द थर्ड आई ‘ट्रैवल लोग’ सीरीज़ की इस प्रस्तुति को भारत के तीन अलग-अलग राज्यों से आनेवाली, और एक-दूसरे से बिलकुल अनजान महिलाओं ने मिलकर तैयार किया है.
मिलानी संघा, द थर्ड आई सिटी संस्करण के ‘ट्रैवल लोग’ का एक हिस्सा हैं. शहर को देखने की हमारी इस यात्रा का एक बड़ा हिस्सा हमारे 13 ट्रैवल लोग हैं जिनके ज़रिए हम भारत के अलग-अलग कोने से शहरों, कस्बों और गांवों के उनके अनुभवों एवं नज़रियों को जानने और समझने की कोशिश कर रहे हैं. खूंटी, झारखंड की रहने वाली मिलानी हमें शहरी घरों में काम करने के अपने संघर्ष के बारे में बताती हैं.
मिलानी के शब्दों को चित्रों में ढालने का काम संगीता जोगी ने किया है. संगीता, एक कलाकार हैं. वे मज़दूरी करती हैं और अपने तीन बच्चों एवं परिवार के साथ राजस्थान के सिरोही ज़िले में रहती हैं. हाल ही में तारा बुक्स से प्रकाशित उनकी चित्रात्मक किताब ‘द विमेन आई कुड बी’ पढ़ी-लिखी आज़ाद ख़्याल महिलाओं की कहानी चित्रों के ज़रिए उकेरती है.
संगीता, द्वारा बनाए गए चित्र राजस्थान से चलकर उत्तर-प्रदेश के ललितपुर ज़िले में रहने वाली 21 वर्षीय आरती अहिरवार के पास पहुंचते हैं, जहां वे अपनी कल्पना से इन चित्रों में रंग भरने का काम करती हैं. आरती, वर्तमान में द थर्ड आई के लिए डिजिटल एजुकेटर्स प्रोग्राम से जुड़ी हुई हैं, जहां उन्हें अपनी कला के ज़रिए कहानियां कहने की ट्रेनिंग दी जा रही है. वे पुलिस बल में प्रवेश के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी कर रही हैं.
मैं अपने गांव कोंकेया से, जो झारखंड के खूंटी ज़िले में आता है, दिल्ली इसलिए गई कि मेरे गांव की दो लड़कियां दिल्ली गई हुई थीं. जब भी दोनों गांव आती थीं, अच्छे कपड़े पहनतीं, उनके पैरों में चप्पल होती, अच्छी खुशबू वाला तेल लगातीं, चेहरा गोरा यानी साफ दिखता था, मोटी होकर आतीं. मेरे घर में गरीबी थी, कपड़े नहीं थे, पैरों में चप्पल तक नसीब नहीं थी. मैं उनको देखकर सोचने लगी, ‘अरे! दिल्ली जाउंगी तो इन दोनों के जैसे ही सुंदर दिखुंगी. कपड़े भी होंगे, जूते-चप्पल होंगे, पैसे भी लाऊंगी.’ मैं दिल्ली जाने का सोच ही रही थी कि अचानक मेरे जीजा ने सी.सी.एल. में सरकारी नौकरी करने वाले लड़के से मेरे रिश्ते की बात घर पर छेड़ी. मां-पिताजी से कहा, “मिलानी के लिए रिश्ता लाया हूं.” इस बीच मैं अलविनुष को पसंद करने लगी थी. जब मुझे इस रिश्ते की भनक लगी तो मैं सोचने लगी कि अब क्या किया जाए. इससे छुटकारा पाने के लिए गांव की एक लड़की बोली, “चलो दिल्ली चलते हैं काम करने”. तो इस तरह मैंने दिल्ली जाने का फ़ैसला किया.
हम दोनों एक एजेंसी द्वारा दिल्ली गए. पहली बार इतना लंबा सफर करना डरावना था. ट्रेन में ऊपर की बर्थ पर सोने में डर लग रहा था. बाथरूम जाने में डर लग रहा था. साथ ही
खिड़की से बाहर का नज़ारा भी देख रही थी – कहीं गांव दिख रहे थे, कहीं शहर, ट्रेन कहीं नदी पार कर रही थी तो कहीं पुल – सब नया और अनजान. लोग ट्रेन में इधर-उधर आना-जाना कर रहे थे, घूम रहे थे. बहुत ही विचित्र लगा, चलती गाड़ी में चलते हुए लोग!
कैंटीन वाले खाना बेच रहे थे. मैं सोच रही थी कि मेरे यहां तो बाहर चूल्हे में खाना बनता है, ये लोग चलती गाड़ी में खाना कैसे बना लेते हैं? इन्हीं ख़यालों में सफर पूरा हुआ.
जब दिल्ली पहुंची तो घबरा गई. रेलवे स्टेशन में इतनी भीड़! सभी अपने-अपने स्थान जाने के लिए अपना सामान उतार रहे थे. गाड़ी से उतरी तो देखा कि बहुत सारी गाड़ियां लगी हुई हैं. लोग इधर से उधर भाग रहे हैं. धक्का-मुक्की, ठेलम-ठाली हो रही है. मैं अपना सामान उठाकर अपनी सहेली के कपड़े पकड़कर चल रही थी कि कहीं भीड़ में खो ना जाऊं. देख रही थी कि कई लोग बड़े आराम से, सहज भाव से चल रहे थे. मेरे मन में आया कि ये कैसे बिना डरे इतने आराम से जा रहे हैं. क्या इन्हें डर नहीं लगता?
रेलवे स्टेशन गंदा दिखाई दे रहा था, मुझे बहुत घिन आ रही थी. लोगों की भीड़ देखकर लग रहा था कि इससे तो मेरा गांव ही अच्छा है. स्टेशन से निकलने में हमें 25-30 मिनट लग गए. बाहर निकलते ही बड़े-बड़े घर दिखने लगे. सड़कें गाड़ियों से खचाखच भरी हुई थीं. हमारी गाड़ी धीरे-धीरे चींटी जैसे जा रही थी. गाड़ियां देखकर सोचने लगी, ‘यहां इतने सारे लोग रहते हैं, कितने धनी होंगे जो सबके पास गाड़ी है.” तरह-तरह की गाड़ियां दिख रही थीं, और बसें भी. दिल्ली की बसें मेरे गांव की बसों से अलग थीं. मैं घर में बिना बताए चली आई थी. खो जाने का डर था. कहीं गुम हो गई तो कैसे अपने घर जाऊंगी. रेलवे स्टेशन से एजेंसी ऑफिस तक पहुंचते-पहुंचते शाम के करीब 5-6 बज गए थे.
वहां पहुंचकर हमने नहा-धोकर खाना खाया. वहां और भी लड़कियां थीं. मेरी दोस्त और मैं एक साथ सो गए. थकान की वजह से जल्द ही आंख लग गई पर रात में नींद खुली तो मैंने देखा कि कई लड़कियां घर के अंदर इधर-उधर घूम रही हैं. मुझे डर लग रहा था कि क्यों ये लड़कियां रात में इधर-उधर घूम रही हैं. कहीं ये मेरा बैग तो चोरी नहीं करेंगी! होते-होते सुबह हो गई.
एजेंसी की तरफ़ से मुझे सबसे पहले मोती बाग के एक घर में काम मिला. मैंने वहां करीब 5-6 महीनों तक काम किया, फिर वहां से निकलने पर मुझे न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी में काम पर रखा गया. ये घर वह घर था जहां हुए अत्याचार को मैं कभी भूल नहीं सकती.
तीन मंज़िला घर था, बहुत बड़ा मकान. इस बड़े से घर में चार सदस्य थे. दो मेम साहब, और दो उनके बेटे जो 35-40 वर्ष के रहे होंगे. इस घर में मेरे साथ दो और लड़कियां भी काम पर लगी थीं. मेरा काम किचन की देख-रेख, खाना बनाना, और मंदिर की साफ-सफाई करना था. हम तीनों की सुबह 3.30-4 बजे ही हो जाती थी. सुबह उठकर ठण्डे पानी से नहाते, ब्रश करते, और फिर हम तीनों, मेम साहब के रूम में जाकर नाश्ता करते. सुबह मैं लाल चाय बनाकर, साथ में दूध भी गर्म करके ले जाती थी. रात में तीन लोगों के लिए दो-दो के हिसाब से छः सूखी रोटियां चाय के साथ मेम साहब के सामने ले जाती थी. तीनों को सिर्फ दो-दो रोटियां चाय के साथ खाने को मिलतीं. यदि मेम खुश है तो हमारी चाय में एक-दो बूंद दूध डाल देती थी. हम लोग कहीं भी दूसरी जगह बैठकर नाश्ता नहीं कर सकते थे, सिर्फ उसी कमरे में.
शुरू के कुछ दिन तो ठीक थे, लेकिन काम ज़्यादा होने के कारण पेट नहीं भरता था. उन दो सूखी रोटियों के अलावा सुबह 4 बजे से शाम के 4-5 बजे तक हम और कुछ नहीं खा सकते थे. दोपहर 12 बजे का खाना शाम को 4-5 बजे मिलता था. जब तक मेम साहब और उनके बेटे नहीं खा लेते, तब तक हम लोग खा नहीं सकते थे. चावल भी हम सब के लिए बस 2 पाव पकते थे. कभी भी भरपेट खाना नहीं मिला. दोपहर के खाने में गोभी का डंठल और मूली साग की तरी मिलती.
हर दिन एक ही तरह की सब्ज़ी. मैं खूब रोती थी सब्ज़ी को देखकर, खाना गले से नहीं उतरता था, सोचती थी कि गांव में भी इतनी गरीबी नहीं थी कि रोज़-रोज़ गोभी का डंठल खाओ. लगता था क्यों ही मैं दिल्ली भाग कर आई.
रोज़ घर पोछा करना, सुबह-शाम किचन के सारे सामान और मंदिर की सभी मूर्तियों को पोछना. भूख से काम करने का मन भी नहीं करता था. दिन में दोनों लड़कियां कभी-कभी रोटी मांगती थीं, मैं जल्दी से बनाकर, अपनी शलवार छिपाकर उनको देती थी. मैं भी एक रोटी खा लेती थी. लेकिन बात ऐसी थी कि घर में जो 5-10 किलो आटा आता था, उसी में पूरा महीना चलाना था. छुपाकर खाने पर भी पकड़े जाते, मेम कहती कि आटा कैसे खत्म हुआ? मैं चलाकी से सुबह की रोटियां काफी मोटी बनाने लगी, लेकिन मेम साहब की मां ने देखा तो कहने लगी कि ये लड़की इतनी भारी रोटियां बनाती है इसलिए आटा खत्म हो जाता है. फिर क्या था, मैं जान गई कि मेरी चोरी पकड़ी जाएगी तो फिर वही पतली सूखी रोटियां हर दिन चाय के साथ बनाने लगी.
जब मेम और साहब के लिए खाना बनता था तो मैं चख भी नहीं सकती थी, टेस्ट भी नहीं कर पाती. खाना बनाते-बनाते कभी-कभी मुंह से लार भी टपकता था, लगता था कि काश! थोड़ा सा चखने को मिल जाए. जब दिन का खाना बनता, तो मेम की मां – नानी जी, किचन में एक सोफ़े पर बैठी रहती और जब तक खाना टेबल पर नहीं लगता, वहां से जाती नहीं थी. खाना तैयार होने पर, नानी जी वहां से चली जाती, लेकिन दिनभर हमारे आस-पास घूमती रहती कि कहीं हम चोरी से कुछ खा न लें. हमें कभी दाल तक नहीं मिली. एक दिन मैंने बड़ी हिम्मत करके मेम साहब से कहा कि आप लोगों की दाल बच गई है, हमलोग खा सकते हैं? इसपर उन्होंने कहा, “नहीं, हम लोग सुबह खाएंगे.” उस दिन के बाद मैंने कभी कुछ नहीं कहा. अंदर ही अंदर मैं बहुत कोसती थी, कभी अपने आप को तो कभी मेम साहब को. कैसे लोग हैं! इतने धनी हैं फिर भी इतने कंजूस.
दिनभर का काम रात के 1-2 बजे खत्म होता था, थोड़ी देर ही सो पाते थे, फिर सुबह 3.30-4 बजे उठना पड़ता. नींद भी पूरी नहीं होती थी. उठने में ज़रा भी देर हो जाए तो डाट पड़ती थी. दिनभर के काम की थकान ऊपर से हर रात को नानी की मालिश करना. एक दिन की बात है मैं एक ब्रेड का टुकड़ा, वो भी सबसे ऊपर या सबसे नीचे का हिस्सा, उसपर बटर लगा कर खा रही थी कि मुझे नानी ने पकड़ लिया. इतना डांटा कि क्या बताऊं! उस दिन के बाद ब्रेड को कभी हाथ नहीं लगाया, और फ्रिज पर ताला लगने लगा. उनके बेटे कभी-कभी कहते थे कि मम्मी ऐसा मत करो, तो वो उनपर चिल्लाने लगाती. हमारे कारण उनमें लड़ाइयां भी हो जाती थीं. दोनों मेम साहब बड़ी चिड़ी रहतीं. एक भी अच्छे स्वभाव की नहीं थी.
घर से बाहर कभी भी जाने को नहीं मिला चूंकि मैं एजेंसी की तरफ से काम पर लगी थी. इस घर में दो जगह गार्ड बैठते थे, सभी सामान बाहर से ऑर्डर पर आता – दूध, ब्रेड, सब्ज़ी, राशन सब. घर के ऊपर और घेरे पर तार लगा हुआ था, भाग कर जा भी नहीं सकते थे. घर में चप्पल नहीं पहन सकते थे. दिनभर खाली पैर रहना पड़ता – गर्मी हो या बरसात या ठण्ड. ठण्ड में भी कभी नहाने को गरम पानी नहीं मिलाता. मैं तो कभी-कभी ठण्ड के डर से सिर्फ कपड़ा भिगोकर शरीर को पोंछ लेती थी. दूसरी दोनों लड़कियां भी मुझे देखकर ऐसा ही करने लगीं. कभी-कभी तो नहाते ही नहीं थे, सिर्फ कपड़े बदल लेते थे. जब भी काम के दौरान छूट्टी मांगी, कभी नहीं मिली. मेम बोलती थी कि एक साल तक कहीं नहीं जाना है, यहीं रहना है. इस कारण मैं 1 साल और 2-3 महीने तक कभी बाहर ही नहीं निकली थी.
उस बीच मेम साहब दस दिन के लिए अपने फैक्ट्री गई हुई थी और तभी मुझसे मिलने के लिए एजेंसी चलाने वाले पति-पत्नी आए. मैं ज़िद करने लगी, “मुझे यहां काम नहीं करना है, अगर आज आप लोग मुझे नहीं ले जाएंगे तो मैं ऊपर कहीं से कूदकर जान दे दूंगी.” वे दोनों डर गए और बोले, “ ठीक है, हम लोग ले जाएंगे.” जाने से पहले नानी मेम ने मेरा सारा बैग चेक किया. गार्ड लोगों को भी झांकने को कहा कि कहीं कुछ ले तो नहीं जा रही. तब जाकर मैंने उस घर से छुटकारा पाया.
जैसे ही बाहर निकली, पूरा शहर अनजान सा लगा. फिर वही बड़े-बड़े घर, मकान, चौड़ी सड़कें, तेज़ गति से दौड़ती हुई गाड़ियां. सड़कों पर गाड़ियों की लम्बी क़तारें – एक बार फिर मैं शहर को देखकर हैरान हुई. इतने दिनों में एक दिन भी मैं घर से बाहर नहीं निकली थी. इसका एक नतीजा यह भी हुआ कि मैं पूरी सफेद, गोरी-चिट्टी दिखाई दे रही थी. मैं थोड़ा-थोड़ा खुश भी थी कि गोरी हो गई हूं. लगता था वापस कभी काली नहीं होउंगी.
उस घर से छुटकारा पाकर, मैं वापस एजेंसी ऑफिस आई. उन दिनों मेरी सहेली भी काम छोड़कर आई हुई थी. दिल्ली आने के बाद उससे यह मेरी पहली मुलाकात थी. मैं रात को खूब रोई कि मुझे घर जाना है. मैंने कहा, “टिकट कर दीजिए घर की याद आ रही है”. तो उन्होंने कहा, “पैसे नहीं हैं, तेरे घर में पैसे भेज दिए हैं, ऐसे में कैसे जाओगी?”. तब मेरी सहेली ने बताया कि उसके पास मेरी भाभी के ऑफिस का फोन नंबर है. एक-दो दिन के बाद फोन पर मेरी भाभी से बात हुई और मेरे भैया-भाभी मुझे एजेंसी से अपने घर ले गए. तब वे किदवई नगर में सरकारी क्वार्टर में रहती थी. वहां पहुंचकर देखा तो वहां भी कई लडकियां थीं. मैं मन ही मन समझ चुकी थी कि यहां भी लड़कियों को काम पर लगाया जाता है.
उसी बीच भैया-भाभी बोलने लगे कि एक जगह काम है बच्ची देखने का. मैंने पूछा, “वहां की मैडम कैसी है?” वहां जो लड़की पहले काम कर रही थी, वह आई हुई थी, तो मैंने उससे भी पूछ-ताछ की. उसने बताया, “इस घर के लोग अच्छे हैं. एक बच्ची है, दो मैडम हैं, एक साहब हैं.” मैंने पूछा, “खाना कैसा मिलता है, भर पेट खाना मिलता है कि नहीं?” उसकी जानकारी के अनुसार सब कुछ ठीक था, तो मैं राज़ी हो गई.
तब मुझे दिप्ता दीदी के यहां लेकर गए. मैं एक साड़ी पहनकर गई थी. जब दीदी बाहर निकलीं तो मैं ज़रा सा डर गई, ‘अरे, इतनी मोटी सी मेमसाहब पता नहीं कैसी है!’ फिर पिछले घर की वही कड़वी यादें आने लगीं. इतने में दीदी कुछ पूछने लगीं, “सब काम जानती हो?” मैंने कहा, “जी हां, जानती हूं.” वे बोलीं, “एक छोटी बेबी को देखना है. घर का छोटा-मोटा काम भी करना है.” इस तरह बात करके मैंने 1200 से 1500 रूपए में वहां काम शुरू किया.
उनका घर वसंत कुंज डी ब्लॉक में था. वहां बिमला नाम की एक दीदी घर में झाडू-पोंछा के लिए आती थी. मैं उसको पूछती थी कि ये लोग कैसे हैं, तो बोलती थी कि बहुत अच्छे हैं. तब धीरे-धीरे वहां मेरा मन लगने लगा. मुझे दिप्ता दीदी ने ‘मदर डेयरी’ और बाज़ार वग़ैरह दिखाया था. एक बार दूध लाने निकली तो वहां के पोस्ट ऑफिस का पता किया. फिर मैंने पत्र लिखकर सारी जानकारी मां- पिताजी को भेजी.
इस घर में काम करते हुए, मैंने बहुत सी चीज़ों में अंतर पाया. यहां दीदी कुछ अलग और वहां वो मेम साहब कुछ अलग थी. शुरू-शुरू में मुझे डर लगा रहता था. मैं खाने में चावल ज़्यादा खाती थी. दही, दूध ज़्यादा पंसद नहीं करती थी. चूंकि इतने दिनों में कभी ठीक से खाने को नहीं मिला था, इसलिए मैं ज़्यादा खाती भी नहीं थी. लेकिन यहां मुझे हर चीज़ की आज़ादी थी. खाने-पीने से लेकर नहाने-धोने तक, सब करने की छूट थी। दिप्ता दीदी बोलती थी कि हम लोगों को मेम साहब मत कहना, दीदी-भैया बोलना. यहां भैया, दिप्ता दीदी, जया दीदी को देखकर मैं सोचने लगी कि एक ही शहर में कितने अलग तरह के लोग रहते हैं.
मैं खुश थी दिप्ता दीदी के पास क्योंकि अच्छे खाने के साथ-साथ, हर महीने अच्छा पैसा भी मिल रहा था. कुछ पैसे जमा करने के बाद घर जाने का मन कर रहा था. अब मैं गोरी भी हो गई थी और हाथ में पैसे भी थे.
घर जाने से पहले मैंने एक ट्रंक भी ख़रीदा जो मेरी पहली कमाई की निशानी थी. पहले घर में कपड़े रखने के लिए कुछ नहीं था, तो मुझे बहुत खुशी हुई कि अब मेरे घर में भी बक्सा है.
ऐसे ही दिप्ता दीदी से मेरा लगाव बढ़ता गया. उनकी बेटी सेहर को देखना, उसका ख्याल रखना अच्छा लगता था. सुबह 9.30 बजे के आस-पास सभी के लिए खाना, सेहर के कपड़े, और उसका बैग तैयार करके जया दीदी, दिप्ता दीदी, सेहर और मैं उनके ऑफ़िस ‘निरंतर’ चले जाते. निरंतर में बहुत सारी दीदीयां थीं – रेणुका दीदी, मालिनी दीदी, फरहा दीदी – साथ में अजय भैया और अनिल भैया. मैं निरंतर ऑफ़िस में एक जगह बैठकर कुछ सिलाई करती रहती थी, सिलाई-कढ़ाई करना मुझे बहुत अच्छा लगता है.
निरंतर में आए दिन कुछ न कुछ अलग होता रहता था, मैं सुनती रहती थी कि क्या-क्या बातचीत हो रही है. चूंकि सेहर छोटी थी, दिप्ता दीदी जहां जातीं मुझे साथ ले जाती थीं. इस तरह मैं कई जगहों पर गई. – अहमदाबाद, कच्छ, करवी, बांदा. कई तरह के लोगों से मुलाकात होती थी. मैं किसी जेल से निकलकर आज़ाद हुए पंछी की तरह महसूस कर रही थी. बांदा में लोगों को नाचते हुए देखकर मुझे बहुत अच्छा लगता था, लेकिन आज तक मैं उनकी नकल नहीं कर पाई.
कुछ एक साल बाद, दिप्ता दीदी वसंत कुंज छोड़कर भैया के पास विदेश चली गई. जाने से पहले मुझे उन्होंने अपनी मम्मी के घर काम पर लगा दिया. मुझे सेहर की याद ज़्यादा आती थी, चूंकि वह अक्सर मेरे पास रहती थी. दीदी के मम्मी-पापा डिफेंस कॉलोनी में रहते थे और मैं उनके साथ रहने लगी. वहां दिप्ता दीदी की बहन शिखा दीदी की बेटी सीमा भी थी, हम दोनों काफ़ी मज़े करते थे. सीमा और मेरे लिए पापा सप्ताह में एक-दो बार मटन-चिकन लाते थे. दोनों बहुत मज़े से रह रहे थे. कभी-कभी मैं उस घर को याद करती जहां मैं सिर्फ गोभी और मूली का डंठल खाती थी.
मैं दिल्ली यही सोचकर आई थी कि मैं भी दूसरों की तरह पैसा जमा करूंगी. अच्छे कपड़े, अच्छे जूते-चप्पल पहनूंगी, गोरी लगूंगी, मोटी होकर, सुंदर बनकर घर जाउंगी. गांव में हमारा घर कच्ची मिट्टी का नहीं बल्कि पक्का मकान होगा. मैं ऐसी ही बहुत सारी चीज़ें सोचती थी. मेरे मम्मी-पापा साधारण किसान थे. मेरे काम करने से मेरे मम्मी-पापा भी मेरे ऊपर आश्रित रहते थे. उनको लगता था कि चलो कुछ तो मदद हो रही है. मैं कुछ अपने भाई-बहनों की फीस दे देती थी. सभी के लिए कपड़े खरीद कर ले जाती थी. मेरी मां ने कभी मुझे बचत करना नहीं सिखाया. शायद इसलिए कि हमारी ग़रीबी में जिसके पास भी पैसे आते थे सारा परिवार उसपर आश्रित रहता था. दिप्ता दीदी के पास काम करते-करते बहुत सारी चीज़ों की जानकारी मिली, जैसे – बैंक बैलेंस रखना, जीवन बीमा कराना, कैसे अपने हक अधिकार के लिए लड़ना है इत्यादि. मैंने दिल्ली में रहकर अपने भाई की शादी अपने पैसे से कराई. मेरी अपनी शादी के वक़्त, अपने परिवार का बोझ मैंने ही ढोया.
इस बीच गांव से शहर, शहर से गांव आना-जाना लगा रहता था. मुझे गर्व महसूस होता था कि मैं इतनी दूर आना-जाना कर सकती हूं. अकेले झारखण्ड से दिल्ली और दिल्ली से रांची आने का अनुभव, लोगों की भीड़, किस तरह लोग बड़ी फुर्ती से ट्रेनों में या बसों में चढ़ते-उतरते हैं. मैंने बहुत सारी चीज़ें सीखीं शहरों में रहकर. जो चीज़ें घर में नहीं सीख पाई. वे शहरों से सीखीं. शहरों में लम्बी-लम्बी पक्की सड़कें, पुल, बड़े-बड़े मॉल, दुकानें देखने को मिलतीं.
गांव में लोग अपने खेतों से सब्ज़ी ताज़ा तोड़कर खाते हैं लेकिन शहरों में कई दिन पहले तोड़ी हुई सब्ज़ियां ही मिलती हैं.
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