपको 12 हज़ार रूपए जमा करवाने होंगे. कोर्स पूरा होने के बाद आपको सर्टिफिकेट के साथ अच्छी प्लेसमेंट भी दी जाएगी.”

मैंने जी…जी करते हुए उनकी सारी बात सुनकर फोन रखा और अंदर नहाने चला गया. नहाते हुए भी मैं यही सोच रहा था कि कोर्स करके अच्छी जॉब लग जाएगी, फिर अच्छी सैलरी होगी, शहर में अपना घर होगा और 2 से 3 साल काम करने के बाद कार भी आ जाएगी. मां को फिर काम नहीं करना पड़ेगा और पापा को भी काम पर जाने के लिए मना कर सकता हूं.

घर से दुकान के रास्ते में भी बस कोर्स के बारे में ही सोचे जा रहा था. ‘मुझे तो इंग्लिश नहीं आती और वे कम्प्यूटर तो पूरा इंग्लिश में ही चलता है. बड़े-बड़े ऑफिसों में भी लोग धड़ा-धड़ इंग्लिश बोलते हैं!’ सोचते-सोचते इतने में भट्ठड़ जी की दुकान आ गई जहां मैं काम करता था. उस दिन दुकान पर जल्दी पहुंच गया था. मेरी उम्र से तीन गुना बड़े सफेद कुर्ता-पजामा पहने मुंह में तंबाकू डाले भट्ठड़ जी के साथ मैं भी दिन भर दुकान में बैठा रहता. कोई एक-आध ग्राहक सामान लेने आता तो उसे तोलकर दे देता. ऐसे करते-करते मैंने दो महीने निकाल दिए. कुछ पैसे भी इकट्ठा हो गए थे.

अखबार का वो पेज फाड़कर मैंने अपनी जेब में डाल लिया था. जब घर आया तो मां सिलाई कर रही थी. उनके पैर सिलाई मशीन पर तेज़ी से चल रहे थे. मैंने मां को अखबार का वो पन्ना दिखाते हुए कहा, “मां, मुझे ये कम्प्यूटर का कोर्स करना है. जोधपुर में करवाते हैं. इसे करने के बाद अच्छी जॉब लग जाएगी और अच्छे पैसे भी मिलेंगे.”

“अच्छा ठीक है लेकिन पहले तू तेरे पापा से इसके बारे में बात कर लेना.”

“हां, कर लूंगा. लेकिन तू मेरे पास ही बैठना.”

मां ने पूछा, “फिर तेरे रहने व खाने का क्या? जोधपुर में तेरी बहनें रहती हैं वहां रह लेना.”

“नहीं मां, मैं दीदी के घर नहीं रहूंगा. मेरा वहां मन नहीं लगता.“

“तो फिर तू मोहिनी मासी के लड़के सोनू के साथ रह लेना. वो जोधपुर में ही रहता है, अपने खत्रियों के हॉस्टल में.”

शाम में जब पापा घर आए तो मां ने उन्हें मेरे कोर्स करने के बारे में कहा, पर उन्होंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया. तब, मेरी दीदियों ने पापा से कहा, “हम तो कहीं बाहर गए नहीं, इसे तो जाने दो. बाहर जाएगा तो कुछ सीखेगा ही, इंसान बनेगा. यहां फलोदी में है ही क्या? जोधपुर में हॉस्टल में रहेगा तो साथ में कुछ काम भी कर लेगा. फीस के पैसे तो निकल ही जाएंगे.”

पापा ने आखिर हां कर दी. मैं मन ही मन खुश हो रहा था और अपने ख्याली पुलाव बना रहा था.

श्री ब्रह्म खत्री भवन श्री हिंगुलाज छात्रालय

मेरे साथ मां और पापा थे. उनके साथ मैं हमेशा कम्फरटेबल रहा हूं. पहले कभी जोधपुर आता तो मां और पापा के साथ ही आता था. उस समय जोधपुर से माचिस के खाली पैकेट इकट्ठा कर फलोदी जाकर दोस्तों के साथ खेलता था. लेकिन ये पहली बार था कि मै कहीं बाहर रहने के लिए जा रहा था. मन में तो काफी विचार उलट-पुलट हो रहे थे कि क्या होगा? कैसे होगा? जोधपुर इतना बड़ा शहर है, मैं सड़कों को कैसे पहचानुंगा? हॉस्टल में कैसे लड़के होंगे? जॉब मिलेगी या नहीं? पढ़ाई कैसी होगी?

जोधपुर बस स्टैंड पर उतरकर हमने गीता भवन के लिए टैक्सी ली. पूरे रास्ते मैं टैक्सी से बाहर बड़ी-बड़ी बिल्डिंगों और सड़कों पर दौड़ती गाड़ियां ही देखता रहा. बचपन में जब जोधपुर आता था तो देखता था कि ट्रेफिक सिग्नल के लाल से हरा होते ही रुकी हुई गाड़ियां चलना शुरू कर देतीं और इसे देख मैं यही सोचता कि ये सब लोग रेस लगा रहे हैं. कोई आगे तो कोई पीछे. रेस खत्म कहां होने वाली है ये मुझे नहीं पता था. 

गीता भवन पहुंचकर पापा ने किसी से पूछा कि ये खत्री हॉस्टल कहां है? पता चला कि कब्रिस्तान के सामने है. हम गीता भवन से दाएं की ओर मुड़े और सामने खत्री हॉस्टल था. हॉस्टल के बाहर बड़ा-सा लोहे का गेट लगा था और आस-पास दुकानें थी. गेट के ऊपर बड़े अक्षरों में ‘श्री ब्रह्म खत्री भवन श्री हिंगुलाज छात्रालय’ लिखा हुआ था. हम हॉस्टल के अंदर आ गए. हॉस्टल को देखकर लगा कि

ये कैसा हॉस्टल है? मैंने तो सुना था कि हॉस्टल में अच्छे-अच्छे रूम होते हैं, वार्डन होता है. लेकिन यहां तो ऐसा कुछ नहीं दिख रहा है. दिखने में एक टूटी टेबल, पानी का हेडपंप और रंग उड़ी हुई दीवारें दिख रही थीं.

हॉस्टल में आधे से ज़्यादा कमरों का दरवाज़ा बंद था. दो-तीन लड़के बनियान और चड्डी पहने मशीन से पानी भरते हुए दिखे. पानी भरते हुए वो हमें ही देख रहे थे. एक लड़का नीचे सिगरेट पीते हुए किसी से फोन पर बात कर रहा था. अब तक सोनू भैया भी आ चुके थे. वे हमें अपने कमरे में ले गए. उनका कमरा नीचे सबसे कॉर्नर में था. कमरे में एक बेड लगा हुआ था जिसे न चाहते हुए भी हमें बेड ही कहना पड़ रहा था. उन्होंने हमें पानी लाकर पिलाया और मां-पापा से बातें करने लगे. मां ने कहा, “इसे कोई कम्प्यूटर का कोर्स करना है. यहीं हॉस्टल में रहेगा. तो तू इसके साथ जाकर इसका एडमिशन करवा देना.”. पापा ने भैया को एडमिशन करवाने के लिए 12 हज़ार रुपए दिए. उसके बाद 5 हज़ार रुपए और देते हुए हिदायत दी, “हॉस्टल के एडमिशन में जितने लगें उतने दे देना, बाकि जो बचे वो इसे दे देना.” मां ने भैया से कहा, “इसके मोबाईल की स्क्रीन टूटी हुई है तो तू इसे साथ ले जाकर सही करवा देना. पैसे हैं इसके पास.” इसके बाद मां व पापा चले गए.

“पानी पीना हो तो ऊपर पानी की मशीन है. सीढ़ियों के पास टॉयलेट और बाथरूम है और खाना शाम को बनेगा तो बाहर आकर खा लेना. शाम को अध्यक्ष के पास जाकर तेरे एडमिशन की परमिशन भी ले आएंगे. मैं अभी काम पर जा रहा हूं. ये लैपटॉप है मन ना लगे तो इसे चला लेना.” इतना कहकर भैया भी चले गए. मैं रूम में लैपटॉप चलाते-चलाते सो गया. जब आंख खुली और बाहर आकर देखा तो रात हो चुकी थी. भैया भी लौटकर आ चुके थे.

“खाना खाया?” भैया ने पूछा.

मैंने कहा “कोई बुलाने ही नहीं आया.”

“अरे, पागल बुलाने कोई नहीं आएगा, खुद जाकर खाना होता है.”, मैं चुपचाप बैठा रहा.

“अब चल खाना खाकर आते हैं.”

भैया मुझे बाईक पर बाहर ले गए और भवानी दाल-बाटी पर दाल-बाटी खिलाई.

समाज के हॉस्टल

जब मैंने खत्री हॉस्टल में एक महीने की फीस दी तब पता चला कि जोधपुर में बाहर प्राइवेट हॉस्टल या सिंगल रूम लेने पर जितना खर्च आता है उससे कहीं कम खर्च समाज के हॉस्टल में लगता है. यहां खाना भी नहीं बनाना पड़ता. सब लड़के एक ही जाति के होते हैं जिससे ना कोई डर रहता है और ना ही कोई अनजानापन. जैसे-जैसे मैं जोधपुर शहर में घुलता गया वैसे-वैसे मुझे यहां पर मौजूद अलग-अलग हॉस्टलो के बारे में पता चलता गया.

यहां राजपूत, ओसवाल, माली, बिश्नोई, मेघवाल, पुश्करणा, सुथार आदि समाजों के हॉस्टल थे. इन सभी हॉस्टल में अपनी जाति के अलावा किसी दूसरे को एडमिशन नहीं दिया जाता था और ये सिर्फ़ लड़कों के लिए ही थे.

ओसवाल हॉस्टल जोधपुर में जाना-माना था. ऊंची-ऊंची दीवारों से घिरे इस हॉस्टल में ओसवाल समाज के 1 हज़ार से ज़्यादा लड़के रहते थे. हॉस्टल में कूलर, टेबल-कुर्सी, बैड आदि सुविधाएं उपलब्ध थीं. समय-समय पर समाज के धनी व्यक्ति वहां अलग-अलग तरह के कार्यक्रम भी करवाते रहते थे. हॉस्टल के भीतर पढ़ने के लिए लाईब्रेरी और खेलने के लिए गार्डन भी थे. वहां नियम कायदों का बड़ा ध्यान रखा जाता था. इस हॉस्टल के भीतर जाते ही ऐसा लगता जैसे लवासा (आईएएस अधिकारियों के लिए ट्रेनिंग स्थल) के हॉस्टल में रहकर ट्रेनिंग ले रहे हैं. फीस के नाम पर नाम मात्र का शुल्क लिया जाता था. हां, छात्रों के परिजनों से समाज में सहयोग करने का आग्रह ज़रूर किया जाता था.

एक दिन बहुत तेज़ बारिश के बाद सबकुछ गीला-गीला सा था. मैं कानों में ईयरफोन डाले पैदल दुकान से हॉस्टल की तरफ चला जा रहा था. रास्ते में पूमा, एडिडास, तनिश्क, ज़ारा, यूएस पोलो के शोरूम में लगी रोशनी गीली सड़क को और रंगीन कर रही थी. तभी चलते हुए मैंने देखा कि इंदर इन होटल के पास भीड़ लगी हुई है. वहां जाकर देखा तो एक 22-24 साल का लड़का टैक्सी वाले से बहस कर रहा था. उसने तीखी मूंछें रख रखी थीं और सर पर लाल रंग की टोपी पहन रखी थी.

टैक्सी वाला लड़के से कह रहा था, “बन्ना माफ कर दो मुझसे गलती हो गई.” पर वो लड़का टैक्सी वाले का कॉलर पकड़ कर उसे गंदी गालियां देते हुए कह रहा था, “तुझे कितनी बार बोला है कि तू राजपूत हॉस्टल वालों से पैसे मत लिया कर लेकिन तुझे बिना लात-घूसे के समझ नहीं आता है.” आस-पास के दुकान वाले लड़के को रोकते हुए कह रहे थे, “बन्ना जाने दो इसे. आप क्यों अपना टाईम खराब कर रहे हो. हम समझा देंगे, आप जाओ.” कुछ मिनट बाद लड़का बुलट चालू कर वहां से निकल गया. आपस में खड़े लोग बात कर रहे थे कि ये हॉस्टल नं. 3 का लड़का है.

हॉस्टल नं. 3 राजपूत समाज के लड़कों का हॉस्टल था. पूरे जोधुपर में इस हॉस्टल के लड़कों का खौफ था. यहां तक की शहर में जो सिटी बस चलती थी उसमें भी ये लड़के बिना पैसे दिए ही आते थे और कोई पैसे मांग भी लेता तो हॉस्टल के सारे लड़के इकट्ठा होकर बस पर आ जाते थे. इसलिए डर के मारे कोई उनसे पैसे नहीं मांगता था. राजपूत हॉस्टल से कई लड़कों ने अपने राजनीतिक करियर की शुरूआत की थी. यूनिवर्सिटी के चुनावों में भी ज़्यादातर चेहरे इसी हॉस्टल से होते थे. जोधपुर में कहीं भी राजपूतों की बात होती तो हॉस्टल नं. 3 के लड़के सबसे आगे रहते थे.

मैं वहां से चलता हुआ भा सा की दुकान पर पहुंच गया.

भा सा की दुकान

भा सा वैश्णव जाति के थे. खत्री हॉस्टल में खाने का सामान भा सा की दुकान से ही आता था. बिस्किट लेना हो, ठंडा पीना हो या सिगरेट पीनी हो – लड़के भा सा की दुकान पर ही जाते थे. भा सा के पास ज्ञान बहुत था. कोई भी उनकी दुकान पर जाता वो उसे कुछ न कुछ ज्ञान दिए बगैर जाने नहीं देते थे. उनके पास हर विषय पर कुछ न कुछ कहने को ज़रूर होता था.

मुझे कपड़े धोने का साबुन लेना था. भा सा फ्रिज में सब्जियां रख रहे थे. मैंने कहा, “भा सा एक कपड़े धोने का साबुन देना.” उन्होंने मुझे साबुन पकड़ाया और फिर से फ्रिज में सब्जियां रखने लग गए. सब्जियां रखते हुए मुझसे पूछा, “आज लेट कैसे?”

मैंने कहा, “कुछ नहीं रास्ते में कोई लड़का टैक्सी वाले से झगड़ रहा था तो वहीं रूक गया था.”

“तूने तो कोई लड़ाई नहीं की ना?”

“भा सा मैं क्यों करूंगा लड़ाई, अपन तो अपने काम से काम रखते हैं. पर भा सा, हर समाज अपना हॉस्टल क्यों खोलता है?”

भा सा ने कहा,

“हर समाज अपना दबदबा हर फील्ड में चाहता है. हर समाज हर शहर में अपने लोग चाहता है और समाज का भविष्य युवा ही हैं. युवा तैयारी करके सरकार में जाएंगे, तो सरकार में समाज के लोग होंगे.

फिर ऐसे परिवार भी होते हैं जो अपने बच्चों को बड़े शहरों में पढ़ाई करवाना चाहते हैं मगर इसका खर्च नहीं निकाल पाते हैं. इसलिए समाज उन लड़कों के लिए हॉस्टल की सुविधा देता है और उनसे नाममात्र का शुल्क लेता है.”

मैंने कहा, “तो फिर समाज लड़कियों के लिए हॉस्टल क्यों नहीं खोलता?” मेरे सवाल को अनसुना कर भा सा अपने काम में लग गए. शायद उनके पास इसका जवाब नहीं था.

बायोलॉजी का प्रैक्टिल

एक दिन मैं जल्दी हॉस्टल आ गया. दिन भर काम करके थक गया था. थकान भी क्यों न हो? सुबह 7 बजे पहले तो क्लास जाओ, फिर क्लास खत्म होते ही दुकान जाओ, फिर दोपहर में दौड़ते-दौड़ते खाने के लिए हॉस्टल आओ और फिर वापस दुकान जाओ. रात को फिर वापस हॉस्टल की तरफ भागो. इस भागम-भाग में कोई थकेगा नहीं तो और क्या होगा.

रात का खाना शुरू हो गया था. सभी लड़के अपने रूम से रसोई के बाहर आकर खाना ले रहे थे. किसी के हाथ में फोन था तो किसी के हाथ में थाली. खाना खाते-खाते लड़के आपस में बातें कर रहे थे. अपने रूम में बैग रखकर हाथ-मुंह धोकर मैं खाने के लिए नीचे आ गया. मैंने रसोईये से पूछा, “बा, आज खाने में क्या है?” बा ने कहा, “आज तो दाल-रोटी बनाई है.” रोज़-रोज़ वही पानी वाली दाल और रोटी. बा कभी कुछ नया बनाती ही नहीं. मैं थाली में खाना लेकर टेबल पर बैठ गया. आधे से ज़्यादा लड़कों ने खाना खा लिया था. दो लड़के बैठे खाना खा रहे थे और आपस में बातें कर रहे थे:

“तू तो कल सिरोही जा रहा है ना?”

राहुल ने चेहरे पर मुस्कान लाते हुए कहा, “हां”.

“तो फिर कहां मिलेगी वो और उसे कहां ले जा रहा है?”

“पिछली बार वाले होटल में ही ले जाऊंगा. उसके बेड के गद्दे बड़े स्पंजी हैं यार. कसम से मज़ा ही आ जाता है.”

“तेरे मज़े हैं यार! महीने में तू दो बार सिरोही का दौरा कर ही लेता है और मैं यहां उस लड़की के पीछे 1 साल से पड़ा हुआ हूं लेकिन वो तो हां ही नहीं बोल रही है. कितने ही गिफ्ट दिला दिए. महंगी से महंगी चॉकलेट दिला दी, जो मैंने भी कभी नहीं खाई. फिर भी हां नहीं बोल रही है. मुझे कहती है कि शादी से पहले ये सब नहीं करना. पता नहीं तू कैसे कर लेता है? अच्छा सुन सिक्योरिटी तो ले ली ना साथ में?”

राहुल बोला, “अरे हां, वो तो सबसे पहले ली. क्लास से वापस लौटते हुए मेडिकल से ली थी. पिछली बार बड़ा लफड़ा हो गया था. उसके हॉस्टल में पता चलते-चलते रह गया. मेरी जान तो गले तक आ गई थी. फिर गोलियां दिलवाईं तब कहीं जाकर जान में जान आई. अब सुन तू कल मुझे जल्दी उठा देना. बस पकड़नी है सिरोही के लिए.”

मैं उसे सामने देखकर बोला, क्यों भाई, दामू को बायोलॉजी पढ़ाने जा रहा है?”

राहुल ने भी हंस कर कहा, “विकास, वो बायोलॉजी के प्रेक्टिल में कमज़ोर है इसलिए उसे प्रेक्टिल सिखाने जा रहा हूं.” राहुल के फ़ोन की घंटी बजी और वो उठते हुए बोला, “चल मिलते हैं, तेरी भाभी का फोन आ रहा है.”

चक्षुओं का लाभ

हॉस्टल में मेरा सबसे खास दोस्त महिपाल था. वो मेरा रूम पार्टनर भी था. पर, मैं उससे पहले से इस रूम में रह रहा था. इस हिसाब से मैं उससे सीनियर हुआ. लेकिन, उम्र में वो मुझसे सीनियर था. हॉस्टल में सभी उसे प्यार से ब्रिग्रेडियर बुलाते थे.

मैंने महिपाल को फोन लगा कर कहा,“ब्रिगेडियर साहब कहां रह गए? हॉस्टल नहीं आना क्या? 2 घंटे से आपका वेट कर रहा हूं और आप हो कि आ ही नहीं रहे हो.”

इतने में नीचे से आवाज़ आई, “विकास हम पधार चुके हैं. स्वागत नहीं करोगे हमारा?”

महिपाल गाना गुनगुनाते हुए रूम में आया और कांच में चेहरा देखकर अपने बाल संवारने लगा.

“विकास, आपकी कसम आज दिल खुश हो गया, आज 5 किलोमीटर घूमे लेकिन टांगे बिल्कुल दर्द नहीं कर रही हैं. बी रोड तो आज स्वर्ग की तरह लग रहा था. जहां भी नज़रें जातीं वहां लड़कियां ही लड़कियां दिख रही थीं. चक्षुओं को बड़े दिनों बाद आज अपसराओं का दीदार हुआ.”

“तो आज बी रोड पर चक्षू सेकने गए थे! आपने कितने चक्षुओं को अपने कब्ज़े में लिया?”

“अपनी कहां ऐसी किस्मत. 

वो शहर की मॉडर्न लड़कियां और मैं ठहरा गांव का गंवार. उनको तो एक दम हाई-फाई लड़का चाहिए. जिसकी पैंट फटी हो, बाल ऊपर किए हों, कानों में इयरफोन हो और उनको घुमाने के लिए केटीएम बाइक हो.

मैं तो उन्हें देखकर खुश हो जाता हूं. वॉकिंग के साथ चक्षू सेकिंग भी हो जाती है, बस. कल आप भी चलना मेरे साथ आपको भी चक्षू लाभ दिला के लाऊंगा.”

“मैं तो कल दीदी के घर जा रहा हूं. फिर कभी चलेंगे चक्षू लाभ लेने. जब जाएंगे तब आपकी एक-दो सेटिंग तो करवाके ही आएंगे.”

“मज़ाक मत करो यार! चलो थोड़ा बाहर बैठते हैं. वैसे, एक बात बताओ, ये तनसुख कितने सालों से यहां रह रहा है?” 

तनसुख को तो 6 से 7 साल हो गए हैं, हॉस्टल में रहते हुए.”

“तो वो आजकल दिखता क्यों नहीं है?”

“अरे, उसके घर से प्रेशर आ रहा है शादी का. घरवाले बोल रहे हैं कि अब शादी कर ले. उसकी सगाई को तीन साल हो गए हैं लेकिन वो कह रहा है कि गवरमेंट जॉब लगने के बाद ही शादी करेगा इसलिए अब लगा रहता है तैयारी में. 3 महीने बाद उसका जूनियर एकाउंटेट का एग्ज़ाम है.” 

“अच्छा, पहले तो ये अपनी होने वाली बीवी के साथ फोन पर घंटो-घंटो लगा रहता था.”

“हां, अब कम करता है बात, बस तैयारी में लगा है.”

हम दोनों बैठे आपस में बातें कर रहे थे. राहुल अपने रूम से फोन पर बात करता हुआ बाहर आया और पानी की मशीन के पास लगी पट्टी पर बैठ गया.

“दामू, यार मुझे नहीं पता, मैं कल सिरोही आ रहा हूं. सब फिक्स है. मैंने होटल भी बुक कर दिया है और अब आप कह रही हो कि कल नहीं… तो बोल दो ना पापा को… ” राहुल फोन पर बात करते-करते हॉस्टल से बाहर चला गया.

“ये राहुल बड़ा लफंगा लड़का है. इसके घरवालों को लग रहा होगा, हमारा बेटा हॉस्टल में रहकर पढ़ रहा है. उनको क्या पता कि ये यहां क्या कर रहा है! बाप मास्टर है इसका. ये पढ़े या ना पढ़े इसके पैसे पूरे होते ही दूसरे आ जाते हैं.” ब्रिगेडियर साहब ने कहा.

ये ऑमलेट में क्या है?

उस दिन हम नसरानी सिनेमा के आगे से निकले. वहां एक ऑमलेट का ठैला लगा हुआ था. ठैले पर नॉनवेज भी बन रहा था. ठैले के पास लोग खड़े-खड़े ऑमलेट खा रहे थे. हिमांशु ने ठैलेवाले से एक मसाला ऑमलेट बनाने के लिए कहा और ऑर्डर देकर मोबाईल में इंस्टा चलाने लगा.

तभी एक आदमी भागता हुआ आया और ठैलेवाले से कहने लगा, “भैया, जल्दी से एक अंडा फ्राई लगा दो.” ठैलेवाला एक सैकेंड के लिए भी फ्री नहीं हो रहा था. हिमांशु का ऑर्डर आ गया. उसने ऑमलेट का एक निवाला तोड़ते हुए मुझसे कहा, “तू भी खा ले.” मैंने मना कर दिया लेकिन वो बार-बार मुझे ऑमलेट खाने के लिए कहता रहा. मैंने कहा, “मैं नॉनवेज नहीं खाता.” इसपर उसने कहा, “ये नॉनवेज नहीं है पागल.”

हिमांशु एक-एक निवाला तोड़ते हुए ऑमलेट खाए जा रहा था. मैं उसको ही देख रहा था. मेरे मन में यही सवाल उठ रहा था कि आखिर ऑमलेट का स्वाद कैसा होता है? शायद खट्टा होता होगा! तभी हिमांशु ने फिर पूछा, “खा रहा है क्या?” एक बार को हुआ कि खा लूं लेकिन किसी को पता चल गया तो सब कहेंगे कि ये तो नॉनवेज खाता है. मैंने अपने को कठोर किया और मना कर दिया. हिमांशु ने ऑमलेट खत्म करके ठेलेवाले को 40 रुपए दिए और हम वापस हॉस्टल के लिए निकल गए.

रास्ते में मैं ऑमलेट के बारे में ही सोचता रहा. आखिर मेरे मन में ऑमलेट खाने की इच्छा कैसे पैदा हो गई? मैंने तो बचपन से कभी कोई नॉनवेज या अंडा नहीं खाया और ना ही मेरे घर में किसी ने खाया था. बल्कि मेरे पूरे मौहल्ले में भी किसी ने ऑमलेट नहीं खाया था. मेरे लिए तो अंडा खाना एक पाप की तरह था. मैंने खुद से उस दिन प्रॉमिस किया कि आगे से कभी ऐसा मन में नहीं आने दूंगा. खाना खाकर मैं फिर से अपने नोट्स बनाने बैठ गया.

लड़का होना कितना आसान

मुझे हॉस्टल में रहते अब एक साल हो गया था. मेरे रहते हॉस्टल में कई नए लड़के आए और कई चले भी गए. कुछ लड़के ऐसे हैं जो कई सालों से इस हॉस्टल में ही रह रहे हैं, मानो हॉस्टल उनका घर ही बन गया है. उनको अब घर से ज़्यादा हॉस्टल अच्छा लगता है. दिवाली हो या होली हॉस्टल में ही मनाते हैं.

कुछ लड़के हमेशा चिंता में ही व्यस्त रहते थे. उनको पढ़ाई और सपने के अलावा कुछ नहीं दिखता था. न कभी किसी प्रोग्राम का हिस्सा बनते, न किसी से हंसी-मज़ाक और न ही किसी से बात करते थे. कुछ बनने का सपना हर दम दिमाग में लिए चलते थे.

शायद वो पागल ही थे. जीवन जीने से बढ़कर पढ़ाई नहीं होती है, जीवन होगा तो ही तो पढ़ाई होगी. जब हम मर जाएंगे तो लोग हमें बस हमारी यादों से ही याद करेंगे. जीवन में यादें होना बहुत ज़रूरी है.

कहने को तो सब कहते हैं कि लड़कों को लड़कियों जितना स्ट्रगल नहीं करना पड़ता. लड़कों की आराम की ज़िंदगी है. लेकिन ये सारी बातें केवल कोरा झूठ हैं. लड़के के जन्म लेते ही उससे ख्वाहिशें शुरू हो जाती हैं. जैसे ही वो बड़ा होने लगता है इससे पहले कि वह अपनी ज़िंदगी जीना शुरू करे उसपर कुछ बनने की ज़िम्मेदारी लाद दी जाती है. कुछ बन जाने के बाद शादी और फिर बच्चे. लड़का तो बस इसी चक्रव्यूह में गुम हो जाता है.

हॉस्टल में मेरे साथ महेंद्र भी रहते थे. वे दिखने में वे दुबले-पतले थे. उम्र में हमसे कहीं बड़े थे मगर हॉस्टल में उनकी गिनती लड़कों में ही होती थी. महेंद्र हॉस्टल में खाना नहीं खाते थे. वो अपने कमरे में ही खाना बनाते. वहीं उन्होंने अपना पूरा घर बना रखा था. कमरे में हर जगह किताबें ही किताबें थी. हॉस्टल में वे आठ सालों से सरकारी नौकरी के लिए तैयारी कर रहे थे. साथ ही वे साइकिल से लोगों के घर जाकर बच्चों को ट्यूशन भी देते थे. उन्होंने कितने ही एग्ज़ाम दिए थे लेकिन हर बार थोड़े-बहुत नंबरों से रह जाते थे. रिश्ते में वो मेरे मामा लगते थे. तैयारी करते-करते 48 साल की उम्र में सरकारी अध्यापक के रूप में उनकी पहली  नौकरी लगी. वे बहुत खुश थे. वे ही नहीं बल्कि पूरा हॉस्टल उनके लिए खुश था. अब वो शादी के लिए लड़की ढूंढ रहे हैं लेकिन इस उम्र में अब उन्हें कोई लड़की देने को तैयार नहीं है.

सरकारी नौकरी से सब राहें खुल जाती हैं तो महेंद्र की क्यों नहीं खुलीं?

हॉस्टल के बाद

हॉस्टल में कुछ साल रहने के बाद मैं फलोदी लौट गया. सारे काम-धाम छोड़कर घर पर बैठा था. हॉस्टल में मैं जितने भी लड़कों को जानता था वे सभी सरकारी नौकरी की तैयारी में लगे थे. लेकिन उस वक्त सरकारी नौकरी में जाने का मेरा बिल्कुल भी मन नहीं था. मैं प्राईवेट नौकरी को ज़्यादा अच्छा समझता था. लेकिन जब कोर्स खत्म हुआ और मुझे कोई ढंग की नौकरी नहीं मिली, तब मेरा भी मन सरकारी नौकरी करने का होने लगा.

जोधपुर से प्राइवेट नौकरी छोड़कर घर आया था, यही सोचकर कि घर पर रहकर पढ़ाई करूंगा तो एक दो-साल में सरकारी नौकरी लग ही जाएगी. लेकिन एक बार जब कोई काम करके घर बैठ जाता है तो वो किसी को भी घर पर बैठा अच्छा नहीं लगता है. घर पर शुरुआत के कुछ दिन तो ऐसा कुछ नहीं लगा. लेकिन जैसे-जैसे दिन निकलते गए किसी काम को मना कर देता तो यही सुनने को मिलता – “दिन भर घर पर बैठा करता क्या है? न घर का काम करता है और न ही बाहर जाता है.” हर बात, हर मौके पर कोई न कोई ताना सुनने को मिलता. एक तो आगे क्या होगा इसकी चिंता और ऊपर से ये ताने सुन-सुनकर दिमागी तौर से मैं बहुत डिस्टर्ब हो गया था. मन करता था भाग जाऊं घर से. ऐसी जगह जाऊं जहां कोई भी मुझे न पहचाने. लेकिन सोचने से क्या होता है!

विकास, द थर्ड आई की लर्निंग लैब के साथ पिछले दो साल से अधिक समय से जुड़े हैं. बतौर डिजिटल एजुकेटर, कहानी लेखन, वीडियोग्राफी, फोटोग्राफी, साउंड एवं अन्य विषयों पर समझ बनाने के साथ-साथ वे इन विषयों पर सक्रिय रूप से कार्य करते हैं. तकनीक से जुड़ी नई चीज़ों में खास रूचि रखने वाले विकास को किताब पढ़ना, लिखना और लोगों को जानना बहुत पसंद है.

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