पारोमिता वोहरा, एक पुरस्कृत फ़िल्म निर्माता और लेखक हैं. जेंडर, नारीवाद, शहरी जीवन, प्रेम, यौनिक इच्छाएं एवं पॉपुलर कल्चर जैसे विषयों पर पारोमिता ने कई डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों का निर्माण किया है जो न सिर्फ़ अपनी फॉर्म बल्कि अपने कंटेंट के लिए बहुत सराही एवं पसंद की जाती हैं.
उनके कई तरह के लेखन में सबसे लोकप्रिय एक अखबार के लिए लिखा जाने वाला कॉलम ‘हाओ टू फाइंड इंडियन लव’ (भारतीय प्यार कैसे हासिल करें) शामिल है. इसके साथ ही वे संडे मिड-डे के लिए ‘पारो-नॉर्मल एक्टिविटी’ नाम से एक चर्चित कॉलम भी लिखती हैं. 2014 में उन्होंने प्यार, यौनिकता एवं यौनिक इच्छाओं पर आधारित एक मल्टी-मीडिया प्रोजेक्ट की शुरुआत की जिसका नाम रखा – एजेंट्स ऑफ़ इश्क. बहुत जल्द ही एजेंट्स ऑफ़ इश्क ने सेक्स और उससे जुड़ी तमाम तरह की बातों एवं जानकारियों को साझा करने के एक अलग ही मज़ाकिया अंदाज़ और सौंदर्य की वजह से पाठकों के बीच काफी लोकप्रियता हासिल कर ली.
यहां, द थर्ड आई के साथ बातचीत में पारोमिता उस यात्रा के बारे में विस्तार से बता रही हैं जिसमें आगे चलकर एजेंट्स ऑफ़ इश्क की स्थापना हुई. पढ़िए बातचीत का दूसरा भाग.
पहला भाग यहां पढ़ें.
द थर्ड आई: एजेंट्स ऑफ़ इश्क का विचार आपके काम, अनुभवों, डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माण, ट्रेड यूनियनों और नारीवादी आंदोलनों के साथ गहरे जुड़ाव से उभरा है. अब, डिजिटल प्लेटफॉर्म के रूप में एजेंटस ऑफ़ इश्क को भी सात साल हो चुके हैं. आज इस जगह खड़े होकर, आप डिजिटल प्लेटफॉर्म के रूप एवं उसकी प्रकृति और ढांचे के बारे में क्या सोचती हैं?
पारोमिता वोहरा: एजेंट्स ऑफ़ इश्क के संदर्भ में मैं कहूंगी कि इसका ढांचा कलात्मक है जो कि ज्ञान या जानकारीपरक होने से कहीं ज़्यादा अहम है. लोगों को यह बताना कि आप जो हैं, आप वैसे ही रह सकते हैं, चीज़ें समझ नहीं आ रहीं, कन्फ्यूज़न है तो कोई बात नहीं ऐसा होता है, हम इस पर बात करते हैं. लेकिन, ईमानदारी से कहूं तो हम भी यह ठीक-ठीक नहीं समझ पाए हैं कि “चलो बात करते हैं” का सच में क्या मतलब होता है. क्योंकि सेक्स एजुकेशन में तो ऐसे ही कहते हैं, है न? तो, एजेंट्स ऑफ़ इश्क के लिए जिन लोगों ने लिखने का काम किया है, और बहुत तरह के काम किए हैं, जो लोग इसके साथ जुड़े हुए हैं, हमने सभी से कुछ न कुछ सीखा है. ये एकदम लेन-देन वाली प्रक्रिया है – हम अभी भी सीख रहे हैं. यह दरअसल साझा बदलाव वाला प्रोजेक्ट है.
अब जब सात साल हो चुके हैं, अब मैं ठीक-ठीक बता सकती हूं कि इसकी कार्य-प्रणालियां क्या रही हैं. लेकिन वे समय के साथ इसके पाठकों के साथ चलते हुए विकसित हुई हैं.
एक बुनियादी चीज़ यह है कि एजेंट्स ऑफ इश्क भाषा से जुड़ा एक बड़ा प्रोजेक्ट है. वो कौन सी भाषा है जिसमें हम अपने बारे में बात करते हैं?
दूसरी, बात कि ये पारम्परिक तरीके से लोगों को सेक्स के बारे में जानकारी देने वाला प्रोजेक्ट नहीं है, जिसका कि अपना एक निश्चित पाठ्यक्रम होता है. सच यह है कि हम खुद इस तरह के विचारों का विरोध करते हैं. असल में यह खुद को जानने-समझने से जुड़ा है. मैं कौन हूं? मैं जैसी हूं, वैसी क्यों हूं? मुझे किस तरह का व्यक्ति बनना है? इस नज़र से देखें तो यह एक नारीवादी प्रोजेक्ट है जिसकी नज़र से हम-आप यह समझने की कोशिश करते हैं कि आप क्या होना चाहते हैं? आपकी ज़िंदगी का सफर किस तरह का होगा? दूसरों के संपर्क में आने पर आपकी ज़िंदगी का सफ़र कैसे प्रभावित होगा? या आपकी प्रतिक्रिया कैसी होगी? इस सबमें सहमति का मतलब क्या होता है?
क्या सहमति के दायरे से हम जिस्मानी ज़रूरत या यौन आनंद को गायब कर सकते हैं?
मतलब ये है कि क्या हम अपनी सेक्सुअल ज़िंदगी के लिए बने-बनाए मानकों या कानूनी तौर पर तय कर दिए गए नियमों पर भरोसा करके रह सकते हैं या फिर अपनी यौन ज़रूरतों के भीतर सेक्स को महसूस कर, उसे समझकर, बराबरी, अधिकार या इंसाफ की अपनी परिभाषा गढ़ सकते हैं? और ये किस तरह से समझी जा सकती है?
हम गतिशील एजेंसी की अवधारणा के साथ काम करते हैं, जिसका अर्थ है कि हम आपको यह नहीं बता रहे हैं कि आपके लिए क्या सही है. हम सिर्फ़ यह कह रहे हैं कि आपकी अंदरूनी ताकत को बढ़ाने के लिए क्या ज़रूरी है ताकि आप यह अंदाज़ा लगा सकें कि किसी परिस्थिति में आपके लिए क्या सही है और क्या गलत है.
उदाहरण के लिए, बहुत सारे एनजीओ ऐसे हैं जो बाल-विवाह को रोकने के लिए लड़कियों के भीतर लीडरशीप की क्षमता को बढ़ाने का काम करते हैं. पर लड़कियां कह रही हैं, “हम ये लड़ाई नहीं लड़ सकते. हमें तो दूसरी लड़ाइयां लड़नी हैं, जैसे- जींस पहनने, मोबाइल फोन रखने, बाहर जाने, या कि प्यार करने से जुड़ी लड़ाइयां. और इसे हम एक-एक करके लड़ेंगी.” मुझे लगता है कि ये मेरी अपनी ही ज़िंदगी का आईना है. 22 साल की उम्र में जब मैंने अपने पिता से कहा कि मैं घर से बाहर रहना चाहती हूं और खुद से अपनी ज़िंदगी जीना चाहती हूं, तो उन्होंने मना नहीं किया, बस इतना कहा कि ‘मैं सोच कर बताता हूं’. लेकिन, वह लंबे समय तक सोचते ही रहे. और फिर मैंने तय किया कि अब बस मुझे करना ही है और मैंने वैसा ही किया जो मैं करना चाहती थी. बात यही है, वो क्या है जिसकी बुनियाद पर आप ऐसा कर जाते हैं? इसके लिए किस तरह के जज़्बात और संदर्भ का मिश्रण चाहिए? असल में यही वो चीज़ है जिसपर हम बात करते हैं.
इसके साथ ही, छिपे अर्थों में हम इस पर भी काम करते हैं कि भारतीय होने का मतलब क्या है, क्योंकि जिस तरह से हम भाषा के साथ काम करते हैं उसकी पूरी कोशिश यही रहती है कि वह शुद्ध भाषा न हो. हालांकि, हम जो कुछ भी करते हैं वो हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में होता है. क्योंकि यह हमारी भाषा है. जैसे, मुझे हिंदी आती है. इसलिए हम इसे कन्नड़ या तमिल या किसी अन्य भाषा में नहीं कर रहे हैं. मुझे लगता है कि उन जगहों पर किसी को चाहिए वह अपना खुद का एजेंट्स ऑफ़ इश्क शुरू करें. फिर भी हमारी कोशिश रहती है कि भले ही हमारा कंटेंट हिंदी और अंग्रेज़ी में रहे लेकिन इसमें दूसरी भाषाओं को भी जगह मिले. मेरे एक दोस्त का कहना है कि हम जो कुछ भी करते हैं, वह एक तरह का मधुर उपदेशवाद है. यह उपदेश हो सकता है, लेकिन इसका एक शैक्षिणक उद्देश्य है. हां, यह अलग बात है कि यह निरा उपदेश नहीं है, बल्कि इसमें एक खास किस्म की मधुरता है, मिठास है.
साथ ही, संवाद के लिए दक्षिण एशियाई विचारों का उपयोग सबसे बेहतरीन होता है, जैसे अपनापन की अवधारणा, जो मेरे लिए महत्त्वपूर्ण है. जब आप किसी जगह में प्रवेश करते हैं, तो उसमें आपको अपनेपन का अहसास होना चाहिए. घर पर रहें, मौज-मस्ती करें, अपने को निखारें, खुद पर ध्यान दें. हम अपने दर्शकों को कुछ इसी तरह से चीज़ें परोस रहे हैं. यह कोई डांट या फटकार लगाने वाला प्रोजेक्ट नहीं है कि हम आपको यह बताने जाएं कि आपमें क्या कमी है. बल्कि जो आपके पास है उससे और जो हमारे पास है उससे एक तीसरी दुनिया बनाने की कोशिश, एक सुंदर और आसानी से किसी भी रूप में ढल जाने वाली राजनीतिक दुनिया और आंतरिक दुनिया. इस परियोजना का आकार पानी की तरह तरल है जो अपने नारीवादी केंद्र को मज़बूती से पकड़े हुए हर बदलाव के लिए तैयार है.
यह तय करने से पहले कि कोई रचना या लेख एजेंट्स ऑफ़ इश्क के लायक है या नहीं, आप खुद से क्या सवाल करती हैं?
इसका तरीका यही है कि जब हम एजेंट्स ऑफ़ इश्क के लिए कुछ लिख या तैयार कर रहे होते हैं या रचनाओं का चुनाव कर रहे होते हैं तो उस वक्त हमारे दिमाग में सिर्फ़ दो सवाल होते हैं – क्या यह हमारे पाठकों के लिए सचमुच मददगार साबित होगा? और कैसे हम लोगों के दिलों में उठने वाले सवाल का जवाब दे रहे हैं जिसे शायद अभी तक उन्होंने पूछा भी नहीं है? समय-समय पर हम अपने सुनने और पढ़ने वालों से पूछते रहते हैं कि वह क्या महसूस कर रहे हैं? पर हम कभी उनसे यह नहीं पूछते कि उनकी दिलचस्पी किस तरह की चीज़ों में हैं या कि वे क्या जानना चाहते है. यह दरअसल लगातार ध्यानपूर्व देखते रहने से उभरने वाली भावनाओं पर जब-तब मिल-बैठकर उन तमाम भावनाओं के बारे में बातचीत करने से जुड़ा है.
कुछ कंटेंट तो एजेंट्स ऑफ़ इश्क के लिए लिखने वाले लोग भी तय करते हैं. उदाहरण के लिए, बहुत सारी रचनाएं जो अक्सर आया करती थीं, वह या तो असहज महसूस करने, या छूने की चाहत से जुड़ी होती थीं, खास तौर से ‘मीटू (Me too)’ कैम्पेन के बाद ‘छूने’ का मामला बड़ा ही विवादास्पद है. ऐसे में इसके बारे में बात करने का कोई ऐसा तरीका ढूंढा जाए जो औरत-मर्द की बाइनरी से परे हो.
हमारे कंटेंट का केंद्र सूचना या जानकारी नहीं होता बल्कि ये फीलिंग्स यानी अहसास या भावनाओं पर आधारित होते हैं. यह खुद-ब-खुद एक ऐसी भाषा का सृजन करती हैं, जो इस अर्थ में समावेशी है कि इसमें विभिन्न स्तरों के अनुभव वाले लोग शामिल हो सकते हैं और बिना किसी झिझक के बातचीत कर सकते हैं.
यहां पर न तो अनुभव की कोई दर्जाबंदी है और न ही कम या बेहतर सेक्सुअलिटी की. यहां तक कि जिनकी अंग्रेज़ी कमज़ोर है या उनकी मुख्य भाषा नहीं है, वह भी सहज ही इस जगह में दाखिल हो सकें इसके लिए हमने जो तरीका चुना है, वह है ऐसी भाषा का चुनाव जिसमें छोटे-छोटे वाक्य हों और जो जटिल न हों ताकि ये आसानी से समझ में आ सकें.
एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि एजेंट्स ऑफ़ इश्क ‘यहां परेशानियां दूर की जाती हैं’ वाले फ्रेम में काम नहीं करती बल्कि खुद के सेक्सुअल लाइफ के सफर के अनुभवों पर नज़र दौड़ाती है, इस सफर को संभव बनाने या इसे खुशनुमा बनाने में किन चीज़ों की ज़रूरत है जैसे – सुरक्षा, मज़ा, मतलब, निजी होते हुए भी सामूहिक – इस पर बात करती है. एजेंट्स ऑफ़ इश्क पर जो कुछ भी है उसकी जड़ें भारतीय हैं. इसमें लच्छेदार या ‘समस्याओं’ को दूर करने वाली या खुद को ज्ञानी समझने वाली भाषा का इस्तेमाल नहीं हो सकता. लेख की अपनी एक आत्मा हो और उसकी भाषा ऐसी हो जो सबके साथ साझा की जा सके. हम कोई साहित्यिक कृति तैयार नहीं कर रहे, पर जो कुछ भी तैयार कर रहे हैं वो – अपने लेखन, विचार, चित्रों – में जिस हद तक हो सके उस हद तक खूबसूरत होनी चाहिए. क्योंकि हमें लगता है कि कला हम मनुष्यों के अनुभवों को ऊंचा उठाती है, सम्मानित करती है न कि वो राजनीतिक चारा या सांस्कृतिक रूप से रिझाने का सामान बने.
हमने शुरुआती दौर में कुछ खास तरह की ज़रूरतों का आकलन किया था, जिससे एक दिलचस्प बात सामने आई. मसलन कुछ विषय (जैसे, जेंडर हिंसा) ऐसे हैं जिनपर लोग सार्वजनिक रूप से बात करते हैं, कुछ ऐसे विषय (जैसे, मासिक धर्म और प्रेम सम्बंध आदि) हैं जिनपर लोग एक छोटे दायरे में ही बातचीत करना पसंद करते हैं और कुछ चीज़ें तो ऐसी हैं जिनपर वो बात ही नहीं करते जैसे- रिजेक्शन, दिल टूटना, फैंटेसी और कामना. हमने सोचा कि जिन विषयों पर वह खुद ही सार्वजनिक रूप से बोल रहे हैं, वैसे विषयों पर बात करने के लिए तो उन्हें हमारी कोई ज़रूरत ही नहीं है. वह पहले से ही ऐसा कर रहे हैं. और वह खुद इस खेल का हिस्सा भी हैं, लेकिन उनके व्यक्तिगत और निजी स्पेस का क्या? तो हमने तय किया कि हम ऐसा कंटेंट तैयार करें जो उनके व्यक्तिगत और निजी स्पेस का पोषण करे.
नतीजतन, हमने ऐसा बहुत सारा कंटेंट तैयार किया जिसके लिए लोगों को अपने बारे में कुछ भी बताने की ज़रूरत नहीं पड़ती. हम लोगों को असहज नहीं करना चाहते या ना ही उन्हें अपनी पहचान बताने के लिए बाध्य करते हैं क्योंकि वे कोई प्रगतिशील समूहों का हिस्सा नहीं हैं, कि आपको पहचान बतानी ही पड़ेगी! बात इतनी है कि वह इस राजनीति के साथ, अपने समय में, अपने रिश्ते को कैसे समझ सकते हैं, वह भी किसी समूह में होने के दबाव के बिना.
हमारे पास बहुत सी ऐसी चीज़ें भी हैं जिन्हें आप अकेले में पढ़ सकते हैं, जैसे कि पर्सनल निबंध या कविताएं. हमारी फ़िल्में और कलात्मक प्रस्तुतियां सामूहिक रूप से उपभोग की जाने वाली चीज़ें हैं, जैसे कि ‘मैं और मेरी बॉडी’ या ‘कंसेंट लावणी’. इन सभी कंटेंटों का उपभोग करने वालों के लिए यह ज़रूरी नहीं है कि वह अपनी निजता के बारे में बात करें. इसका नतीजा यह निकलता है कि वे फ़िल्मों पर चर्चा करते हैं, हालात पर बहस करते हैं और पर्याप्त सुरक्षा के साथ वे खुद के बारे में भी बात करते हैं. पारंपरिक रूप से, यही तो कला हमेशा से लोगों के लिए करती आई है.
एजेंट्स ऑफ़ इश्क हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों में काम करती है और ये कहना अतिश्योक्ति नहीं कि आपने हिंदी में नए शब्दों को गढ़ा है, नई भाषा इजाद की है. ऐसा करना कितना आसान था या इसमें किस तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है?
मेरी हिंदी ठीक-ठीक है लेकिन हिंदी लिखने-पढ़ने में मैं कमज़ोर हूं. मैं हिंदी में लिखी चीज़ों को बहुत ध्यान से नहीं देख सकती थी. शुरुआत में हमने हिंदी अनुवाद के लिए बाहर से लोगों की मदद ली. एक दिन ऐसा हुआ कि एक वर्कशॉप के दौरान हम हिंदी में यौन शिक्षा पर एक क्विज़ कर रहे थे. जैसे ही मैं सवाल पढ़ने लगी, मेरे होश उड़ गए. उसमें क्लिटोरिस के लिए – भगशेफ शब्द का इस्तेमाल था! ये शब्द बोलते हुए ही मेरा दिमाग खराब हो रहा था. मैंने अपने अनुवादक से पूछा – “कि ये क्या है? आप ऐसी भाषा क्यों लिख रहे हैं? ये बहुत मुश्किल और बहुत दकियानूसी भी है. ये किसी को समझ नहीं आएगा… ये कहीं से भी आम बोलचाल या समझ की भाषा नहीं है.”
तो पिछले सात साल से भाषा को लेकर अनुवादकों के साथ मेरी खींचतान चलती रही है. एक दिक्कत यह भी है कि अंग्रेज़ी में जहां जटिलता के साथ किसी चीज़ को दो वाक्य में लिखा जा सकता है. वहीं उसके हिंदी अनुवाद के लिए उचित शब्दों का अभाव – या ऐसे किसी संबंधित वाक्य का पहले से उपलब्ध न होना – हिंदी अनुवाद को थोड़ा ज़्यादा मुश्किल बना देता है. यही वजह है कि हिंदी में पकड़ बनाने में हमें थोड़ा समय लगा और इसमें अभी भी हमारी कोशिश जारी है. हम अनुवाद में आम बोलचाल में शामिल अंग्रेज़ी शब्दों का भी इस्तेमाल करते हैं.
अब जाकर अनुवादकों ने मुझे ऐसा बताया कि शरीर के अंगों या किसी शारीरिक क्रिया के बारे में बात करने के लिए वे हिंदी पॉर्न फ़िल्मों में बोले जा रहे शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं. फिर, यहां सवाल यही उठता है कि क्या समय-समय पर ज़रूरत पड़ने पर हम इन शब्दों का इस्तेमाल कर सकते हैं? और ये अपने आप में एक प्रयोग है कि हमें कहां लगता है कि शब्द बहुत घटिया स्तर का है और कहां लगता है कि ये बिल्कुल ठीक है?
पर, सवाल यह भी है कि अगर किसी चीज़ के लिए उस भाषा में शब्द ही नहीं हैं तो क्या इसका मतलब है उसका अस्तित्त्व नहीं हैं? क्या उस भाषा की संस्कृति में इसके लिए स्वीकार्यता नहीं है? और क्या इसका ये मतलब तो नहीं कि उस भाषा में इसके लिए कोई दूसरा शब्द मौजूद है और हमें इसके बारे में नहीं पता? जब बात अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद की आती है तो वहां ये बहुत ज़रूरी और बड़े सवाल हैं. उदाहरण के लिए हिंदी में ‘लेस्बियन’ को क्या कहते हैं? आपको पता है इसके लिए इस्तेमाल किए जाने वाले ज़्यादातर शब्द अपमानजनक माने जाते हैं. क्या हम इन अपमानजनक शब्दों के साथ काम करके इसे कुछ अच्छा बना सकते हैं? अपने आप से हम ये सवाल सबसे ज़्यादा पूछते हैं. इस तरह
हम ज़्यादातर प्रयोगों पर काम करते हैं और खुद से पूछते भी रहते हैं क्या हम जो कर रहे हैं वो सही है?
एजेंट्स ऑफ़ इश्क का अपना सौंदर्यशास्त्र है जो लोकप्रिय संस्कृति से बहुत ज़्यादा प्रभावित है. यह विकास की दुनिया या शिक्षा की दुनिया के स्वर और बनावट से प्रेरित नहीं है. आपने जो चुना है इसे लेकर आप बिल्कुल स्पष्ट हैं…
इस प्रोजेक्ट की भी अपनी दिक्कतें रही हैं क्योंकि यह खुद को किसी एक जगह या किसी भी जगह से बांधना नहीं चाहता. मैं यह नहीं कह सकती कि यह एकदम खांटी लोकप्रिय संस्कृति प्रोजेक्ट है क्योंकि यह मुनाफे या लाभ से संचालित नहीं है. लेकिन मुझे लगता है कि इसमें लोकप्रिय संस्कृति के कई गुण हैं जो कि इस प्रोजेक्ट के लिए और खासतौर पर मेरे लिए भी एक सशक्त शिक्षक का काम कर रहे हैं.
यह बहुत ही मज़ेदार बात है, मेरी दादी जो एक फ़िल्म निर्माता थीं, उनकी कम्पनी को वैराइटी पिक्चर्स कहा जाता था. और मैं हमेशा उस ‘वैराइटी’ शब्द के बारे में सोचती हूं. हिंदी फ़िल्मों को ही देखिए, यहां हर तरह का वैराइटी एंटरटेनमेंट है. वैराइटी का मतलब सभी किस्म के स्वाद, सभी प्रकार की भावनाओं, सभी प्रकार की अभिव्यक्तियों की विविधता का समर्थन है, सबसे महत्त्वपूर्ण है सब कुछ का एक ही जगह पर होना क्योंकि मुख्यधारा में सबकुछ एकरूपी, एक तरह के ही सामाजिक दायरे में और एक दूसरे से जुड़े होने की बजाय अलग-थलग होता है. वह महज़ विचारों का आरोपण है. वास्तव में यह कोई शिक्षा नहीं है, जो आपको कम से कम अपना रास्ता खोजने के काबिल बनाती है. ज़िंदगी में छोटे-छोटे कदमों को बढ़ाते रहने से ही हम किसी बड़ी खोज की तरफ आगे बढ़ सकते हैं.
पॉपुलर संस्कृति के ज़रिए सीखने-सिखाने को लेकर जो हमारी ललक है उसका असल में कोई पाठ्यक्रम नहीं है – इसके विषय इस बात से तय होते हैं कि लोगों या पाठकों की क्या ज़रूरतें हैं या ऐसी चीज़ें जो हो सकता है उन्हें पसंद हों. क्या हमें पॉलीमैरी (एक ही समय में एक से अधिक लोगों के साथ रोमांटिक संबंध) या वाग्विनिज़म्स (योनि-संकुचन) के बारे में बात करनी चाहिए? क्या दिल टूटना सेक्स एजुकेशन का हिस्सा है?
इस तरह की विविधता नए सवाल रचने और उसके जवाब तलाशने की गुंजाइश पैदा करती है. यह पाठ्यक्रम को समझाने का हिस्सा नहीं हैं. हम पुराने सामान्य को किसी नए सामान्य से बदलना नहीं चाहते. लोकप्रिय संस्कृति के उदाहरण विस्तृत उदाहरणों के लिए फ्रेम का काम करते हैं, उसमें भी उनकी अपनी एक खासियत होती है. एजेंट्स ऑफ़ इश्क इस लोकप्रिय संस्कृति का भी हिस्सा होना चाहती है.
एजेंट्स ऑफ़ इश्क को मिलने वाली सफलता को आप किस तरह देखती या महसूस करती हैं?
आप या तो प्रभाव और सफलता का आकलन करने के रूप में संख्याओं पर फोकस कर सकते हैं, या फिर आप कुछ और चीज़ों पर ध्यान देंगे जैसे, लोग आपके कंटेंट को किस तरह लेते हैं, उससे किस तरह से जुड़ते हैं. यह देखना और भी दिलचस्प है कि कितने लोग लिख रहे हैं, कितने आपके फालतू से हैशटैग का इस्तेमाल अपनी तरह से करने लगे हैं, यह थिरकता थर्सडे की तरह कहीं और पहुंच सकते हैं, जैसे बोर मत कर यार से जुड़कर कहीं और पहुंचता है. इंटरनेट की प्रतिक्रियाएं भी तीन तरह की है. एक कमेंट जैसा सार्वजनिक स्पेस है जहां लोग लिखते हैं, अपनी प्रतिक्रिया देते हैं. एक व्यक्तिगत स्पेस है, जहां कभी वे अपनी स्टोरी में तो कभी अपने दोस्तों के साथ शेयर करते हैं. और एक निजी स्पेस भी है जहां वे आपको डीएम या डायरेक्ट मैसेजे भेजते हैं. लोग काफी हद तक ऑनलाइन अपने प्यार का इज़हार करते हैं. कुछ लोग हमें ऐसे मेसेज भेजते हैं कि, ‘एजेंट्स ऑफ़ इश्क, क्या आप को पता है, मुझे आप पर गर्व है’. या किसी मेसेज में लिखा होता है कि ‘काश तुम मेरी बड़ी बहन होतीं तो मैं अच्छी परवरिश पा सकती थी’. असल में यही वह चीज़ है जो वास्तविक है और ज़रूरी है कि हम इन प्रतिक्रियाओं पर विश्वास करना सीखें, न कि संख्या के मकड़जाल में उलझना.
जिन विषयों पर हम काम करते हैं उससे जितने लोग हमसे जुड़ते हैं, या उसमें हमारे साथ हैं और जितनी संख्या में हम दूसरों के साथ मिलकर कंटेंट तैयार करते हैं, दरअसल, यही वो पैमाना है जिससे हम अपनी सफलता का आकलन करते हैं.
आपके कंटेंट की कितने लोग चोरी या नकल करते हैं, यह भी एक अच्छा संकेत है सफलता को जानने का. इंटरनेट पर अपनी तरह की यह साहित्यिक चोरी आम बात है, जहां लोग यह दिखावा करते हैं कि यह उनका अपना विचार था क्योंकि आपने इसे कहीं देखा था, लेकिन कोई नहीं जानता कि आपने इसे कब देखा था, लेकिन यह भी एक संकेत है कि आप वास्तव में दर्शकों तक पहुंच रहे हैं और दर्शकों को भी महसूस हो रहा है कि यह उनके लिए महत्त्वपूर्ण है. हमें मालूम है कि एजेंट्स ऑफ़ इश्क ने यौनिकता एवं इसके इर्द-गिर्द मौजूद ज़रूरी विषयों पर समझ बनाने, उसे समझने के लिए नई भाषा, सौंदर्यशास्त्र और नए विचारों को गढ़ा है और इसे ही हम अपनी सफलता मानते हैं.
ऑनलाइन आईडिया का निर्माण करने वाले के रूप में, आप हमेशा बदलते रहने वाले एल्गोरिदम से कैसे डील करते हैं?
यह सच है कि एल्गोरिदम निश्चित रूप से आपको अपनी जकड़ में ले लेता है. लेकिन इसे हैक करने की कोशिश लगातार करनी होती है. हर तरह के एल्गोरिदम को हैक किया जा सकता है. यह कुछ ऐसा है, जैसे कि अगर आप प्यार में पड़ते हैं, तो आप सामाजिक एल्गोरिदम को हैक करते हैं, है ना? आप चाहते हैं कि आप अपने टाइप के व्यक्ति से प्यार करें, लेकिन ऐसा नहीं होता, आप एकदम ही किसी और टाइप के व्यक्ति के प्यार में पड़ जाते हैं. और वहां से तड़क-भड़क सा कुछ नया बनने लगता है और चीज़ें बदलनी शुरू होती हैं. लोकप्रिय संस्कृति के किसी भी माध्यम का मतलब है कि आप लोगों के साथ जुड़ने के लिए मजबूर होने जा रहे हैं, उनकी पहचान के संदर्भ में नहीं, बल्कि अनुभवों के संदर्भ में, क्योंकि अनुभव ही हम सभी को एक समान फ्रेम में लाता है.
हम जितने भी सोशल मीडिया प्लेटफार्म का उपयोग कर रहे हैं, वह सब एलिस्ट सोशल मीडिया की तरह हैं, है ना? फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्विटर ये बहुत हद तक अभिजात वर्गीय हैं या इलीट हैं क्योंकि वे सभी चीज़ों को अंततः एकरूपता की ओर ले जाते हैं. लेकिन रील के साथ ऐसा नहीं है. यह फॉर्म इस मामले में बिलकुल कट्टर नहीं है क्योंकि – जैसे लोगों ने यहां जिस तरह बिना शब्दों का संसार खड़ा कर दिया है, वो अद्भुत है. वो आपको आगे बढ़कर लिखकर या बोलकर नहीं बता रहे. ये विश्वास ही है कि उन्हें मालूम है कि वो ऐसा कर सकते हैं. पॉपुलर कल्चर में भी थोड़ा-बहुत ऐसा ही आत्मविश्वास होता है, लेकिन हमारे बहुत सारे एजुकेशनल कल्चर में वह आत्मविश्वास नहीं होता और न ही आपसी बातचीत का खुला मंच होता है.
क्या एजेंट्स ऑफ़ इश्क ने स्कूलों और शिक्षकों से संवाद किया है? व्यवस्थित शिक्षा प्रणाली की क्या प्रतिक्रिया रही है?
ऐसे शिक्षक हर जगह हैं जो वास्तव में अपने छात्रों की मदद करने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं, और यही कारण है कि कंटेंट के लिए वह हमसे संपर्क भी करते हैं. लेकिन, स्कूलों में कभी-कभी किसी खास सामाजिक मुद्दे पर स्कूलों में आकर हमें बात करनी चाहिए जैसे सहमति या कंसेंट का मुद्दा. जेंडर को लेकर एक तरह का जंग का माहौल होता है जिससे निपटने में स्कूलों और कॉलेजों को मुश्किलों का सामना करना पड़ता है और वे चाहते हैं कि हम उनका साथ दें. हमें जो मुश्किल लगा वह है—साथ मिलकर काम करने की भावना. हम ऐसी जगहों के लिए एकतरफा कंटेंट नहीं बना सकते क्योंकि जो व्यक्ति उन जगहों में रहता है वह उस माहौल से अच्छी तरह वाकिफ़ होता है. अलग-अलग विचारों या कहें डायनामिक एजेंसी का यही तर्क शिक्षकों पर भी लागू होता है. है न? उन्हें पता है कि क्या किया जा सकता है और क्या नहीं.
पर क्या स्कूलों या कॉलेजों के साथ मिलकर काम करना या कनेक्शन बनाना सचमुच ज़रूरी है? क्योंकि, जिस पल आप शरीर, अनुभव और भावना जैसी चीज़ों पर बात करना शुरू करते हैं औपचारिक स्कूली शिक्षा का संघर्ष वहीं से शुरु हो जाता है…
ऐसा होने के लिए तो शिक्षा के प्रति सम्पूर्ण दृष्टिकोण को बदलना होगा. लेकिन, हां, ये संभव है कि हम जो करते हैं उसकी कुछ चीज़ें उस जगह में दाखिल हो सकें. स्कूली पाठ्यक्रम में सभी चीज़ों को शामिल करना हमारा लक्ष्य नहीं है. हमारी दुनिया, जिसमें हम जो करते हैं वो भी इसमें जुड़ा हुआ है, वो प्रभावों का मिश्रण है और जो लगातार बढ़ता-घटता रहता है. इसमें हर व्यक्ति खुद भी कई तरह की पहचानों, अनुभवों, ढांचों में घुला होता है और उनका इतिहास, उनकी पहचान, शरीर एवं उनकी भावना सब इसमें घुले-मिले होते हैं. यह भी सीखने-सिखाने की एक खास जगह है. यह एक प्रकार की व्यक्तिगत शिक्षा देती है जिससे लोग गुज़रते हैं, कभी-कभी दूसरे लोगों के साथ, कभी व्यक्तिगत रूप से और कभी जब सार्वजनिक या औपचारिक जगहों में वे कदम रखते हैं.
क्या कभी आपने सोचा था कि आप एक एजुकेटर बनेंगी? यह एक सेक्सी पहचान नहीं है, कम से कम फ़िल्म बनाने जितना सेक्सी तो नहीं ही है…
मेरे ख्याल से सेक्सी टीचर एक बहुत ही अलग चीज़ है, जो मैं हूं नहीं. नहीं, मेरा मतलब है, सच कहूं तो मैं अभी भी खुद को उस रूप में नहीं देखती, लेकिन हां, मैं मानती हूं कि हम जो कर रहे हैं उसमें कुछ मात्रा में तो यह शामिल होता है और हमेशा होता है. वास्तव में मैं खुद को एक कलाकार के रूप में देखती हूं और कला का मतलब भी तो खुद को शिक्षित करना ही है.
इंद्रियों की शिक्षा और अपनी इंद्रियों को शिक्षित किए बिना हम एक खुशगवार ज़िंदगी की उम्मीद नहीं कर सकते क्योंकि यह हमारी इंद्रियां ही हैं जिनके माध्यम से हम दुनिया को देखते हैं और कला का उद्देश्य इसी संवेदनात्मक या सेंसरी ज्ञान को लगातार संगठित, अस्थिर और पुनर्स्थापित करना है.
इस लेख का अनुवाद सुमन परमार ने किया है.