जाति और सिनेमा. भाग – 1
जाति और सिनेमा. भाग – 2
चर्चित फिल्मकार अविजित मुकुल किशोर की फ़िल्में बदलते शहर, कस्बे और उनमें रहने वाले लोगों और जगहों की बात करती हैं. अपने कैमरे के ज़रिए वे यहां होने वाले बदलाव को बहुत ही खूबसूरती से कैद करते हैं.
‘फिल्मी शहर’ ऑनलाइन मास्टरक्लास में हम अविजित मुकुल किशोर के साथ मिलकर सिनेमा की भाषा एवं उसके नज़रिए की पड़ताल करेंगे.
फिल्मी शहर के दूसरे एपिसोड ‘जाति और सिनेमा’ में हम, सिनेमा के ज़रिए हमारे आसपास की दुनिया की पड़ताल कर रहे हैं. हमारी कोशिश है बड़े पर्दे की सुनहरी दुनिया की परतों को उघाड़कर ये देखना कि हमारा सिनेमा जाति के सवालों पर क्या और किस तरह की बात करता है?
फिल्म निर्देशक अविजित मुकुल किशोर के साथ इस मास्टरक्लास के दो भागों में, हम उन स्पष्ट और सूक्ष्म तरीकों की खोज करते हैं, जिन रास्तों से मुख्यधारा का सिनेमा समाज को गढ़ता है. कैसे फिल्में अपने नेरेटिव में जाति को दिखाने और छुपाने का काम करती हैं? सवाल है कि आज़ादी के इतने सालों बाद सिनेमा की भाषा में क्या बदलाव आए हैं? क्यों 35 साल लगे आम्बेडकर की तस्वीर को सिनेमा के पर्दे पर दिखाई देने में?
यहां हम जाति एवं अस्तित्व के सवाल, हमारे नायकों की छवियों का निर्माण और प्रेम में जाति को देखते हैं. फिल्मों में ‘दलित नज़र’ क्या है? मुख्यधारा की फिल्मों में अपनी दलित पहचान और राजनीति के साथ सामने आए निर्देशक किस भाषा, रंग या छवियों के ज़रिए अपनी बात रख रहे हैं? कैसे एक बच्चे द्वारा उठाया गया पत्थर और उसे स्क्रीन की तरफ़ फेंकना जाति की जकड़न पर किए गए प्रहार का प्रतीक बनकर अलग-अलग दशकों में नए सवाल उठाता है.
देखिए, फिल्मी शहर का यह एपिसोड जिसके ज़रिए हम सिनेमा में जाति और उसकी अवधारणाओं से जुड़ी बहस के पिटारे को खोलना चाहते हैं ताकि ये बहस सार्थक सवालों के साथ आगे की ओर बढ़े.
सिनेमा में समलैंगिकता पर अगला एपिसोड देखने के लिए यहां जाएं.