क्या कल्पनाओं या फंतासी की भी कोई सही या गलत दिशा होती है?

यौन स्वतंत्रता के मायने और खुद के लिए उसकी पहचान की यात्रा साझा करती एक सेक्स एजुकेटर एवं शोधकर्ता

चित्रांकन: सार्थ पटेल

यह लेख द थर्ड आई सेक्सी लोग मेंटरशिप कार्यक्रम के तहत तैयार किया गया है. इस कार्यक्रम में भारत के अलग-अलग हिस्सों से चुने गए दस लोगों ने यौनिकता को लेकर ‘मज़ा और खतरा’ विषय पर अपने अनुभवों को लेख के रूप में तैयार किया है.

“कभी-कभी मुझे लगता है कि हर कोई सेक्सी बेबी है,

और मैं पहाड़ पर रहने वाली एक राक्षस…”

– अमरीकी गीतकार टेलर स्विफ्ट के गीत ‘एंटी हीरो‘ से दो पंक्तियां. 

(मूल गीत: Sometimes I feel like everybody is a sexy baby,

And I’m a monster on the hill.

– Taylor Swift, ‘Anti-Hero’)

छोटी उम्र से ही मुझे खुद को सेक्सुअल तरीके से ज़ाहिर करने की ज़रूरत लगातार महसूस होती थी. मैं खुद को ‘सेक्सुअल’ नहीं कहूंगी (फिर चाहे मेरे भीतर की सेक्सुअलिटी एजुकेटर चीख-चीख के क्यों न कहे कि सेक्सुअल होने में कुछ गलत नहीं है!’).

यौनिकता के अलग-अलग रूपों में मैं खुद को डेमिसेक्सुअल (यौन आकर्षण का एक ऐसा अनुभव जिसमें किसी व्यक्ति के लिए यौन आकर्षण महसूस करने के लिए एक मज़बूत भावनात्मक बंधन का होना ज़रूरी है) की तरफ झुका हुआ पाती हूं. मैं “बहुत ही ज़्यादा संवेदनशील” लोगों में से हूं. ये खिताब मेरे दादाजी ने मुझे बहुत छोटी उम्र में ही दे दिया था क्योंकि मैं अपनी भावनाओं का इज़हार खुलकर करती हूं – जो मेरे ‘डांट से नहीं, चुप्पी के ज़रिए कंट्रोल करने’ (पैसिव-एग्रेसिव) वाले परिवार में एक अजीब बात थी. हो सकता मैं आपको ‘जब वी मेट’ फ़िल्म के गीत की तरह लगूं. बस उसके जितना ‘खुद से प्यार करने’ वाली नियत को थोड़ा कम कर सकते हैं. मैं एकदम देसी, मुस्लिम परिवार में पली-बढ़ी, नई-नई क्वियर हूं, और अब अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी में सेक्स पर शोध करती हूं. और ‘सहमति (कंसेंशुअल)’ बिना सहमति (नॉन-कंसेंशुअल) और ‘एक ही बार विवाह करने की प्रथा (मोनोगैमी) जैसे शब्दों तक मेरी भी पहुंच है. मेरे पास विशेषाधिकार है कि मैं अपनी ‘खतरनाक’ यौन इच्छाओं के बारे में लिख सकूं.

जब मैं सात साल की थी, उस वक्त जब भी मैं 80 या 90 के दौर की हिंदी फ़िल्मों में बलात्कार के दृश्यों को देखती तो मेरे पेट में कुछ मरोड़ें सी उठने लगती थीं.

मुझे याद है, स्क्रीन पर एक फ़िल्म में शक्ति कपूर या गुलशन ग्रोवर हीरोइन को बिना उसकी मर्ज़ी के छेड़ते थे और उसके कपड़े उतारने की कोशिश करते थे. उस समय ‘कंसेंट या सहमति’ जैसे शब्दों का अस्तित्व नहीं था. ये तो 2020 में आया है लेकिन तब उन बिना सहमति वाले दृश्यों में हीरोइन मुझे ‘शर्मीली’ लगती थी. पर नोट करने वाली बात ये है कि उम्र के उस नाज़ुक समय में मैंने सेक्स के नाम पर ऐसे ही दृश्य देखे थे.

मुझे याद है ऐसा ही अजीब सा कुछ मैंने तब भी महसूस किया था जब स्क्रीन पर ज़ीनत अमान को बिकनी पहनकर समुदंर से बाहर आते देखा था. उस फ़िल्म का नाम था कुर्बानी. इसे याद कर मैं आज भी सिहर जाती हूं और मुझे अभी भी चक्कर आने लगते हैं. मैंने कभी इन फ़िल्मी दृश्यों के बारे में किसी से ज़िक्र नहीं किया; कभी ये समझ भी नहीं पाई कि ये भावनाएं कहां से आ रही थीं और क्यों मुझे इतनी शर्मिंदगी महसूस होती थी.

14 साल की उम्र में मैं ऑनलाइन चैट रूम्स में जाकर बड़ी उम्र के बिंदास मर्दों (35-45 साल के मर्द जिनमें बच्चों के प्रति यौन इच्छाओं को लेकर रूझान था) से बातें करती थी. उफ्फ! रात में, सारे घरवालों के सो जाने का इंतज़ार करते हुए घबराते रहना, रात के सन्नाटे में इंटरनेट के राउटर से डायल-अप की घंटी का बजना, और फिर आखिर में ऑनलाइन याहू मेसेंजर का खुलना, ये सब ‘धूम पिचक धूम’ जैसा महसूस होता था. मम्मी-पापा में से कोई ये देख न ले कि जो कम्प्यूटर सिर्फ पढ़ने के काम के लिए है, उसपर मैं इस तरह की चीज़ें कर रही हूं. ये सोच अपने आप में मज़े और उत्तेजना को और ज़्यादा बढ़ाने का काम करती थी. मैं ओमेगल पर पुरुषों के लिंग के ऐसे-ऐसे चित्र देखते हुए बड़ी हुई हूं, पर यौनिक इच्छाओं को टटोलने का रिस्क भी तो यही होता है, है न?

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जब बड़ी हो रही थी तो यही लगता था कि मुझे पेनिस का वजाइना के अंदर जाने वाला सेक्स ही पसंद होना चाहिए और वो भी सिर्फ मर्दों के साथ लेकिन बड़े होकर जब मैं खुद सेक्स के विषय पर शोध करने लगी और इसे पढ़ाने भी लगी, तब पता चला कि यौन अनुभव कितने अलग-अलग तरह के होते हैं. अब मैं बचपन में पेट में उठने वाले उस अजीब से अहसास को भी नाम दे सकती थी – ठरक! और मुझे ये बहुत पसंद भी है. सोशल मीडिया के ज़रिए ज़ीनत अमान की मेरी ज़िंदगी में वापसी से मैं बहुत ज़्यादा उत्साहित हूं, हां, पर ये वैसा नहीं है जैसा उस वक्त था. ऐसा इसलिए भी कि अब मुझे पता है कि किसी लड़की या महिला को पसंद करने में कोई बुराई नहीं है, ये कोई पाप (या अलग चीज़) नहीं है, जैसा पहले मैं मानती थी.

मैंने भी बहुत सारे लोगों की तरह इंजीनियरिंग की तैयारी की और पढ़ाई की. आजकल आईआईटी की तैयारी करने वाले स्टुडेंट्स पर बने सीरीज़ देखती हूं तो मुझे उनपर (और खुद की जवानी के दिनों पर) एक गहरा अफसोस होता है. यूं ही मैंने युवा होने के शुरुआती अहसास जैसे, अचानक आवाज़ में तबदीली आ जाना या चेहरे पर पिम्पल होना – को ज़बरदस्ती इस पढ़ाई के दबाव में गंवा दिया. (अब सोचती हूं तो ये ज़िंदगी के सबसे बड़े रहस्यों में से एक लगता है कि 16 साल की उम्र में अपनी फैंटेसी और ख्वाहिशों को संभाल लिया, लेकिन ऑल इंडिया रैंक के प्रेशर को नहीं संभाल पाई).

20 की उम्र में मेरी सबसे बड़ी ख्वाहिश थी एक नौकरी पाना, और मैंने नौकरी हासिल कर ली. कुछ समय के लिए सब ठीक था, लेकिन फिर सब धीरे-धीरे बिखरने लगा. घर से दूर रहकर जो आज़ादी मैंने पाई थी, उसमें पैसा कमाना और अपनी यौनिक इच्छाओं को पूरा करने की आज़ादी भी जुड़ गई – ये सब मिलकर कुछ ठीक काम नहीं कर रहे थे. (कभी-कभी अच्छी चीज़ों की भी अति हो जाती है!). मैं एक खराब रिश्ते में थी और मुझे वहां से बाहर निकलना पड़ा. मैंने एनजीओ में काम करना शुरू किया. मैं जेंडर आधारित हिंसा, गर्भपात और यौनिक शिक्षा के विषयों पर और आखिरकार बतौर एक सेक्स शोधकर्ता एवं सेक्सुअलिटी एजुकेटर काम करने लगी.

शिक्षक के रूप में, मैं 17 से 19 साल के, ग्रैजुएशन की पढ़ाई कर रहे अमेरिकन स्टुडेंट्स को सेक्सुअलिटी पढ़ाती हूं.

मेरी क्लास में एक दिन एक लड़की ने पूछा, “क्या बलात्कार की कल्पना करना या उसकी फंतासी नैतिक है?”

जब हम घर, परिवार, समुदाय से कोसों दूर, अकेले रह रहे होते हैं तब हमारे विचार भी थोड़ा कम जकड़न महसूस करते हैं. हम, समाज की नज़र में क्या अच्छा है क्या बुरा, इसकी परवाह करना कम कर देते हैं. ऐसे में ‘किसी आदमी को रिझाने या ललचाने में किस तरह की सत्ता महसूस होती है?’ जैसे सवाल आसानी से पूछे और जवाब दिए जाते हैं.

क्या कल्पनाओं या फंतासी की भी कोई सही या गलत दिशा होती है? मेरे लिए इसका क्या मतलब है, जिसके दिमाग में बलात्कार की फंतासियां कब से पल रही हैं? साथ में यह भी सच है कि मैं यौनिक हिंसा से भी गुज़री हूं. क्या सेक्स के एक तरीके के रूप में रेप की कल्पना करना, उसकी इच्छा रखना, ऐसे माहौल में जिसमें एक भरोसे की जगह और एक भरोसेमंद पार्टनर भी है, क्या ये मेरे लिए सही है?

रेप की कल्पना करने के लिए क्या मुझे घृणित महसूस करना चाहिए?

जब मैं उम्र के 20वें साल में थी तब मुझे ऐसा महसूस होता था. मैं क्यों नहीं चाहती थी ‘साफ-सुथरी’ चीज़ें जैसे मिशनरी पोज़िशन या ओरल सेक्स? मुझे अच्छा लगता है कि कोई मुझे काटे, मुझे चोट पहुंचाए, जो मुझपर अपनी ताकत दिखाए, अपना भार मेरे ऊपर डाले, मेरे साथ नाज़ुक तरीके से व्यवहार न करें.

मेरे लिए खुद को डेमीसेक्सुअल मानने का मतलब है कि मेरे लिए किसी भी रोमांटिक या शारीरिक रिश्ते को विकसित करने के लिए महीनों का गहरा भावनात्मक जुड़ाव ज़रूरी है. मैं ये सबकुछ किसी ऐसे व्यक्ति के साथ अनुभव करना चाहती हूं, जिसके साथ मैं विश्वास बना सकूं और जिसके साथ मैं सुरक्षित और आरामदायक महसूस करूं.

“सुनो, ये है तरीका मुझे प्यार करने का. मेरे लिए प्यार की भाषा यही है.”

लेकिन, आप सोच सकते हैं कि ये सब पाना इतना आसान नहीं है. असल में, मैं पुरुषों, खासतौर पर अपने हेट्रोसेक्सुअल पार्टनर्स से एक सवाल पूछना चाहती हूं – क्या तुमने कभी सोचा है कि तुम्हारे साथ पहली डेट पर जाना मेरे लिए कितना खतरनाक हो सकता है? जब मैं पहली बार तुम्हारे घर आने का फैसला करती हूं, तो क्या तुम्हें लगता है कि ये मेरे लिए सुरक्षित है? अगर बिना सुरक्षा के सेक्स होता है, तो क्या तुम यह नहीं सोचते कि यह मेरे लिए कितना जोखिम भरा हो सकता है, जब हमें पता है कि इमरजेंसी कॉन्ट्रासेपटिव्ज़ और गर्भपात की वास्तविकता क्या है? लेकिन शायद ये सब तुम्हारे लिए खतरनाक नहीं है, है ना? खैर, छोड़ो इन “बोरिंग” सवालों को नहीं उठाते हैं, सबका मूड खराब हो जाएगा.

जब मैं एक स्टुडेंट के रूप में अमेरिका आई थी, तब मुझे थोड़े समय के लिए एक प्रेमी मिला था, जो नए अनुभव करने के लिए खुला था. हमारी दूसरी डेट पर, उसने पहली बार चूमते हुए बीच में ही अचानक मेरा गला दबाना शुरू कर दिया. मैं एकदम से घबरा गई और मेरे घबराए हुए दिमाग में एक ही सवाल चल रहा था, “ये क्या कर रहा है?” उसने कभी नहीं बताया कि वह ऐसा करना चाहता है. ऐसे अचानक गला दबाना जैसी कोई चीज़ तो नहीं होती? होता है क्या? मैंने (बहुत धैर्य से) इसके खत्म होने का इंतजार किया ताकि उसके बाद मैं उससे हदों के बारे में बात कर सकूं. लेकिन वह बातचीत कभी हुई ही नहीं. मैं दुबारा उससे मिली भी नहीं, शायद ये उसने ही तय किया था.

रेप फैंटसी के कई कारण हो सकते हैं. मेरा कारण ताकत और सत्ता का आदान-प्रदान है. एक मुस्लिम क्वियर महिला होकर मैं अपने हिंदू हेट्रोसेक्सुअल पुरुष पार्टनर के साथ सक्रिय रूप से इन डायनैमिक्स के बारे में नहीं सोचती लेकिन सत्ता का ये खेल या डायनैमिक्स हमेशा मौजूद रहता है, चाहे वो दिखाई दे या न दिखाई दे. उदाहरण के लिए जब मैं शाहीन बाग के प्रदर्शनों में भाग लेने से डरती हूं या जब मकान मालिक मेरे जैसी मांसाहारी को घर देने से मना कर देते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि मुझे बिरयानी ज़रूर पसंद होगी.

तो, हर तरह के रिश्ते में हमेशा एक सत्ता का खेल भी चलता रहता है और अक्सर ये हमारे आसपास के ढांचों से ही प्रभावित होता है. मेरी दिलचस्पी सेक्स के दौरान इस खेल को दिखाने में हैं लेकिन यह हेट्रोसेक्सुअल पुरुषों को डराता है. शायद उन्हें हदों को पार करने से डर लगता है कि कहीं उनपर रेप का झूठा आरोप न लग जाए.

मेरे किसी भी विषमलैंगिक पार्टनर ने रेप फंतासी का नाटक करने के विचार को लेकर उत्साह नहीं दिखाया.

मेरा एक पार्टनर था जिसके साथ मैं ‘पहला-पहला’ प्यार में थी. वो रेप फंतासी से बहुत सहमता था. बहुत ही डर और घबराहट के साथ वो रेप के झूठे आरोपों के बारे में बात करता. मैं उसकी बात से सहमति का दिखावा करते हुए कहती, “सही बात है, यही तो असली समस्या है, रेप का झूठा आरोप”. यह नहीं कि हर 16 मिनट में भारत में एक रेप केस होता है – उतना ही समय जितना आपको इस लेख को दो बार पढ़ने में लगेगा.

‘कुछ कुछ होता है’ फ़िल्म में शाहरुख खान को रानी मुखर्जी से प्यार करते देखना – वो भी कॉलेज के पहले दिन और सिर्फ बालों को लहराते हुए देखकर ही! तब से मेरे भीतर भी यही ख्वाहिश थी. अपनी पूरी ज़िंदगी मैंने यही चाहा कि मैं पुरुषों के लिए उनकी चाहत बनूं.

बॉलीवुड की कई फ़िल्मों में, लड़कियां केवल शर्म के मारे हंसते हुए अपनी चाहत को ज़ाहिर करती दिखाई देती हैं. पर, अब जब ‘ज़िंदगी ना मिलेगी दोबारा’ फ़िल्म में कैटरीना, ऋतिक को किस करने के लिए उसके पीछे जाती है, तो मुझे भी सक्रिय रूप से कुछ करना था. पर मुझे नहीं पता कि वो कुछ क्या था.

एक शोध के दौरान मेरी एक प्रतिभागी ने कहा था, “मुझे ये नहीं पता था कि हम लड़कों को अपनी पसंद की चीज़ें करने के लिए बोल सकते हैं.” ये बात मेरे अंदर गहरे उतर गई. “जब मुझे यह मालूम ही नहीं कि मैं अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए किसी से कह सकती हूं, तो क्या तब भी मैं आज़ाद हूं?”

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जब मेरी उम्र 20-25 साल की थी तब मैंने ज़्यादातर ऐसे यौन संबंध बनाए जो मेरे लिए सुखद नहीं थे और मुझे अपने माता-पिता से झूठ बोलने की आदत पड़ गई थी. उस समय मैं एक बुरी स्थिति में थी – जो मूल रूप से शोषण था लेकिन मैंने इसे कभी घर पर किसी को नहीं बताया. यह सिलसिला सालों तक चलता रहा. आज भी, सालों की थेरेपी और दवाइयों के बाद, मैं इसे अपने परिवार को नहीं बता पाई हूं.

मैंने बिना किसी की मदद या जानकारी के इमरजेंसी में गर्भनिरोधक गोलियां खा ली थीं (कृपया ऐसा कभी मत करना! अपने आसपास किसी 30 साल या उससे अधिक उम्र की महिला से मदद मांग लेना, वह तुम्हारी सहायता कर देगी). अब पीछे मुड़कर देखती हूं, तो लगता है कि काश उस समय मेरी मां मेरा साथ देने के लिए खड़ी होतीं, भले ही उन्हें यह न पता होता कि क्या कहना है.

मेरे परिवार ने मुझे यही सिखाया कि थोड़ा-बहुत थप्पड़ लग जाना, कुछ एक-दो अफेयर होना, हर रिश्ते का हिस्सा होते हैं, है ना? जब मैं सक्रिय रूप से खतरनाक परिस्थितियों में भाग ले रही थी – जिसे मैं अब इस तरह कहना पसंद करती हूं – तब मैंने उसमें कोई खतरा नहीं देखा था.

मैंने जो देखा, वह था आज़ादी का रोमांच और वर्जित चीज़ों की खोज.

लेकिन आज जब मैं जवान लड़के-लड़कियों को देखती हूं, तो मैं सोचती हूं कि मैं अपने इस दौर में दोबारा कभी नहीं जाना चाहूंगी, चाहे कोई कितने भी पैसे दे दे – वो हौलनाक समय. किसी बड़े का कोई सहयोग नहीं, अपनी उम्र के लोगों द्वारा फैलाई भ्रामक जानकारियां, और माता-पिता की खींची गई सीमा-रेखाओं का हमारी भड़कती यौन इच्छाओं से टकराना – वो वाकई में बहुत गढ़मढ़ समय था.

जीवन भर मुझे मेरे माता-पिता, टीचर, बायलॉजी की किताबें और समाज की अजनबी आंटियां, यौन इच्छाओं के खतरों के बारे में बताती आई हैं लेकिन अगर किसी ने हमें जवानी में यौन इच्छाओं और कल्पनाओं के मज़ेदार पहलुओं के बारे में बताया होता, तो क्या होता? क्या कुछ अलग होता? क्या इससे मेरे रिश्ते उन चीज़ों को लेकर बदल जाते जिन्हें करने की मनाही थी? या खुद को केवल चाहत का पुतला बनाने की इच्छा खत्म हो जाती?

जब मैं सात साल की थी और अपनी रचनात्मक ऊर्जा से गीत लिख रही थी – जो स्तनों और जननांगों के बारे में थे – तो मुझे लगता था कि अगर किसी ने मेरे गाने पढ़ लिए तो मैं शर्म से मर जाऊंगी. काश, मुझे तब पता होता कि ‘चोली के पीछे क्या है’ का असली मतलब क्या है और कि लोग इसी भावना को लिखकर पैसा कमा रहे हैं.

जैसे-जैसे मेरे सबसे गहरे, छिपे हुए ख्वाब मेरे कानों में फुसफुसाते हैं, मैं चाहती हूं कि हम उन इच्छाओं के बारे में और सोचें, जिन्हें हम पूरा करना चाहते हैं और उन इच्छाओं के बारे में भी जिन्हें हम पूरा नहीं करते लेकिन उन्हें भीतर छिपाकर रखते हैं और उन्हें ताकतवर बना देते हैं.

सच तो यह है कि एक ऐसी दुनिया में, जो औरतों, क्वीयर और हाशिए पर रहने वाले लोगों के लिए आनंद को नहीं समझती, हम खुद को ‘एक दानव’ जैसा महसूस कर सकते हैं लेकिन हम यहां हैं, तो क्यों न हम अपनी जंगली कल्पनाओं का आनंद लें, चाहे वे अंधेरे में छिपी हों, रोमांचक हों, या पूरी तरह से सनसनी से भरी हों. मैंने सुना है कि सबसे अच्छा यौन सुख 30 के बाद आता है और अभी तो मैं जवान हूं!

इस लेख का अनुवाद सुमन परमार ने किया है.

  • शाहज़रीन एक शोधकर्ता हैं और औरतों की चाहतों और हिंसा विषय पर काम करती हैं. वो मुम्बई की रहने वाली हैं. उन्हें कला, किताबें और कुत्तें पसंद हैं.

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