‘नक्शा-ए-मन’ चित्रों के ज़रिए हमारे ‘ट्रैवल-लोग’ के सफ़रनामे को दर्शाने का प्रयास है. द थर्ड आई ट्रैवल फेलोशिप – ट्रैवल-लोग – में हमने अलग-अलग जगहों से चुने हुए 13 लेखकों एवं डिज़ाइनरों के साथ मिलकर काम किया ताकि वे नारीवादी नज़र से शहर की कल्पना को शब्द-चित्रों में सजीव कर सकें.
इस प्रक्रिया में हर एक फेलो के साथ मिलकर एक चित्रकार ने, उनके मन में बसे गांव, कस्बे और शहर के उस नक्शे को उभारने का प्रयास किया है जिसके भीतर वे अपने को देख पाते हैं. वो शहर, जो हमारे शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक अनुभवों से बना होता है.
दरभंगा, बिहार के रहने वाले अभिषेक अनिक्का, लेखक, कवि और शब्द कलाकार हैं. कई तरह की बीमारियों और विकलांगता से लगातार जूझते रहने वाले अभिषेक का कहना है कि यह उनकी कलात्मकता को बढ़ावा देती हैं.
अभिषेक के नक्शा-ए-मन को मधुबनी कलाकार मालविका राज ने अपनी कूची से उभारा है. मालविका पटना की रहने वाली हैं और अपने चित्रों में बौद्ध दर्शन एवं उसके विभिन्न रास्तों के ज़रिए दलित इतिहास को सामने लाने का प्रयास करती हैं.
यह नक्शा-ए-मन सीरीज़ का पहला नक्शा है, साथ ही इसके ज़रिए बिहार के रहने वाले इन दोनों लेखक-चित्रकार की बातों के बीच हमारी मुलाक़ात उनके शहर से भी होती है.
मालविका : जब हम पहली बार इस काम के सिलसिले में मिले थे तो आपको कैसा लगा था? वो क्या बात थी जिसकी वजह से आप और मैं साथ मिलकर इस नक्शे को तैयार कर सके?
अभिषेक : आपसे मिलने से पहले मैं आपके द्वारा बनाए गए चित्रों और डिज़ाइन को देख चुका था. उन्हें देखने के बाद मुझे एक जुड़ाव महसूस हुआ. मेरे ख़्याल से हम एक जैसे शहर में ही पले-बढ़े हैं और लगभग एक जैसे अनुभवों से गुज़रे हैं – वैसे भी 80 और 90 के दौर में सभी जगहों के छोटे शहर लगभग एक जैसे ही हुआ करते थे.
हम दोनों दशकों से पटना और उसकी सड़कों को अच्छी तरह पहचानते हैं. यहां तक कि आप उन गिने-चुने लोगों में से हैं जिनके साथ मैं मौर्य लोक और हमारी ज़िन्दगियों में उसकी क्या जगह है इस पर खुलकर बात कर सकता हूं.
मालविका : (हंसते हुए) मुझे लगता है कि मौर्य लोक के बारे में पटना में पिछले 10 सालों में रहने वालों को कुछ मालूम ही नहीं होगा. उन्हें मौर्य लोक के संदर्भ ही समझ नहीं आएंगे.
अभिषेक : बिल्कुल यही बात – अब जब वहां इतने सारे शॉपिंग कॉम्पलेक्स और मॉल खुल गए हैं, ऐसे में अभी के लोगों को बिलकुल समझ नहीं आएगा कि क्यों मौर्य लोक हमारी हर तरह की शॉपिंग का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र बिन्दु हुआ करता था. हमारे जैसे लोग, जो पटना में एक ख़ास समय में बड़े हो रहे थे, वे ही सिर्फ़ समझ सकते हैं कि हमारी ज़िन्दगियों में मौर्य लोक की क्या महत्ता है.
मेरे ख़्याल से आपने ‘नक्शा-ए-मन’ (माइंड-मैप) के ज़रिए मेरे शब्दों को हू-ब-हु रेखाओं में उभार दिया है. ठीक वैसे ही जैसे वो मेरे मन- मस्तिष्क में हैं. शहर का यह नक्शा कहीं से भी मेरे लिखे हुए शब्दों से अलग नहीं दिख रहा. ऐसा लगता है जैसे सालों से जमा मेरी यादों की रील चल रही हो और आप इस सिनेमा घर की सबसे आगेवाली कुर्सी पर बैठकर सब देख रही हैं.
मालविका : मुझे पता है कि छोटे शहर में बड़े होने के हमारे अपने हज़ार तरह के अनुभव हैं. कुछ मिले-जुले, कुछ एकदम अलग, लेकिन
जब मैंने आपके लेख को पढ़ा तो एक महिला के रूप में मुझे लगा कि मैं इन सारे शब्दों से वास्ता रखती हूं. मैं इन्हें अच्छी तरह जानती हूं. हमें, सड़कों पर जिस तरह से घूरा जाता है, उस घूरती नज़र से जो गुस्सा पनपता है, वो राह चलते लोगों की नज़र का शिकार होने वाला जो भाव है.
आपको पता होता है कि कब और कहां वो आपके पीछे आने वाला है और उससे कैसे बचना है, ये सब.
अभिषेक : उफ़्फ़ वो घूरने वाली नज़र! इससे फ़र्क ही नहीं पड़ता कि आप पटना में हैं या दरभंगा में, उस नज़र से आप कभी बच नहीं सकते, है न! फ़िर चाहे वो मेरा मोटा विकलांग शरीर हो जो इन गलियों से पार होता है या मेरी बहन का स्कर्ट पहनकर मौर्य लोक की सड़कों पर चलना. अपना शहर या पड़ोस कभी घर की तरह महसूस ही नहीं हुआ, घर सिर्फ़ अपना ख़ुद का घर ही होता था.
मैंने इस नक्शा-ए-मन में देखा कि कैसे आपने मुझे शहर की परिधि में रखा है जहां से मैं दूसरों को देख रहा हूं और लोग भी मुझे घूर रहे हैं. देखने और दिखाई देने वाला गोला जिसमें हम फंसे होते हैं.
मालविका : आह! मैं आपको इस भीड़ के बीच में कैसे रख सकती थी! जब हम दोनों को पता है कि हमारी सारी जद्दोजहद इस भीड़ से बाहर निकलने की है. फ़िर भी हम इसमें फंसे हुए नज़र आते हैं, ये जानते हुए कि कभी कुछ नहीं बदलेगा. इस सच्चाई को स्वीकार करते हुए कि शाम के 6 बजे से पहले घर लौटना या घर से बाहर निकलना कितना तकलीफ़देह होगा.
अभिषेक : सही कहा आपने. पिछले कुछ सालों से तो ये सच्चाई मेरे लिए और भी दमघोंटू हो गई है कि मैं इस छोटे से शहर से कभी निकल नहीं पाउंगा. इस शहर में फंसे रहने के अहसास को जिसे मेरी शारीरिक बीमारियां और भी बढ़ा देती हैं और बाहर निकलने का कोई भी प्लान शुरू होने से पहले ही पस्त हो जाता है. इस शहर में जो भी मेरी अच्छी यादें है वो कुछ लोगों के ही साथ जुड़ी हैं जिनके बारे में मैंने अपने लेख में लिखा भी है. साथ ही बचपन के कुछ रंगीन पल (साथ ही कुछ पीड़ाजनक पल भी) जो मैंने यहां बिताए हैं.
पीड़ाओं के साथ ही छोटा शहर आपको ऐसी पढ़ाई और नौकरी की ओर भी धकेलता है जो एक तयशुदा खांचे में हमेशा से ढली आ रही है. अब तो फ़िर भी समय बदल गया है, लेकिन मैं सोच नहीं सकता कि जब हम बड़े हो रहे थे उस वक़्त इंजीनियर या कॉमर्स की पढ़ाई करने के अलावा कोई और विकल्प भी हो सकता था! यही वो विषय थे जो समाज में आपको कोई जगह दिला सकते थे. ऐसे में पटना जैसे शहर में रहकर चित्रकार बनना और उसमें इतने बड़े मुक़ाम तक पहुंचने के लिए ज़रूर आपने बहुत कुछ सुना, सहा होगा. सच में मालविका, आपके डिज़ाइन मुझे बहुत चौंकाते हैं!
मालविका : (हंसते हुए) जैसा कि छोटे शहरों के ज़्यादातर घरों में होता है कला को लेकर मेरी भावनाएं मेरे माता-पिता की इच्छाओं के बिलकुल विपरीत थीं. वे पूरी शिद्दत से मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थे. लगातार लंबे समय तक हमारे बीच बहसें और बातें होती रहीं और उसके बहुत समय बाद जाकर उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि मैं एक चित्रकार बनना चाहती हूं. वैसे, मज़े की बात है कि मुझे अभी भी ठीक से नहीं पता कि मेरे परिवार के लोगों को मेरा काम समझ में आता भी है कि नहीं.
अभिषेक : ये जो हमारी ज़िन्दगी में मोल-तोल वाली बात है, ये इतना शानदार आइडिया है. इसे सुनते ही मुझे हमारे शहर की ‘घूमटी’ याद आ जाती है जिसे आपने नक्शा-ए-मन में भी उभारा है. घूमटी, हम रेलवे क्रॉसिंग को कहते हैं. जिस किसी ने भी बचपन में रिक्शा या तांगे से स्कूल से आना-जाना किया है वो इसे बहुत आसानी से समझ सकता है. देखा जाए तो पूरे शहर में एक या दो रेलवे क्रॉसिंग हुआ करती थीं. चूंकी रेलवे लाइन शहर के बीचों-बीच से ही निकला करती थी.
मुझे शहर के इस नक्शे में घूमटी की जाली के नीचे से निकलते हुए लोग बहुत ही मज़ेदार लगे. घूमटी के चित्रों में वो बेसब्री झलक कर सामने आ रही है जब लोग जाली के नीचे से स्कूटर और रिक्शे को झुकाकर निकाला करते थे. रेलवे क्रासिंग है, ट्रेन आने वाली है और उस बीच के समय में कितनी छटपटाहट होती है उससे निकलकर भागने की. एक छोटा शहर आपको इन चीज़ों का एक्सपर्ट बना देता है.
मुझे ऐसा ही महसूस होता है कि मेरी ज़िन्दगी भी ऐसी ही किसी गोलाई में फंसी हुई है. उस गोले में मैं हमेशा अपने को एक निश्चित दूरी के साथ परिधि पर खड़ा पाता हूं - छत पर बैठा हुआ लेकिन एक अर्थ लिए हुए शून्य में घूरता हुआ.
ख़ुद को इस तरह की कल्पना में देखना बहुत अच्छा लगा, जहां मैं न केवल अपने बीते हुए कल को पलट कर देख रहा हूं बल्कि भविष्य की ओर भी मेरी नज़रें टिकी हुई हैं. मैं शायद जानबूझकर भविष्य के बारे में कुछ प्लान नहीं करता क्योंकि अक्सर कब क्या बदल जाए इसका पता नहीं होता. लेकिन, हां एक भरोसा है मन के भीतर, जिसे मैं हमेशा पकड़ कर अपने पास रखना चाहता हूं. नक्शा-ए-मन की आपकी कल्पना में मुझे वो भरोसा दिखाई देता है, बिल्कुल वैसे ही जैसे मेरी कहानी हू-ब-हु कोई और मुझे सुना रहा हो, जैसे मेरे ही शब्द चित्रों के ज़रिए मेरे पास घूमकर आ रहे हैं.
मालविका : अभिषेक, ये सुनकर मुझे सच में बहुत खुशी हो रही है.
जब से मैंने कैनवस और पेंट-ब्रश उठाया है तब से मेरी यही कोशिश रही है कि मैं अपने चित्रों के ज़रिए कोई कहानी कह सकूं. ऐसा लग रहा है कि इस नक्शा-ए-मन में मैं यह काफ़ी हद तक कर पाई हूं.
अभिषेक : आपने शुरुआत में जो ब्लैक एंड वाइट ड्राफ्ट भेजा था उसे मैंने अपनी नानी को भी दिखाया. उन्हें बहुत पसंद आया. मैं भी उसे देखकर बहुत खुश हुआ. मैंने तो सोच लिया है उसे फ्रेम करवाकर अपने घर की दीवार पर लगाउंगा. आख़िरकार, ये वो तस्वीरें हैं जो कभी वापस नहीं आएंगी और शायद हमारे दिमाग़ में कहीं घर बनाकर बैठी रहें. आपने जो चित्र बनाए वो सच में जादूई हैं. समय और यादों को कैसे कला के ज़रिए देखा जाए, उसकी अद्भुत मिसाल हैं.
मालविका : स्मृतियां आपके साथ हमेशा खेल खेलती रहती हैं. हमारे अपने अनुभव हमें बनाते हैं, हमें गढ़ते हैं. मेरे बचपन की यादों में मैंने जातिगत भेदभाव के दंश को रोज़ की ज़िंदगी में जिया है. वो भी ऐसे समय में जब आपको बहुत कुछ पता भी नहीं होता था... बिहार में लड़कियों के स्कूल में मेरे साथ कोई टिफन नहीं खाता था.
मैं पढ़ाई में भी बहुत अच्छी नहीं थी. न मुझे नंबर समझ आते और न ही भाषा. मेरे लिए ड्राइंग ही वो जगह थी जहां मैं खुश रहती थी. मेरे लिए नॉस्टैलजिया जैसा कुछ नहीं है और न ही उस बचपन में ऐसा कुछ ख़ास था जहां मैं वापस लौटना चाहती हूं. (हां, स्कूल आपको आगे की ज़िंदगी में आने वाली हिंसा के लिए ज़रूर तैयार कर देता है.) इसलिए मैंने नक्शा-ए-मन में भी ऐसी कुछ रेखाओं को उभारने की कोशिश है जो हमारी यादों और उससे जुड़े अलगाव से निकलकर आती हैं.
अभिषेक : मेरे पास घर वापस जाने की एक ही वजह है कि अब मैं बिलकुल चल, घूम नहीं सकता. घर लौटकर मेरा मन बचपन के क्रिकेट मैदान में बैटिंग करते और विकेट के आगे पीछे भागते हुए ख़ुद को वापस जीने की ख़्वाहिश में खो जाना चाहता है. इसके अलावा मुझे भी बचपन की और किसी भी याद में लौटने का मन नहीं करता. ये
यादें दरअसल उनके लिए रूमानी होती हैं जिनका बचपन बिहार जैसी टूटी हुई जगह में नहीं बीता और जिन्हें अपना घर, परिवार और शहर छोड़कर जाने की वो दबी हुई ग्लानि से जूझना नहीं पड़ता.
इस लेख का अनुवाद सुमन परमार ने किया है.