समाज

जहां हम राज्य, कानून, जाति, धर्म, अमीरी–ग़रीबी और परिवार की मिलती बिछड़ती गलियों के बीच से निकलते हैं और उन्हें आंकते हैं. यह समझने की कोशिश करते हैं कि कैसे ये ढांचे अपने आप को नए ढंग और नए रूप से संचित करते हैं, फैलते और पनपते हैं. इस सबमें पितृसत्ता जीवन के अलग–अलग अनुभवों पर कैसे अपनी छाप छोड़ती है.

दूसरी लहर में कैसा था गांव का माहौल?

हमारा देश भी अजब-गजब का देश है. कुछ महीने पहले अख़बारों और सोशल मीडिया पर एक 84 साल के बुज़ुर्ग की तस्वीर बहुत दिखाई दे रही थी. कारण उन्होंने 10 महीने में 11 बार कोरोना का टीका लगवाया था और 12वीं बार टीका लगवाने के प्रयास में वो स्थानीय प्रशासन द्वारा पकड़ लिए गए.

दिल्ली की सड़कों पर घूमते हुए

शहर जहां अपने लोगों को पहचान देता है वहीं इसकी भीड़ में बहुत आसानी से गुम हुआ जा सकता है. पर, क्या ये सभी के लिए संभव है? क्या होता है जब शहर किसी को अलग-थलग कर दे? क्या शहर का नक्शा हर तरह के व्यवहार और नज़रियों को ज़ेहन में रखकर तैयार किया जाता है?

हमारे शहर पुरुषों द्वारा पुरुषों के लिए डिज़ाइन किए गए हैं

दुनिया भर में, शहरों को पुरुषों द्वारा पुरुषों के लिए डिज़ाइन किया गया है. और वो भी एक ख़ास तरह के पुरूषों के लिए जो – जवान, स्वस्थ और सिस-जेंडर हैं. इस कारण महिलाएं – युवा हों या बुज़ुर्ग, ट्रांसजेंडर समुदाय, और जेंडर के नियमों से परे किसी भी अन्य को – जो हट्टे कट्टे पुरुषों के इस सजातीय समूह में फिट नहीं होते – कई तरह की दिक्क़तों का सामना करना पड़ता है.

‘ये सीट महिलाओं के लिए आरक्षित है’

प्रोफ़ेसर डॉ. रॉबिन लॉ के मुताबिक, 1970 के दशक में आए कुछ महत्तवपूर्ण मार्गदर्शक शोध आलेखों ने पहली बार इस विचार को स्थापित किया कि महिलाओं का सार्वजनिक परिवहन का अनुभव पुरुषों से अलग होता है. प्रो. रॉबिन कहते हैं कि इसके बाद में दो समांतर शोध क्षेत्र उभरे. एक ने डर और यौनिकता पर ध्यान केन्द्रित किया.

आईने-सी विनम्र किताब

आदिवासी विल नॉट डांस के लेखक कथाकार हांसदा सोवेंद्र शेखर को एक किताब उनका हाथ पकड़कर अपने घर की तरफ़ वापस ले जाती है, जहां वे पले-बढ़े थे, लेकिन जिसकी बहुत सारी सच्चाइयां किताब के ज़रिए उनके सामने खुल रही थीं.

अगर इलाज का खर्च जेब से भरना पड़े तो बीमा लेने से क्या फायदा?

हमने रवि दुग्गल से बात कर जाना कि क्यों आजकल स्वास्थ्य बीमा को एक ज़रूरत की तरह पेश किया जा रहा है? क्या हम स्वास्थ्य बीमा लेने और न लेने की दुविधा के बीच फंसा हुआ महसूस कर रहे हैं? रवि के साथ इस बातचीत के ज़रिए पढ़िए स्वास्थ्य बीमा के टेढ़े-मेढ़े और उलझे रास्ते से निकलने का सही रास्ता क्या हो सकता है.

जाति का हमारे मानसिक स्वास्थ्य से क्या लेना-देना है?

डॉ. किरण वालेके ने द ब्लू डॉन – मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी एक सहयोगी संस्था- के साथ काम किया है और साफ़गोई भरे इस लेख में उन्होंने जाति, मानसिक स्वास्थ्य और चिकित्सा तक पहुंच के बारे में एक विश्लेषण पेश किया है.

“महिलाएं भुगतती हैं चिकित्सा सेवाओं के निजीकरण का सर्वाधिक ख़ामियाज़ा”

उदारीकरण के दौर में आर्थिक सुधारों के साथ जो चीज़ सबसे ज़्यादा उभरकर सामने आई वह थी सरकारी क्षेत्रों में प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी. स्वास्थ्य में इस मॉडल के असर को गहराई से समझने के लिए हमने पेशे से शोधकर्ता बिजोया रॉय से बात की.

लोगों की रज़ामंदी के बिना सरकार बना रही है उनका UHID कार्ड

15 अगस्त 2020 को लाल किले की प्राचीर पर खड़े होकर प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में नेशनल डिजिटल हेल्थ मिशन को ‘भारत के हेल्थ सेक्टर में नई क्रान्ति’ का नाम दिया. क्या हेल्थ आईडी कार्ड से देश की स्वास्थ्य सेवाएं सच में बेहतर हो जाएंगी? इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के एक कार्यकर्ता ने बताया कि वहां तक पहुंचने के रास्ते में कई सवाल हैं जिनके जवाब जानना ज़रूरी है.

“या तो हम सभी एक सभ्य दुनिया में रह सकते हैं, या कोई नहीं रह सकता”

रीतिका खेड़ा जो एक विकासवादी अर्थशास्त्री हैं, सार्वजनिक स्वास्थ्य को एक विचार के रुप में देख रही हैं, साथ ही वे भारत में उसके भविष्य का स्वरूप कैसा होना चाहिए, तथा क्यों लोक कल्याण और लोगों की गरिमा एक दूसरे के पूरक हैं इसपर विस्तार से चर्चा करती हैं.

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