यह भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) में सक्रिय छात्र समूहों पर तैयार की गई रिपोर्ट के अंश का दूसरा हिस्सा है. वह समूह जो कि प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थानों, विशेष रूप से इंजीनियरिंग संस्थानों में जाति आधारित भेदभाव के बारे में छात्रों को शिक्षित करने और उनमें जागरूकता पैदा करने का काम करते है. ये समूह व्यापक आम्बेडकर स्टडी सर्किल के संरक्षण में काम करते हैं, जो परिसरों के बाहर भी क्रियाशील हैं.
गोपनीयता के लिए सभी नामों को बदल दिया किया गया है.
जिन छात्र समूहों का साक्षात्कार लिया गया, वे हैं – आईआईटी चेन्नई का आम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्किल (एपीएससी), आईआईटी मुम्बई का आम्बेडकर फुले पेरियार स्टडी सर्किल (एपीपीएससी) और आम्बेडकर स्टडी सर्किल (एएससी).
पहला हिस्सा यहां पढ़ें.
सन् 2018 में, आईआईटी मुम्बई में माधवी ने एपीपीएससी की सदस्यता ली थी. वे सर्किल की गिनीचुनी महिला सदस्यों में से एक थीं. अभी वे पीएचडी कर रही हैं. वे समूह में शामिल हुईं क्योंकि अपने बीए के दिनों की तरह यहां भी कैंपस ऐक्टिविज़्म का हिस्सा बने रहना चाहती थीं. वैसे भी भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (IIT’s) में दयनीय स्त्री-पुरुष अनुपात के कारण जेंडर समानता एक ऐसी चीज़ है जिसे हासिल करना सभी समूहों के लिए कठिन है.
एपीपीएससी की एक पुरानी सदस्य हैं – कविता, जो वर्ष 2018 से 2019 तक आईआईटी मुम्बई में शोधकर्ता थीं. उन्होंने आम्बेडकरवादी स्टडी सर्किलों में महिलाओं की स्थिति को लेकर जो कुछ देखा-समझा, वह प्रोफेसर गीता के विचारों से मेल खाता है. अर्थात्, संवाद के लिए खुलापन और महिलाओं और जेंडर अल्पसंख्यकों को स्पेस देने को साथियों द्वारा गंभीरता से लेना. वे कहती हैं, “मुझे लगता है कि हमने पहले से सीखा हुआ बहुत कुछ मिटा कर नया कुछ सीखा है.”
आम्बेडकरवादी स्टडी सर्किलों में जेंडर, नारीवाद, इंटरसेक्शनेलिटी (सामाजिक वर्गीकरणों की परस्पर प्रकृति) आदि से जुड़ी किताबों और सिद्धांतों पर विचार-विमर्श किया जाता है.
हालांकि, सवर्ण या उदार नारीवाद के वैचारिक विभाजन या वर्गीकरण के विपरीत, जाति-विरोधी विचार और कार्य नारीवाद के केंद्र में हैं क्योंकि जाति की जो अधिरचना है वह वास्तव में महिलाओं की अधीनता और नियंत्रण पर ही आधारित है. सगोत्र या सजातीय विवाह की आड़ में छुपे बैठे इस भूत का पर्दाफाश स्वयं बाबासाहेब ने किया था, और इसीलिए इस भूत को भगाना अगर सीधे-सीधे नहीं तो लगभग स्वाभाविक रूप से नारीवादी का काम ही है.
प्रोफेसर वी. गीता के अनुसार, वे विभिन्न जाति-विरोधी सभाओं, स्टडी सर्किलों, राजनीतिक शिक्षा समूहों आदि में पढ़ाने के लिए जाती रही हैं और उन्होंने पाया है कि उनमें महिलाओं की तुलना में पुरुषों की संख्या अधिक होती है. हालांकि, वे मानती हैं कि आम्बेडकरवादी परिवेश में महिलाओं को “बहुत अधिक जगह मिली है. उनको बेहतर तरीके से सुना जाता है. मैं यह नहीं कहूंगी कि अंधभक्ति या क़ौमपरस्ती या कि यौनिक तनाव बिल्कुल भी नहीं है. वह सब तो है… लेकिन एक बौद्धिक खुलापन है जो कहीं और नहीं मिलता. स्त्री-द्वेष और जेंडर से जुड़े मसले तो हैं, लेकिन खुलापन… बौद्धिक खुलापन और जातिवाद से लड़ने की एक सामान्य साझी प्रतिबद्धता भी है जो आंतरिक तनाव और गुस्से, सवाल और संदेह के बावजूद समूहों को संगठित रखती है. मुझे लगता है कि यही इन जगहों को काफी हद तक खास और अलग बनाती है.”
मेरिट का मिथक
प्रभावशाली विचारधाराओं और जातिवाद के टकराने के तरीकों में से एक है – डॉग-व्हिसल अर्थात कूट भाषा को वैध बनाना. यही योग्यता यानी मेरिट का मिथक है. (डॉग-व्हिसल का प्रयोग वस्तुतः उस सांकेतिक भाषा के संदर्भ में किया जाता है, जो समूह-विशेष ही समझ पाता है, वैसे ही जैसे कि अल्ट्रासोनिक सीटी की आवाज़ सिर्फ कुत्ते ही सुन सकते हैं, मनुष्य नहीं.) इसे सीधी चुनौती देना विश्वविद्यालयों में आम्बेडकरवादी अध्ययन समूहों का स्वाभाविक अगला कदम है, जिन्हें मज़ाक में “शैक्षिक अग्रहारम” कहा जाता है.
दक्षिण भारत में पारम्परिक ब्राह्मण बस्तियों को अग्रहारम या अग्रहार कहा जाता है. अग्रहारम में केवल ब्राह्मण जाति के लोग ही रहते हैं. ऐतिहासिक रूप से देखें तो ये बस्तियां राजसत्ता (राजा) या अभिजात वर्ग के व्यक्ति द्वारा ब्राह्मणों को दी गई ज़मीनों पर आबाद हुई थीं. आसपास के मंदिरों और धार्मिक स्थलों के रख-रखाव की ज़िम्मेदारी इन्हीं अग्रहारियों को दी गई थी. इस लिहाज़ से देखें तो विश्वविद्यालय के लिए “शैक्षिक अग्रहारम” का रूपक बिल्कुल सटीक और अर्थपूर्ण है.
अभी पिछले ही साल, केंद्र सरकार द्वारा गठित एक आठ सदस्यीय समिति ने 23 भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों के लिए केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान (CEI) अधिनियम, 2019 के तहत वरिष्ठ संकाय पदों पर नियुक्ति में आरक्षण से छूट की सिफारिश की थी. द वायर की एक रिपोर्ट ने इस विडम्बना को रेखांकित किया कि किस प्रकार नामांकन और नियुक्ति में आरक्षण को “प्रभावी ढंग से लागू करने” के उपायों पर विचार के लिए गठित समिति ने ऐसी प्रतिकूल सिफारिश की थी!
प्रोफेसर गीता कहती हैं कि “जब भी कोई आरक्षण की बहस छेड़ता है, तो मुझे बहुत गुस्सा आता है. इसलिए नहीं कि वह आरक्षण का विरोध करता है, बल्कि इसलिए कि आरक्षण तो तभी कारगर साबित होगा न जब मज़बूत बैकग्राउंड (आधार) तैयार किया जाएगा. मेरा मतलब है, बच्चों को पढ़ाई के लिए प्रेरित करना होगा और माता-पिता को समझाना होगा कि वे अपने बच्चों से काम न कराएं, उन्हें पढ़ने भेजें. तो ऐसा कौन करेगा? आप जानते हैं कि नैतिक समर्थन, बौद्धिक समर्थन, नेटवर्किंग, और राज्य द्वारा जो उपलब्ध कराया गया है, उस पर नज़र रखना इतना आसान काम नहीं है. यह बहुत मेहनत का और बहुत ही मुश्किल काम है, क्योंकि आपके पास बहुत ही कम संसाधन हैं…”
पार्थ पेशे से डेटा साइंटिस्ट हैं. उन्होंने 2018 में आईआईटी मुम्बई में दाखिला लिया था. यही वो साल था जब उन्होंने एपीपीएससी की सदस्यता भी ली. और उन्हीं के शब्दों में कहें तो “कुछ हद तक अंतर्मुखी” स्वभाव के हैं. उन्होंने जल्दी ही यह महसूस किया कि एपीपीएससी में उनके पूर्ववर्तियों ने विभिन्न भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में आरक्षण से सम्बंधित कई आरटीआई दायर किए थे, लेकिन उनमें से अधिकांश का विश्लेषण नहीं किया गया था. ऐसे में पार्थ ने यह ज़िम्मेदारी अपने सिर ले ली. उन्होंने अपने कुछ दूसरे साथियों से इस काम के लिए संपर्क किया, लेकिन महामारी की वजह से वे इस काम में दूर से ही हाथ बंटा सकते थे. इस तरह पार्थ और कुछ अन्य सदस्यों ने आरटीआई के माध्यम से प्राप्त सूचनाओं के विश्लेषण का काम शुरू किया. उन्होंने पूरे साल (2021) अपने निष्कर्षों और डेटा विश्लेषण के पोस्टर बनाए और इन्हें अपने सभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर पोस्ट करना शुरू किया, जो बार-बार राष्ट्रीय सुर्खियां बटोर रहे थे.
हेडलाइंस (सुर्खियां)
द हिंदुस्तान टाइम्स: 2015 से 2019 के बीच आईआईटी-बॉम्बे के 26 में से 11 विभागों में अनुसूचित जनजाति श्रेणी का एक भी पीएचडी स्कॉलर नहीं: आरटीआई डेटा.
बारएंडबेंच: सुप्रीम कोर्ट में याचिका, सभी 23 भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों पर फैकल्टी भर्ती, रिसर्च डिग्री प्रवेश में आरक्षण लागू करने के सरकारी निर्देश का उल्लंघन करने का आरोप.
द न्यूज़मिनट: आईआईटी-मद्रास ने नामांकन में एससी/एसटी आरक्षण नियमों का किया उल्लंघन, छात्रों के निकाय का आरोप.
EdexLive: आईआईटी बॉम्बे के 11 विभागों में एक भी एसटी छात्र को नहीं मिला दाखिला.
द वायर: भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों को नामांकन और नियुक्ति में कोटे का पालन करने का दें आदेश: सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर. याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि सभी 23 भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान आरक्षण नीति की धज्जियां उड़ा रहे हैं.
द हिंदू: हायर स्टडीज़ एंड द मार्जिनलाइज़्ड| आईआईटी-बॉम्बे में अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित पीएचडी की सभी सीटें खाली.
The NewsClickIn: आईआईटी मद्रास: अधर में अटका सामाजिक न्याय का सपना, ज़िम्मेदार कौन?
नतीजा यह हुआ कि कई अन्य संस्थानों के छात्र और समूह उनके पास सहयोग, सुझाव और सलाह के लिए आने लगे. पार्थ बताते हैं कि दरअसल “वे जानना चाहते हैं कि हमने यह कैसे किया, और वे यह भी जानना चाहते हैं कि वे अपने कैंपसों में इसी तरह की चीज़ों को कैसे अंजाम दे सकते हैं.” वे बताते हैं कि आरटीआई दाखिल करना, डेटा का विश्लेषण करना और अपनी मांगों के समर्थन में सोशल मीडिया का लाभ उठाना वास्तव में “रणनीतिक और सुविचारित निर्णय था.” यह एक ऐसा ब्लूप्रिंट है जिस पर अमल के लिए ज़्यादा लोगों की ज़रूरत नहीं पड़ती, वे दूर-दूर रहकर भी अपने काम को अंजाम दे सकते हैं और सबसे बड़ी बात कि उल्लेखनीय परिणाम प्राप्त कर सकते हैं.
परिणाम वास्तव में विस्फोटक और पर्दाफाश करने वाले थे. भले ही प्रशासन ने ज़ोर देकर कहा कि उन्होंने निर्धारित नियमों और प्रोटोकॉल का पालन किया है, लेकिन आंकड़े कुछ और ही कहानी बयान करते थे. उदाहरण के लिए,
आईआईटी मुम्बई में 2015 से 2019 के बीच 11 विभागों में एक भी एसटी स्कॉलर को दाखिला नहीं दिया गया था.
आईआईटी मुम्बई के एपीपीएससी ने हाल ही में कास्ट ऑन कैंपस नाम से एक वेबसाइट का निर्माण किया है जहां उनका आरटीआई डेटा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है. इस वेबसाइट पर जाकर कोई भी डेटा विश्लेषण में हाथ बंटा सकता है. यह उनकी राजनीति का एक नया आयाम है.
“देखिए, हम विज्ञान के छात्र हैं,” इस शृंखलाबद्ध प्रतिक्रिया की व्याख्या करते हुए पार्थ कहते हैं कि “हो सकता है कि हमारे पास पोस्टर बनाने या सांस्कृतिक गतिविधियों पर अच्छी पकड़ के लिए बहुत अच्छा डिज़ाइन कौशल न हो, लेकिन हम जो कर सकते हैं वह है डेटा का विश्लेषण और हम वही कर रहे हैं.”
जाति का वैश्विक समस्या बनना
समय एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण था कि एपीपीएससी को इतना प्रभावी मीडिया कवरेज मिला. सन् 1916 की शुरुआत में आम्बेडकर ने लिखा था, “अगर हिंदू दुनिया के अन्य हिस्सों में बसते हैं, तो जाति एक वैश्विक समस्या बन जाएगी.”
सन् 2020 में, कैलिफोर्निया की एक स्टेट एजेंसी ने टेक कम्पनी सिस्को के खिलाफ जातिगत भेदभाव का आरोप लगाते हुए एक मुकदमा दायर किया था. इस ऐतिहासिक मामले का वह बहादुर (और अब-विजयी) जिसने दबंग जाति के अपने वरिष्ठों का पक्षपात सहने से इंकार कर दिया था, जाति-आधारित कट्टरता के शिकार दलित तकनीकी-कर्मियों के लिए प्रेरणा बन गया.
जाति-आधारित भेदभाव के शिकार दलित कर्मचारी अब बड़े पैमाने पर अपने अनुभवों का खुलासा करने लगे जिससे पता चला कि यहां अमेरिका में भी जातिवाद ने उनका पीछा नहीं छोड़ा है.
दलित नागरिक अधिकार समूह इक्वेलिटी लैब्स को गूगल, नेटफ्लिक्स, अमेज़ॉन, आदि, जैसी प्रमुख तकनीकी कंपनियों के उत्पीड़क-जाति से आने वाले कर्मचारियों के खिलाफ़ सैकड़ों शिकायतें प्राप्त होने लगीं. यह जाति के आधार पर घृणा, उत्पीड़न, आक्रामकता, भेदभाव, श्रम शोषण, पुलिसिंग या नियंत्रण और बहिष्कार की घटनाओं से भरे प्रवासी वातावरण को प्रकट करती हैं.
इन दास्तानों ने भारत और अमेरिका में खलबली मचा दी. इन घटनाओं ने यह साबित कर दिया कि दबंग जातियों के लोग अपने घरों से इतनी दूर परदेस में भी किस तरह जातिवाद को अपनी छाती से चिपकाए बैठे हैं. देश छूटा लेकिन जाति नहीं छूटी, जातिवाद नहीं छूटा, जाति के नाम पर भेदभाव की फितरत नहीं छूटी. विशेष रूप से सिस्को मामला न केवल संस्कृति और प्रणालीगत विश्वदृष्टि बल्कि भारतीय संस्थानों के साथ भी घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है, क्योंकि दलित जॉन डो जिसे कम्पनी से निकाला गया और दबंग-जाति से आने वाला वह प्रबंधक जिसने जॉन डो को कम्पनी से निकाला, दोनों ही आईआईटी बॉम्बे से स्नातक हैं.
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में उच्च-जाति के जिस नेटवर्क को विकसित किया गया था, उसे सिलिकॉन वैली में प्रत्यारोपित कर दिया गया. इस नेटवर्क ने जिस तरह से वहां जातिवाद का खेल खेला उसकी पुष्टि दलित तकनीकी-कर्मियों और इंजीनियरों के बयानों और आरोपों से होती है. वैसे कई न्यूज़ आउटलेटों, आंबेडकरवादी संगठनों, जाति-विरोधी विद्वानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी इसकी तरफ़ इशारा किया है. विशेष रूप से एपीपीएससी के लिए, पहले से कहीं अधिक ध्यान देने की ज़रूरत थी क्योंकि ऐतिहासिक सिस्को मामले में, बहादुर दलित जॉन डो और जाति के आधार पर भेदभाव बरतने का आरोपी, दोनों ही आईआईटी-बॉम्बे के पूर्व छात्र थे.
हकीकत और कहानियां
आम्बेडकर को पढ़ने के लिए उन्हें हाई स्कूल के एक शिक्षक ने प्रेरित किया था. वे खुद भी दलित थे, उन्होंने स्थानीय पुस्तकालय में जाने और अछूत और अस्पृश्यता (अनटचेबुल्स एंड अनटचेबिलिटी) नाम की किताब पढ़ने के लिए कहा था. इस तरह उनका आम्बेडकर को पढ़ने-जानने का सिलसिला शुरू हुआ."
वे आगे कहती हैं, “तो ये कहानियां बहुत कीमती होती हैं, है ना? ऐसी कहानियां अपने समय के आकर्षक बौद्धिक इतिहास का चार्ट बनाती हैं [और] आज आपके पास जो स्टडी सर्किल है और ऐसी ही जो दूसरी चीजें हैं, वे सब उन्हीं कोशिशों और मेहनतों का नतीजा हैं जो एक ज़माने में की गई थीं…”
खैर, आईआईटी मुम्बई के एपीपीएससी के सदस्य अधीबन को जो घटना आज भी परेशान करती है, वह अनिकेत अम्भोरे की है. उनकी संस्थागत हत्या रोहित वेमुला की हत्या से दो साल पहले हुई थी. रोहित वेमुला की हत्या ने दलितों को आक्रोश और उत्तेजना से भर दिया था. इस घटना से दलितों में उबाल आया था और हाशिए से उठी नीली गर्जना मुख्यधारा में आई थी. इस तरह दलित समाज ने अपने दावे को और पुख्ता किया था.
अधीबन अपनी चिंता को कुछ यूं बयान करते हैं,
"हमने बैठकों और चर्चाओं में अक्सर यह सवाल पूछा है कि आखिर अनिकेत अम्भोरे की आत्महत्या कभी राष्ट्रीय मुद्दा क्यों नहीं बन पाई. उस बात के लिए, अन्य हज़ारों-हज़ार लोग जो उत्पीड़ित हो रहे हैं, यह राष्ट्र के लिए एक प्रश्न क्यों नहीं बन पाता?
फिर, हमें कहीं न कहीं तो इसका जवाब देना ही होगा.”
अधीबन, विशेष रूप से, ये मानते हैं कि हाशिए के छात्रों के लिए एक केंद्रीय भौतिक स्थान, सुरक्षा और सहयोग का माहौल तैयार कर सकता है और शायद उस तरह के अलगाव को रोकने में मदद कर सकता है जिसके वे अक्सर व्यवस्थित रूप से अधीन होते हैं. वे वर्तमान में एससी/एसटी सेल के लिए एक कमरा आवंटित करवाने के लिए आंदोलन कर रही हैं, जो अभी तक नहीं मिल सका है और न ही किसी रचनात्मक तरीके से कोई सुविधा ही दी गई है.
वे चाहते हैं कि नए आने वाले छात्रों को मालूम हो कि ज़रूरत पड़ने पर उनको कहां से मदद मिलेगी. उन्हें आईआईटी मुम्बई के ओरिएंटेशन प्रोग्राम के दौरान नए आए छात्रों को जातिगत भेदभाव के खिलाफ नीतियों और एससी/एसटी सेल की मौजूदगी के बारे में बताने के लिए पांच से दस मिनट का समय दिया गया है. वे शैक्षणिक संस्थानों में जातिगत भेदभाव और जाति संवेदीकरण पर एक शिक्षा मॉड्यूल बनाने की भी योजना बना रहे हैं. यह शैक्षणिक वर्ष 2023-24 में सभी छात्रों और प्राध्यापकों के लिए एक अनिवार्य कार्यक्रम होगा, जो जेंडर सेल के जेंडर मॉड्यूल के समान होगा. जब यह मॉड्यूल बनकर तैयार हो जाएगा और इस पर अमल शुरू होगा तो यह भारत में अपनी तरह का पहला मॉड्यूल होगा.
पीढ़ियों का काम
सन् 2020 से 2022 की शुरुआत तक, 23 भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में से गांधीनगर, गुवाहाटी, कानपुर, खड़गपुर, इंदौर और मंडी आईआईटी में ‘भारतीय ज्ञान प्रणालियों या इंडियन नॉलेज सिस्टम्स’ पर शोध केंद्र खोले गए हैं. आईआईटी दिल्ली का केंद्र अब संस्कृत के “प्राचीन ग्रन्थों” के आधार पर तैयार अभियांत्रिकी ज्ञान और वैज्ञानिक अवधारणाओं से सम्बंधित दो पाठ्यक्रम चलाता है.
इसके विपरीत, आम्बेडकरवादी स्टडी सर्किल सबसे अधिक निर्मम और अभिशप्त ज़मीन पर उगते और विकसित होते प्रतीत होते हैं. जाति-आधारित परम्पराओं के लिए संरचनात्मक सहायता, वैधता और अनौपचारिक प्रोत्साहन सब कुछ उपलब्ध है, लेकिन जब जाति-विरोधी शिक्षा की बात आती है तो सबकुछ बदल जाता है. इसके अतिरिक्त, उत्पीड़ित समूहों के लिए उपलब्ध अवसरों और सहायता के संरचनात्मक दमन से पता चलता है कि एक संस्थान के रूप में शिक्षा कितनी शक्तिशाली है.
बॉडी पॉलिटिक में भागीदारी की बात करें तो आईआईटी-बॉम्बे में कैंपस ऐक्टिविज़्म में शामिल अन्य छात्रों की तुलना में माधवी का समय बहुत संक्षिप्त था. महामारी के कारण उसका बड़ा हिस्सा भी ऑनलाइन गतिविधि में ही बीता. वह आईआईटी में आरक्षण से संबंधित जो आरटीआई डेटा इकट्ठा किया गया था, उसका विश्लेषण करने, प्रचार करने और इसे कास्ट ऑन कैंपस वेबसाइट पर कम्पाइल करने की पहल का हिस्सा थीं. जब वे ये काम कर रही थीं, उसके बीच में ही, वे बताती हैं, “मैंने कामयाबी और कुछ हासिल करने में जो फर्क है, उसको समझना शुरू कर दिया था. नतीजे हमारे पक्ष में नहीं हैं, है ना?”
वह बिल्कुल शांत और सुविचारित ढंग से बात को आगे बढ़ाती हैं, “परिणाम सफलता की एकमात्र कसौटी नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा बहुत कुछ है जो किसी भी चीज़ को व्यवस्थित करने में लगता है. उदाहरण के लिए, जब हम आरटीआई का काम कर रहे थे, तो हम जानते थे कि इससे जो चल रहा है उसको नहीं बदला जा सकता है, जिन गड़बड़झालों या चालाकियों का हमें पहले से पता था, उनकी जांच-पड़ताल और चर्चा से कुछ भी नहीं बदलने वाला. लेकिन फिर भी हम उस काम को आगे बढ़ाते गए, हम अखबारों की रिपोर्टों के साथ आगे बढ़ते गए, क्योंकि हमारे लिए यह ज़रूरी है, है ना? हमें इसका खामियाज़ा भी भुगतना पड़ सकता है, ऐसा भी हो सकता है. लेकिन हमें अभी भी कुछ कर गुज़रने के जज़्बे के साथ आगे बढ़ना है – बस लोगों को यह समझाने के लिए कि हकीकत क्या है, किस तरह की है, और बस यह बात लोगों तक पहुंचाने के लिए.”
यकीनन, जाति विरोधी छात्र सक्रियता, यदि सामान्य रूप में आम्बेडकरवादी नहीं भी है, तो जाति की वास्तविकता को उजागर करने के लिए एक सामूहिक लड़ाई है. आम्बेडकरवादी न केवल वर्तमान की चिंताओं को स्वर दे रहे हैं बल्कि अपनी स्व-निर्देशित शिक्षा, सैद्धांतिक आंदोलन और समुदाय-केंद्रित संगठन के माध्यम से भी कुछ करने की कोशिश कर रहे हैं. यही कारण है कि निराशाजनक और यकीनन अव्यावहारिक परिस्थितियों के बावजूद एपीएससी इस बहस को जारी रखने के लिए प्रतिबद्ध है. श्रीनी की दिलचस्पी सिर्फ यह बताने में है कि वे अपने संघर्ष के माध्यम से क्या हासिल करना चाहते हैं, “यह लगातार चलने वाला संघर्ष है, और हमें इसे आगे बढ़ाना है. यह पीढ़ियों का काम है और इसे पूरा होने में पीढ़ियां लगेंगी.”
इस लेख का अनुवाद अकबर रिज़वी ने किया है.