2005, में निरंतर संस्था ने केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) के आग्रह पर बच्चों की पाठ्य-पुस्तिकाओं को ‘जेंडर संवेदनशील’ (आधिकारिक आग्रह में यही लिखा था) बनाने का काम किया था. निरंतर संस्था द्वारा तैयार की गई किताबें 15 साल से भारतीय स्कूलों में पढ़ाई जा रही हैं. इस साल 2022 में इनमें से जाति पर कुछ पाठ्यक्रमों को हटा दिया गया है.
पाठ्य-पुस्तिकाओं पर काम करना हमारे लिए एक शानदार अनुभव था. इस अनुभव को हम फ़िल्म ‘मेकिंग टेक्सटबुक फेमिनिस्ट (किताबों को नारीवादी बनाने की ओर)’ के ज़रिए आपके साथ साझा कर रहे हैं. काम को समझने एवं देखने का नज़रिया, मर्दानगी, पाठ्य-पुस्तिका में भाषा की राजनीति एवं सत्ता पर फ़िल्म सटीक उदाहरणों के साथ बात करती है. क्या पाठ्य-पुस्तिकाओं को नारीवादी बनाने का मतलब है उनमें ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं की बात करना या उन्हें हीरो बनाकर पेश करना? वो कौन सी छवियां हैं जो हमें स्कूल की किताबों में दिखाई नहीं देतीं? समानता क्या है और लोकतंत्र में ये किस तरह काम करती है?
इन सवालों के जवाबों के साथ-साथ फ़िल्म में दिप्ता भोग, पूर्वा भारद्वाज और मालिनी घोष हमें पाठ्य-पुस्तिकाओं को नारीवादी बनाने की प्रक्रिया में शामिल महत्त्वपूर्ण विचारों एवं क्षणों से रूबरू करवा रही हैं.
सहयोग : रोज़ा लक्ज़मबर्ग स्टिफ्टंग, दक्षिण एशिया
फिल्म संकल्पना : दिप्ता भोग
फिल्म निर्देशन : सोनाली घोष, जामुन फिल्म्स
कला निर्देशन : सिवनाथ वक्रमबम, जामुन फिल्म्स
फिल्म निर्माता : शबानी हसनवालिया, द थर्ड आई