नारीवादी शिक्षा

पानी की कतार

निरंतर के ट्रेनिंग सेंटर ‘तरंग में जब बच्चों को यू ट्यूब पर उपलब्ध कुछ शॉर्ट वीडियोज़ दिखाए गए तो सभी ने एक स्वर में कहा, “हमें भी फिल्म बनानी है.” ये बोलना तो आसान था. आखिर एक फ़िल्म बनाने के लिए क्या चाहिए? लाइट्स, एक्शन, कैमरा और बहुत सारा जुनून! और देखते ही देखते कुछ महीने के बाद वो बच्चे अपनी फिल्म के साथ तैयार हैं आपको हैरान कर देने के लिए.

सक्षमतावाद और मेरिट का जंजाल

‘हमेशा देर कर देता हूं मैं हर काम करने में’ कॉलेज कैम्पस के भीतर ऐसे स्लोगन वाले टी-शर्ट पहने विद्यार्थी आसानी से दिखाई दे जाते हैं. मुझे लगता है कि पिछले कुछ हफ़्तों के दौरान ऐसे स्लोगनस ने मेरे कैम्पस में अच्छी-खासी लोकप्रियता हासिल कर ली है. मेरी नज़र में इसका कारण फाइनल इग्ज़ैम है, जिसका वक्त बहुत नज़दीक आ पहुंचा है.

उपस्थिति दर्ज करने की ज़िद

किसान मां और पुलिस में नौकरी करने वाले पिता की बेटी, सेजल राठवा, पत्रकार बनने वाली अपने समुदाय की पहली लड़की है. छोटा उदयपुर की रहने वाली सेजल ने बतौर ब्रॉडकास्ट जर्नलिस्ट, वडोदरा, गुजरात के वीएनएम टीवी के साथ पत्रकारिता के करियर की शुरुआत की.

टीचर टॉक्स: सीज़न 2. एपिसोड 2

‘टीचर टॉक्स’ सीज़न दो के दूसरे एपिसोड में मिलिए पाकुर, झारखंड की असनारा खातून से जो अपने परिवार की पहली शिक्षिका हैं. पाकुर के एक ऐसे इलाके में जहां लड़कियों की पढ़ाई से ज़्यादा ज़रूरी उनको बीड़ी बनाने के काम में लगाना है, असनारा बस अपनी धुन में पढ़ती ही गईं.

टीचर टॉक्स: सीज़न 2. एपिसोड 1

टीचर टॉक्स के दूसरे सीज़न में मिलिए ऐसी शिक्षिकाओं से जो अपने परिवार में शिक्षा प्राप्त करने वाली पहली पीढ़ी से हैं. वीडियो में वे बतौर विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने के अपने अनुभवों के साथ, वर्तमान में अनौपचारिक शिक्षण केंद्रों में बच्चों को पढ़ाने के अनुभव साझा कर रही हैं.

बेबी हालदार के साथ एक बातचीत

साल 2002 बहुत सारी घटनाओं के लिए इतिहास में दर्ज है. उन्हीं में से एक असाधारण घटना थी ‘आलो आंधारि’ किताब का प्रकाशन. इस किताब के शब्दों ने घरेलू कामगारों के साथ होने वाली हिंसा और गरीबी में डूबी एक ऐसी दुनिया का दरवाज़ा खोलने का काम किया जिसके बारे में शायद ही कभी कोई बात होती थी.

होने, न होने के बीच

सोशल मीडिया पर हम जैसे दिखाई देते हैं क्या असल में हम वही होते हैं? सोशल मीडिया पर क्या कितना दिखाना है कितना नहीं? क्या दिखाना है, क्या नहीं इससे हमारे खुद के बारे में क्या पता चलता है?

फ से फ़ील्ड, श से शिक्षा: एपिसोड 10 पैसे चाहिए की नहीं?

उसे अपनी पढ़ाई को जारी रखने के लिए पैसों की ज़रूरत थी. उसने बहुत सारी तरकीबें सोच रखी थीं जिनसे घरवालों से पढ़ाई के लिए पैसा भी निकाल ले और उन्हें पता भी न चले पर उसके पिताजी हमेशा उसकी तरकीबों से एक कदम आगे की सोच रखते हैं. सुनिए एक पिता और एक बेटी की कहानी.

फ से फ़ील्ड, श से शिक्षा: एपिसोड 9 छोटी बहू

“छोटी बहू, अरे ओ छोटी बहू…” घर में सुबह से लेकर रात तक बस यही एक राग सुनाई देता है. घर हो या बाहर या फिर काम की जगह, उसका पूरा दिन सिर्फ़ भागते-दौड़ते ही बीत जाता. कभी शरारती सुनिता के नाम से मशहूर,आज वो सिर्फ़ छोटी बहू बनकर रह गई है…क्या है छोटी बहू की कहानी सुनिए राजकुमारी और आरती अहिरवार की ज़ुबानी.

भोपाल की बस्तियों में शिक्षा की एक नई उम्मीद

दसवीं तक की पढ़ाई पूरी करते-करते सबा को तीन बार स्कूल छोड़ना पड़ा. क्योंकि घरवाले स्कूल फीस जमा करने की स्थिति में नहीं थे. किसी तरह प्राइवेट से दसवीं करने के बाद सबा ने ट्यूशन और डेलिगेट मदरसा में 300 रूपए प्रति माह तनख्वाह पर बच्चों को पढ़ाना शुरू किया.

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