द थर्ड आई टीम के लेख

द थर्ड आई की पाठ्य सामग्री तैयार करने वाले लोगों के समूह में शिक्षाविद, डॉक्यूमेंटरी फ़िल्मकार, कहानीकार जैसे पेशेवर लोग हैं. इन्हें कहानियां लिखने, मौखिक इतिहास जमा करने और ग्रामीण तथा कमज़ोर तबक़ों के लिए संदर्भगत सीखने−सिखाने के तरीकों को विकसित करने का व्यापक अनुभव है.

स्वास्थ्य से याद आया…

बिहार में अलग-अलग समूहों से जुड़ी महिलाओं ने ज़ूम वीडियो कॉल पर बात करते हुए स्वास्थ्य से जुड़े हर मुद्दे पर हमसे खुलकर बात की. कम्प्यूटर का सर्वर ख़राब होने की दिक्कत से लेकर स्वास्थ्य केन्द्रों के भूसा घर में तबदील हो जाने की दास्तान यही बताती है कि ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य सेवाएं प्राप्त करना अमूमन भूसे के ढेर में सुई खोजने के समान है.

“इस बात में कोई शक नहीं कि हमारे भोजन और हमारे स्वास्थ्य में सीधा संबंध है.”

डॉ. ललिता रेगी और रेगी जॉर्ज ने 1992 में ट्राइबल हेल्थ इनिशिएटिव की स्थापना की. एक कमरे में लगे सौ वॉट के बल्ब के साथ उन्होंने अपने सफ़र की शुरुआत की थी. आज ये एक कमरा, 35 बिस्तरों वाले बड़े से अस्पताल में बदल चुका है.

नाकाम स्वास्थ्य व्यवस्था ने जनता को डाला क़र्ज़ में

स्वास्थ्य का अधिकार हमारे मौलिक अधिकारों में शामिल है. लेकिन आज़ादी के 75 साल बाद भी क्या स्वास्थ्य सुविधाएं सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध हैं? इस वीडियो प्रस्तुति में चंबल मीडिया और द थर्ड आई टीम के साथ जानिए—क्या है जन स्वास्थ्य व्यवस्था और कर्ज़ में डूबते भारत का असल सच?

“महिलाएं भुगतती हैं चिकित्सा सेवाओं के निजीकरण का सर्वाधिक ख़ामियाज़ा”

उदारीकरण के दौर में आर्थिक सुधारों के साथ जो चीज़ सबसे ज़्यादा उभरकर सामने आई वह थी सरकारी क्षेत्रों में प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी. स्वास्थ्य में इस मॉडल के असर को गहराई से समझने के लिए हमने पेशे से शोधकर्ता बिजोया रॉय से बात की.

जन स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए विकलांगता प्राथमिक क्यों नहीं है?

2011 की भारतीय जनगणना के अनुसार सिर्फ़ दो या ढाई फीसदी लोग ही शारीरिक एवं मानसिक विकलांगता से ग्रसित हैं। क्या ये पूरा सच है? जन स्वास्थ्य व्यवस्था में शारीरिक एवं मानसिक विकलांगता वाले लोग सबसे निचले पायदान पर क्यों खड़े दिखायी देते हैं?

“आईएएस सेवाओं की तरह ही हमारे यहां भारतीय जन स्वास्थ्य कैडर होना चाहिए.”

ट्रांसजेंडर या सिसजेंडर – जो किसी तयशुदा खांचे में अपने को फिट नहीं पाते, वे सार्वजनिक स्वास्थ्य के ‘सिस्टम’ में अपने को कहां खड़ा पाते हैं? क्या वैक्सीन या स्वास्थ्य से जुड़े किसी भी प्रचार का केंद्र ऊंची जाति के लोग और ख़ासकर उत्तर भारत के लोग ही हैं?

“हम लोगों से सिर्फ़ डेटा कलेक्ट करती हैं, उनके सवालों का जवाब हमारे पास नहीं होता.”

समुदाय और सरकार के बीच अपनी भूमिका निभाती आशा वर्कर की ज़िन्दगी में डर, असुरक्षा और आर्थिक तंगी स्थाई है. उनकी स्थिति में परिवर्तन स्वस्थ समाज के लक्ष्य को पाने की तरफ एक सकारात्मक कदम हो सकता है.

दर्द के नक्शे

हमारे डिजिटल एजुकेटर्स ने ऑनलाइन एक कार्यशाला के ज़रिए अपने शरीर के और अपने आसपास के दर्द को समझने का प्रयास किया. कार्यशाला में क्या बातें हुईं और कैसे साथियों ने अपने दर्द का नक्शा बनाया इस वीडियो के ज़रिए देखें.

“किसी व्यक्ति को भोजन के लिए दिन में तीन बार लाइन में खड़ा करना उन्हें अपमानित करना है.”

कर्नाटक के कार्यकर्ता, क्लिफ्टन डी’रोज़ारियो, ने यह साफ़ किया कि खाद्य सुरक्षा के बिना कोई सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था टिक ही नहीं सकती. वे मंथन लॉ, बंगलुरू से जुड़े एक अधिवक्ता हैं और अखिल भारतीय केंद्रीय ट्रेड यूनियन परिषद (AICCTU) के राष्ट्रीय सचिव और सीपीआई (ML) लिबरेशन, कर्नाटक के राज्य सचिव हैं.

नर्सिंग और जाति की दर्जाबंदी

स्वास्थ्य सेवाओं के भीतर छूत-अछूत का मसला ही नहीं जेंडर भी यहां अपना रंग दिखाता है। ज़्यादातर नर्स महिलाएं हैं और इसके कारण कई तरह की जाति और जेंडर से जुड़ी दर्जाबंदी साफ़ दिखाई देती है।

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