यह हमारे मज़ा और खतरा संस्करण के भीतर ‘यौनिकता और अवचेतन’ लेख शृंखला’ में प्रकाशित पहला लेख है. यह संबंधित विषय पर लेखक के शोध, उनके विचार और विश्लेषण पर आधारित है. यह लेख-शृंखला मूल अवधारणाओं को सामने लाने का प्रयास करती है और साथ ही सीखने-सिखाने के तरीकों को भी उभारने का काम करती है.
जया शर्मा ‘मज़ा और खतरा’ संस्करण की अतिथि संपादक हैं.
ऐसा कैसे हो सकता है कि मज़े और खतरे को अलग करना मुश्किल है?
क्या खतरा भी मज़ेदार हो सकता है?
दर्द और मज़ा दोनों साथ- साथ कैसे महसूस हो सकते हैं?
ऐसा कैसे है कि हम उन्हीं खुशियों के पीछे भागते हैं, ये जानते हुए कि उनके पीछे भागने में किस तरह के खतरें हैं?
क्या कुछ मज़े ऐसे भी होते हैं जिससे हमारी खुद की राजनीति खतरे में पड़ जाए?
क्या ऐसा भी हो सकता है कि वो हमारी राजनीति को मजबूत बनाने का काम करें?
ये सारे सवाल सिर चकरा देने वाले हैं. हो सकता है कि आपका इनसे सामना न हुआ हो, या हुआ भी हो. पर मैं आपको ये बताना चाहती हूं कि क्यों ये सवाल ज़रूरी हैं? इसका एक कारण है कि हमारी ज़िंदगी में मज़ा और खतरा एक तरह से गड़मड़ है. ये हमारे भीतर भी है और आसपास भी. लज़ीज या नागवार- ये ज़िंदगी के पहलू हैं. ये हमें चौंकाते हैं. इस हैरानी को पहचानना, इसे समझना ज़रूरी है.
आखिर मज़ा और खतरा इतने गहरे क्यों जुड़े हुए हैं? एक दूसरे में गुथे क्यों है?
इसे समझने के लिए मैं अपनी ज़िंदगी के उदाहरणों को आपके साथ साझा करना चाहूंगी. मज़ा और खतरा के अलग-अलग होने या एक दूसरे के विपरित होने की समझ को चुनौती देते हैं.
मेरे लिए रोज़मर्रा की ज़िंदगी में अगर गड़मड़ता का अगर कोई सबूत है तो वो गोल-गप्पा या फुचका है. करारे, तीखे पानी वाले गोल-गप्पा को खाते हुए एक तरफ आंखों से पानी निकल रहा होता है, नाक सुड़-सुड़ कर रही होती है, जलती हुए जीभ में सुकून देने के लिए हवा भरते हुए, आवाज़ आती है इश्श्श्श्श… बावजूद मैं अगले गोलगप्पा को एक बार में गप्प कर जाती हूं! इसमें मज़ा और खतरा दोनों ही एक दूसरे में मिले हुए हैं.
मज़ा और खतरा नहीं, मज़ा-खतरा.
मज़ा और दर्द, मैं अपनी मांसपेसियों में उस वक्त महसूस करती हूं जब हफ्ते के पांच दिन बेमन से ही सही जिम जाने के अपने वादे को निभाते हुए मैं अपनी हद से आगे बढ़कर ज़ोर लगाती हूं!
रियाज़ में भी एक तरह का दर्द है. जब मैं हिन्दूस्तानी शास्त्रीय संगीत सीखते हुए एक ही सुर को बार-बार दोहराती रहती हूं, जो एक तरह की निरसता का भी अहसास देती है. (यह एक तरह से संगीत सीखने की ज़रूरी अनिवार्यता है.) पर, जब ऐसा करते हुए एक दुर्लभ लेकिन पूरी तरह निपुण सुर अचानक लग जाए तो आप आश्चर्यचकित हो उठते हैं. अचानक रियाज़ का सारा दर्द संतुष्टि से भर जाता है. और मज़ा और खतरा का तीर फिर से लग जाता है.
वहीं रागों के भी अपने नियम होते हैं — कौन से स्वर चढ़ाई (आरोह) में लिए जा सकते हैं और कौन से उतार (अवरोह) में — और इन्हीं नियमों का अनुशासन ऐसी ज़बरदस्त रचनात्मकता को संभव बनाता है जिसमें अनंत संभावनाएं हैं. ऐसी रचनात्मकता वह नहीं जो नियमों से बच कर निकले, बल्कि नियमों के होने की वजह से ही निकले. नियम और रचनात्मकता, यह एक और उदाहरण है जहां ये दोनों एक दूसरे के विपरित दिखाई तो देते हैं, लेकिन असल में ये एक दूसरे में गुत्थमगुत्था हैं.
अच्छा, माफ कीजिएगा अगर ये उदाहरण आपको घिसा-पिटा सा लगे पर यहां मैं अपनी मां के बारे में सोच रही हूं, या यूं कहूं कि मां के साथ अपने रिश्ते के बारे में सोच रही हूं- उसमें जो मज़ा और खतरा था, उसके बारे में.
मेरी मां के लिए ‘खतरा’ शब्द शायद लेख पढ़ने वाले उन लोगों को अखर सकता है जो उन्हें जानते थे. जो भी उनसे मिले सभी के मुंह से मैंने आज तक मां के लिए खूबसूरत शब्द ही सुने — वे कितनी विनम्र और शालीन थीं. दूसरों को कितना प्यार करती थीं और उदार थी. मेरे दोस्त हमेशा मुझे कहा करते कि भले ही वो उम्र में बड़ी थीं लेकिन उनसे बात करना कितना आसान था. पर, मुझे समझ नहीं आता कि वो उनसे बात क्या करती थीं??
मैं, मां को बहुत प्यार करती थी. बावजूद इसके हमारे बीच में बातचीत बिना मेरे अंदर चिड़चिड़ाहट या गुस्सा के सिर्फ़ एक ही विषय पर होती — खाना! हमारी बातचीत इसी पर होती थी कि अगले खाने में मैं क्या खाना पसंद करूंगी?
और क्यों मुझे ये बिलकुल पसंद नहीं था कि वे मेरे संगीत के क्लास के वक्त आसपास हों? और क्यों उनकी हर छोटी-छोटी इच्छाओं की बारीकियों से मुझे इतनी परेशानी होती थी. जबकि मैं खुद ही ज़्यादा से ज़्यादा उनके लिए चीज़ें ऑनलाइन ऑर्डर कर देती, इससे पहले कि उन्हें इसकी ज़रूरत पड़े. और जब वो मेरी इच्छाओं को पहले से समझ लेतीं, तो मुझे वो क्यों “टे तो बहुत ज़्यादा ही हो गया” जैसा लगने लगता था?
मैं अपनी मां से बहुत प्यार करती थी, पर फिर भी उनका प्यार मुझे कई बार खुशी से ज़्यादा खतरे जैसा क्यों लगता था?
वैसे ये केवल मेरी मां के बारे में नहीं है (हो सकता है कि हो भी) पर ये उन दूसरे रिश्तों के बारे में भी बहुत कुछ है, जो हमें अभी भी पूरी तरह से समझ नहीं आते.
मतलब ऐसा कैसे है कि मेरी सबसे गहरी दोस्तियां एक तरह का आकार बनाती हैं जहां मैं तीन-तरफा तरीके से उनके करीब आ जाती हूं. मैं, मेरे सबसे अच्छे दोस्त, और उनके पार्टनर्स – हम तीनों के बीच गहरी दोस्ती हो जाती है. थ्रीसम की तरह, जहां तीन लोग मिलकर यौनिक रिश्ते बनाते हैं. तो, क्या ये प्लेटॉनिक थ्रीसम है – जिसमें नज़दीकीयां हैं, बस यौन संबंध नहीं.
और ऐसे कैसे होता है कि अपने रोमांटिक यौनिक रिश्तों में, मैं एकदम ढूंढ़-ढूंढ के ऐसे पार्टनर्स को पसंद करती हूं, और वो भी एक बार में एक से अधिक; जो कभी उपलब्ध ही नहीं होते. अलग-अलग शहरों में रहने वाले, अपनी भावनात्मक ज़रूरतों को कम तवज्जों देने वाले, बहुत अधिक प्रतिबद्ध – अपने काम या अपने दूसरे पार्टनर के साथ- मतलब जितनी ज़्यादा अनुपलब्धता की परतें हो, उतना अधिक बेहतर. मेरे करीबी और मेरा भला चाहने वाले दोस्तों की सलाह है कि मुझे उन रिश्तों के प्रति ज़्यादा खुला होना चाहिए जो गहरी प्रतिबद्धता के साथ मेरे पास आते हैं. पर इस राय का मेरे ऊपर कोई इसर नहीं होता, मेरे कानों पर कोई जूं नहीं रेंगती.
हालांकि मैं मनोविज्ञान के उस लोकप्रिय पहलू के खतरों से वाकिफ़ हूं, पर मेरी मनोविश्लेषक (साइकोएनिलिस्ट) ने मुझे इस ओर सोचने पर मजबूर किया कि एक या एक से अधिक अनुपलब्ध पार्टनर्स के प्रति मेरा झुकाव मेरे भीतर कहीं न कहीं, अनजाने में ही सही, किसी एक के साथ (इकहरा/ एकरंगी) जुड़े रहने का डर हो सकता है. हाय तौबा! इसका मतलब है कि मेरी जो कूल या यूं कहें कि बेफ्रिक्र मज़ेदार ज़िंदगी जिसमें मैं एक समय में एक से ज़्यादा लोगों के साथ थी (इसे अंग्रेजी में पॉलिमरी कहते हैं)— असल में ये एक तरह से ‘सुरक्षा की रणनीति’ थी? (ये दस साल पहले की बात है जब इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म नहीं थे और न ही यहां अपनी पॉली जिंदगी के बारे में बताने का कोई चलन था) सुरक्षा का मतलब, अगर कोई एक मुझे छोड़ दे, तो कम से कम एक और पार्टनर तो रहेगा — (वैसे भी तब जब मैं किसी के साथ पूरी तरह से भावनात्मक रूप से जुड़ी हुई नहीं थी.) क्या मैं खुद को मज़ा के न होने से जो दर्द होता है, उससे बचा रही थी?
या फिर मैं उस सुख का आनंद ले रही थी जो पूरी तरह न मिल पाने की वजह से और भी तीखा, और भी मोहक बन गया था?
मैं अपनी जिंदगी में अपने काम की जगह से भी कुछ उदाहरण या झलकियां आपके साथ साझा करना चाहती हूं जो मुझे लगता है कि आज के समय में मज़ा और खतरा के गड़मड़-पने को समझने में कारगर है. आज, जब मैं निरंतर के साथ काम करने के अपने दो दशक से भी अधिक समय की ओर देखती हूं तो, वहां बहुत सारे ऐसे उदाहरण हैं जो मज़ा और खतरा के अलग-अलग होने या एक दूसरे के विपरित होने की समझ को चुनौती देते हैं. बहुत सारे गज़ब एवं आश्चर्यजनक चीज़ों की लिस्ट में जो सवाल बार-बार हमारे काम में उठकर आया, और जो जेंडर आधारित हिंसा से जुड़ा था, वह था कि— ऐसा कैसे हो सकता है कि वे महिलाएं, जो हिंसात्मक रिश्तों में थीं, बार-बार अपने उन साथियों के पास लौट जाती थीं, जबकि उनके पास उन्हें छोड़ने के लिए ज़रूरी सहारा मौजूद था? सामाजिक दबाव या मान्यताओं के आत्मसात कर लेने के आगे वो क्या था जो उन्हें भावनात्मक, शारीरिक और कई बार यौन हिंसा के असली और मौजूद खतरों से बाहर निकलने से रोकता रहा?
नागरिक स्वतंत्रता और संवैधानिक अधिकारों से जुड़े एक्टिविज़म या सामाजिक कार्यों के होने के बावजूद इस तरह की हैरानी बार-बार सामने आती रही.
बहुत कुछ ऐसा था जिसे सिर्फ़ अधिकारों की भाषा के ज़रिए नहीं समझाया जा सकता था.
ऐसा क्यों था कि दिखने में सीधे-सादे, आम लोग भी इतनी आसानी से नफ़रत की राजनीति से प्रभावित हो जाते थे? और भीतर अपने आसपास या करीबी जगहों की ओर देंखे तो यह सवाल और नज़दीक आता महसूस होता है — ऐसा क्यों था कि हम जैसे कार्यकर्ता भी “हम” और “वे” के बंटवारे में इतनी आसानी से फंस जाते हैं — हमारी राजनीति सबसे उम्दा और खरी है, और “वे” उसे धोखा देने वाले होते थे? कैसे हम यह नहीं देख पा रहे थे कि इस तरह की सोच हमारे बीच की एकता और साथ होने के मज़े के लिए एक ख़तरा बन रही थी? क्या यह भी हो सकता है कि हम भरोसे और सम्मान जैसे मूल्यों को तोड़ने के इस ख़तरे में ही कोई अजीब-सा मज़ा ढूंढ रहे थे?
मेरी निजी जिंदगी और मेरे काम, दोनों ही जगहों पर ऐसे कई तरह के सवाल हैं जो हैरानी पैदा करने वाले हैं. बावजूद इसके एक सेक्सुअलिटी एजुकेटर के रूप में मैं, इन हैरानियों को नज़रअंदाज करते हुए लगातार आगे बढ़ती रही. जैसे मानो प्यार और सेक्स से जुड़ी हर बात को समझाया जा सकता है. फिर उसके लिए थोड़ी मेहनत, थोड़ी जद्दोज़हद क्यों न करनी पड़े. नज़रीया ये था कि ये सारे मामले सामाजिक और आर्थिक ढांचों और विषमलैंगिक पितृसत्तात्मक मान्यताओं से जुड़े हुए हैं. हालांकि निरंतर में यौनिकता से जुड़ा जो काम 2007 में शुरू हुआ, वह एक ओर सेक्स-पॉज़िटिव** था (एक ऐसे समय में जब सेक्स-पॉज़िटिव सोच बहुत दुर्लभ थी), और दूसरी ओर राजनीतिक भी था (ऐसे संदर्भ में जहाँ सेक्स-पॉज़िटिव काम भी व्यापक सामाजिक संरचनाओं और विचारधाराओं को पर्याप्त रूप से नहीं समझ पा रहा था), फिर भी मेरे जीवन की यथार्थता — एक सेक्सुअलिटी एजुकेटर के रूप में — और मेरे आस-पास के लोगों के जीवन के बीच एक जुड़ाव नहीं था.
मेरी ज़िंदगी में एक बड़ा मोड उस वक्त आया जब मैंने थेरेपी में मनोविश्लेषण शुरू किया. ठीक-ठीक याद नहीं कि क्यों मैं मनोविश्लेषण की ओर गई. कुछ धुंधली याद है कि रोज़ सुबह उठते ही मैं रोने लगती थी. उस समय कि मेरी गर्लफ्रेंड को ये लगता कि ऐसा मेनोपॉज़ के शुरू होने की वजह से हो रहा है. मुझे उसका ये नज़रिया न सिर्फ़ सिरे से नागवार महसूस होता बल्कि ऐसा लगता कि उसमें क्रूरता भरी हुई है. पर हो सकता है उसकी बात सही हो. खैर वजह जो भी हो, मैं इस बात की बहुत ज़्यादा आभारी हूं कि मैंने मनोविश्लेषण को ढूंढ लिया या उसने मुझे ढूंढ लिया. मेरे निजी जीवन में जो बड़े और (अचानक )मूलभूत बदलाव आए, उनके अलावा मुझे इस बात से मोहब्बत हुई कि कैसे मनोविश्लेषण मुझे दुनिया को देखने का एक नया नज़रिया दे रहा है.
धीरे-धीरे मेरे लिए ये एकदम साफ़ होता चला गया कि मेरी निजी ज़िंदगी और मेरी पेशेवर ज़िंदगी के आसपास जो कई सवालों की हैरानी है, उन्हें सिर्फ़ तर्क के आधार पर नहीं सुलझाया जा सकता. सोचने-समझने की क्षमता और तर्क की दुनिया एक हद तक ही मदद कर पाती है. चाहे वह कुछ तीखा खाने में मिलने वाला स्वादिष्ट या गंदा अनुभव हो या फिर न मिल पाने वाला प्यार — यह सवाल उठता रहा कि मज़ा, सिर्फ़ सीधा, सरल मज़ा क्यों नहीं होता? हम ऐसे “चयन या च्वाइसेस” क्यों करते हैं जो हमारे लिए साफ़ तौर पर नुकसानदेह होते हैं? हम क्यों नहीं सुन पाते उस दोस्त या सलाहकार की बात जो हमें इन खतरों से आगाह करता है — चाहे वो किसी हासिल न हो सकने वाले इंसान से प्यार करना हो, या बार-बार किसी अपमानजनक रिश्ते में लौट जाना हो? हम कभी-कभी ऐसे प्यार से दूरी क्यों बना लेते हैं, जो खुले दिल से हमें दिया जा रहा हो? इन सवालों का जवाब सिर्फ़ तर्क और दिमाग से नहीं नहीं दिया जा सकता. इन्हीं सवालों के जवाब पाने के लिए मैंने अवचेतन की ओर रुख किया.
मैंने मनोविश्लेषण पर लिखने वाले लेखकों को पढ़ना शुरू किया. उनमें से कुछ को छोड़ दें तो बाकी सभियों को समझना बहुत ही कठिन या दर्दनाक था. एक बेहद करीबी दोस्त, जो मनोविश्लेषणात्मक सोच में गहरी समझ रखता है उसकी मदद और साथ ही इस विषय की अवधारणाओं पर आधारित छोट-छोटे कोर्स करके मैंने इसे जानना-समझना शुरू किया.
मनोविश्लेषण के प्रति मेरे प्रेम ने मुझे प्रेरित किया कि मैं प्यार और सेक्स को अवचेतन के नज़रीये से इस विषय पर शोध की ओर कदम बढ़ाऊं. हम जानते हैं कि ‘मज़ा और खतरा’ की यह जोड़ी प्यार और सेक्स तक ही सीमित नहीं है. फिर भी इन दोनों में एक खास तरह की तत्परता और उस कड़वे-मीठे अनुभव तक पहुंचने की सहजता होती है — मानो प्यार और सेक्स खुद ही इसकी मांग करते हों.
इसके पहले कि मैं आपसे अपने शोध के प्रमुख निष्कर्ष साझा करूं, मैं आपको बताना चाहती हूं कि अचेतन या जिसे अंग्रेज़ी में साइकी कहते हैं, से मेरा क्या मतलब है. लेकिन इससे भी पहले कुछ चीज़ें स्पष्ट करना चाहती हूं. जैसे, मनोविश्लेषण से जुड़ी सामग्री को पढ़ने और सुनने के इतने वर्षों के मेरे अनुभव ने अगर मुझे कुछ सीखाया है तो वो ये कि मनोविश्लेषण के भीतर भी किसी चीज़ को समझने का एक ही तरीका नहीं होता. यहां तक कि अंग्रेज़ी के शब्द psyche जिसे हम हिन्दी में अवचेतन लिख रहे हैं, इसका भी कोई एक निश्चित अर्थ नहीं है. इसलिए यहां जो मैं आपके सामने रख रही हूं वो इस अवचेतन को लेकर मेरी समझ है. मनोविश्लेषण के दायरे में और भी तरीके होंगे जो (दिल-दिमाग या )साइकी को समझने में कारगर होंगे, और जो मेरी समझ से अलग हो सकते हैं. इस लेख-शृंखला के दौरान, मैं उन मुख्य अवधारणाओं को (भी) आपके साथ साझा करूंगी, जिसने अवचेतन काम करने के मेरे नज़रिए को आकार दिया है.
तो, प्यारे पाठकों हमारे साथ जुड़े रहिए, हो सकता है इसके अंत तक सर कुछ ज़्यादा चकराए!
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** सेक्स पॉजिटिव का अर्थ है अपनी यौन इच्छाओं, पहचान और अनुभवों को सकारात्मक और सम्मानजनक तरीके से देखना, बिना शर्म या आलोचना के
इस लेख का अनुवाद सुमन परमार ने किया है.